अंबेडकरवादी विचार तो फैला है लेकिन दलितों का कोई बड़ा लीडर नहीं है

मानवाधिकार अधिवक्ता पीएल मिमरोठ से विद्या भूषण रावत की बातचीत

2 417

तीसरा और अंतिम भाग

क्या आप बामसेफ जैसे सामाजिक संगठनों या कर्मचारी यूनियनों से भी जुड़े? यदि हाँ, तो वहाँ आपकी क्या-क्या गतिविधियां थीं?

मैं बामसेफ में विधिवत तो नहीं जुड़ पाया परन्तु उसके प्रारम्भिक काल में जब उसकी बागडोर बामसेफ के संस्थापक डी.के. खापर्डे के हाथों में थी तब मैंने बामसेफ के 6-7 अधिवेशनों में वक्ता के रूप में भाग लिया। मैं इलाहाबाद, औरंगाबाद, लुधियाना, दिल्ली आदि स्थानों पर गया। मैं बामसेफ के कार्यक्रमों से इसलिए प्रभावित था कि वह दलितों को, खासकर सरकारी कर्मचारियों को बौद्विक जागृति और गरिमा दिलाने के लिए कार्य कर रहा था, परन्तु जब बाद में बामसेफ कई भागों में विभक्त हो गया तब उसके बाद बामसेफ के प्रति मेरी रुचि कम हो गई।

यह भी पढ़ें…

कुछ यादें, कुछ बातें (डायरी 1 मई, 2022)

मौजूदा दौर में दलितों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है और वे उसका मुकाबला कैसे करें?

मेरी राय में दलित समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह राजनीतिक दृष्टि से भ्रमित हो गया है। जो सामाजिक परिवर्तन के लिए धारदार संघर्षशील कार्यक्रम चलते थे वे अब कम हो गये हैं। बाबा साहेब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की विचारधारा का दलितों में, विशेषकर युवकों में बड़ी तेजी के साथ प्रचार-प्रसार हो रहा है, परन्तु उनको दिशा-निर्देश देने के लिए कोई क्षेत्रीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय संगठन अथवा नेता नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से भी दलित एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। राजनीतिक दलों की भूमिका भी दलित विरोधी है और तथाकथित दलित राजनेताओं का दलित जनमानस पर कोई प्रभाव नहीं रह गया है। दलितों में पुनः दलित नेतृत्व की धार को पैना बनाने के लिए भी बाबा साहेब के तीन मूल मंत्र का पालन करना जरूरी है। आज हम बाबा साहेब की बहुत याद करते हैं लेकिन उनकी इन तीनों बातों (शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो) पर गौर नहीं करते।

अब दलित और दलितों की युवा शक्ति ही एकजुट होकर दलितों की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन कर सकती है और सभी राजनीतिक दल और राजनेताओं को इस बात के लिए विवश कर सकती है कि वे दलितों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थिति को गैर दलितों के बराबर की स्थिति में लाने के लिए काम करें।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

दलितों पर, खासकर दलित महिलाओं पर, हिंसा जारी है। अनुसूचित जाति/ जनजाति कानून अभी तक किसी भी मुकाम पर नहीं जा पाया है। क्या कानून में कोई कमी है?

दलित महिलाएं दोहरे शोषण की शिकार होती हैं। एक तो महिला होने के कारण से, दूसरे दलित महिला होने के कारण से अत्याचार ज्यादा होते हैं। दलित महिलाओं पर अत्याचार का मुख्य कारण यह है कि आरोपियों को अपराध करने पर भी इस बात का डर नहीं रहता है कि उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही होगी। इसलिए आरोपी दलित महिलाओं, नाबालिग बालिकाओं को अत्याचार व यौन शोषण का शिकार बना लेते हैं।

ऐसे मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं होती, होती है तो सही धाराओं में मुकदमा दर्ज नहीं किया जाता। अगर मुकदमा दर्ज हो जाता है तो जांच सही नहीं की जाती जिसके कारण दलित अत्याचार के प्रकरणों में दलित पीड़ितों को न्याय मिलना बड़ा मुश्किल है।

यह भी पढ़ें…

सामाजिक क्षेत्र में राजनीति से ज्यादा बड़ा योगदान किया जा सकता है

इसे दलितों का दुर्भाग्य कहें या दबंग जाति की दलित विरोधी मानसिकता अथवा सरकार की दलितों के प्रति और इस कानून की पालना में बरती गई उदासीनता। जब अनूसूचित जाति/जनजाति कानून 1989 में लागू हुआ स्थानीय स्तर पर कोई भी सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, पुलिस प्रशासन के लोग व जन प्रतिनिधि इस कानून के बनने से खुश नही थे उसका परिणाम यह हुआ की कानून तो बन गया लेकिन इसकी प्रभावी क्रियान्वयन व पालना की जगह कानून कैसे असफल हो इसकी जुगत में लग गये। परिणाम यह निकला कि जो कानून दलितों के हित, सुरक्षा, सम्मान व गरिमा दिलाने के लिए बनाया गया था वह कानून खुद ही उत्पीड़न का शिकार हो गया। दबंग जाति के लोग और पुलिस प्रशासन के लोग उक्त कानून का दुरुपयोग करने की बात कह कर कानून के तहत कार्यवाही नहीं करके लोगों को उसके लाभ से वंचित करने का प्रयास करते हैं। इसके कारण से जिस मंशा के साथ कानून का निर्माण किया गया था उसकी पूर्ति नही हो पाई।

यह भी पढ़ें…

चकवाड़ा में परंपरा के नाम पर अस्पृश्यता को बनाए रखने और बैरवाओं के बहिष्कार का नेतृत्व विश्व हिन्दू परिषद ने किया था

सांप्रदायिकता और जातिवाद ने भारतीय समाज का बहुत नुकसान किया है। अंधविश्वास गांव और शहरों में जारी है। टीवी से अज्ञानता फैलाई  जा रही है। आरक्षण लागू नहीं किया जा रहा है और उसको खत्म करने के तरीके ढूँढे जा रहे हैं। न्यायालयों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। हालात बहुत निराशाजनक है। इस निराशावाद से कैसे बचें?

