पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने कबीर सम्बंधी अध्ययन में जाति प्रश्न को अंग्रेजी शासन की देन बताते हुए इसे औपनिवेशिक ज्ञानकांड तक सीमित कर देते हैं, वे वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी संरचना के क्रिटिक में असफल हैं।
(बातचीत का दूसरा हिस्सा)
आपने ‘हंस’ के अगस्त 2017 अंक में अरुंधति राय के नए उपन्यास ‘दि मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ पर भी लिखा है, जिसमें आप कहते हैं कि ‘कश्मीर वृतांत की केन्द्रीयता के मूल में भारतीय सत्ता तंत्र के उस गैर जनतांत्रिक और सैन्य केन्द्रित स्वरूप का उद्घाटन है जो प्रायः गोपन और अचर्चित रहता है। राजनीतिक मुहावरे में लिखे गए इस राजनीतिक उपन्यास का मूल्यांकन पारम्परिक निकष पर नहीं किया जा सकता।…इन दिनों विश्व साहित्य में औपन्यासिक गद्य को लेकर जो नया विमर्श दरपेश है उसके चलते अरुंधति राय के इस उपन्यास की नोबेल पुरस्कार के लिए प्रबल दावेदारी है।’ वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है कि फिक्शन की आड़ लेकर कश्मीर पर बात करने में उपन्यासकार पर एक एक्टिविस्ट हावी हो जाता है। उसकी भाषा तल्ख हो जाती है। यह फंतासी, यथार्थ और साक्ष्यों का एक घोल सरीखा है। ऐसे में अरुंधति के भक्त पाठकों को यह उपन्यास भा सकता है, पर फिक्शन पढ़ने वालों को निराशा हाथ लगेगी। इसी उपन्यास से जुड़ा अरुंधति राय का कथन है कि भारतीय समाज की कथा लिखते हुए दलित यथार्थ की अनदेखी वैसा ही है जैसे दक्षिण अफ्रीका के बारे में लिखते हुए रंगभेद के प्रति अंधत्व का होना। शायद इसी दृष्टिकोण के तहत उन्होंने उपन्यास में दुलिना कांड (हरियाणा में कथित गो भक्तों द्वारा की गई दलितों की हत्या) एवं ऊना के दलित प्रकरण के तार जोड़ते हुए यातना से लेकर प्रतिरोध तक का विमर्श रचा है, इन सभी प्रश्नों के बारे में आपका क्या मानना है?
यह सच है कि अरुंधति राय के नए उपन्यास ‘दि मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ का मूल्यांकन फिक्शन के पारम्परिक आस्वादपरक निकष पर नहीं किया जा सकता। दरअसल यह एक राजनीतिक उपन्यास है, जिसमें औपन्यासिक पात्र राजनीतिक परिदृश्य और घटनाक्रम के निमित्त हैं। उपन्यास के फार्म में यह भारतीय जनतंत्र का ऐसा क्रिटिक है जिसमें कश्मीर, नक्सलवाद, आदिवासी, दलित, साम्प्रदायिकता से लेकर थर्ड जेंडर तक कथ्य में समाहित हैं । यह करते हुए वे उपन्यास लेखक और पब्लिक इंटलेक्चुअल की भूमिका में एक साथ उपस्थित हैं। दलित यथार्थ की अनदेखी का उल्लेख करने के पीछे उनका संकेत अंग्रेजी उपन्यासों के उस कास्मोपोलिटन स्वरुप को लेकर है जो भारतीय परिवेश में रचे जाने क े बावजूद कमोबेश ग्लोबल यथार्थ की ही प्रस्तुति करते हैं। अपने उपन्यास ‘दि मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ में दुलिना, ऊना की घटनाओं और दलित प्रसंग की उपस्थिति के माध्यम से एक तरह से अरुंधति ने उचित ही इसकी क्षतिपूर्ति की है।
आप प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) का अभिन्न अंग रहे हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से भी जुड़े रहे हैं । ऐसे में दोनों संगठनों से जुड़े कुछ सवालों के जवाब आपसे बनते हैं । पहला यह कि भाकपा के महासचिव अजय घोष ने 1953 के आसपास प्रलेस को विसर्जित करने का सुझाव देते हुए कहा था कि प्रगतिशील लेखक संघ से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हुई। महज चार साल बाद वही सुझाव प्रलेस के महासचिव कृशन चन्दर ने स्वयं दिया था। दूसरा यह कि आपने ‘प्रगतिशील लेखन आन्दोलन: दशा एवं दिशा’ शीर्षक लेख में लिखा है कि प्रलेस के मोर्चे पर जिस संकीर्णतावाद के लिए डॉ. रामविलास शर्मा को जिम्मेदार ठहराया जाता है उसके मूल में बी.टी. रणदिवे के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी का ‘वामपंथी संकीर्णतावाद’ था, आपकी नजर में क्या था भाकपा का संकीर्णतावाद और प्रलेस को विसर्जित करने का मंतव्य और क्या आपके इस लेख को पार्टी फोरम पर स्वीकार लिया गया था या इसकी कीमत आपको किसी रूप में चुकानी पड़ी?
