Wednesday, April 2, 2025
Wednesday, April 2, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमराजनीतिविपक्षी एकता के मंच पर कैसी होगी दलित राजनीति की चाल?

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

विपक्षी एकता के मंच पर कैसी होगी दलित राजनीति की चाल?

लोकसभा चुनाव-2024 को लेकर विपक्ष की तैयारियां तेज होती जा रही हैं। बिहार की राजधानी पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश भर के प्रमुख विपक्षी दलों को आमंत्रित किया है। इस बैठक को विपक्षी एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, तृणमूल नेता […]

लोकसभा चुनाव-2024 को लेकर विपक्ष की तैयारियां तेज होती जा रही हैं। बिहार की राजधानी पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश भर के प्रमुख विपक्षी दलों को आमंत्रित किया है। इस बैठक को विपक्षी एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, तृणमूल नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन, झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदि भाग ले रहे हैं। जम्मू-कश्मीर से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूब मुफ्ती, राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार, राजद से लालू यादव सहित कुल 15 दलों के नेता भाग ले रहे हैं।

बैठक में जो लोग नहीं शामिल हुए हैं वे भी महत्वपूर्ण हैं। ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक, जिनसे मिलने नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव स्वयं भुवनेश्वर गए थे, ने पहले दिन से ही इस मोर्चे से दूरी बना ली थी। वैसे भी नवीन के पिता बीजू पटनायक जीवनपर्यंत आरक्षण के विरोधी बने रहे और ओडिशा में आज भी आदिवासियों और दलितों के मुद्दे पर सरकार का दृष्टिकोण बहुत प्रगतिशील नहीं है। बड़ी-बड़ी कंपनियों के ओडिशा आने से आदिवासियों के हितों का जो नुकसान हुआ है उस विषय में तो राज्य सरकार बिल्कुल ही चुप रही है। दरअसल, नवीन पटनायक और अन्य कई का सामाजिक न्याय की राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है और उनका वैचारिक मतभेद मूलतः कांग्रेस से हैं और भाजपा उनकी पहली पसंद बनती है। नवीन इस मोर्चे से तभी जुड़ सकते हैं जब भाजपा उनकी मुख्य विपक्षी होगी। वह कभी भी नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस ओडिशा में दोबारा जीवित हो। यही समस्या अन्य पार्टियों की भी है जो इस मोर्चे से इसलिए नहीं जुड़ना चाहते हैं क्योंकि कांग्रेस इसमें है और वह उनके मुख्य विपक्षी हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव कांग्रेस को अपने बगल में एक छोटी सी पार्टी बनाकर रखना चाहते थे पर वह कांग्रेस को खत्म नहीं कर पाए और जैसे-जैसे तेलंगाना में कांग्रेस खड़ी हो रही है वैसे-वैसे के सी आर की मुसीबतें बढ़ रही हैं। कांग्रेस ने अपना एजेंडा बना लिया है और यही कारण है कि केसीआर अब इस अलायंस में नहीं आना चाहते। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस से ही निकल कर बड़े हुए हैं। वह अपने राज्य के क्षत्रप हैं, इसलिए वह कभी भी कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाएंगे। इसके अलावा जगन उन दिनों को नहीं भूलते जब उन्हें कांग्रेस पार्टी ने सम्मान नहीं दिया।

कांग्रेस के अंदर बहुत से ग्रुप काम कर रहे थे जो चाहते थे कि सोनिया गांधी जगन को लेकर गलत निर्णय लें। नतीजा यह हुआ कि जगन को पार्टी छोड़नी पड़ी। एक और हकीकत यह है कि जगन बहुत से मामलों में फंसे हैं इसलिए उन्हें केंद्र सरकार की मदद की दरकार है। जगन तब तक कांग्रेस के साथ नहीं आएंगे जब तक कांग्रेस या यूपीए केंद्र में सरकार के तौर पर नहीं आते। कांग्रेस के मजबूत होने पर ही जगन कांग्रेस के साथ आएंगे ताकि अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकें। वैसे भी यदि चंद्रबाबू नायडू बी जे पी की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं तो जगन रेड्डी के पास कांग्रेस के साथ आने के अलावा कोई और चारा नहीं है।

