Saturday, July 27, 2024
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इतिहास के आइने में सपा तथा नई सपा के युवा सारथी अखिलेश यादव की चुनावी रणनीतियां

समाजवादी पार्टी की प्रासंगिकता और लोकप्रियता अब भी बरकरार है, जिसे अखिलेश यादव की जनसभाओं में उमड़ती हुई भीड़, युवा वर्ग और कार्यकर्ताओं को देखकर महसूस किया जा सकता है। हालांकि, इसके पीछे मुलायम सिंह यादव की गहरी सियासती समझ और पार्टी की नीतियां भी सहायक हैं। समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए गरीबी, […]

समाजवादी पार्टी की प्रासंगिकता और लोकप्रियता अब भी बरकरार है, जिसे अखिलेश यादव की जनसभाओं में उमड़ती हुई भीड़, युवा वर्ग और कार्यकर्ताओं को देखकर महसूस किया जा सकता है। हालांकि, इसके पीछे मुलायम सिंह यादव की गहरी सियासती समझ और पार्टी की नीतियां भी सहायक हैं।
समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए गरीबी, सुरक्षा, बेरोजगारी, पेंशन, संरचनात्मक विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय, बहुजन वैचारिकी, समुचित भागीदारी और एक समान हिस्सेदारी के सर्पीले पथ पर भी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी चल रहे हैं।
जहां एक तरफ़, आज कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में वोट शेयर सिमट कर छः से आठ प्रतिशत के बीच रह गया है तथा दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण समाज के परंपरागत मतदाता दूसरे दलों की तरफ़ रुख कर चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ़, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से भी दलित-पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाता नाराज नजर दिख रहे हैं तथा आज स्वामी प्रसाद मौर्य तथा ओमप्रकाश राजभर जैसे कई पिछड़े वर्ग से आने वाले कद्दावर नेता बीजेपी का दामन छोड़ चुके हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की राजनीतिक भूमिका बढ़ती नजर आ रही है। हालांकि, उन्हें सत्ताधारी बीजेपी की हिन्दू-तुष्टीकरण की पिच पर खेलने की बजाय रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, संरचनात्मक विकास और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना होगा।

[bs-quote quote=”अक्सर कहा जाता है कि जिनका जलवा कायम है, उनका नाम मुलायम है। मुलायम सिंह यादव समाजवादी विचारधारा के प्रमुख अग्रदूत राम मनोहर लोहिया से प्रभावित होने के कारण किसानों के अधिकारों तथा पिछड़े वर्गों के हितों के लिए कई आंदोलन में शामिल हुए तथा उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। उनकी राजनीतिक कुशलता तथा पिछड़ी व वंचित जातियों के प्रति समर्पण को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उन्हें ‘लिटिल नेपोलियन’ कहते थे। आज भी मुलायम सिंह यादव के प्रतिद्वंदी उन्हें अजातशत्रु कहते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पुरानी सपा तथा सामाजिक न्याय
आज़ादी के कई दशक तक सत्ता की चाभी कांग्रेस के पास रही, जिसने मनमाने ढंग से मंडल कमीशन की रिपोर्ट को एक दशक तक ठंडे बस्ते में डाले रखी। जिसके कारण 9वीं लोकसभा (1989) में कांग्रेस को जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया तथा जनता दल के कद्दावर नेता वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला। जनता दल की सरकार बनने पर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव, नितीश कुमार, शरद यादव जैसे नेताओं के दबाव में आकर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह को मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर ओबीसी के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव को लागू करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप, सामाजिक न्याय की राजनीति की एक ठोस नीव पड़ी।
आज लगभग तीन दशक बीत जाने के बाद भी सत्ता की चाभी सामाजिक न्याय की राजनीति के बिना नही पाया जा सकता है। यदि हम इतिहास के आईने में झांके तो हमें परिलक्षित होता है कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की धार को पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने पैनी किया था।
सियासत के लिटिल नेपोलियन
अक्सर कहा जाता है कि जिनका जलवा कायम है, उनका नाम मुलायम है। मुलायम सिंह यादव समाजवादी विचारधारा के प्रमुख अग्रदूत राम मनोहर लोहिया से प्रभावित होने के कारण किसानों के अधिकारों तथा पिछड़े वर्गों के हितों के लिए कई आंदोलन में शामिल हुए तथा उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। उनकी राजनीतिक कुशलता तथा पिछड़ी व वंचित जातियों के प्रति समर्पण को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उन्हें ‘लिटिल नेपोलियन’ कहते थे। आज भी मुलायम सिंह यादव के प्रतिद्वंदी उन्हें अजातशत्रु कहते हैं।
सियासी यात्रा और जनाधार
जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, पेरियार ई.वी. रामास्वामी और छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे महापुरुषों के आदर्शों को अपना दीर्घकालिक राजनीतिक लक्ष्य बनाकर मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक विमर्श को एक नई दिशा में मोड़ दिया। मुलायम सिंह यादव अभी तक दर्जनों बार चुनाव लड़कर विधानसभा व लोकसभा में अपनी असरदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं, जिसे कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ समझा जा सकता है:
मुलायम सिंह यादव 28 वर्ष की उम्र में जसवंतपुर से प्रथम बार (1967 में) विधायक बने तथा 1977 में राज्यमंत्री पद को सुशोभित किया। सियासत में अपनी बुनियाद पक्की करते हुए सामाजिक न्याय के मुद्दों पर सदैव सक्रिय व मुखर रहे। जिसके कारण उन्हें 1980 में लोकदल के अध्यक्ष बनने का मौका मिला और 1882-85 में विधानपरिषद् में विपक्ष के नेता भी बने।