यह स्वीकार करना होगा कि प्रगतिशील लेखक संघ का भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन और पार्टी से अभिन्न रिश्ता रहा है। जहाँ इसका लाभ यह था कि आजादी के आन्दोलन के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों का वृहत समुदाय अपनी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका का निर्वाह करते हुए इस आन्दोलन का सक्रिय हिस्सा बना वहीं यह भी हुआ कि पार्टी की नीति के अनुसार आजादी के बाद लेखकों से भी पार्टी नीति के अनुसरण की अपेक्षा की जाने लगी। इसी का परिणाम था कि जब बीटी रणदिवे के नेतृत्व में पार्टी ने ‘यह आजादी झूठी है’ का नारा दिया तब डॉ. रामविलास शर्मा ने भी प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री के रूप में संगठन से जुड़े लेखकों से कठोर स्तालिनवादी लेखकीय दृष्टि की अपेक्षा की, जिसके परिणाम स्वरूप राहुल सांस्कृत्यायन, यशपाल, अमृत राय आदि सरीखे लेखक भी संगठन से विमुख हुए। बीटी रणदिवे के बाद जब अजय घोष पार्टी के महासचिव बने तब उन्होंने इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए प्रलेस के विसर्जन तक की बात भी कही और ‟ कृशन चंदर ने महासचिव के रूप में यह किया भी। बाद में जब 1980 के जबलपुर सम्मेलन के बाद प्रलेस को सांगठनिक स्तर पर पुनर्जीवित किया गया तब हम सब सक्रियता पूर्वक इसके साथ जुड़े। अप्रैल 1986 में इसकी स्थापना के पचास वर्ष पूरे होने पर लखनऊ में इसका स्वर्ण जयन्ती समारोह आयोजित किया गया, जिसे लेकर कुछ गंभीर आपसी मतभेद उभरे। मैंने इन मुद्दों को लेकर एक वैचारिक लेख ‘हंस’ के जनवरी 1987 अंक में लिखा, जिसे लेकर कई अंकों तक पत्रिका में बहस चली। मैं उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का सदस्य था और कामरेड सरजू पांडे पार्टी के प्रदेश सचिव। उन्होंने इस लेख पर मुझे कारण बताओ नोटिस दिया। मैंने उसका तार्किक लेकिन तीखा जवाब देते हुए पार्टी को ही प्रश्नांकित कर दिया। नतीजे के रूप में उन्होंने मुझे यह लिखित ताकीद दी कि बाहर की पत्र-पत्रिकाओं में मैं ऐसे लेख न लिखूं। उसके बाद ही मैंने अपनी पार्टी सदस्यता का नवीनीकरण न कराकर पार्टी से मुक्ति पा ली, लेकिन प्रलेस से मेरा रिश्ता बना रहा और आज भी है।
“रामविलासजी भारतीय समाज में जाति शोषण के तथ्य और सामाजिक न्याय की जरूरत से ही इनकार करते थे, जबकि निर्मल वर्मा वर्ण और जाति की पारम्परिक भूमिका का महिमा मंडन करते हुए उसकी औचित्य सिद्धि करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने कबीर संबंधी अध्ययन में जाति प्रश्न को अंग्रेजी शासन की देन बताते हुए इसे ‘औपनिवेशिक ज्ञान काण्ड’ तक सीमित कर देते हैं । निष्कर्षतः यह कि इन तीनों के यहाँ ‘वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी’ संरचना का क्रिटिक अनुपस्थित है भले ही अलग-अलग कारणों से। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जहाँ ग्राम केन्द्रित कथा साहित्य में जाति दंश और शोषण के मुद्दे शामिल हैं वहीं नगरीय मध्यवर्गीय साहित्य में यह प्रायः अनुपस्थित है। यह भी लक्षित किया जाना चाहिए कि हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा ने भी जाति प्रश्नों को अपने अध्ययन में शामिल नहीं किया। यही कारण है कि प्रायः वे उपन्यास चर्चा से बाहर रहे, जिनमें जाति प्रश्नों की केन्द्रीयता थी।”
प्रगतिशील लेखक संघ के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि उसने आपातकाल का समर्थन करके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति से अपनी नाभिनालबद्धता का परिचय दिया?