[bs-quote quote=”पिछड़े वर्ग के लोग और दलितों के सामाजिक अंतर्द्वंद से अधिक उनके नेताओं  की अति महत्वाकांक्षा इस गठबंधन को बनने नहीं दे रही है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को लगता है कि किसी भी गठबंधन के चलते उनकी सीटें कम नहीं होनी चाहिए। अखिलेश को लग रहा था कि बसपा से गठबंधन टूटने के बाद अब वह अकेले ही विपक्ष को संभाल लेंगे और पूरी 80 सीटों पर उनकी दावेदारी पक्की होगी तो उनके लिए अधिक से अधिक सीटें निकालना आसान होगा. लेकिन ऐसा संभव नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अरविन्द केजरिवल के विषय में जितना कम बोलें उतना अच्छा। केजरीवाल को दिल्ली ऑर्डनन्स के संबंध में कांग्रेस की जरूरत है। इस गठबंधन के जरिए वह चाहते हैं कि कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में चुनाव न लड़े। ममता बनर्जी भी कांग्रेस की बढ़ती ताकत से परेशान हैं लेकिन मोदी ने उन्हें इतनी बड़ी धमकी दे रखी है कि बंगाल में और कोई चारा नहीं है। भाजपा इन प्रांतों में  तब तक मजबूत रहेगी जब तक दिल्ली में उनकी सरकार है। एक बार भजपा का केंद्र से बाहर होने का मतलब है बहुत से स्थानों पर उसकी पार्टी को परेशानी।

डीएमके का कांग्रेस के साथ गठबंधन बना हुआ। ऐसे ही महाराष्ट्र और बिहार मे गठबंधन पहले से ही मौजूद है। गठबंधन के लिए सबसे परेशानी वाला क्षेत्र उत्तर प्रदेश है जहाँ समाजवादी पार्टी ने अपने इरादे पहले ही जाहिर कर दिए थे कि वह केवल छोटे दलों से ही गठबंधन करेगी। राष्ट्रीय लोक दल के साथ उसका गठबंधन लगभग टूट चुका है। अखिलेश कांग्रेस को बौना साबित करना चाहते थे, लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि जयंत चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की शक्ति को पहचान रहे हैं। विशेषकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद जिसे जाट बेल्ट में बहुत समर्थन मिला है। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने विपक्ष के हौसलों को मजबूत किया है और धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का संदेश सीधे सीधे भेजा है। सिद्धारामैया और डीके शिव कुमार यदि ईमानदारी से कर्नाटक को एक साफ सुथरी सरकार दे पाए तो उनका माडल सामाजिक न्याय की शक्तियों के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण संदेश देगा। कांग्रेस तो अब गैर ब्राह्मणीकरण के रास्ते पर है। सवर्णों का वर्ग हालांकि अभी भी कांग्रेस में बना है और कोई भी राजनैतिक दल अपने से जुड़े लोगों को छोड़ते नहीं है, फिर भी, राहुल गांधी की सफलता इस बात में रही है कि अंत में वही कांग्रेस और उसके चालाक नेता जिन्होंने पप्पू के रूप में प्रचारित आज उनकी वैचारिक शक्ति का लोहा मान रहे हैं। कर्नाटक के बाद अब तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव हैं जहाँ कांग्रेस और भाजपा में मुख्य मुकाबला है। यदि कांग्रेस अपने दो राज्य बचा पाई और दो में सरकार बनाने में कामयाब होती है तो फिर वह 2024 में एक बहुत बड़ी जीत की और अग्रसर हो सकती है। हरियाणा में कांग्रेस के सत्ता में आने के आसार हैं। महाराष्ट्र में भी महाविकास आघाडी में यदि अच्छा तालमेल रहेगा तो बीजेपी की हालत खराब हो सकती है। झारखंड में भी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठबंधन अच्छे से चल रहा है। केरल में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और वाम दलों के बीच है। तमिलनाडु में डीएमके, कांग्रेस, वांम दलों और अन्य पार्टियों का गठबंधन मजबूत है।

