बिहार में पंचायती राज निकायों के चुनावों को वहां की सरकार ने सहमति दे दी है। बीते दिनों राज्य मंत्रिपरिषद ने भी इस फैसले को अपनी स्वीकृति दी। अब वहां चुनाव होंगे। इस खबर के साथ ही बिहार के गांवों में गतिविधियां बढ़ गयी हैं। जो पहले से निर्वाचित हैं, वे अपने पुनर्निर्वाचन को लेकर रणनीतियां बनाने में जुट गए हैं तो उनके मुकाबले में अन्य भी ताल ठोंकने लगे हैं। यह कोई असमान्य बात नहीं है। ऐसा लगभग हर चुनाव में होता है। पंचायती राज निकाय चुनावों में भी होता है।लेकिन जो विधायक और सांसदों के चुनावों में नहीं होता है, वह पंचायत चुनावों में अभी से शुरू हो गया है। गांवों में तनाव है।
[bs-quote quote=”1990 के बाद बिहार में दलितों और पिछड़ों को लेकर नॅरेटिव में बदलाव हुआ है। पहले इन जातियों के लोग केवल मतदाता हुआ करते थे। चूंकि विधानसभा और लोकसभा चुनावों का दायरा बड़ा होता है तो संख्या में कम लेकिन संसाधनों से मजबूत जातियों का प्रभाव उतना नहीं दिखता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं पिछले दस दिनों से गौर कर रहा हूं कि बिहार के गांवों में हत्या के मामलों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई है। पटना और बिहार के अन्य जिलों से प्रकाशित अखबारों के लिए ऐसी खबरें सरकार विरोधी खबरें मानी जाती हैं, लिहाजा प्रमुखता से प्रकाशित नहीं किया जाता है। मेरे संज्ञान में पिछले दस दिनों में हत्या के 14 मामले लाए गए हैं। इन्हें मेरे संज्ञान में लाने वाले बिहार के मेरे पत्रकार साथी हैं जो अलग-अलग जिलों से हैं। सामान्य तौर पर इन्हें मुफस्सिल पत्रकार कहा जाता है। इन पत्रकारों की भी अपनी कहानी है। कहानी कहना सही नहीं होगा, यह हर महीने सरकारी विज्ञापनों के जरिए करोड़ों रुपए कमाने वाले अखबार मालिकों की धूर्तता है। गांवों में काम करनेवाले पत्रकारों को वेतनादि नहीं दिए जाते। इसके बदले उनसे लाखों रुपए के विज्ञापन लाने का ठेका दिया जाता है।
अभी हाल ही में बिहार के एक प्रतिष्ठित अखबार से जुड़े एक वरिष्ठ ग्रामीण पत्रकार साथी ने फोन पर जानकारी दी कि अखबार ने उन्हें एक महीने में बीस लाख रुपए का लक्ष्य दिया है जबकि जिले में उस अखबार का सर्कूलेशन मात्र 500 है।
खैर, ग्रामीण पत्रकारों के संघर्ष और अखबार मालिकों की धूर्तता की चर्चा कभी और करूंगा। आज तो पंचायत चुनाव और हिंसा पर ही ध्यान केंद्रित करता हूं।
चुनावी हिंसा से संबंधित आखिरी सूचना मुझे कल देर शाम मिली। वह भी मेरे गृह शहर पटना के बिहटा इलाके से। वहां बीते शुक्रवार को नरहना गांव के निवासी पिंटू साव की हत्या दिनदहाड़े कर दी गयी। उन्हें तीन गोलियां मारी गयीं। एक छाती, एक पेट और एक माथे में। पिंटू साव की मौत घटनास्थल पर ही हो गयी। जब उनके साथ यह घटना घटित हुई तब वह अपनी कार से किसी भोज से अपने घर लौट रहे थे। उनके साथ कुछ लोग और भी कार में सवार थे। लेकिन अपराधियों ने केवल पिंटू साव को ही गोलियां मारी। इसका मतलब यह कि वे केवल पिंटू साव की ही हत्या करना चाहते थे। यदि यह लूटपाट का मामला होता या फिर कोई और कारण होता तो निश्चित तौर पर अन्य भी उनके निशाने पर होते।
पिंटू साव के बारे में जो जानकारी मुझे मिली है, वह चौंकाने वाली है। वे उस इलाके में अपनी पत्नी आशा देवी को मुखिया बनवाने में सफल रहे थे, जहां भूमिहारों का गढ़ है। पिछली पंचायत चुनावों में उन्होंने यह कारनामा किया था। बेहद साधारण से दिखने वाले इस नौजवान ने ग्रामीण पॉलिटिक्स की सारी बाधाओं और भूमिहारों की साजिशों को व्यर्थ साबित करते हुए जीत हासिल की थी। वजह यह रही कि जिस सीट से उन्हें जीत मिली, वह महिलाओं के लिए आरक्षित थी और वे स्वयं चुनाव नहीं लड़ सकते थे। जीत के बाद भले ही औपचारिक तौर पर उनकी पत्नी मुखिया थीं, लेकिन सक्रिय पिंटू साव ही रहे। सारे फैसले वे ही लेते और उनकी पत्नी “रबर स्टांप” रहीं।