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये निराशावाद से बचने के लिए बाबा साहेब की विचारधारा व बौद्व धर्म की शिक्षाओं और विचारधारा का प्रचार-प्रसार करें तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को आत्मसात करें। शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत के लोगों को प्रधानता दी गई है न कि सरकार या चुने हुये प्रतिनिधियों को। इसलिए लोगों में देश की एकता, अखण्डता, समानता, भाईचारा, अवसर की समानता, विकास के अवसर आदि के लिए प्रचार-प्रसार के लिए सरकार प्रयास करें ताकि निराशावाद से बचा जा सके।

राजनीति को कुछ लोग अन्तिम सत्य मानते हैं, या यूँ कहिये सोने की चाबी। क्या कभी आपको लगा कि अगर बहुसंख्यक राजनीति या नेता वाकई ईमानदार और सच्चे होते तो आज दलित-पिछड़े-आदिवासियों को इस तरीके का निराशावाद नहीं झेलना पड़ता?

बहुजन राजनीति के लोगों का मत है कि यदि एक बार सत्ता हाथ में आ जाये तो दलित वर्ग की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है परन्तु वास्तव में यह बात पूरी तरह सच साबित नहीं हो पाई है। सत्ता में सक्रिय भागीदारी पाने के लिए राजनीति में आना बहुत जरूरी हो गया है, परन्तु इसके साथ ही साथ सामाजिक परिवर्तन ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकता है। यद्यपि एससी/ एसटी के लिए लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षित सीटों पर शत-प्रतिशत दलित लोग निर्वाचित होकर आते हैं परन्तु क्या वे ईमानदारी के साथ दलितों की सुरक्षा व विकास के लिए कोई योगदान दे रहे हैं? वे केवल अपनी सीट को सुरक्षित करने के प्रयास में लगे रहते हैं। न्याय व हक की बात के लिए भी हमारे प्रतिनिधि दलितों की खुल कर वकालात नहीं कर पाते हैं इससे स्पष्ट होता है कि दलित जनप्रतिनिधि ईमानदारी के साथ दलित लोगों की सुरक्षा व विकास के लिए कोई सराहनीय योगदान  नही है।

यह भी पढ़ें…

मराठी की पहली दलित गद्यकार जिसने ब्राह्मणवादियों के दाँत खट्टे कर दिये

सामाजिक सगंठन भी चुप हो गये हैं। धरना-प्रदर्शन करोगे तो कार्यवाही होगी? क्या हमें काम बंद कर देना चाहिये या उसका मुकाबला करना चाहिए। क्या दलितों का मुद्दा अग्र संगठनों के एजेंडे से गायब होता जा रहा है? क्या हमारे अंदर वैचारिक प्रतिबद्वता की कमी है?

वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में सामाजिक संगठनों की प्रासंगिकता कम हो गई है तथा वे अब ज्यादातर जातिगत संगठनों व संस्थाओं के आधार पर एकजुटता दिखाते हैं। जबकि उनकी संघर्ष करने की शक्ति क्षीण होती जा रही है। इसके अलावा आप सामाजिक संगठनों के पास संसाधन व स्रोतों की कमी होने के कारण भी अब धरना-प्रदर्शन नही कर पा रहे हैं, क्योंकि सरकार की ओर से भी अब अनेक प्रकार के रोड़े अटकाये जा रहे हैं। इसके अलावा राजनीतिक कारणों से भी दलित संगठन एक होकर कोई सामूहिक व राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम चलाने में असहाय महसूस कर रहे हैं।

यह भी पढ़ें…

सत्यनारायण का पीढ़ा

दलितों के मानसम्मान की लड़ाई को जारी रखने के लिए आपके अनुभवों से हम लोग बहुत सीख सकते हैं। आने वाली पीढ़ी और नए कार्यकर्ताओं के लिए आप क्या कहना चाहेंगे।

यदि वास्तव में हम दलित व आदिवासियों की खोई हुई गरिमा व अस्मिता को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें दलित युवाशक्ति की ऊर्जा का इस्तेमाल करना जरूरी है क्योंकि अब नये तकनीकी व सूचना तंत्र के द्वारा युवाओं को प्रशिक्षित कर विकास के नये मार्ग प्रशस्त करने की आवश्यकता है। मैं आने वाली पीढ़ी को यही कहना चाहूंगा कि ‘ज्ञान ही शक्ति है’ इसलिए चाहे आप किसी भी क्षेत्र में पैर रखें उस क्षेत्र की जानकारी  होना आवश्यक है। तभी आप सफल हो सकते हो। दूसरों के ऊपर आश्रित होकर सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकते हैं। इसलिए मेरा युवा पीढ़ी से यह आह्वान है कि चाहे दलित, युवा राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, किसान, अधिकारी, उद्यमी, व्यापारी कुछ भी बनें, आपकी उस विषय पर इतनी पकड़ हो कि लोग आपसे सलाह लेने आएँ। तभी आप सफल हो सकते हो।

vidhya vhushan

विद्या भूषण रावत जाने-मने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

Leave A Reply

Your email address will not be published.