यह भी पढ़ें…

मोदी सरकार को सत्ता से हटाना हर अंबेडकरवादी का लक्ष्य होना चाहिए: शाहनवाज़ आलम

सवाल यह है कि क्या हम इसे 2024 की मुकम्मल तैयारी कह सकते हैं? मैं कहूँगा, नहीं। नीतीश कुमार के इस गठबंधन में कमजोर कड़ी है किसी भी अम्बेडकरी या दलित समाज का नेतृत्व करने वाली पार्टी का। प्रकाश अंबेडकर हों या मायावती, दोनों इस गठबंधन में नहीं हैं। बताया गया कि इस गठबंधन में बसपा को नहीं बुलाया गया है। बिहार में पहले ही जीतनराम मांझी की पार्टी गठबंधन से अलग हो गई है। गठबंधन ने राम विलास पासवान के बेटे को भी नहीं बुलाया है। इससे इस गठबंधन की एक सबसे बड़ी कमी दिखाई दे रही है वह है दलित प्रतिनिधित्व और पार्टियों के रुख के अनुसार तो इस गठबंधन में दलितों के प्रश्न पर बेहतर काम करने वाली पार्टी कांग्रेस ही दिखाई दे रही है।

भारत में किसी भी पार्टी के लिए न केवल सभी समुदायों का सहयोग और भरोसे का होने जरूरी है अपितु दलितों की सम्मान सहित भागीदारी के बिना उसका जीतना बहुत मुश्किल होगा। तृणमूल से लेकर राजद, सपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस सभी लगभग एक या दो राज्यों की पार्टिया हैं और अपने राज्य से आगे उनका कोई जनाधार नहीं है लेकिन बसपा या कोई भी अम्बेडकरी पार्टी जनाधार न होने के बावजूद भी दलितों को अन्य राज्यों में गठबंधन की ओर आकर्षित कर सकती हैं। बसपा हालांकि उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रह गई है लेकिन तेलंगाना में उसके अध्यक्ष आर के प्रवीण कुमार बेहद ही लोकप्रिय व्यक्ति रहे हैं और राजनीति में आने से पहले उनका एक शानदार कैरियर रहा है और दलित बच्चों के लिए उनके बनाए अंबेडकर छत्रवास तो देश भर के लिए एक माडल हैं।

चाहे तमिलनाडु यो या बिहार अथवा उत्तर प्रदेश, सामाजिक न्याय के नाम पर काम करने वाली पिछड़े वर्ग के नेताओ की अधिकांश पार्टियों का रवैया दलितों के प्रति बेहद ही नकारात्मक रहा है। उनकी ओर से कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किए गए हैं कि अम्बेडकरी आंदोलन के लोगों को उसमे शामिल किया जाए या दलितों के साथ कोई बात की जाए। नीतीश कुमार ने महादलित का नारा दिया लेकिन कुछ किया नहीं। राजद ने भी इस संदर्भ मे कोई विशेष प्रयास नहीं किया और दलितों की भूमिका उसमे केवल रस्म अदायगी तक सीमित कर दी। लालू और नीतीश दोनों ने ही अपने अहम के चलते राम विलास पासवान को विपक्षी कैम्प में डाला। तमिलनाडु में भी दलितों की स्थिति पर सवाल खड़े हुए है हालांकि मुख्यमंत्री स्टालिन इस संदर्भ में कई सख्त कदम उठा चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि ये पार्टियां अपने पिछड़े वर्ग के कैडर के दबाब में  रहती हैं और इस कारण दलितों के ऊपर हो रहे अत्याचारों पर कोई बहुत मजबूत स्टैन्ड नहीं लेती हैं। हालांकि स्टालिन और लालू यादव का इस संदर्भ मे रिकार्ड अच्छा है। इस संदर्भ में सबसे खराब रिकार्ड समाजवादी पार्टी का रहा है। अखिलेश यादव ने पिछले दो वर्षों में दलितों को अपनी और लाने के थोड़ा प्रयास किये लेकिन हकीकत ये है के वह केवल सांकेतिक थे।

