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भारत-पाकिस्तान संबंध और बॉलीवुड की फिल्में

भारत में दो चीजें क्रिकेट और बॉलीवुड बहुत लोकप्रिय है और बात जब भारत पाकिस्तान के बीच आ जाये तो क्लाइमेक्स नये आयाम स्थापित कर जाता है। दोनों देशों के बीच क्रिकेट और बॉलीवुड पर ख़ासा कोहराम मचा करता है। सरहदों पर तनाव बढ़ता है तो उसके बदले में दोनों देशो के बीच खेल बंद […]

भारत में दो चीजें क्रिकेट और बॉलीवुड बहुत लोकप्रिय है और बात जब भारत पाकिस्तान के बीच आ जाये तो क्लाइमेक्स नये आयाम स्थापित कर जाता है। दोनों देशों के बीच क्रिकेट और बॉलीवुड पर ख़ासा कोहराम मचा करता है। सरहदों पर तनाव बढ़ता है तो उसके बदले में दोनों देशो के बीच खेल बंद हो जाते हैं फिर शुरू भी होते हैं। हाल की दो घटनाओं का यहाँ ज़िक्र करना समीचीन होगा। कोरोना कालीन बंदी के बाद नवम्बर 2021 में पाकिस्तान ने खुद गुरुनानक देव की जन्मस्थली करतारपुर कॉरीडोर को खोलने के लिए भारत से आग्रह किया। अभी 25 नवम्बर 2021 को भारत पाकिस्तान के बीच टी-20 वर्ल्ड कप संयुक्त अरब अमीरात में खेला गया। इस मैच ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए क्योंकि यह अब तक सबसे ज्यादा देखा जाने वाला मैच बन गया। हालांकि इस मैच में भारत हार गया था। फिल्मों का भी यही हाल है। पाकिस्तान बॉलीवुड की फिल्मों  पर पाबन्दी लगाता है तो इधर हिंदुस्तान में भी ये बहस छिड़ जाती है की हमारा बॉलीवुड अदनान सामी, राहत फ़तेह अली खान, आतिफ असलम, फज़ल अली, फवाद खान, मीरा अली और  माहिरा खान, जैसे कलाकारों को मौका क्यों देता है? जब कारगिल युद्ध हुआ या उसके बाद ताज होटल मुंबई पर बर्बर आतंकवादी हमले हुए तो भारतीय मीडिया, आम जनमानस और बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से ने कला, संस्कृति, खेल सहित सभी तरह के सम्बन्धों को तोड़ लेने की मांग की। परन्तु प्रगतिशील लेखकों, चिंतकों, फिल्मकारों और कलाकारों ने कला और सांस्कृतिक संबंधों  पर रोक लगाने से असहमति जतायी। उसके पीछे तर्क यह था कि कल्चरल डिप्लोमेसी के तहत शांतिपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए सीमा पार दोनों तरफ की आम अवाम, कलाकार और संस्कृतिकर्मी जो मानवीय मूल्यों को ज्यादा तरजीह देते हैं वो आपस में सम्बंध बनाये रखना चाहते हैं। गीत, संगीत, क्रिकेट, थिएटर और लोगों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध बहुत मददगार साबित होते हैं दरारों को पाटने और फिर से पास आने के लिए। तमाम परिवार और उनके सम्बन्धी दोनों मुल्को में रहते हैं उन्हें रोकना किसी भी तरह से ठीक नहीं है।

कुछ दर्ज करने वाली यादें…

भारत-पाकिस्तान के बीच नाजुक सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में एक बात को लिखना प्रासंगिक होगा। सन 2007 में जब क्रिकेट वर्ल्ड कप खेला जा रहा था तो जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नयी दिल्ली के कावेरी हॉस्टल में अपने कमरे में बैठे चर्चा कर रहे कुछ सीनियर्स ने बिहार से ग्रेजुएशन करने आये एक लड़के से पूछा ‘यदि भारत फाइनल में नहीं पहुंच सका तो तुम किस टीम को जीतते हुए देखना चाहोगे ऑस्ट्रेलिया या पाकिस्तान? लड़के का उत्तर था पाकिस्तान। लोगों ने पूछा क्यूँ? पाकिस्तान तो हमेशा भारत के खिलाफ रहता है? तो उसका जवाब था, पाकिस्तान हमारे साउथ एशिया का देश है और गोरे अंग्रेज जीते उससे अच्छा है हमारा पड़ोसी पाकिस्तान जीते। ये एक महत्वपूर्ण बात थी और ऐसा सोचने वाले बहुतेरे भारतीय हैं। इस सच से हम सभी वाकिफ हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच मैच सीमा पर युद्ध की तरह लड़े जाते हैं, खेले नहीं जाते और जीत पर होली दीवाली की तरह पटाखे भी फोड़कर जश्न मनाया जाता है। इसी क्रम में मशहूर पाकिस्तानी कलाकार सीमा किरमानी के नेतृत्व में एक थिएटर ग्रुप उपर्युक्त विश्वविद्यालय में आया और सूफी संत बुल्ले शाह के जीवन पर आधारित एक नाटक प्रस्तुत किया। नाटक समाप्त होने के बाद सभी पाकिस्तानी कलाकारों ने एक साथ खचाखच भरे हाल में भारतीय श्रोताओं को जोर से सम्बोधित किया ‘वी लव यू’ और बदले में ऑडियंस ने भी उन्हें निराश नही किया। इन एक दो घटनाओं के ज़िक्र से पता चलता है की दोनों मुल्कों  के दरम्यान नफरत और युद्ध ही नही है, फैज़ अहमद फैज़, इकबाल बानो, गुलाम अली, मेहदी हसन, नुसरत फ़तेह अली, राहत फ़तेह अली, आबिदा परवीन फरीदा खानम, सलमा आगा, जेबा बख्तियार, नूरजहाँ और  सानिया मिर्जा भी हैं।

भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध और दोनों का सिनेमा

बॉलीवुड की फिल्मों का भारतीय जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ता है इसलिए इनके विषयवस्तु (कंटेंट) को ध्यान में रखकर यदि भारत-पाक संबंधों  को चित्रित करने वाली फिल्मों का ज़िक्र करे तो इन्हें निम्न दो वर्गों में बांटा जा सकता-

  1. बॉलीवुड (भारत) में निर्मित फ़िल्में
  2. लॉलीवुड (पाकिस्तान) में निर्मित फ़िल्में

बॉलीवुड में राजकपूर और यश चोपड़ा जैसे फिल्मकारों ने दोनों देशों के बीच सियासत से परे इंसानियत और मानवीय सम्बन्धों को तवज्जो देने वाली बेहतरीन फिल्में बनाईं जिसका प्रमुख कारण उनके पास दोनों देशों के दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारे के कारण पलायन करने का भोगा हुआ अनुभव था। वे लाहौर और पंजाब के बंटवारे से प्रभावित हिस्सों से पलायित होकर हिन्दुस्तान में रिफ्यूजी के रूप में बसे थे। अपनी मातृभूमि, अपने करीबी लोगों को जिन्हें हिन्दू, मुस्लिम, सिख के रूप में चिन्हित कर बांटा गया, एक दूसरे के खिलाफ भड़काकर हिंसा करवायी गयी, उन सारे हिंसक दृश्यों और अनुभवों से सबक लेकर एक बेहतर और संवेनशील मानवीय समाज बनाने की सम्भावनाओं को चित्रित करती फिल्में इन फिल्मकारों ने बनाई। बॉलीवुड सिनेमा में भारत-पाक सम्बन्धों पर बनी कुछ फ़िल्में निम्न प्रकार हैं-

लाहौर(1949), नास्तिक(1954), छलिया(1960, डायरेक्टरमनमोहन देसाई), धर्मपुत्र(1961, डायरेक्टरयश चोपडा), गरम हवा (1973, डायरेक्टरएम.एस. सथ्यु), हिन्दुस्तान की कसम (1973), हिना(1991, डायरेक्टरराजकपूर), सरदार (1993, डायरेक्टरकेतन मेहता), मम्मो(1994, डायरेक्टरश्याम बेनेगल), नसीम(1995), बार्डर(1997, डायरेक्टरजे.पी.दत्ता), 1947 अर्थ(1998, डायरेक्टरदीपा मेहता), ट्रेन टू पाकिस्तान(1998, डायरेक्टरपामेला रुक्स), शहीदमोहब्बत बूटा सिंह(1999), सरफरोश(1999, जॉन मैथ्यू माथन), हे राम(2000, कमल हसन), रिफ्यूजी(2000, डायरेक्टरजे.पी.दत्ता), ग़दरएक प्रेम कथा(2001, डायरेक्टरअनिल शर्मा), पिंजर(2003, डायरेक्टरचन्द्र प्रकाश द्विवेदी), एल..सी. कारगिल(2003, डायरेक्टरजे.पी.दत्ता), वीरज़ारा(2004, डायरेक्टरयश चोपड़ा), भाग मिल्खा भाग(2013), फिल्मिस्तान (2013), बजरंगी भाई जान(2015), एक था टाइगर(2012), सरबजीत(2016) हैप्पी भाग जाएगी (2016)बेगम जान (2017), टाइगर जिंदा है (2017), राज़ी (2018), ओम्रेटा (2018), उरी 2019, मुंबई डायरीज (2021), शेरशाह (2021)।

बॉलीवुड की गदर जैसी फिल्में जो व्यावसायिक  उद्देश्य से दोनों देशों के सम्बन्धों को आधार बनाकर बनाई जाती हैं उनमें  गीत संगीत के लटको झटकों के साथ भावनाओं को भड़काकर ज्यादा पैसा कमाना मुख्य उद्देश्य होता है। वर्ष 2021 में गदर 2 की शूटिंग भी शुरू हो चुकी है। गदर फिल्म (2001)को सिनेमा हाल में देखते समय लोग पकिस्तान विरोधी संवादों पर इस कदर उत्तेजित हो जाते थे कि डर लगता था कि बंद हाल के अंदर ही दोनों समुदायों के लोगो के साथ मारपीट न हो जाए। साम्प्रदायिक नफरत को एक तरफ रख दें तो ग़दर जैसी फिल्म भी सबसे ऊपर पति-पत्नी और संतान के रिश्ते को रखती है और अपने परिवार को वापस लाने के लिए नायक तारा सिंह पूरी दुनिया से अकेले लड़ने को तैयार हो जाता है। जब वह वापस पाकिस्तान जाता है तो उसका मुस्लिम दोस्त दिल से उसकी मदद करता है। चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की फिल्म पिंजर जो महान लेखिका अमृता प्रीतम के इसी शीर्षक के उपन्यास पर बनाई गयी है, में मुस्लिम युवक राशिद और हिन्दू लड़की पुरो (शादी के बाद हमीदा) के बीच सम्बन्ध को चित्रित किया गया है। सन 1947 के दौर की इस कहानी में राशिद पारिवारिक रंजिश में, पुरो का अपहरण कर लेता है। किसी तरह वह जब भागकर अपने परिवार के पास पहुँचती है तो उसे वहां से डर की वजह से वापस कर दिया जाता है। हताश निराश पुरो, राशिद के पास लौट जाती है और कुछ दिनों बाद शादी कर दोनों घर बसा लेते हैं। भारत-पाक बंटवारे की पृष्ठभूमि में यह फिल्म दोनों सम्प्रदायों के जटिल और भावनात्मक सम्बन्धों को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत करती है।

