चंदौली, डीडीयू नगर। पड़ाव से डीडीयू नगर (मुगलसराय) जाने वाले मार्ग पर राहगीरों को छाँव देने वाले सैकड़ों हरे-भरे पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं। इस मार्ग पर फोर लेन सड़क का काम तेजी से चल रहा है। पेड़ कटवाने वाले ठेकेदार रामू काफी खुश नज़र आ रहे थे, क्योंकि उन्हें इस काम के लिए सरकार की तरफ से मोटी रकम मिलना तय हुआ है। वहीं, पड़ाव से लगभग सात किलोमीटर दूर बसी चंधासी कोयला मंडी में काम करने वाले मजदूर धूल भरी ज़िंदगी के बीच और भी चिंतित हैं। उन्हें डर सता रहा है कि सड़क चौड़ीकरण की वजह से हमारा क्या होगा? सड़क चौड़ीकरण से कोयला मंडी का दायरा और कम हो जाने की बात सामने आ रही है। यहाँ के मजदूरों के आगे कोरोनाकाल के बाद एक बार फिर ‘रोटी’ का संकट सामने आ जाएगा। वे कहाँ जाएंगे? कौन काम देगा? पैसे के लिए किसके सामने गिड़गिड़ाएँगे? परिवार का क्या हाल होगा? ऐसे कई सवालों से उनका मन दुखी हो जाता है। चूंकि सरकार ने ऐसे मजदूरों के लिए कई योजनाएं चलाईं हैं, लेकिन उनके बारे में चंधासी कोयला मंडी के अधिकतर मजदूरों को कुछ भी नहीं मालूम। सरकार के कागजी दावों के बीच हालत यह है कि कोयला मंडी के अधिकतर मजदूरों के न तो आधार कार्ड बने हैं और न ही राशन कार्ड।
अंदर की सड़कों और रहवासियों की बात की जाए तो यहाँ के लोग अधिकतर समय अपने घरों के कमरों में ही बिताते हैं। घर के बाहर और छत पर जाने का मतलब कपड़े और शरीर की गंदगी के साथ तमाम तरह के रोगों को ले आना। बच्चे-बूढ़े भी खेल-टहल नहीं सकते। हमेशा कोयले की कालिख हवा में तैरती रहती है। घर की छतें और दीवाल हर दिन काली हो जाती हैं। चबूतरों पर भी नहीं बैठा जा सकता। गलियों में भी कालापन दिखाई देता है। बाहर से घर पर आने के बाद जूते-चप्पल को अच्छी तरह साफ कर अंदर लाना होता है। कपड़ों को साफ करना पड़ता है। चेहरे के साथ हाथ-पैर धोने पड़ते हैं, जिससे पानी की भी खपत बढ़ जाती है।
चंधासी मंडी में सड़क किनारे कोयले की राख के ऊपर काली प्लास्टिक की मड़ई डालकर अपना जीवनयापन कर रहे मजदूरों का भी जीवन काला यानी अंधकारमय ही रहता है। ऐसे ही एक मड़ई में कुछ मजदूर दोपहर का खाना खा रहे थे। बर्तन और कपड़ों के साथ उनकी रोटियों पर भी काली धूल की हल्की-हल्की परत जमी हुई थी, लेकिन सभी मजदूर बड़े चाव से भोजन कर रहे थे। भोजन के बाद मजदूर श्याम चौहान ने मीडिया और पत्रकार का नाम सुनते ही बड़े ही सम्मान के साथ मुझे मड़ई में रखी चौकी पर बिठाया। उनके मायूस चेहरे पर मुसकान बिखर आई थी। लेकिन मंडी में काम के बाद मिलने वाली मजदूरी और मजदूरों के प्रति सरकार की उपेक्षा से वह नाराज़ हैं। खुद को उपेक्षित समझकर वह मजबूरी में मजदूरी का बोझ ढो रहे हैं।