यह भी पढ़ें…

जातीय आग में जलता हुआ मणिपुर, गुजर गए पचास दिन

पिछड़े वर्ग के लोग और दलितों के सामाजिक अंतर्द्वंद से अधिक उनके नेताओं  की अति महत्वाकांक्षा इस गठबंधन को बनने नहीं दे रही है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को लगता है कि किसी भी गठबंधन के चलते उनकी सीटें कम नहीं होनी चाहिए। अखिलेश को लग रहा था कि बसपा से गठबंधन टूटने के बाद अब वह अकेले ही विपक्ष को संभाल लेंगे और पूरी 80 सीटों पर उनकी दावेदारी पक्की होगी तो उनके लिए अधिक से अधिक सीटें निकालना आसान होगा. लेकिन ऐसा संभव नहीं है।

चाहे गठबंधन में बसपा को बुलाए या नहीं, व्यक्तिगत स्तर पर समीकरण बन सकते हैं। मैंने बहुत पहले कहा था कि बसपा और कांग्रेस यदि लंबे समय के लिए गठबंधन करें तो देश में हवा बदल सकती है। बसपा उत्तर प्रदेश में मजबूत है और कांग्रेस भी मजबूती की और अग्रसर हो रही है। दोनों का गठबंधन मध्य प्रदेश, राजस्थान, और तेलंगाना में दोनों ही पार्टियों को मजबूती दे सकता है। खबर तो यह भी थी की बसपा और कांग्रेस की अंदर खाने बातें चल रही हैं और तेलंगाना मे इस संदर्भ मे कोई बात हुई है लेकिन बहिन जी ने कह दिया कि उनकी पार्टी कोई गठबंधन नहीं करेगी। मेरा कहना है कि बसपा को एकला चलो की पॉलिटिक्स से बाहर निकलना होगा। ये कहना कि कांग्रेस और भाजपा एक हैं, राजनीति को अति साधारणीकृत करना है। हम सब जानते हैं कि कांग्रेस का सवर्ण-मय इतिहास रहा है लेकिन उसी पार्टी ने संवैधानिक मूल्यों को अंगीकार भी किया है। देश में सबसे पहले दलित पिछड़े वर्ग और मुसलमानों के मुख्यमंत्री कांग्रेस के समय में आए हैं। आज अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और सिद्धारमैया जैसे लोग पिछड़े वर्ग से आते हैं। कांग्रेस ने तो चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन जाटों के विद्रोह से वह हार गए। इस प्रकार किसी भी पार्टी के लिए प्रयोग करना मुश्किल होता है। फिर भी कांग्रेस बदलाव की ओर है और पार्टी के अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे का होना एक बहुत बड़ा संकेत करता है कि यूपीए गठबंधन की स्थिति यदि सरकार बनाने की होती है तो देश को  दलित वर्ग से प्रधानमंत्री भी मिल सकता है और खड़गे उसके लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार भी हैं और राहुल गांधी उन्हे पूरा समर्थन देंगे और सहयोग करेंगे।

पटना की इस बैठक पर हम सबकी नजर बनी हुई है। उम्मीद है कि ममता, अखिलेश  और केजरीवाल सही निर्णय लेंगे और गठबंधन को मजबूत करेंगे क्योंकि बिहार, झारखंड, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में तो गठबंधन पहले से ही मजबूत है। जरूरत है उत्तर प्रदेश और बंगाल में इसकी मजबूती की और इसके अलावा दलितों को साथ लेने की। यदि सामाजिक न्याय के ये दल दलितों को अपने साथ नहीं ले पाते हैं तो ये हकीकत है कि जिन राज्यों में दलितों की अपनी पार्टिया हैं, वहाँ वे उन्हें वोट करेंगी लेकिन जहाँ नहीं हैं वहां उनका वोट कांग्रेस को जाएगा। फिलहाल हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक दलों को गंभीरता दिखानी होगी ताकि देश में लोकतंत्र बच सके और पटना से यदि कोई कंक्रीट एक्शन प्लान बनता है तो ये हम सबके लिए अच्छा होगा।

vidhya vhushan

विद्या भूषण रावत जाने-माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।