फिल्म ग़दर का एक दृश्य

धर्मपुत्र, वीर-जारा, बजरंगी भाई जान, पीके हैप्पी भाग जाएगी और टाइगर जिंदा है जैसी फिल्मों को यदि टेक्स्ट की तरह पढ़ा जाय तो उनके संवादों और दृश्यों के माध्यम से पता चलता है कि वे दोनों देशों के सकारात्मक पक्षों को भी सामने रखती हैं और ये उम्मीद जगाती हैं कि अविश्वास व पारस्परिक शत्रुता से आगे बेहतर सम्बन्ध भी स्थापित किये जा सकते हैं और ऐसे प्रयासों को बढ़ाने में कोई बुराई नही है।

[bs-quote quote=”टाइगर जिंदा है फिल्म ऐसे ही नाज़ुक दौर में रिलीज हुई है जब कुलभूषण जाधव पाकिस्तान की जेल में बंद हैं और उनकी माँ व पत्नी को मिलने का अवसर देकर भी पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा सामान्य शिष्टाचार तक का ध्यान नहीं रखा गया फलतः भारतवासियों में कुंठा, निंदा व् निराशा के भाव भर गये। उधर भारत-पाक सीमा पर प्रायः सीजफायर का उल्लंघन और सेना के जवानों के मारे जाने से दोनों देशों  के बीच सम्बन्ध खराब स्थिति में पहुँच जाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यश चोपड़ा का सिनेमाई अंदाज और भारतपाकिस्तान सम्बन्ध

महान फिल्ममेकर यश चोपड़ा की मौत (21 अक्टूबर 2012) पर मुंबई फिल्म फेस्टिवल में शामिल होने आई पाकिस्तानी फिल्म निर्देशक इरम परवीन बिलाल ने कहा था कि ‘यश जी की मौत पाकिस्तान के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है क्योंकि वे भारत-पाकिस्तान को करीब लाने की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उनके मन में पाकिस्तान के लिए एक सॉफ्ट कार्नर था। उनकी फिल्मों में  मोहब्बत केन्द्रीय मुद्दा होती थी जो दोनों देशों को करीब लाती थी। यश जी लाहौर में पैदा हुए थे इसीलिए पाकिस्तानी सरज़मीं के प्रति उनके मन में अलग तरह का लगाव था'(oneindia.com)। फिल्म वीरज़ारा इसका एक शानदार उदाहरण है। बतौर निदेशक उनकी पहली फिल्म धूल का फूल 1959 में आई और दूसरी फिल्म धर्मपुत्र 1961 में। दोनों ही फिल्मों में विभाजन के बाद हिन्दू मुस्लिम समुदायों में फैली कड़वाहट को कम करने के लिए ऐसी विषयवस्तु का चित्रण किया गया कि लोग धर्म आधारित नफरत और दुश्मनी भुलाकर मानवीयता के आधार पर सार्थक संबंधों को स्थापित कर सकें। धर्मपुत्र फिल्म का गीत तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा यश चोपड़ा की मानवीय सोच का परिचायक है। एक मुस्लिम माँ का बेटा जिसकी परवरिश एक हिन्दू परिवार में होता है और वह हिन्दू कट्टरवाद के प्रभाव में मुस्लिमों से नफरत करता है। माँ हुस्न और उसका अपना बेटा दिलीप बहुत दिनों बाद मिलने पर किस तरह एक दूसरे से सामंजस्य बना पाते हैं इसी कश्मकश को परदे पर यश चोपड़ा साहब ने ख़ूबसूरती से पेश किया था। इतना ही नहीं सन 1990 दशक में जब अयोध्या में विवादित ढाँचे के गिराए जाने के बाद कश्मीर में आतंकवाद तेजी से बढ़ा और पूरी दुनिया में इसकी प्रतिक्रियायें हुईं, यश चोपड़ा ने एक मुस्लिम युवा शाहरुख़ खान को अपनी फिल्मों के माध्यम से भारत के हर घर का चहेता सुपरस्टार बना दिया। डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीरज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी जैसी सफल फिल्में इसका सबूत हैं। उनकी फिल्मों की विषय वस्तु को भी देखा जाय तो उनकी प्रगतिशील सोच स्पष्ट रूप से सामने आती है। फना, काबुल एक्सप्रेस, न्यूयॉर्क, एक था टाइगर और टाइगर जिंदा है जैसी फिल्में उनके बैनर की ही देन है जो उनके काबिल बेटे आदित्य चोपड़ा बखूबी आगे बढ़ा रहें हैं। ये फ़िल्में भारत-पाकिस्तान के बीच मधुर सम्बन्धों की पैरवी करती हैं। अपनी फिल्मों की स्टारकास्ट से भी वे इस एजेंडे को सपोर्ट करते हैं। शाहरुख़ खान के अलावा उनकी फिल्मों में फिरोज खान, परवीन बॉबी, वहीदा रहमान, दिलीप कुमार, सायरा बानो, फजल अली, सैफ अली खान, आमिर खान, सलमान खान, कैटरिना कैफ को सदैव महत्वपूर्ण भूमिकायें दी गयी हैं जिसके माध्यम से भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्थन मिलता है।

सरबजीत (फ़िल्म) - विकिपीडियावीर-ज़ारा, बजरंगी भाईजान और टाइगर जिंदा है जैसी फिल्मों ने मानवीय रिश्तों के आधार पर जन्मजात/परम्परागत शत्रुता निभाते चले आ रहे दोनों पड़ोसी देशों को एक विकल्प देने का सराहनीय काम किया है। परन्तु दुःख की बात है की पहले सरबजीत और अब कुलभूषण जाधव प्रकरण ने भारत-पाकिस्तान के मध्य बेहतर सम्बन्धों की उम्मीद को और पीछे धकेल दिया। जासूसी का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद करने और फांसी की सजा सुनाने के बाद उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने तथा घटिया किस्म की डिप्लोमेसी का उदाहरण प्रस्तुत करने व पारस्परिक रिश्तों को सुधारने के ऐसे नाजुक अवसरों को गंवाने के कारण पाकिस्तान की जितनी निंदा की जाय कम है। टाइगर जिंदा है फिल्म ऐसे ही नाज़ुक दौर में रिलीज हुई है जब कुलभूषण जाधव पाकिस्तान की जेल में बंद हैं और उनकी माँ व पत्नी को मिलने का अवसर देकर भी पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा सामान्य शिष्टाचार तक का ध्यान नहीं रखा गया फलतः भारतवासियों में कुंठा, निंदा व् निराशा के भाव भर गये। उधर भारत-पाक सीमा पर प्रायः सीजफायर का उल्लंघन और सेना के जवानों के मारे जाने से दोनों देशों  के बीच सम्बन्ध खराब स्थिति में पहुँच जाते हैं। ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि क्या उपाय किये जाए कि स्थितियों में पुनः सुधार हो सके और तब यही समझ में आता है कि सांस्कृतिक माध्यमों से प्रयास होने चाहिए और फ़िल्में इस कार्य में सबसे ज्यादा उपयोगी और सशक्त माध्यम साबित हो सकती हैं।

बॉर्डर जैसी युद्ध प्रधान फिल्म भी दोनों देशो के बीच जंग की भयावहता और व्यर्थता की विरोध अपने एक गीत से करती है- जंग तो चंद रोज होती है, जिंदगी बरसों तलक रोती है…मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये…आ खाए कसम जंग ना होने पाए और उस दिन का रस्ता देखें जब खिल उठे तेरा भी चमन जब खिल उठे मेरा भी चमन, तेरा भी वतन मेरा भी वतन…मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे हमसाये। युवा विधवाए, बूढे माँ-बाप, अनाथ बच्चे और बरसों तक न भरने वाले घाव यहीं सब तो छोड़ जाते हैं युद्ध अपने पीछे सरहद के दोनों तरफ।

लॉलीवुड (पाकिस्तान) में निर्मित फ़िल्में

पाकिस्तान में फिल्मों  से ज्यादा धारावाहिक अच्छे बनते हैं। हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री को लॉलीवुड कहा जाता है परन्तु पिछले कुछ वर्षो को छोड़ दिया जाय तो वहां बहुत कम फिल्में बनीं है। आज जब भारत-पाकिस्तान के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं है उनकी फिल्मों के माध्यम से, उनकी विषय वस्तु के विश्लेषण से वहाँ के समाज व लोगों की सोच के बारे में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। पाकिस्तानी कलाकारों और उनके गीत-संगीत व फिल्मों के माध्यम से दोनों देशों  के बीच अच्छे सम्बन्धों की उम्मीद की एक खिड़की खुली रहती है। इन्हें बनाये रखना और सपोर्ट करना बहुत जरूरी है। कुछ पाकिस्तान निर्मित फिल्में जिन्हें सरहद के दोनों तरफ पसंद किया गया का विवरण निम्न प्रकार है:

तेरी याद (1948), जागो हुआ सवेरा (1959), रामचंद पाकिस्तानी (2008), खामोश पानी (2003),खुदा के लिए (2008), बोल (2011), वार(2013), मैं हूँ शाहीद अफरीदी (2013), कराची से लाहौर(2015), मंटो(2015), बिन रोये (2015), जवानी फिर नहीं आनी (2015)।

भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद पहली पाकिस्तानी फिल्म तेरी याद थी जिसमे दिलीप कुमार के भाई नासिर खान ने बतौर नायक काम किया था। प्रसिद्ध शायर और कवि फैज़ अहमद फैज़ द्वारा पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के मछुआरों के जीवन पर लिखी और 1959 में बनी फिल्म जागो हुआ सवेरा 1960 में पाकिस्तान की तरफ से ऑस्कर पुरस्कारों हेतु विदेशी भाषा की बेस्ट फिल्म के लिए नामित की गयी थी। कांस फिल्म फेस्टिवल और भारत में भी 2016 में इस फिल्म को दिखाया गया। रामचंद पाकिस्तानी फिल्म एक जॉइंट वेंचर है जिसमे भारतीय कलाकारों, संगीतकारों ने काम किया था। नंदिता दास ने नायक रामचंद पाकिस्तानी की माँ की भूमिका की थी. एक पाकिस्तानी हिन्दू दलित नागरिक शंकर और उसका सात साल का बेटा रामचंद गलती से हिन्दुस्तान की सीमा में घुस आते हैं और गिरफ्तार कर जेल में भेज दिए जाते हैं। काफी समय बाद उनको जेल से मुक्ति मिलती है और वे वापस नंदिता दास (चम्पा) के पास पाकिस्तान पहुंचते हैं। इस दौरान रामचंद के एक शत्रु देश में जेल में रहने के अनुभव और उसकी माँ चंपा के अकेले संघर्ष को पूरी संवेदना से चित्रित किया गया है।यह फिल्म भारत और पाकिस्तान दोनॉन देशों के दर्शकों  द्वारा खूब पसन्द की गयी। पाकिस्तानी फिल्मकार सबीहा सुमार की फिल्म खामोश पानी में जियाउल-हक के शासन काल में पाकिस्तान के तालिबानिकरण को दिखाया गया है। फिल्म की नायिका विधवा आयशा अपने बेटे सलीम के साथ एक छोटे से गाँव में रहती है। उसका बेटा इस्लामी चरमपंथियो के प्रभाव में आ जाता है। सिख तीर्थयात्रियों के उस गाँव के भ्रमण में पता चलता है कि आयशा भारत-पाक बंटवारे के पूर्व वीरां नाम की सिख लडकी थी जिसका अपहरण एक मुस्लिम ने कर लिया था। वीरां के पिता ने परिवार की इज्ज़त बचाने के लिए गाँव के कुँए में कूदकर शहादत देने की सलाह दी थी लेकिन उसने अपने शर्तो पर जीवन जीने की बात कहकर जान देने से मना कर दिया था। बाद में उसका बेटा सलीम और सारा गाँव उसे सिख जानकर उससे सारे नाते तोडकर अकेला छोड़ देता है जिसे वह बर्दाश्त नही कर पाती और उसी कुएं कूद कर आत्महत्या कर लेती है और कुएं  का शांत पानी उसे निगल जाता है। यह वही कुआं था जहां 32 साल पहले वीरां ने अपने बाप के कहने पर परिवार की इज्ज़त के नाम पर जान देने से मना कर दिया था। ‘एथनिक आइडेंटिटी’ पूरी दुनिया के विभिन्न समुदायों को बाँटने में, घृणा पैदा करने में कितनी खतरनाक भूमिका अदा करती है, पिंजर और खामोश पानी जैसी फिल्मों की विषय वस्तु से बड़ी सहजता से समझा जा सकता है। पिंजर बॉलीवुड की फिल्म है और खामोश पानी लालीवुड की लेकिन समझदार लोगों की  संवेदनाएं  उन्हें किस कदर एक प्लेटफार्म पर ला खड़ा करती हैं। खामोश पानी में आयशा की भूमिका भारतीय अदाकारा किरन खेर ने किया था। दोनों देशों के कलाकारों के सामूहिक योगदान से बनी ये फिल्म अवाम और हुक्मरान को एक संदेश देती है कि मानवता हमारी धार्मिक और जातीय पहचान से ऊँची चीज हुआ करती है।

[bs-quote quote=”आज जब भारत-पाकिस्तान के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं है उनकी फिल्मों के माध्यम से, उनकी विषय वस्तु के विश्लेषण से वहाँ के समाज व लोगों की सोच के बारे में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। पाकिस्तानी कलाकारों और उनके गीत-संगीत व फिल्मों के माध्यम से दोनों देशों  के बीच अच्छे सम्बन्धों की उम्मीद की एक खिड़की खुली रहती है। इन्हें बनाये रखना और सपोर्ट करना बहुत जरूरी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खुदा के लिए एक पाकिस्तानी फिल्म है जिसे शोएब मंसूर ने बनाई थी जिसमे नसीरुद्दीन शाह ने बहुत ही महत्वपूर्ण कैमियो भूमिका की थी। लाहौर के दो सफल गायकों मंसूर और सरमद में से एक सरमद इस्लामिक एक्टिविस्ट मौलाना ताहिरी से प्रभावित होकर गायन छोड़ देता है और इस्लामी तौर तरीकों से जिंदगी बिताने लगता है। एक पाकिस्तानी मूल की पश्चिमी स्टाइल की लड़की मरियम को ब्रिटिश लड़के डेव से प्यार हो जाता है लेकिन मरियम का पिता जो की खुद एक ब्रिटिश महिला के साथ लिव-इन में रहता है अपनी बेटी के इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करता। वह धोखे से उसे पाकिस्तान लाकर मरियम की शादी सरमद से करा देता है। वह भागना चाहती है लेकिन पकड़ी जाती है। मामला कोर्ट में चलता है और बयान देने के लिए मौलाना भी वहां आते हैं। मौलाना वली की छोटी सी भूमिका में नसीरुद्दीन शाह इस्लाम की और इस्लामी तौर तरीकों और निकाह में औरत की मर्जी की कितनी अहमियत होती है उसको हदीस शरीफ के नजीरों से जिस तरह समझाते है वह काबिले तारीफ़ है। उन्होंने  गीत-संगीत के बारे में कहा कि पैगम्बर दाउद को मौशिकी अता की खुदा ने, इसलिए संगीत गैर-इस्लामिक नहीं है। लिबास का तालुक मजहब से नही है, दीन में दाढ़ी है दाढ़ी में दीन नही हैं। एक पाकिस्तानी फिल्म में भारतीय नायक इस्लाम की जिस तरह से व्याख्या करता है वह एक शानदार दस्तावेज की तरह सम्भालकर रखने और बार-बार देखने और पढने के लिए नायाब तोहफे की तरह है।

स्मिता पाटिल ने संजीदा सिनेमा को एक नया व्याकरण दिया था

दूसरी तरफ अमेरिका में म्यूजिक की पढाई के लिए गये मंसूर के साथ 9/11 के हवाले से जो घटित होता है और उसे जेल पहुंचा देता है। जेल में वह दीवाल पर पहले लिखता है I love USA लेकिन जब उसके मुस्लिम होने के नाते उसकी बात पर भरोसा न करके अमानवीय व्यवहार किया जाता है तो बाद में यही वाक्य I love USAMA बन जाता है। बॉलीवुड की न्यूयॉर्क फिल्म भी 9/11 की घटना के सहारे ये बताने की कोशिश करती है कैसे एक पल में पूरी दुनिया में मुसलमान संदेह के घेरे में आ गये थे और बेवजह भी परेशान किये जाने लगे थे। उसी घटना के आसपास बनी बॉलीवुड फिल्म माय नेम इज खान  का यह सम्वाद बहुत चर्चा में रहा जिसे शाहरुख़ खान बार-बार दोहराते हैं माय नेम इस खान एंड आई एम् नाट टेररिस्ट

पाकिस्तान की नई पीढ़ी जिसने विभाजन की पीड़ा नहीं देखी है वो नये विषय भी चाहती है और उनपे फ़िल्में बना रही है। बिन रोये, मंटो, और करांची से लाहौर जैसी फ़िल्में विभिन्न सामजिक व मनोरंजक विषयों पर बनाई जा रही है जो पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री और फिल्मकारों के विकसित होते क्षितिज की तरफ इशारा करती हैं। पाकिस्तान में जब भारत-पाकिस्तान  संबंधों पर फ़िल्में बनती है तो नायिका हिन्दू या सिख और नायक मुस्लिम होता है. इसका कारण पुरुष वर्चस्ववादी सोच और व्यावसायिक सोच दोनों है जिसमें बेटी दूसरे जातीय या धार्मिक समुदाय को देने से हेठी होती है जबकि लेने से इज्ज़त बढ़ जाती है। दोनों मुल्कों में आज भी इज्ज़त सम्भालने की सारी ज़िम्मेदारी, सारा बोझ लड़कियों  के मजबूत कन्धों  पर ही है।

पाकिस्तान में प्रतिबंधित बॉलीवुड फ़िल्में

जैसा की पहले भी जिक्र किया गया है कि जब भी दोनों देशों के बीच सामरिक और रणनीतिक सम्बन्ध खराब होते हैं फिल्मों के प्रदर्शन और क्रिकेट पर प्रतिबन्ध लग जाया करता है। जब भी किसी बॉलीवुड फिल्म में पाकिस्तान को एक ‘बैड स्टेट’, आतंकवाद का गढ़, आतंकवाद की नर्सरी चित्रित किया जाता है, इस्लाम या मुसलमानों के बारे में नकारात्मक प्रस्तुतिकरण किया जाता है तो उन पर पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड द्वारा पाबंदी लगायी जाती है। कश्मीर मुद्दा, सीमा-विवाद, गालियों वाली भाषा, पाकिस्तान को हारते हुए दिखाना, सुसाइड बॉम्बर, अश्लील दृश्यों, आई. एस. आई. और पाकिस्तानी आर्मी द्वारा आतंकवादियो का सहयोग, मुस्लिम लड़की का हिन्दू लड़के  से प्रेम जैसे मुद्दों के आधार पर भी पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड और कोर्ट्स भारतीय फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा देते हैं। परन्तु यह एक तथ्य है कि पाकिस्तानी लोग भारतीय फिल्मों की पाइरेटेड सी.डी. भारी संख्या में देखते हैं और फिल्मिस्तान फिल्म के एक दृश्य में इसका चित्रण भी किया गया है। बॉलीवुड में निर्मित ऐसी फ़िल्में जिन पर पाकिस्तान में बैन लगाया गया है उनकी सूची निम्न प्रकार है-

दंगल : किसी दौर के नायकों को गढ़ने वाला भी नायक ही होता है
दंगल फिल्म का दृश्य

तेरे बिन लादेन (2010), लाहौर (2010), डर्टी पिक्चर (2011), डेल्ही बेली (2011), ख़िलाड़ी 786 (2012), एक था टाइगर (2012), एजेंट विनोद (2012), भाग मिल्खा भाग (2013), राँझना (2013), चिल्ड्रेन ऑफ़ वार (2014), हैदर (2014), कैलेंडर गर्ल्स (2015), फैंटम (2015),  बेबी (2015), बैंगिस्तान (2015), ढिशूम (2016), उड़ता पंजाब (2016), शिवाय (2016), दिल है मुश्किल (2016), नीरजा (2016), अम्बरसरिया (2016)दंगल (2017), नाम शबाना (2017), जॉली एल.एल.बी. 2 (2017), रईस (2017). टाइगर जिंदा है (2017), पैडमैन(2018).

थिएटर और भारतपाकिस्तान सम्बन्ध

भारत एवं पाकिस्तान के बीच बेहतर सम्बन्ध बनाये रखने और शांति एवं मित्रता बढ़ाने में कलाकारों और खिलाड़ियों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। विद्वानों, विद्यार्थीयों, अभिनेताओं, संगीतकारों और लेखकों के साथ कलाकार एवं खिलाड़ी अच्छे सम्बन्धों  को बनाये रखने में माध्यम के रूप में कार्य करते हैं। खेल और सिनेमा के अलावा थिएटर जैसे सांस्कृतिक माध्यम बहुत ही प्रभावी हैं। प्रसिद्ध पाकिस्तानी शान्ति कार्यकर्ता बी.एम. कुट्टी ने लिखा है भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंदिता कम करने के लिए दोनों देशों के सिविल सोसाइटी संगठन, पत्रकार, कलाकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता और खिलाड़ी बहुत ही सार्थक तत्व हैं और सीमा के दोनों तरफ के अच्छे सम्बन्धो को बनाये रखते हैं। कल्चरल डेमोक्रेसी की यह प्रक्रिया विचारों, मूल्यों, और परम्पराओं पर आधारित होती है जो दोनों देशों  के सामाजिक-सांन्सकृतिक सहयोग और राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देती है।

[bs-quote quote=”कश्मीर मुद्दा, सीमा-विवाद, गालियों वाली भाषा, पाकिस्तान को हारते हुए दिखाना, सुसाइड बॉम्बर, अश्लील दृश्यों, आई. एस. आई. और पाकिस्तानी आर्मी द्वारा आतंकवादियो का सहयोग, मुस्लिम लड़की का हिन्दू लड़के  से प्रेम जैसे मुद्दों के आधार पर भी पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड और कोर्ट्स भारतीय फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा देते हैं। परन्तु यह एक तथ्य है कि पाकिस्तानी लोग भारतीय फिल्मों की पाइरेटेड सी.डी. भारी संख्या में देखते हैं और फिल्मिस्तान फिल्म के एक दृश्य में इसका चित्रण भी किया गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

यहाँ यदि हम थिएटर की बात करे तो विश्व प्रसिद्द थिएटर कलाकार बर्तोल्त ब्रेख्त ने अपनी किताब ब्रेख्त ऑन थिएटर में शांति स्थापित करने के माध्यम के रूप में थिएटर की भूमिका पर चर्चा करते हुए लिखा है, थिएटर विभिन्न संस्कृतियों और राष्ट्रीयता के लोगों को नजदीक लाने का एक प्रभावी माध्यम है। यदि हम भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों को बेहतर बनाने में थिएटर के योगदान को देखें तो एक सुखद अतीत पाते है। जैसा की हम जानते हैं भारत और पाकिस्तान के बीच भाषाई और सांस्कृतिक समानतायें बड़ी मात्रा में विद्यमान हैं। बॉलीवुड की फ़िल्में, संगीत-गाने और थिएटर भौतिक सरहदों को अनसुना कर दोनों देशों के आम जनमानस को कनेक्ट करती हैं।जैनाब अख्तर ने अपने एक शोध पत्र में भारत और पाकिस्तान के महिला रंगकर्मियों को शांतिदूत बताते हुए उनके योगदान को रेखांकित किया है। युद्धों के दौरान, राजनीतिक दूरियों के दौरान इनके बीच होनी वाली बैठकें, सेमिनार, और नाटकों का मंचन मित्रता और सम्वाद की प्रक्रिया को बहाल रखता है। पाकिस्तान की दो महत्वपूर्ण थिएटर से जुड़ी महिलाओं शीमा किरमानी और मदीहा गौहर के ग्रुप क्रमशः तहरीकनिस्वान और अजोका तथा भारत की मशहूर महिला रंगकर्मी उषा गांगुली का थिएटर ग्रुप रंगकर्मी ने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति और समरसता स्थापित करने के सराहनीय प्रयास किये हैं। शीमा किरमानी ने महिलाओं के आन्दोलन को मजबूत करने के लिए तहरीक-ए-निस्वान की स्थापना की थी और उनके समूह द्वारा भारतीय नाटककार सफदर हाशमी के नाटक औरत का मंचन 1980 में किया था। दोनों देशों के कलाकरों के समूह ने इसके कुल दोनों देशो के कलाकरों के समूह ने इसके कुल 300  शो भारत और पाकिस्तान में विभिन्न स्थानों पर किये। राज़नियाज़, जंग अब नही होगी, रिद्मस ऑफ़ पीस, ज़िक्रनाशुनिदा जैसे नाटक भी इस ग्रुप द्वारा मंचित किये गये।

मदीहा गौहर के थिएटर ग्रुप अजोका द्वारा भी अपना पहला नाटक प्रसिद्ध भारतीय  नाटककार बादल सिरकार के नाटक जुलूस का मंचन किया गया। हुक्मरानों के शोषण और अन्याय के विरोध में प्रतिरोध एवं शान्ति के एक हथियार के रूप में थिएटर का प्रयोग किया गया। गौहर का मानना है की ‘इतिहास, भाषा, संस्कृति और सबसे महत्वपूर्ण थिएटर और अन्य प्रस्तुति आधारित कलाओं की साझी विरासत मुझे भारतीय नाटको के मंचन में बहुत मदद करती है’। सन 1993 में अजोका ग्रुप के नाटक एक थी नानी के माध्यम से जोहरा सहगल और उनकी बहन उजरा बट्ट जो की 1964 में पाकिस्तान जा बसी थीं, को 40 साल बाद एक साथ काम कराना एक भावनात्मक अनुभव था। इसी तरह अजोका ग्रुप के नाटककार शाहिद  नदीम द्वारा लिखित नाटक द सिक्स्थ रिवर का निर्देशन प्रसिद्ध भारतीय निर्देशिका अनुराधा कपूर द्वारा किया गया जिसमें  भारत-पाकिस्तान दोनों देशों के कलाकारों ने काम किया। सन 2015 में अजोका द्वारा चार (14 से 17 सितम्बर) दिनों का इंडिया-पाकिस्तान थिएटर फॉर पीस फेस्टिवल, हमसाया नाम से दिल्ली में मनाया गया। इस दौरान बुल्ला, दारा, कौन है ये गुस्ताख, लो फिर बसंत आई, जैसे नाटको का मंचन किया गया।

अमृतसर के थिएटर ग्रुप मंच, रंगमंच और रंगकर्मी द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे सम्बन्धो को बढ़ावा देने के लिए कलात्मक और सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है. इस ग्रुप की स्थापना ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ से पढ़े प्रसिद्ध रंगकर्मी केवल धालीवाल द्वारा 1991 में की गयी थी। केवल धालीवाल जी एक वार्षिक आयोजन कर दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को समृद्ध करने का सार्थक प्रयास करते हैं थिएटर और अन्य कला माध्यम सीधे दर्शकों से सम्वाद स्थापित करके उनपर सामूहिक असर डालने का कार्य करते हैं। शांति और युद्ध के विषयों पर आधारित नाटक दर्शको को सोचने और समझने के लिए सकारात्मक ढंग से प्रेरित करते हैं।

उम्मीदें हमेशा ज़िन्दा रहेंगी 

सन 1947 में ब्रिटिश राज का अंत और बंटवारे के बाद भारत-पाकिस्तान का दो देशों का धार्मिक पहचानों के आधार पर अस्तित्व में आना एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। तब से लेकर आज तक दोनों देशों के बीच बहुत ही जटिल और उतार-चढ़ाव से भरे और अक्सर शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध रहे हैं। कश्मीर और बांग्लादेश भी दोनों मुल्कों के दरम्यान खीचतान के प्रमुख कारण है। जहाँ भारत में आज़ादी के बाद से पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्र कायम और निरन्तर गतिशील है, पाकिस्तान में सेना की तानाशाही और आई. एस. आई. जैसी इंटेलिजेंस संस्थाओं के साथ-साथ आतंकवादी संगठनों और उनके लीडरान का वर्चस्व रहा है। चीन और अमेरिका के हस्तक्षेप भी कभी-कभी दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को खराब करने का काम करते रहें हैं। बंटवारे के समय करोडो की संख्या में लोगों को अपने मुल्क बदलने पड़े जिसमें सामुदायिक हिंसा में हजारों  लोगों को अपनी जान व इज्ज़त गवानी पड़ी जिसकी कड़वाहट आज तक अच्छे सम्बन्धों के दरम्यान आड़े आती है। जब भी बेहतरी की उम्मीद के साथ दोनों देशों के नेताओं ने दोस्ती के कदम बढ़ाये पाकिस्तानी सेना और आतंकवादी संगठनों ने घुसपैठ और गोलीबारी से उनकी पहल पर पानी फेरने का काम किया।

Law On Reels: Henna (1991): Is It Really A Trans-Border Love Story?सेना, सियासत और आतंकवाद के बीच सांस्कृतिक संगठन, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, फिल्मकारों, लेखकों, कवियों और नाटककारों ने एक उम्मीद की किरन बचा के रखी। यश चोपड़ा, बी.आर. चोपड़ा, राजकपूर, कबीर खान, जैसे फिल्मकारों ने मानवीय सम्बन्धो को तवज्जो देते हुए धर्मपुत्र, हिना, और बजरंगी भाईजान जैसी फ़िल्में बनाई जहाँ सरहद और सियासत नहीं इंसान से इंसान का रिश्ता ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। हालिया रिलीज फिल्म टाइगर जिंदा है में भारत और पाकिस्तान के इंटेलीजेन्स संस्थाओं की टीमें जॉइंट ओपरेशन करते हुए सीरिया में बंधक अपने-अपने देश के नर्सों को मुक्त कराते हैं और भारत और पाकिस्तान के झंडे भी लहराते हैं एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए। उनके पात्र ये कहते हैं की दोनों देशों के जवानों में कितना जोश है काश हम साथ-साथ होते तो सचिन और अफरीदी के सामने कोई भी देश क्रिकेट के खेल में टिक भी न पाता। सच भी है जितना जोर दुश्मनी निभाने में लोग लगाते हैं काश विभाजन न हुआ होता तो हम साथ में जोर लगाकर कितने मजबूत होते बंटवारे हमें कमजोर करते हैं। हिना फिल्म में जान की बाज़ी लगाकर एक कबीले के सरदार की बेटी भारतीय नायक को वापस भारत भेजती है तो बजरंगी भाईजान में एक गूंगी बच्ची को उसको घर पहुँचाने का खतरा बजरंगी भाई उठाते हैं। हैप्पी भाग जाएगी में कितने आसान और खूबसूरत कॉमेडी के सहारे सरहद के दोनों तरफ घटनाएं घटती हैं। अमृतसर और लाहौर शहर एक जैसे दिखते हैं और शायद हैं भी एक जैसे। हिन्दू-मुस्लिम पहचान से परे दो प्रेमी दिलो की धड़कन को बेलौस जोड़ने की कहानी को आमिर खान की फिल्म पीके में पाकिस्तानी लड़के सरफराज और भारतीय लडकी जग्गू के माध्यम से कितनी ख़ूबसूरती से दिखाया गया है।

इस सारी बातचीत का सारांश यह है कि प्यार, मोहब्बत, मानवीय मूल्य और रिश्ते सरहद, सियासत और बिना मतलब की नफरती नारों के मोहताज़ नहीं हुआ करते। फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के माध्यम से नए और बेहतर रास्ते बार-बार सुझाये हैं और युद्ध निरर्थकता को चित्रित किया है। कारगिल युद्ध के बाद पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता आस्मा जहाँगीर और भारतीय गांधीवादी निर्मला देशपांडे ने बाघा बॉर्डर पर गर्मजोशी से मुलाक़ात कर नये रिश्तों को बहाल करने और युद्ध को नकारने का साहस किया था। निर्मला देशपांडे, आसमां जहांगीर और मदीहा गौहर जैसे लोग अब हमारे बीच नहीं हैं जो दोनों मुल्कों के लोगों के बीच बेहतर सम्बन्धों की वकालत करते थे। अब ये ज़िम्मेदारी हम सबके कन्धों पर है।

संदर्भ सूची

जैनाब अख्तर (2016)इंडिया-पाकिस्तान रिलेशंस: एफ्फिकैसी ऑफ़ कल्चर, ए.ए.एस. सेज पब्लिकेशन
अंजलि गेरा रॉय (2012), द मैजिक ऑफ़ बॉलीवुड, सेज पब्लिकेशन, दिल्ली.
अजय के. चौबे एंड ए.आई. देवासुन्दरम(2017), साउथ एशियन डाएस्पोरिक सिनेमा एंड थिएटर,  रावत पब्लिकेशन, नई दिल्ली.
जसबीर जैन एंड सुधा राय () फिल्म्स एंड फेमिनिजम: एस्सेज इन इंडियन सिनेमा, रावत पब्लिकेशनस.
राजिन्दर के. दुदराह (2006)बॉलीवुड: सोशियोलॉजी गोज टू द मूवीज, सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली.
गूगल.कॉम

राकेश कबीर जाने-माने कवि, कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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4 COMMENTS
  1. सर, बहुत ही बेहतरीन। हमेशा की तरह शानदार और जबरदस्त।??

  2. बहुत बढ़िया राकेश जी। बहुत विस्तार और गहराई में जाकर अपने यह पठनीय और शोधपूर्ण आलेख लिखा है। बधाई।

  3. अर्थ, खामोश पानी, 1972, तमस, भुज, बटालियन, बार्डर, हिंदुस्तान की कसम, द गाजी अटैक, लसतम फस्टम, बेगम जान, छलिया, QISSA, पार्टीशन, लक्ष्य आदि कुछ अन्य फिल्में भारत और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर हैं। मुझे तमस, 1972, a train to pakistan, भुज आदि बेहतरीन फिल्में लगीं।

  4. बहुत ही सराहनीय और पठनीय आलेख सर जी
    भारत पाकिस्तान के संबंध हमेशा से ही ऐतिहासिक और राजनीतिक मुद्दों की वजह से तनाव में रहे हैं इसकी वजह भारत के विभाजन कश्मीर विवाद सीमा घुसपैठ आतंकवादी हमले सिंधु जल है फिर भी इन दोनों देशों के कला, साहित्य, और बॉलीवुड के निर्देशकों द्वारा अपनी फिल्मों के माध्यम से एक दूसरे को बांधने का निरंतर प्रयत्न किया गया है और अपनापन दिखाने का काम किया गया है। और हमारे देश में भी पाकिस्तान के कलाकारों को पसंद किया और सराहया भी है।
    भारत और पाकिस्तान संबंध पे लिखा गया ये आलेख सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक और मानसिक रूप से महत्वपूर्ण है।
    इतनी सुंदर आलेख लिखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद सर जी।

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