जहाँ तक प्रलेस द्वारा आपातकाल के समर्थन की बात है तो वह एक राजनीतिक फैसला था। भाकपा तत्कालीन परिस्थितियों के अपने राजनीतिक आकलन के अनुसार आपातकाल लगाए जाने के समर्थन में थी। प्रलेस पर पार्टी का वैचारिक राजनीतिक प्रभाव था, जिसके चलते प्रलेस की राष्ट्रीय समिति ने आपातकाल के समर्थन का प्रस्ताव पारित किया था। यद्यपि यह भी सच है कि प्रलेस से जुड़े कई लेखक व्यक्तिगत रूप से संगठन के इस निर्णय से सहमत नहीं थे।
वामपंथी लेखक संगठनों (प्रलेस, जलेस, जसम) से लेकर दलित लेखक संघ तक अनेक संगठन काम कर रहे हैं’ लेकिन मौजूदा बर्बरता वाले समय में क्या किसी तरह के हस्तक्षेपकारी उनकी भूमिका बची है, क्या वह केवल पैड और मुहर में कैद होकर रह गए हैं, क्या लेखकों के लिए विचारधारा और साम्प्रदायिकता का कोई मसला नहीं रहा?
दरअसल लेखक संगठन यदि इस चुनौतीपूर्ण दौर में प्रभावी हस्तक्षेपकारी भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं तो अकेले उनका दोष या कमी नहीं है। इस दौर में समूचा वामपंथी आन्दोलन जिस पस्ती और निष्क्रियता के दौर से गुजर रहा है वह भी उसके लिए जिम्मेदार है। स्वीकार करना होगा कि सोवियत संघ के विघटन के बाद वामपंथी आन्दोलन की दशा और दिशा में जो ठहराव आया है वह भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है।
पिछले कुछ वर्षों में अनेक भाषा-भाषी लेखकों/पत्रकारों को निशाना (कांचा इलैय्या, हांसदा सोवेन्द्र शेखर, पेरुमल मुरुगन, मृदुला मुखर्जी, तस्लीमा नसरीन, यूएस अनंतमूर्ति, बिपन चन्द्र, गौरी लंकेश, नरेन्द्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी व गोविन्द पानसरे) बनाया गया। आज भी बनाया जा रहा है। हत्याएं तक की जा रही हैं, लेकिन क्या कारण है कि हिन्दी के लेखकों के सामने कभी इस तरह की परेशानी नहीं दिखती, क्या हिन्दी का लेखक विषयों के चयन में इतना सुविधाभोगी हो गया है कि वह किसी तरह के खतरे मोल नहीं लेना चाहता है?
यह तथ्य विचारणीय है कि आखिर क्यों वे ही लेखक इस दौर में निशाने पर हैं जिन्होंने हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी संरचना या धार्मिक अन्धविश्वास व कूढ़मगजता को प्रश्नांकित किया। और यह भी कि गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश जिनकी हत्याएं इस दौर में हुईं या कांचा इलैय्या, पेरुमल मुरुगन, हांसदा सोवेन्द्र शेखर आदि सहित अधिकांश बुद्धिजीवी जो हिन्दुत्ववादियों के निशाने पर हैं वे अपनी भाषा और समाज में गहराई से रचे बसे हैं। उनका लेखन और कथन व्यापक जनमानस को दूर तक प्रभावित करने वाला है इसलिए वे उग्र हिंदुत्व की शक्तियों के सीधे निशाने पर हैं। जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि चाहे धर्म का मुद्दा हो या जाति का प्रायः जोखिम के इलाके का लेखन कम ही हो रहा है। हिन्दी के अधिकांश लेखक साम्प्रदायिकता के विरुद्ध तो मुखर हैं, लेकिन धर्म की वर्णाश्रमी संरचना या जातिभेद के प्रश्न पर उनमें वैसी आक्रामक मुखरता नहीं है जैसी तेलगु, कन्नड़, मराठी और मलयाली लेखकों में है। इस दौर में दूधनाथ सिंह का उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ जिस बेबाकी और साहस के साथ ब्राह्मणवाद, तुलसीदास और रामचरितमानस को प्रश्नांकित करता है वह इधर की रचनाओं में इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर प्रायः अनुपस्थित है।
आपका मानना है कि ‘अभिजन को जिस तरह जनतंत्र रास नहीं आता उसी तरह आभिजात्य धारा के लेखकों को साहित्य के यथार्थ का जनतंत्र नहीं सुहाता। इसीलिए वे प्रेमचंद, रेणु, मुक्तिबोध व धूमिल के समानान्तर जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा व विनोद कुमार शुक्ल की पांत खड़ी करते हैं। यथार्थवाद के सींखचों से मुक्त करने के नाम पर वे साहित्य को अपने वर्गीय हितों की पूर्ति का साधन बनाना चाहते हैं।…आखिर क्यों डॉ. रामविलास शर्मा वर्गीय दृष्टि, नन्द किशोर नवल कविताई और पुरुषोत्तम अग्रवाल औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के तर्क के सहारे अन्ततः वहीं पहुंचते हैं जहां निर्मल वर्मा ‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ की चर्चा करते हुए वर्षों पूर्व पहुंच चुके थे, आखिर क्यों ब्राह्मणवाद का क्रिटिक इन सभी में अनुपस्थित है’ क्या इसके लिए इन मध्यवर्गीय लेखकों को मध्यवर्गीय सरोकारों तक सीमित कर देना आप बड़ी वजह मानते हैं या कुछ और कारण हैं ?
