आज 19 नवंबर है। आज के ही दिन 1917 में इंदिरा गांधी का जन्म हुआ था। इस नाते आज के दिन का महत्व है। वह भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। हालांकि इसके लिए हम चाहें तो परिवारवाद को दोषी ठहरा सकते हैं। या कहिए कि इंदिरा गांधी में नेतृत्व का गुण उनके पिता की वजह से मिली थी और कम समय में ही उन्होंने अपने आपको महत्वपूर्ण बना लिया था। आपके पास सोचने के दोनों तर्क हैं। आप जो चाहें विचार करें लेकिन आप इससे इन्कार नहीं करेंगे कि जिन दिनों अन्य ब्राह्मणों की महिलाओं की रूह अपने घर की दहलीज को पार करने से डर जाती थी, उन दिनों जवाहरलाल नेहरू ने अपनी एकमात्र बेटी को न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उनके हर फैसले में उनका साथ दिया।
खैर, आज का दिन नेहरू को याद करने का नहीं है। आज तो साहसी और कर्मठ इंदिरा गांधी को याद करने का दिन है। उनके पिता ने जमींदारों और राजाओं से क्रमश: जमींदारी और रियासतें छीनीं और सामंतवाद पर करारा प्रहार किया था, प्रधानमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी ने एक के बाद एक कई अहम फैसले लिये। इनमें से एक फैसला था प्रीवी पर्स को खत्म करना। दरअसल, आजादी के बाद भी राजाओं और बड़े जमींदारों को भारत सरकार अपने कोष से पेंशन देती थी। इसे एक झटके में ही इंदिरा गांधी ने खत्म कर दिया। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी ने पहली बार बजट में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए पृथक आंवटन तय किया। इन्हें स्पेशल कंपोनेंट प्लान भी कहा जाता है।
सबसे दिलचस्प यह कि इंदिरा गांधी ने 42वां संविधान संशोधन वर्ष 1976 में पारित करवाया था जब देश में तथाकथित रूप से आपातकाल था। ये दोनों बातें एक-दूसरे का विरोध करती हैं। मतलब यह कि यदि देश में इमरजेंसी थी और अलोकतांत्रिक हुकूमत थी तब उसने प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ ही क्यों जोड़ा।
कई बार मेरी जेहन में यह विचार आता है और अबतक जितना मैंने अध्ययन किया है, अपने विचार के प्रति दृढ़ होता जाता हूं कि 1974 का आंदोलन भारत को भ्रष्टाचार मुक्त अथवा भारत को खुशहाल बनाने के लिए आंदोलन था ही नहीं। यह तो इंदिरा गांधी को हटाने का षडयंत्र था। मुझे इस बात से कोई हैरानी नहीं होती कि जनसंघ (आरएसएस का संगठन) का सहयोग लेकर जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को मात दी। वजह यह कि यह वही आरएसएस है जो 1954 में हिंदू कोड बिल का विरोध कर रहा था, जो कि हिंदू महिलाओं को पितृसत्ता की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाया गया था।
दरअसल, आज भी भारतीय समाज महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करना चाहता। इंदिरा गांधी के समय तो हालात और भी खराब थे। महिलाएं आगे बढ़कर देश का नेतृत्व करे, यह कहां किसी को बर्दाश्त था। उसपर से इंदिरा गांधी ने प्रीवी पर्स को खत्म कर दिया था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर पूंजीवादियों के हौसले पस्त कर दिए थे। ऐसे में जयप्रकाश नारायण जो कि ऊंची जातियों व बनिया वर्ग के एजेंट मात्र रहे, द्वारा इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन, अकारण नहीं था।
मैं तो इंदिरा गांधी को 42वें संविधान संशोधन के लिए याद करता हूं। इस संविधान संशोधन के जरिए इंदिरा गांधी ने जबरदस्त बहादुरी का परिचय देते हुए प्रस्तावना में ‘(समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता’ जोड़ा। इसके विरोध में जो तर्क पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा दिया गया, वह देखे जाने योग्य है। पूंजीवादियों और बनियों के दलाल वाजपेयी ने तब कहा था– ‘समाजवाद’ शब्द वर्तमान परिदृश्य में ‘निरर्थक’ है और इसे ‘एक विशेष विचार के बिना आर्थिक सोच’ के लिये जगह बनाने हेतु छोड़ दिया जाना चाहिये। तब के संघी धर्म निरपेक्षता और अखंडता को लेकर भी विरोध जता रहे थे।
अभी हाल ही में इस शब्द पर फिर विवाद हुआ था। जब वाजपेयी को अपना नेता माननेवाले नरेंद्र मोदी ने ‘समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और भारत की अखंडता’ के प्रति अपनी नफरत का परिचय देते हुए वर्ष 2015 में गणतंत्र दिवस के मौके पर एक सरकारी विज्ञापन में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द गायब करवा दिये थे।
अभी हाल ही में इस शब्द पर फिर विवाद हुआ था। जब वाजपेयी को अपना नेता माननेवाले नरेंद्र मोदी ने ‘समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और भारत की अखंडता’ के प्रति अपनी नफरत का परिचय देते हुए वर्ष 2015 में गणतंत्र दिवस के मौके पर एक सरकारी विज्ञापन में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और 'समाजवाद' शब्द गायब करवा दिये थे।
आज की युवा पीढ़ी शायद ही समाजवाद का मतलब जानती-समझती है। उसे तो इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा यदि मौजूदा केंद्र सरकार बहुमत के नशे में चूर होकर एक नया संविधान संशोधन करे और प्रस्तावना से इस महान शब्द ‘समाजवाद’ को विलोपित कर दे। दरअसल, भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद है अर्थात् यहाँ उत्पादन और वितरण के साधनों पर निजी और सार्वजानिक दोनों क्षेत्रों का अधिकार है। भारतीय समाजवाद का चरित्र अंबेडकरवादी समाजवाद की ओर अधिक झुका हुआ है, जिसका उद्देश्य अभाव, उपेक्षा और अवसरों की असमानता का अंत करना है। समाजवाद मुख्य रूप से जनकल्याण को महत्त्व देता है, यह सभी लोगों को राजनैतिक व आर्थिक समानता प्रदान करने के साथ ही वर्ग आधारित शोषण को समाप्त करता है।
सबसे दिलचस्प यह कि इंदिरा गांधी ने 42वां संविधान संशोधन वर्ष 1976 में पारित करवाया था जब देश में तथाकथित रूप से आपातकाल था। ये दोनों बातें एक-दूसरे का विरोध करती हैं। मतलब यह कि यदि देश में इमरजेंसी थी और अलोकतांत्रिक हुकूमत थी तब उसने प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ ही क्यों जोड़ा। उस समय इंदिरा गांधी चाहतीं तो ऐसे कानून बना सकती थीं, जो रूस के मौजूदा राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने अपने देश में बनवाया है। हालत यह है कि वे रूस के राष्ट्रपति तबतक बने रह सकते हैं, तबतक कि उनकी इच्छा रहेगी। ऐसे ही हालात चीन में हो गए हैं। वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने फिर से अपनी पार्टी का समर्थन हासिल कर लिया है। दरअसल चीन में वास्तविक लोकतंत्र है ही नहीं। वहां की हुकूमतें वहां की कम्युनिस्ट पार्टी तय करती है। यही फार्मूला भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी करती हैं। वह पार्टी कांग्रेस के दौरान यह फैसला लेती हैं कि उनके मुखिया कौन होंगे और कौन नहीं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि आज भी भारतीय वामपंथी दलों की बागडोर सवर्णों के हाथ में है। हालांकि डी. राजा महज अपवाद भर हैं।
बहरहाल, इंदिरा गांधी के समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और भारत की अखंडता को चुनौती भारतीय ब्राह्मणों ने न्यायालय में भी दी। केशवानंद भारती ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। साल 1973 में इंदिरा गांधी ने प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ने का फैसला किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है और संसद को प्रस्तावना में संशोधन करने का पूरा अधिकार है।
तो मेरे हिसाब से यह है वीर व साहसी प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी की कहानी।