37 वर्ष और सात महीने के श्याम चौहान ने बड़ी ईमानदारी से अपनी उम्र बताई। श्याम चंधासी मंडी में पिछले 23 साल से काम कर रहे हैं। बचपन से ही गरीबी का दंश झेल रहे श्याम ने 14 साल की उम्र में ही मंडी में ज़मीन से कोयले की राख साफ करने से अपने काम की शुरुआत की थी। आज इनकी हथेलियों में घट्ठे पड़े गए हैं, रेखाओं के बीच कालिख लगी रहती है जो धोने पर भी साफ नहीं होती। श्याम ने 40 रुपये से मजदूरी शुरू की थी। आज वह कभी 400 रुपये, तो कभी 370 रुपये तो कभी 350 रुपये कमाते हैं। लेकिन श्याम यह प्रतिदिन नहीं कमा पाते। यही हालत लगभग सभी मजदूरों की है। उनके अनुसार, शायद ही किसी मजदूर को प्रतिदिन काम मिलता होगा। भारत के श्रम कानून को लेकर श्याम बताते हैं कि ‘थोड़ा-बहुत मालूम है लेकिन ऐसा ‘खेल’ हो गया है कि इसका कोई फायदा नहीं मिलता।’ ‘खेल’ का मतलब पूछने पर श्याम बताते हैं कि लोग सिर्फ ‘अपनों’ को ही काम देते हैं। इसे एक साथ ‘खाने-पीने’ वाली बात से भी समझा जा सकता है। तीन बेटियों के पिता श्याम का अबतक राशन कार्ड, श्रम कार्ड और आयुष्मान कार्ड नहीं बना है। जबकि इन सभी योजनाओं को जरूरतमंदों तक पहुँचाने के लिए सरकारी मशीनरियों द्वारा अभियान भी चलाया जाता है, बावजूद इसके यह सच कई सवाल उठाता है।
बातचीत में श्याम ‘सफेदपोशों’ को भी घेरते हैं। वह बताते हैं कि ‘वोट न देने पर सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं। बीमारी के सवाल पर श्याम बताते हैं कि साहब! मैं अगर खंखार कर थूक दूँगा तो आप डर जाएँगे। मेरे थूक से करखा (कालिख) निकलता है। यह गले और नाक दोनों से निकलता है। इससे बचने के लिए मुँह बाँधकर काम भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि साँस लेने में दिक्कत होने लगती है। मंडी में ज़्यादातर मजदूर अपनी किशोरावस्था से लेकर 25-30 साल तक ही काम कर सकते हैं, उसके बाद हिम्मत नहीं बचती। आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए ठेला-खोमचा लगाकर गुज़र-बसर करना पड़ता है। बावजूद इसके ज़िंदगी की ग़रीबी दूर नहीं होती। रोज़ कुआँ खोदकर पानी निकालने की तर्ज़ पर ज़िंदगी चल रही है।
श्याम बताते हैं कि ‘जब तक शरीर में जान है तबतक मज़दूरी करते रहेंगे।’ बच्चों को यह काम सौंपने के सवाल पर वह कहते हैं कि ‘मैं मरणसेज पर हूँ, भगवान से यह मनाऊँगा कि कोई भी यह काम न करे। शोषण और उपेक्षा, नहीं मजबूरी में हम यह काम कर रहे हैं। पेट के लिए जीना तो होगा ही। अगर मैं दूसरे के घर पर जाऊँगा तो दो दिन काम मिलेगा बाकी छह दिन बैठना पड़ेगा। दो दिन पेट तो भर जाएगा लेकिन छह दिन भूखा रहना पड़ेगा।’ श्याम की तीनों बेटियाँ क्रमश: 12, 10 और आठ साल की हैं, जो सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं।