वैसे यह कोई एक मामला नहीं है कि महिला मुखिया के बदले उनके पति बड़ी शान से खुद को मुखिया पति कहते फिरते हैं। यह एक और चर्चा का विषय है कि महिलाएं ऐसी क्यों हैं और हुक्मरान इसे जानते हुए भी इग्नोर क्यों करते हैं।
मैं तो पिंटू साव हत्याकांड की बात कर रहा हूं। कल शाम जब यह खबर मिली तो मैंने पूछा कि इस मामले में पुलिस की क्या भूमिका रही है? क्या किसी की गिरफ्तारी हुई है? मुझे जानकारी दी गयी कि परिजनों के द्वारा अभी तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराया गया है। इसलिए पुलिस ने इस मामले में अपनी ओर से कोई कार्रवाई नहीं की।
अब यह बात चौंकाने वाली है और बिहार में लॉ एंड आर्डर की बदहाली को बयां करती है। एक आदमी जिसका शरीर गोलियों से छलनी कर दिया जाता है। उसकी मौत के बाद गांव के लोग राष्ट्रीय राजमार्ग को घंटों जाम रखते हैं, उस मामले में पुलिस इस बात का इंतजार कर रही है कि परिजन इस मामले में आवेदन दें। जबकि यह काम पुलिस का है कि वह शव को अपने कब्जे में लेकर उसका अंत्यपरीक्षण करवाए और अपनी तरफ से मुकदमा दर्ज कराए।
परिजनों ने एफआईआर दर्ज क्यों नहीं करवाया? इस सवाल का जवाब और चौंकाने वाला है। हालांकि जवाब देने वाले मेरे पत्रकार मित्र ने अपना मंतव्य दिया है कि पूरे इलाके में चुनाव को लेकर गहमागहमी है और इस बार भूमिहार किसी दूसरी जाति को मुखिया नहीं बनने देंगे। तो यह पूरा मामला केवल एक पंचायत का मुखिया बनने तक सीमित नहीं है। पिंटू साव की हत्या केवल इस वजह से कर दी गयी है कि वह बनिया समाज का था जो बिहार में पिछड़ा वर्ग में शामिल है।
[bs-quote quote=”पंचायत चुनावों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे कई कारण हैं। स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार भी इसमें शामिल है। लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह कि पंचायत से विधानसभा और फिर लोकसभा पहुंचने का रास्ता बनता जाता है। बिहार सरकार के मंत्रिपरिषद में ही पांच ऐसे मंत्री हैं जो सीधे पंचायत से विधानसभा पहुंचे और फिर मंत्री बने।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, 1990 के बाद बिहार में दलितों और पिछड़ों को लेकर नॅरेटिव में बदलाव हुआ है। पहले इन जातियों के लोग केवल मतदाता हुआ करते थे। चूंकि विधानसभा और लोकसभा चुनावों का दायरा बड़ा होता है तो संख्या में कम लेकिन संसाधनों से मजबूत जातियों का प्रभाव उतना नहीं दिखता। एक वजह यह भी कि विधानसभा और लोकसभा का चुनाव राजनीतिक दलों के आधार पर होते हैं तो कौन प्रत्याशी होगा और कौन नहीं, इसका फैसला राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं द्वारा किया जाता है। लेकिन पंचायत चुनावों में ऐसा नहीं होता। आदमी खुद ही चुनाव के लिए खुद को चुनता है। एक चुनाव में कितना खर्च होगा, इसके लिए आवश्यक धनराशि का इंतजाम करता है और चुनाव में कूद पड़ता है। संख्या में कम होने के कारण पंचायतों में ऊंची जातियों के लोगों को निम्न जातियों के उम्मीदवारों की तुलना में अधिक मेहनत-मशक्कत करनी होती है। और बात जब आमने-सामने की लड़ाई की हो तो जीत निम्न जातियों के उम्मीदवारों को ही मिलती है।
एक बात और। पंचायत चुनावों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे कई कारण हैं। स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार भी इसमें शामिल है। लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह कि पंचायत से विधानसभा और फिर लोकसभा पहुंचने का रास्ता बनता जाता है। बिहार सरकार के मंत्रिपरिषद में ही पांच ऐसे मंत्री हैं जो सीधे पंचायत से विधानसभा पहुंचे और फिर मंत्री बने। दो सांसद भी ऐसे ही हैं। ऐसा होना कोई बुरी बात नहीं है। यह होना ही चाहिए। परंतु, हिंसा और जातिगत उन्माद?
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं