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गंदे नालों में होनेवाली मौतें इतिहास का हिस्सा नहीं डायरी (27 अगस्त, 2021)

देश में सरकारों का स्वरूप बदल रहा है। स्वरूप बदलने का मतलब यह कि अब इस देश में सरकारें लोककल्याण को तिलांजलि देने लगी हैं और ऐसा क्यों हो रहा है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस प्रश्न पर विचार करने के पहले एक खबर पर विचार करते हैं। यह खबर गुजरात के अहमदाबाद शहर […]

देश में सरकारों का स्वरूप बदल रहा है। स्वरूप बदलने का मतलब यह कि अब इस देश में सरकारें लोककल्याण को तिलांजलि देने लगी हैं और ऐसा क्यों हो रहा है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस प्रश्न पर विचार करने के पहले एक खबर पर विचार करते हैं। यह खबर गुजरात के अहमदाबाद शहर की है। खबर तीन सफाईकर्मियों से जुड़ी है। सफाईकर्मी मतलब वे जो शहरों को साफ रखते हैं। कुछ के हाथों में झाड़ू होती है तो किसी के हाथ में कचरा उठाने के लिए बेलचा। इनमें से अधिकांश खास जातियों के होते हैं। गोया सफाई का काम करने के लिए ही इन जातियों के लोग पैदा हुए हैं।
बात पहले खबर की ही करते हैं। मिली जानकारी के अनुसार कल अहमदाबाद में तीन सफाईकर्मी गंदे नाले की सफाई करने गटर में उतरे थे। उनके पास कोई सुरक्षा उपकरण नहीं था। यह स्थिति तब है जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 में ही गाइडलाइन जारी किया जा चुका है कि बिना सुरक्षा उपकरणों के सफाईकर्मियों को गटर में न उतारा जाय। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सफाई के काम का जितना मशीनीकरण हो सकता है, किया जाय। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का अनुपालन दिल्ली में भी नहीं किया जा रहा है। आए दिन दिल्ली में सफाईकर्मियों की मौत की सूचनाएं प्रकाश में आती हैं।

[bs-quote quote=”स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने की कोशिश में हर साल करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। लेकिन इस अभियान में दिन रात एक करने वाले सफाई कर्मचारियों की सुध नहीं ली जा रही है। बीमारियों से ग्रस्त होकर वह काल के गर्भ में समा रहे हैं। मेरे सामने दक्षिणी दिल्ली नगर निगम की एक रपट है। रपट 2018 की है। इस रपट में बताया गया है कि दिल्ली नगर निगम में हर 48 घंटे में एक सफाई कर्मी की मौत होती है। निगम के मुताबिक बीते पांच साल में उसके 877 सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हो चुकी है। यह बात 2018 की है। उसके बाद कितनी मौतें हुई होंगी, इसका हिसाब दिल्ली नगर निगम ने नहीं दिया है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो अहमदाबाद में हुआ यह कि तीन साफाईकर्मी एक गंदे नाले की मरम्मती के लिए गटर में उतरे। नाले में जहरीली गैस का रिसाव था और इस कारण दो कर्मियों की मौत हो गई। उनकी लाश को अहमदाबाद पुलिस और अहमदाबाद प्रशासन ने बाहर निकाल लिया। तीसरे कर्मी की लाश नाले में ही फंसी है। इसके लिए एक अलग से गड्ढा खोदा जा रहा है। स्थानीय प्रशासन ने तीसरे कर्मी की मौत की आशंका व्यक्त की है।
सनद रहे कि तीनों सफाईकर्मी मजदूर सरकार द्वारा नियोजित नहीं थे। अहमदाबाद नगर निगम ने नाले की सफाई कराने का काम एक ठेकेदार को दे रखा है। तीनों उसी ठेकेदार के कर्मचारी थे। आप कहेंगे कि इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन फर्क पड़ता है। यदि वे सरकार द्वारा नियोजित होते तो कम से कम उनके मरणोपरांत सरकार उनके परिजनों को मुआवजा राशि देती। अब चूंकि वे सरकार द्वारा नियोजित नहीं थे, तो किस बात का मुआवजा?
यह सवाल केवल अहमदाबाद में मारे गए तीन सफाईकर्मियों से संबंधित नहीं है। यह पूरे देश में हो रहा है। यही व्यवस्था इन दिनों एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशनों और यहां तक कि सरकारी दफ्तरों में लागू है। पहली बार मैंने इस व्यवस्था को 2010 में देखा था। उन दिनों मुझे ‘सचिवालय’ देखने की जिम्मेदारी मिली थी। पटना शहर के लिए यह सचिवालय बेहद खास है। जब मैं दारोगा प्रसाद राय हाईस्कूल, चितकोहरा में पढ़ता था तब सचिवालय की घड़ी साफ-साफ दिखायी देती थी और घंटा पूरे होने पर निकलने वाली आवाज स्पष्ट रूप से कानों में सुनायी देती थी। तब भी जब हम अपनी कक्षा में धमाचौकड़ी कर रहे होते थे।