दरअसल साहित्य को लेकर हिन्दी ही नहीं वैश्विक स्तर पर ‘कला बनाम यथार्थ’ और ‘स्वायत्तता बनाम सोद्देश्यता’ की बहस रही है। साहित्य की अभिजनवादी दृष्टि विषयवस्तु और तकनीक की शुद्धता की आग्रही होकर प्रायः शाश्वत, सार्वकालिक और स्थायी मूल्यों की आड़ में देश और समाज के व्यापक प्रश्नों से विमुख होकर व्यक्तिवादी आस्वादपरक साहित्य की पैरोकारी करती रही है। प्रेमचंद, यशपाल, राही मासूम रजा, भीष्म साहनी और जगदीश चन्द्र सरीखे लेखक इसीलिए कभी अभिजनवादी रुचि के लेखकों द्वारा न पसंद किए गए और न उनकी ‟तियाँ ही इन लेखकों की चर्चा में शामिल हुईं। रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’ अकेला ऐसा अपवाद है जो कलावादियों या अभिजन लेखकों द्वारा भी पसंद किया गया, लेकिन इसके मूल में ‘मैला आँचल’ की काव्यमयता, लोकजीवन, प्रति चित्रण आदि के तत्व ही प्रधान थे इसका जीवन राग और सामाजिक-राजनीतिक चेतना नहीं। सच तो यह है कि राजनीति के साथ दूरी ही वह विशेष गुण था जिसके चलते विनोद कुमार शुक्ल और मनोहर श्याम जोशी इन कलात्मक अभिजनवादी लेखकों के लिए विशेष रूप से स्वीकार्य हुए और प्रगतिशील प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि के अधिकांश लेखक त्याज्य।
मैने जहाँ डॉ.रामविलास शर्मा, निर्मल वर्मा और पुरुषोत्तम अग्रवाल की एक साथ चर्चा की है उसका सन्दर्भ किंचित भिन्न है। यह सन्दर्भ इन तीनों के चिंतन में वर्ण और जाति के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। रामविलासजी भारतीय समाज में जाति शोषण के तथ्य और सामाजिक न्याय की जरूरत से ही इनकार करते थे, जबकि निर्मल वर्मा वर्ण और जाति की पारम्परिक भूमिका का महिमा मंडन करते हुए उसकी औचित्य सिद्धि करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने कबीर संबंधी अध्ययन में जाति प्रश्न को अंग्रेजी शासन की देन बताते हुए इसे ‘औपनिवेशिक ज्ञान काण्ड’ तक सीमित कर देते हैं । निष्कर्षतः यह कि इन तीनों के यहाँ ‘वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी’ संरचना का क्रिटिक अनुपस्थित है भले ही अलग-अलग कारणों से। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जहाँ ग्राम केन्द्रित कथा साहित्य में जाति दंश और शोषण के मुद्दे शामिल हैं वहीं नगरीय मध्यवर्गीय साहित्य में यह प्रायः अनुपस्थित है। यह भी लक्षित किया जाना चाहिए कि हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा ने भी जाति प्रश्नों को अपने अध्ययन में शामिल नहीं किया। यही कारण है कि प्रायः वे उपन्यास चर्चा से बाहर रहे, जिनमें जाति प्रश्नों की केन्द्रीयता थी। जगदीश चन्द्र, गिरिराज किशोर और मदन दीक्षित के उपन्यास इसके उदाहरण है। जाति शोषण के मुद्दे का रचनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर अनदेखा रह जाना हिन्दी साहित्य के जनतांत्रीकरण की प्रक्रिया में बाधक बना, जिसका परिणाम है हिन्दी में दलित साहित्य की आमद और जरूरत।
आप मानते हैं कि यह महज संयोग नहीं था कि इस समूचे अभियान के दौरान प्रेमचंद को कमतर, खारिज और कुपाठ करने के सर्वाधिक प्रयास किए गए। लम्बे समय तक जारी इस अभियान में अज्ञेय, धर्मवीर भारती और निर्मल वर्मा सरीखे बौद्धिकों ने प्रेमचंद पर अलग-अलग ढंग से प्रहार किए, यह साहित्य में ‘होरी’ की बेदखली और ‘शेखर’ के महिमा मंडन का दौर था। इस परिप्रेक्ष्य में मेरा आपसे सवाल है कि ‘गोदान’ को प्रकाशित हुए 80 साल से अधिक हो गए। देश को आजादी मिले भी करीब 70 साल हो गए। लेकिन क्या हिन्दुस्तान में होरियों की संख्या कम हो गई… सरकारी विकासवादी शोर के दौर में कर्ज के फंदे में फंसे तीन लाख से अधिक होरियों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली है। इस ‘विकासवादी’ युग में असंख्य होरी नए-नए रूप में हमारे सामने खड़े हैं। ऐसे में क्या ‘होरी’ की बेदखली संभव है?