[bs-quote quote=”अन्य दलों के दबाव के कारण मुलायम सिंह यादव सामाजिक न्याय के अति-महत्वपूर्ण मुद्दे पर खुलकर बोल नही पा रहे थे। इसलिए मुलायम सिंह यादव कुछ अन्य महत्वपूर्ण समाजवादी विचारकों के साथ 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना की तथा सामाजिक न्याय के मुद्दे को उत्तर प्रदेश में एक नई सियासी धार दी। जिसके फलस्वरूप वर्ष 1993 में उन्हें दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

राजनीतिक उठापटक और हिन्दू-तुष्टिकरण 
मुलायम सिंह यादव की बढ़ती हुई लोकप्रियता व पिछड़े वर्गों के व्यापक जनाधार के कारण 1989 में जनता दल की तरफ़ से उन्हें प्रथम बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। केंद्र में वी पी सिंह की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह यादव ने चंद्रशेखर की जनता दल के समर्थन से अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी बरकरार रखी। उसी बीच हिन्दू तुष्टिकरण की नीति को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी तथा विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा अयोध्या में राममंदिर बनाने के लिए आंदोलन तेज़ किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने ‘कार सेवकों’(आन्दोलनकारियों) को नियंत्रित करने के लिए (1990 में) उन पर गोली चलाने का आदेश भी दिया। जिसमें कई लोग मारे भी गए।
 सामाजिक न्याय और जनसमर्थन
अन्य दलों के दबाव के कारण मुलायम सिंह यादव सामाजिक न्याय के अति-महत्वपूर्ण मुद्दे पर खुलकर बोल नही पा रहे थे। इसलिए मुलायम सिंह यादव कुछ अन्य महत्वपूर्ण समाजवादी विचारकों के साथ 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना की तथा सामाजिक न्याय के मुद्दे को उत्तर प्रदेश में एक नई सियासी धार दी। जिसके फलस्वरूप वर्ष 1993 में उन्हें दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
अनेक राजनीतिक उठापटक के बीच, मुलायम सिंह यादव ने वर्ष 1999 में रक्षामंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। इसी तरह लगातार सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए 2003 में उन्हें सूबे का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ। लोकतंत्र में लोकप्रियता ही अंतिम कसौटी होती है और मुलायम सिंह यादव की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2004 में उत्तर प्रदेश की गन्नौर विधानसभा सीट से लगभग पौने दो लाख मतों के अंतर से ऐतिहासिक जीत दर्ज की।
सामाजिक न्याय और वंचित वर्ग
मुलायम सिंह यादव की सक्रिय राजनीति के कारण उत्तर प्रदेश के दलित-पिछड़े वर्ग में एक समान ‘भागीदारी’ और ‘हिस्सेदारी’ की मांग बढ़ी, जिसके कारण पिछड़ी जातियों में अभूतपूर्व राजनीतिक चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से काम करते हुए मुलायम सिंह यादव ने पिछड़े वर्गों के राजनीतिक अधिकारों तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उच्च-जातियों के वर्चस्व को लेकर सवाल उठाने शुरू किए। कालांतर में इन सियासी मांगों का शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों व अल्पसंख्यकों पर काफी गहरा व सकारात्मक प्रभाव पड़ा। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश का पिछड़े समाज में आज भी इनकी लोकप्रियता बरक़रार है तथा किसान, मजदूर और पिछड़ा वर्ग मुलायम सिंह यादव को एक मसीहा के रूप में देखता है।
‘नई सपा है’ में मुलायम सिंह यादव का स्थान
मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर संरक्षक बना दिया गया। उनके भाई शिवपाल यादव अलग पार्टी बना चुके हैं तथा समधी हरिओम यादव और छोटी बहू अपर्णा यादव भाजपा में शामिल हो गई हैं। मुलायम सिंह यादव अपने जीवन में 82 बसंत देख चुके हैं और सत्ता की चाभी अपने पुत्र अखिलेश यादव को हस्तांतरित कर चुके हैं। समाजवादी विरासत को दमदार तरीके से आगे बढ़ाते हुए अखिलेश यादव एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह सत्ताधीशों को उन्हीं की सियासी जुबान में तीक्ष्ण प्रतिक्रिया देते नजर आ रहे हैं तथा बिलकुल सधे हुए लहजे में सपा की नीतियों को बताना भी नही भूलते हैं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किंडल पर भी उपलब्ध हैं:

 

निष्कर्ष
आज अखिलेश यादव को यह आभास है कि भारतीय लोकतंत्र तथा विभिन्न संस्थाओं के लिए यह संकट का समय है। सत्ता पक्ष अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए समाज को ध्रुवीकृत करने में लगा है। उदाहरण स्वरूप, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का दंभ भरने वाली भाजपा की तरफ़ से एक भी मुस्लिम प्रत्यासी को टिकट नही दिया गया। इस संदर्भ में पेशे से शिक्षक डॉ॰ सुभाष यादव कहते हैं कि ‘क्रोनी कैपिटलिज्म, लिंचिंग, ऑनलाइन ट्रोलिंग तथा उच्च शिक्षण संस्थानों पर लगातार हमले हो रहे हैं और सबसे बुरी बात यह है कि विरोधियों को वश में करने के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और अन्य प्रशासनिक साधनों का उपयोग हो रहा है। इसलिए मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव जैसे राजनेताओं की प्रासंगिकता है, क्योंकि आरएसएस और उसके कई संगठनों के नेतृत्व वाली सांप्रदायिक ताकतों से वे कभी समझौता नहीं किए।’
यदि हम सामाजिक न्याय के मामले में मुलायम सिंह यादव की तुलना लालू प्रसाद यादव से करें, तो हमें ज्ञात होता है कि कर्पूरी ठाकुर के पदचिन्हों पर चलते हुए लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक से लेकर अब तक सत्ता और मनुवादियों के सामने बिना घुटना टेके बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई को दो कदम आगे ले गए। जिसके कारण लालू प्रसाद यादव का नाम आज भी समाज के हर निचले तबके के लोगों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।
वहीं यूपी में मुलायम सिंह यादव ने दलित-पिछड़े वर्ग में राजनीतिक चेतना की अलख को जलाया और पिछले तीन दशकों से मनुवादी सोच पर चलने वाले लोगों को घुटने के बल पर खड़ा होने के मजबूर कर दिया। राष्ट्रीय जनता दल की भांति समाजवादी पार्टी भी कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए हमेशा अपने दरवाजे खुली रखी तथा सत्ता में आने के बाद सामाजिक न्याय की धार को मजबूत करने में महती भूमिका निभाई।
निःसंदेह आज यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार की दलित-पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना व ‘मूक क्रांति’ लाने का श्रेय कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे अग्रणी नेताओं को जाता है। जिसके फलस्वरूप, आज अखिलेश यादव आम चुनाव में आसानी से बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों को चुनावों में लामबंद करने में सफल हो गए। सामाजिक भागीदारी के सवाल पर समाजवादी पार्टी के समर्थक चन्द्र भूषण कहते हैं कि ‘समाज वादी पार्टी ने अबतक 159 उम्मीदवार घोषित किये हैं, जिनमें 16 यादव, 9ब्राह्मण, 8 वैश्य, 7 ठाकुर,52 गैरयादव (हिन्दू) ओबीसी, 7 जाठ, 31 एससी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में कुल 126 हिन्दू, 2 सिक्ख और 31 मुस्लिमों (मुस्लिम ओबीसी भी शामिल) को टिकट दिया गया है। उपरोक्त वर्गीकरण से स्पष्ट है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जी ने समाज के सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देने की भरपूर कोशिश कीहै।’ आज सार्वजानिक मंचो पर अखिलेश यादव जातिवार जनगणना करने के साथ ही जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की भी वकालत करते नजर आ रहे हैं।
#लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं। इन्हें भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद द्वारा प्रतिष्ठित ‘प्रोफ़ेसर एम॰एन॰ श्रीनिवास पुरस्कार-2021’से भी नवाजा गया है।
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