कोरोनाकाल में श्याम चौहान ने काफी जद्दोजहद के साथ जीवनयापन किया। वह बताते हैं कि ‘वह समय काफी दर्दनाक था। मैंने भिक्षा माँगकर अपने परिवार का पेट भरा है। कुछ सामाजिक संस्थाएँ तीन-चार दिन पर आती थीं और थोड़ा सामान देकर सिर्फ फोटो खिंचवाकर चली जाती थीं। उस सामान से हमारा गुज़ारा ज़्यादा दिन तक नहीं चलता था।’
सरकारी सहायता मिली कि नहीं? इस सवाल पर श्याम बताते हैं कि ‘राशनकार्ड ही नहीं है तो क्या सहायता मिलेगी।’ उन मजदूरों की मड़ई में एक पंखा, जो उस समय गर्म हवा दे रहा था, के साथ एक ही बत्ती एचएआई जिसका बिल उनके मालिक देते हैं। प्रत्येक मज़दूर उस मड़ई का पाँच सौ रुपये किराया देता है। एक मड़ई में पाँच से छह मजदूर रहते हैं। एस प्रकार उस मड़ई का किराया ढाई-तीन हज़ार लिया जाता है।
हर मौसम में मजदूरों को मड़ई में अलग-अलग मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। ज़्यादातर दिक्कत इन्हें बारिश में होती है। सड़क का काला कीचड़ इनकी मड़ई में नीचे से घुसता है, जिससे जमीन पर रखा सामान ख़राब होने का भय बना रहता है। उसे बचाने के लिए वे सामानों को मड़ई में अपनी चारपाई पर रख लेते हैं। इस दौरान उनको बैठकर अपनी नींद पूरी करनी पड़ती है।
उसी मड़ई में 60 वर्षीय बिहारी भारती सब्जी में दाल मिलाकर कुछ रोटियाँ खा रहे थे। यहाँ सभी मजदूर रात का बचा खाना सुबह खाकर काम को चले जाते हैं। दोपहर के समय इनका चूल्हा जलता है, तब ये गरम खाना खाते हैं। रात के समय ट्रक आने पर जल्द से जल्द उसका कोयला खाली करना पड़ता है। इसके लिए ड्राइवर भी मजदूरों को पाँच-छह सौ रुपये ‘ऊपरी’ दे देते हैं। इन सब बातों का ज़िक्र करते हुए बिहारी बताते हैं कि ‘वह 15 वर्ष की उम्र से मंडी में काम कर रहे हैं।’ परिवार चलाने की मजबूरी में उन्होंने 20 रुपये मजदूरी से काम की शुरुआत की थी। मालिकों को चाय-पान पहुँचाने के साथ वह यहाँ के कई कोयला मालिकानों और भट्ठियों में काम कर चुके हैं। बिहारी के परिवार में पत्नी के अलावा चार बेटियाँ और तीन बेटे हैं। 20 वर्ष की अवस्था में बिहारी की शादी हो गई थी। उस समय से अब तक की कमाई से बिहारी दो बेटों और एक बेटी की शादी कर चुके हैं। बिहारी के दो बेटे छोटी-मोटी मजदूरी कर अपने परिवार का पालन करने लगे हैं। बाकी बेटे भी ऐसे ही गुज़ारा कर रहे हैं। अन्य दो बेटियों की शादी कैसे होगी? पूछने पर बिहारी बताते हैं कि ‘अपनी इसी मजदूरी और बेटों की सहायता से बेटियों की शादी भी टेढ़े-सोझे हो जाएगी।’ बिहारी को भी श्रम कानून और श्रम मंत्रालय के योजनाओं के बारे में कुछ नहीं मालूम। वह बताते हैं कि ‘मेहनत-मजदूरी करने से कभी फुर्सत ही नहीं मिली और कोई सरकारी आदमी पूछने भी नहीं आता।’ वह बताते हैं कि ‘कोरोनाकाल में कुछ दिनों तक सरकारी खाना मिला था लेकिन बाद में वह ‘दिखावा’ हो गया। कुछ लोग आते, खाना देते और फोटो खींचकर चले जाते।’ इन्होंने भी कोरोनाकाल में खाना वगैरह माँगकर अपना जीवन-यापन किया।