दरअसल ‘होरी बनाम शेखर’ का प्रश्न साहित्य की दो दृष्टियों का मुद्दा है। होरी की केन्द्रीयता का अर्थ है हाशिए के श्रमशील समाज की साहित्य केन्द्रीयता और शेखर के नायकत्व से जुड़ा है अभिजन समाज के मूल्यों की साहित्यिक स्वीकार्यता। एक दृष्टि जीवन संग्राम से जुड़ी है तो दूसरी फुरसतिया समाज के ‘कलात्मक’ पलायन से। यह गंभीर विचार का मुद्दा है कि समाज के ज्वलंत प्रश्न साहित्य में दिनोंदिन क्यों अपनी केन्द्रीयता दर्ज नहीं करा पा रहे हैं । क्या यह चिंता का विषय नहीं है कि किसान की आत्महत्या सरीखे ज्वलंत मुद्दे पर अब तक संजीव के ‘फांस’ के अतिरिक्त दूसरा कोई उपन्यास नहीं लखा गया है। क्यों?
“नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने अस्सी के शुरुआती दशक में साहित्य में परिवर्तनकामी चेतना को तीक्ष्ण करने का जो कार्य किया उसकी अनुगूंज कुछ समय तक तो रही, लेकिन वह हिन्दी साहित्य की स्थायी मूल्य चेतना में परिवर्तित न हो सकी। उस दौर में ‘गोली दागो पोस्टर’ कविता लिखने वाले आलोक धन्वा सरीखे कवि बाद में ‘भागी हुई लड़कियां’ लिखने लगे। बंगला साहित्य जिस तरह नक्सल चेतना से भरा-पूरा था वैसा हिन्दी साहित्य में नहीं हुआ। संजीव की उपन्यासिका ‘पाँव तले की दूब’ और कुछ अन्य कहानियां जरूर उस प्रभाव में लिखी गई थीं। वेणु गोपाल, राम निहाल गुंजन, विजयकांत और मधुकर सिंह, गोरख पाण्डेय आदि इस चेतना से लैस अवश्य थे, लेकिन वे कोई स्थायी प्रभाव या पहचान न बना सके। इसलिए हिन्दी में परिवर्तनकामी चेतना का व्यापक दायरा प्रगतिशील और जनवादी धारा से ही जुड़कर जितना समृद्ध हुआ उतना नक्सलवाद से प्रभावित होकर नहीं। ”
आपने विनोद कुमार शुक्ल के वर्णनात्मक कौशल की यथा प्रसंग अनेक बार आलोचना की है, लेकिन लगभग उन्हीं कौशलों के लिए अलका सरावगी की प्रशंसा की है, ऐसा क्यों?