[bs-quote quote=”यकीन नहीं होता है कि आज के मशीनी युग में भी रोजाना एक सफाईकर्मी की मौत गंदे नालों की सफाई करने के दौरान दम घुटने से हो जाती है। यह आंकड़ा सरकारी आंकड़ा नहीं है। चूंकि सफाईकर्मी ठेकेदार के आदमी होते हैं, देश के नहीं, इसलिए देश में जो सरकार काबिज है, उसके पास ऐसे लोगों का हिसाब-किताब नहीं रहता। हालांकि मैं पहला नहीं हूं जो इस तरह के आंकड़ों का उद्धरण कर रहा हूं। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, एक बार एक खबर के सिलसिले में सचिवालय गया था। खबर वित्त विभाग से जुड़ी थी। इसलिए वित्त विभाग के एक बड़े अधिकारी का पक्ष लेना था। दो नौजवान सचिवालय की सीढ़ियां साफ कर रहे थे। दोनों एकदम कम उम्र के थे और देखने में मुझे बाल मजदूर जैसे लगे। पहले मुझे लगा कि जो मैं देख रहा हूं, वह सच नहीं हो सकता। सचिवालय में बाल मजदूरी कैसे करवायी जा सकती है। लेकिन वे बाल मजदूर नहीं थे, किशोर मजदूर थे। दोनों की उम्र करीब 19-20 साल रही होगी। मैंने एक से पूछा तो उसने कहा कि वह मेरे ही फुलवारी प्रखंड के एक गांव का रहने वाला है और उसे ठेकेदार यहां लेकर आया है। दिहाड़ी के रूप में कितना मिलता है, यह पूछने पर उसने दो सौ रुपए प्रतिदिन मिलने की जानकारी दी। जिस दिन सचिवालय बंद रहता है, उस दिन की दिहाड़ी? उसने कहा कि जब सचिवालय ही बंद रहेगा तो ठेकेदार दिहाड़ी क्यों देगा?
मेरे सवाल के बदले सवाल ने मुझे चौंकाया नहीं। दरअसल, इस देश में तंत्र ने लोगों को बता दिया है कि अब उन्हें ऐसे ही सोचना है। तय नियमों के अलावा उन्हें कुछ नहीं सोचना है। सोचने का मतलब होगा मुंह खोलना और मुंह खोलने का मतलब यह कि जो काम बहुत मुश्किल से मिला है, उससे भी हाथ धो लेना। उस दिन मेरे मन में आया भी कि सचिवालय में ठेकेदारी प्रथा पर एक खबर लिखूं। लेकिन मैं किसकी खबर लिखता? जिसके लिए खबर लिखना चाह रहा था, वह तो खुद मुझसे ही सवाल कर रहा था। उसे डर था कि यदि मैंने कुछ लिख दिया तो कल से वह बेरोजगार हो जाएगा।
खैर, सफाईकर्मियों का हाल लगभग सभी जगहों पर एक जैसा ही है। मैं तो उनकी मौतों को देखकर सन्न हो जाता हूं। यकीन नहीं होता है कि आज के मशीनी युग में भी रोजाना एक सफाईकर्मी की मौत गंदे नालों की सफाई करने के दौरान दम घुटने से हो जाती है। यह आंकड़ा सरकारी आंकड़ा नहीं है। चूंकि सफाईकर्मी ठेकेदार के आदमी होते हैं, देश के नहीं, इसलिए देश में जो सरकार काबिज है, उसके पास ऐसे लोगों का हिसाब-किताब नहीं रहता। हालांकि मैं पहला नहीं हूं जो इस तरह के आंकड़ों का उद्धरण कर रहा हूं।
दरअसल, स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने की कोशिश में हर साल करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। लेकिन इस अभियान में दिन रात एक करने वाले सफाई कर्मचारियों की सुध नहीं ली जा रही है। बीमारियों से ग्रस्त होकर वह काल के गर्भ में समा रहे हैं। मेरे सामने दक्षिणी दिल्ली नगर निगम की एक रपट है। रपट 2018 की है। इस रपट में बताया गया है कि दिल्ली नगर निगम में हर 48 घंटे में एक सफाई कर्मी की मौत होती है। निगम के मुताबिक बीते पांच साल में उसके 877 सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हो चुकी है। यह बात 2018 की है। उसके बाद कितनी मौतें हुई होंगी, इसका हिसाब दिल्ली नगर निगम ने नहीं दिया है।
खैर देश में अनेक शहर हैं जहां नगर निगम है। वहां भी मौतें होती ही होंगी। तो संख्या को लेकर एक अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। हर दिन एक सफाईकर्मी की दम घुटने से मौत की संख्या पर विश्वास किया जा सकता है।
अब सवाल यह कि सरकारें इतनी असंवेदनशील क्यों बनती जा रही हैं? निजीकरण को लेकर सरकार के फैसले चौंकाने वाले हैं। आखिर ऐसा क्या हो गया है कि सरकारें लोककल्याणकारी नहीं रह गयी हैं?
मेरे हिसाब से इसका जवाब 1990 के बाद दलित-पिछड़ों का सशक्त होने की दिशा में अग्रसर होना है। राजनीतिक रूप से ये दोनों अब हस्तक्षेप करने की स्थिति में हैं। लेकिन इससे पहले कि शासन-प्रशासन में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर पाते, इस देश के द्विजों ने सरकारी नौकरी की व्यवस्था को ही खत्म करने की ठान ली। अब नतीजा हमारे सामने है।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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