चार दशक के समय में बिहारी भारती ने इसी कालिख से होनी वाली बीमारियों से अपने कई साथियों को मरते देखा है। जूझकर काम भी छोड़ते देखा है। वह बताते हैं कि हम लोग खुद को थोड़ा बचाकर काम करते हैं, लेकिन फिर भी हमें कई बीमारियाँ हो जाती हैं। थूक से कालिख तो निकलती ही है, साथ ही साँस भी फूलने की बीमारी हो गई है। घरेलू उपचार से हम लोग अपनी बीमारियों का इलाज करते हैं। बीमारी जब ज़्यादा लगने लगती है तो काढ़ा पीते हैं या स्थानीय डॉक्टर के पास जाते हैं, वह भी ऐसी जगह जहाँ ‘फीस’ न देनी पड़े।
यही हाल सुधाकर चौहान (20), मनोज चौहान (32) और प्रभाकर कुमार (32) का भी है। सभी यहाँ तकरीबन किशोरावस्था से ही काम कर रहे हैं। हैरत की बात यह है कि देश में बाल श्रम कानून रहते हुए एशिया की सबसे बड़ी कोयला मंडी में लगभग हर मजदूर 13-14 वर्ष के बीच ही अपने मजदूरी की शुरुआत करता पाया गया। बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 में लागू किया गया। उसके बाद भी चंधासी मंडी में कई मजदूर किशोरावस्था से ही काम करते आ रहे हैं।
बाल श्रम की समस्या देश के समक्ष अभी भी एक चुनौती बनकर खड़ी है। सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न सकारात्मक सक्रिय कदम उठा रही है। फिर भी, समस्या के विस्तार और परिणाम पर विचार चल रहा है। मूलत: यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या होने के कारण विकट रूप से गरीबी और निरक्षरता से जुड़ी है।
चंधासी कोल मंडी के अध्यक्ष धर्मराज यादव बताते हैं कि ‘वर्तमान में यहाँ 4000 से 4500 मजदूर काम करते हैं। पहले इनकी संख्या और ज़्यादा थी। कोरोनाकाल के बाद यह संख्या तेजी से घटी है। मंडी में लगभग 100-150 ट्रकों की प्रतिदिन आवा-जाही है। प्रत्येक ट्रक से 25-30 टन माल उतरता है। प्रत्येक ट्रक से कोयला उतारने का ठेका मजदूरों की टोली (8-10) ले लेती है। चार-पाँच घंटे में एक ट्रक खाली हो जाता है।’ मंडी में कितनी भट्ठियाँ चलती हैं यह चंधासी कोल मंडी के अध्यक्ष को नहीं मालूम।
उपेक्षा का शिकार हैं मंडी क्षेत्र की सड़कें
पड़ाव से मुगलसराय तक हो रहे सड़क चौड़ीकरण और कोयला मंडी की स्थिति को लेकर इलाके के पत्रकार विनय वर्मा बताते हैं कि ‘सुभाष पार्क (पचफेड़वा) से लेकर मुगलसराय सिटी तक फोर लेना होना है। उसके आगे की सड़क सिक्स लेन हो जाएगी। चंधासी कोयला मंडी में बहुत पहले से ही सिक्स लेन सड़क है। वर्तमान में हो रहे चौड़ीकरण से पहले भी यहाँ चौड़ीकरण हो चुका है। इससे अधिक कुछ नहीं होना है। अभी यह चौड़ीकरण इसलिए नहीं मालूम हो रहा है कि कोयला मंडी के लोग अपनी ट्रकें खड़ी कर देते हैं। चौड़ीकरण के बाद ट्रकें मेन रोड से काफी किनारे हो जाएँगी। हालांकि, सड़क चौड़ीकरण से आमजन को फायदा यह हो जाएगा कि इस मार्ग से ट्रकों का अतिक्रमण हट जाएगा। सड़कें चौड़ी हो जाएँगी। उड़ रही कोयले की कालिख भी थोड़ी कम हो जाएगी।’ विनय वर्मा बताते हैं कि ‘चंधासी कोयला मंडी में धूल के उड़ रहे गुबार के समानांतर एक और समस्या है। यहाँ की कनेक्टिव सड़कों की दुर्दशा। ट्रकों के चलने से यहाँ बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं, जो कई वर्षों से ठीक नहीं हुए हैं। इस मार्ग पर बाइक से भी चलना काफी मुश्किल है। सड़क से आधा किलोमीटर अंदर तक कोयला मंडी है। यहाँ की स्थिति ‘गुलाम कश्मीर’ जैसी है।’ कहने का आशय यह है कि ‘नगर पालिका को यह लगता है कि यहाँ की समस्याओं का निस्तारण ग्राम पंचायत करेगी। जबकि यह इलाका किसी ग्राम पंचायत में नहीं आता है।’ एक तरह से मंडी क्षेत्र की सड़कें उपेक्षा का शिकार हैं।
उड़ रही धूल से पर्यावरण को भी हो रहा नुकसान
एक मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो चंधासी कोयला मंडी में छह वर्ष पहले तत्कालीन एसडीएम मुगलसराय और प्रदूषण विभाग की संयुक्त टीम ने छापा मारा था। उस समय यहां सिर्फ तीन लोगों के पास इस काम को करने का लाइसेंस था, जबकि मौके पर कोयले की आठ अवैध भट्ठियाँ चल रही थीं। इन अवैध भट्ठियों पर कार्रवाई करते हुए इनके संचालकों को नोटिस भी दी गई थी। यह छापेमारी शासन के निर्देश पर की गई थी। तत्कालीन एसडीएम मुगलसराय सतेन्द्र सिंह ने बताया था कि ‘चंधासी में कच्चे कोयले को अवैध रूप से भट्ठे में जलाकर ‘हार्ड कोक’ में बदला जा रहा है और इससे पर्यवरण को बहुत नुकसान हो रहा है। छापेमारी में अवैध रूप से भट्ठियाँ चला रहे आठ लोगों को चार दिन की नोटिस के साथ ही चेतावनी भी दी गई थी कि प्रदूषण विभाग से अनुमति मिलने के बाद ही यह कार्य करें।’
प्रदूषण विभाग की रिपोर्ट
चंधासी कोयला मंडी में 24 x 7 उड़ते धूल के गुबार के कारण यहाँ का प्रदूषण तय मानक से बहुत ऊपर है। प्रदूषण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआई को 0-50 के बीच ‘बेहतर’, 51-100 के बीच ‘संतोषजनक’, 101 से 200 के बीच ‘सामान्य’, 201 से 300 के बीच ‘खराब’, 301 से 400 के बीच ‘बहुत खराब’ और 401 से 500 के बीच ‘गंभीर’ माना जाता है। वहीं, हवा में पीएम (पार्टीकुलेट मैटर) पार्टिकुलेट तरल और ठोस कणों का मिश्रण है जो हवा में रहते हैं। वे सूक्ष्म कणों से लेकर धुएं, कालिख, तरल कणों और धूल जैसे कणों तक हो सकते हैं, जिन्हें नग्न आंखों से भी देखा जा सकता है) 10 माइक्रोन या उससे कम के आकार वाले इनहेलेबल कण इस श्रेणी में आते हैं, जैसे हवा में उड़ने वाली धूल, फफूंद बीजाणु, पराग आदि। इन मानकों की जाँच के बाद स्थिति को नियंत्रित करने संबंधी किसी काम की कोई सूचना नहीं है।
खोजपूर्ण रिपोर्ट
bhaiya sadar pranam aur charan sparsh… yh khabhar apki sandar, jandar hai… tamatar bhi ek taja mudda ho gya hai… kuchh us pr bhi apni kalam chalaiye…
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