विनोद कुमार शुक्ल की भाषायी कलात्मकता और अलका सरावगी की कलात्मक अभिव्यक्ति के सन्दर्भ भिन्न हैं। जहाँ विनोद कुमार शुक्ल तकनीक की साधना करते हुए मूर्त सामाजिक स्थितियों को अमूर्त बनाते हैं वहीँ अलका सरावगी तकनीक को मूर्त संसार के अधिकतम दोहन का साधन बनाती हैं। इसलिए मैं जब तकनीक को लेकर विनोद कुमार शुक्ल और अलका सरावगी के विरोधी सादृश्य प्रस्तुत करता हूँ तो एक के प्रति जहाँ नकार का भाव है वहीं दूसरे के प्रति स्वीकार का।
प्रगतिशील लेखन आंदोलन को प्रश्नांकित करते हुए आपने लिखा है- आखिर क्यों दलित और स्त्री विमर्श के इस दौर में गैर दलित और गैर स्त्री रचनाकारों द्वारा इन मुद्दों से कमोबेश किनाराकशी की जा रही है वहीं एक दूसरे आलेख में दलित जीवन को केन्द्र में रखकर लिखी गई रचनाओं को गिनाते हुए कहा है कि जिस दलित जीवन को केन्द्र में रखकर ये रचनाएं लिखी गई हैं उनके प्रवक्ता एवं बुद्धिजीवी भी इन रचनाओं से या तो बेखबर हैं या उनकी अनदेखी मात्र इसलिए करते हैं कि वे स्वयं दलितों द्वारा नहीं लिखी गई हैं, एक ही मसले पर दो तरह की बातें क्यों?
दरअसल यह दोनों बातें विरोधाभास न होकर अलग-अलग समयावधि पर लागू होती हैं। बात थोड़ी विवादास्पद लग सकती है, लेकिन सच यही है कि जबसे दलित लेखन की हिन्दी में गहमा-गहमी बढ़ी है तब से गैरदलित लेखकों द्वारा दलित विषयक रचनाओं से किनाराकशी की जाने लगी है। मैं तो आगे बढ़कर यहाँ तक कहता हूँ कि मुख्यधारा के अधिकांश लेखक अब डिक्लास और डिकास्ट होने की प्रेमचंद-परम्परा से विमुख होते जा रहे हैं। मैं इसको पार्थक्य रेखा मंडल आन्दोलन मानता हूँ। एक दौर में दलित जीवन संघर्ष पर आधारित ‘धरती धन न अपना’, ‘मोरी की ईंट’, ‘परिशिष्ट’, ‘यथा प्रस्तावित’, ‘दंडविधान,’ ‘महाभोज’ सरीखे उपन्यास और ‘हरिजन गाथा’ सरीखी कविता लिखी गई, लेकिन विगत कुछ वर्षों से ऐसी रचनाओं का लिखा जाना लगभग स्थगित हो गया है, क्यों? दलित लेखकों से मेरी यह शिकायत रही है कि वे कभी भी हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा की उन दलित केन्द्रित रचनाओं की चर्चा नहीं करते, जिन्हें दलित साहित्य की पूर्वपीठिका माना जा सकता है। सद्गति, मंदिर, मनु की लगाम, हलयोग, चमार भाई सरीखी कहानियां और ‘धरती धन न अपना’ और ‘परिशिष्ट’ आदि सरीखे उपन्यास दलित लेखकों द्वारा चर्चा से क्यों बहिष्कृत रहते हैं ?
पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी साहित्य में एक नारा दिया जा रहा है- दलितों का, दलितों के लिए और दलितों के द्वारा लिखा गया ही दलित साहित्य है। क्या यह संकुचित आत्मघाती प्रवृत्ति नहीं है, क्या यह शत्रु और मित्र की पहचान को धुंधलाते हुए दलित सांस्कृतिक अभियान को बाधित नहीं करेगा, क्योंकि मेरी अल्प जानकारी के अनुसार दूसरे समाज से आने वाले अनेक लेखकों ने दलित समाज और उनकी समस्याओं को केन्द्र में रखकर महत्वपूर्ण रचनाएं लिखी हैं, आज भी कुछ लोग अच्छा काम कर रहे हैं , इस बारे में आपका क्या मानना है?
‘दलित ही दलित लेखन कर सकता है’ की मान्यता एक जिद है। मेरी दृष्टि में दलित लेखन की अंतिम कसौटी ब्राह्मणवादी वर्णाश्रमी संरचना का क्रिटिक होना चाहिए न कि लेखक की जाति। कई दलित लेखक जो आचरण और व्यवहार में जातिगत संस्कारों से मुक्त नहीं हैं वे उतने ही ब्राह्मणवादी संस्कारों से ग्रस्त है जितने वे गैर दलित लेखक जो उनके निशाने पर रहते हैं। दलित लेखन को जाति तक सीमित करने का ही दुष्परिणाम है कि आज दलित लेखक स्वयं अपनी जातियों की गुटबंदी के शिकार होते जा रहे हैं। यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए।
हिन्दी उपन्यासों के सन्दर्भ में समाजशास्त्री डॉ. श्यामाचरण दुबे ने कहा था कि भूमिहीन, खेतिहर, बंधुआ मजदूरों और औद्योगिक श्रमिकों पर जो लिखा गया, वह नाकाफी है और सन्तोष भी नहीं देता। आदिवासियों एवं दरिद्र समाज का दर्द भी अभिव्यक्ति नहीं पा सका है। अधिकांश हिन्दी उपन्यास अभी भी नगरों और कस्बों के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, बहुत कम लेखक ग्रामीण और दलित जन से तादात्म्य स्थापित कर सके हैं। क्या इस स्थिति में सुधार आया है या पहले की अपेक्षा कहीं अधिक भयावह स्थिति है?
साहित्य बहु-अनुशासनात्मक हो यह बात लम्बे समय से कही जाती रही है। प्रेमचंद ने साहित्य को परिभाषित करते हुए लिखा था कि एक लेखक को इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की भी भरपूर जानकारी होनी चाहिए। उपन्यास के लिए तो यह और भी जरूरी है। उपन्यास को जब मैं साहित्यिक रचना के साथ-साथ सामाजिक संरचना भी कहता हूँ तो मेरा आशय साहित्य की समाज सापेक्षता से है। उदाहरण के साथ बात कहनी हो तो मैं कहूँगा कि ‘नदी के द्वीप’ जहाँ मात्र साहित्यिक संरचना है वहीं ‘सूखा बरगद’ साहित्यिक संरचना के साथ-साथ सामाजिक संरचना भी है। एक का रचना संसार स्वायत्त है तो दूसरे का सामाजिक।
आपने लिखा है कि उपन्यास विधा को मात्र साहित्यिक संरचना के तौर पर नहीं बल्कि एक सामाजिक संरचना के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। शायद आप यह कहना चाहते हैं कि जिस तरह सोशल साइंस के दूसरे विषयों को लिया जाता है उसी तरह उपन्यास को भी लेना चाहिए?
मुझे लगता है कि तीस वर्ष पूर्व जब डॉ.श्यामाचरण दुबे ने यह टिप्पणी की थी तब वह जितनी सही थी कमोबेश उतनी ही आज भी है। हाँ, बीच के कुछ वर्षों में कुछ उपन्यासों ने इसे जरूर तोड़ा था। अभी भी कभी-कभार कुछ कृतियाँ जब तब आती रहती हैं। यह तथ्य विचारणीय है कि आदिवासी प्रतिरोध व माओवादी आन्दोलन को लेकर इधर के वर्षों में ‘लाल लकीर’ (हृदयेश जोशी) के अतिरिक्त अन्य कोई उपन्यास क्यों नहीं लिखा गया? वैसे ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ ( महुआ माजी ) और ‘गायब होता देश’ (रणेंद्र) उपन्यासों को भी इस सन्दर्भ में उल्लिखित किया जा सकता है।
आपकी पहली किताब ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता: एक सबाल्टर्न प्रस्तावना’ प्रचलित अकादमिक सांचों को तोड़ती है। अपनी प्रकृति चरित्र और उद्देश्य के स्तर पर यह राजनीतिक चेतना का परिचय देती है। ऐसे में क्या इसे राजनीतिक किताब कहा जाए?
सच तो यह है कि उपन्यास का विधागत ढांचा अपने स्वरूप में इतना व्यापक है कि उसे अपने समय और समाज की आलोचना के रूप में न पढ़ना उपन्यास विधा को ही सीमित करना है। इसलिए किसी भी उपन्यास का सघन पाठ आलोचक या पाठक को अराजनीतिक होने की छूट नहीं देता है। यहाँ तक कि अपनी कृति में जो उपन्यास अराजनीतिक दिखते हैं यथा अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास, वे भी उपन्यासकार की राजनीतिक दृष्टि को ही अनावृत्त करते हैं। मैं ‘मैला आँचल’ उपन्यास को सर्वाधिक राजनीतिक उपन्यास मानता हूँ, लेकिन यदि निर्मल वर्मा उसका अराजनीतिक पाठ करते हैं तो यह उनकी राजनीति है। दरअसल मुद्दा मेरी पुस्तक की राजनीतिक अंतर्धारा का न होकर अन्य लोगों द्वारा अराजनीति की मुद्रा में राजनीतिक होने का है।
‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ पर काम करने के लिए आपने आंचलिक अथवा आंचलिकता की छाप वाले उपन्यासों का चयन किया। यह काम करते हुए आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सबाल्टर्न अध्ययन पद्धति प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य है, कहीं सबाल्टर्न अध्ययन पद्धति का महिमा मंडन किताब को एक सीमा में तो नहीं बांधता है?
‘सबाल्टर्न’ पद का इस्तेमाल करके मैंने अपनी आलोचना दृष्टि को व्यापक हाशिए के समाज और सरोकारों के साथ जोड़ने का यत्न किया है। यूं भी ‘सबाल्टर्न’ कोई जड़ सैद्धांतिकी न होकर एक खुला पद है, जो वर्गों के पार जाकर अलक्षित और अदृश्य समुदायों को भी दृश्यमान बनाता है। इस पद्धति का सहारा लेकर मैंने शोषक और शोषित के द्विविभाजन से मुक्त होकर भारतीय समाज की उस पारम्परिक सामन्ती सत्ता संरचना को भी समझने की कोशिश की है जहाँ होरी एक ओर राय साहब की ठकुरसुहाती करता है तो धनिया पंडित दाताराम की बभनई को चुनौती भी देती है। दरअसल ‘सबाल्टर्न’ बने बनाए वैचारिक फ्रेम को तोड़ता है जड़ीभूत नहीं करता।
‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ पर काम करते हुए आप समकालीन आलोचना के प्रति चुप्पी साधे रहे। इसकी वजह क्या थी और क्या इसकी कीमत किताब को चुकानी पड़ी है। क्या समकालीन आलोचकों से जिरह किए बिना समकालीन हिन्दी आलोचना की इस रणनीतिक चुप्पी को तोड़ा जा सकता है। इस रणनीतिक चुप्पियों से क्या रचना, आलोचना और पाठकों को किसी तरह का लाभ होगा?
मुझे नहीं लगता कि मैंने उपन्यासों पर लिखते हुए समकालीन आलोचकों या आलोचना से कोई दूरी बनाई। सच तो यह है कि उपन्यास आलोचना को लेकर कोई गंभीर बहस इस दौर में हुई ही नहीं। मैं किन आलोचकों से संवाद करता? डॉ. मैनेजर पाण्डे ने इस दौर में उपन्यास को लेकर कुछ सैद्धांतिक लेख जरूर लिखे, लेकिन टेक्स्ट आधारित न होने के कारण वे मेरे विमर्श के दायरे में शामिल नहीं हो सकते थे। उनकी उपन्यास संबंधी सोच और मेरी दृष्टि में कोई टकराव भी नहीं है और उन्होंने और मैंने लगभग एक ही समय में उपन्यास को लेकर लिखा है। हमारा लेखन पारस्परिक सहमति का ही लेखन है विवाद या डिबेट का नहीं ।
आलोचक होने के नाते आपकी नजर में एक बेहतर उपन्यास की कसौटी क्या है?
पूर्व प्रश्नों में इसका उत्तर समाहित है, इसलिए अलग से इसका उत्तर दुहराव ही होगा।
इक्कीसवीं सदी में बाजार और तकनीक का बोलबाला जिस तरह बढ़ा है उसे देखते हुए उपन्यास का भविष्य किस रूप में देखते हैं?
उपन्यास के लिए यह थोड़ा चुनौती भरा समय इसलिए है कि गंभीर और वृहत उपन्यासों को पढ़ने के लिए जो अवकाश और धैर्य होना चाहिए उसका दिनोंदिन अभाव होता जा रहा है । आशंका इस बात की है कि सामान्य पाठक लोकप्रिय और पल्प साहित्य में न शरणागत हो जाय, लेकिन इसके बावजूद गंभीर उपन्यासों के लिखने-पढ़ने की जरूरत बनी रहेगी। अंग्रेजी में अरुंधति राय, अमिताभ घोष, झुम्पा लाहिरी और नील मुखर्जी के उपन्यास यदि पढ़े जा रहे हैं तो हिन्दी में भी गंभीर उपन्यास पढ़े जाते रहेंगे, भले ही यह सुधी पाठकों के संवर्ग तक सीमित हो जाएं।
वीरेन्द्र यादव सुप्रसिद्ध आलोचक हैं, अभी हाल ही में इन्हें शमशेर सम्मान से सम्मानित किया गया है.
अटल तिवारी पत्रकारिता के प्राध्यापक हैं और दिल्ली में रहते हैं
बातचीत क्रमशः
[…] भाषा और समाज से गहराई से जुड़े बुद्धिजी… […]
‘मेरी दृष्टि में दलित लेखन की अंतिम कसौटी ब्राह्मणवादी वर्णाश्रमी संरचना का क्रिटिक होना चाहिए न कि लेखक की जाति।’
महत्वपूर्ण टिप्पणी.?
[…] भाषा और समाज से गहराई से जुड़े बुद्धिजी… […]
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