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यादवों की घृणा के शिकार थे पेरियार ललई, केवल एक वाल्मीकि परिवार पर था भरोसा

एक सितंबर उत्तर भारत के पेरियार कहे जाने वाले ललई सिंह यादव की जयंती है और इस मौके पर उनके गाँव कठारा में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया है। इसमें दूर-दूर शहरों से लोग आ रहे हैं। उनके गाँव में मुझे पहली बार जाने का मौका मिला है और मैं मुंबई से यहाँ आ […]

एक सितंबर उत्तर भारत के पेरियार कहे जाने वाले ललई सिंह यादव की जयंती है और इस मौके पर उनके गाँव कठारा में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया है। इसमें दूर-दूर शहरों से लोग आ रहे हैं। उनके गाँव में मुझे पहली बार जाने का मौका मिला है और मैं मुंबई से यहाँ आ गया हूँ। आज ललई सिंह यादव एक बड़ा नाम है और पिछड़ी जतियों के अनेक युवक अपनी शादी के निमंत्रण पर उनकी तस्वीर छपवाते हैं तथा उत्सवों में उनके पोस्टर लगाए जाते हैं और उनकी किताबें बाँटी जाती हैं। कई युवा शोधार्थियों ने अपनी पीएचडी की थीसिस उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखी है। न जाने कितने लोगों ने तो ललई सिंह के ऊपर भाषण देकर ही भारी प्रसिद्धि पा ली। एक सितंबर और सात फरवरी को उनके ऊपर आयोजन होते हैं और फेसबुक तथा यू-ट्यूब पर कार्यक्रम होते हैं। बेशक आज यह सामाजिक जागरुकता का प्रतीक है लेकिन इसके लिए ललई सिंह यादव ने कितनी बड़ी कुर्बानी दी है उसका समुचित मूल्यांकन अभी भी नहीं हो पाया है।

ललई सिंह यादव का जीवन वास्तव में असामान्य था। उनकी तसवीरों में दिखती हुई विनम्रता के पीछे उनका कितना दर्द छिपा है हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उन्हें अपनों ने ही दुख दिया और इस लालच में दुख दिया कि इकलौती बेटी के मर जाने के बाद वे अपनी पैतृक ज़मीन उन लोगों को नहीं देकर बेच रहे हैं। इन तथाकथित अपनों की नज़र में ललई सिंह सिरफिरे थे और उनका काम अपने को बर्बाद करने वाला था। इन लोगों ने उन्हें इतना प्रताड़ित किया कि वे अंतिम समय में उनपर भरोसा भी नहीं करते थे। उन्हें डर था कि कहीं ये लोग उनके खाने में जहर न मिला दें। झींझक कस्बे में उनका प्रेस था लेकिन जब कभी वे गाँव जाते थे तो अपने पट्टीदारों के यहाँ नहीं जाते थे बल्कि एक वाल्मीकि परिवार में जाते थे और अपने साथ झींझक से कागज़ में लपेटकर लाई हुई रोटियाँ और अचार वहीँ बैठकर खाते थे। मैं उनके एक परिचित शिकोहाबाद निवासी रामकरन के मुंह से यह सुनकर सन्न रह गया कि वे अपने खादी के झोले में कॉपी और कलम के अलावा एक हाथ लंबी कुल्हाड़ी रखते थे ताकि किसी बुरे समय में अपनी रक्षा कर सकें।

आज ललई सिंह बहुत ऊंचा नाम है। प्रगतिशीलता और मनुवाद विरोध के नाम पर जो लोग उन्हें महत्व देते हैं वे उनकी तरह कितना काम कर पा रहे हैं यह तो समय ही बताएगा लेकिन पिछड़ा समाज अगर उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ता है तो ललई सिंह जैसे महापुरुष की बहुत बड़ी विजय होगी।

लेकिन सबसे ज्यादा खलनेवाली बात ऐसे महान व्यक्तित्व की राजनीतिक उपेक्षा है। लंबे समय तक प्रदेश में सपा का शासन रहा है, लेकिन उसने पेरियार ललई सिंह के नाम पर कॉलेज, स्कूल, चौराहा तो दूर किसी गली का नाम भी उनके नाम पर रखना मुनासिब न समझा। क्या यह कोई मामूली बात है? नहीं, यह समाजवादी पार्टी के भीतर मनुवादी कीटाणुओं की भारी मौजूदगी का संकेत है। यह सोचनेवाली बात है कि बहुजन समाजों के लिए परशुराम से क्या लेना-देना है? लेकिन अखिलेश यादव जैसे मनुवाद में फंसे लोग फरसा लहराते रहे। परशुराम का भव्य मंदिर बनवाने की घोषणा करते रहे। असल में वे समझते हैं कि पिछड़ा वर्ग उनकी दुधारू गाय है जिसे हर चुनाव में आसानी से दूह लेंगे। लेकिन अब पाँच चुनाव हारने के बाद उनकी अक्ल ठिकाने आ जानी चाहिए कि ईमानदारी से चारा-पानी न देने पर दुधारू गायें दुलत्ती भी मार देती हैं और चरवाहा चारों खाने चित्त भी हो जाता है। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए लेकिन दिल के उस दर्द का क्या करूँ जो इन राजनीतिक गुलामों को देखकर और तेजी से उठता है।

प्रतिरोध की परंपरा अपने पिता से मिली थी

ललई सिंह यादव के पिता चौधरी गज्जू सिंह यादव एक बहादुर और निर्भीक व्यक्ति थे जो किसी भी मजलूम और तकलीफज़दा व्यक्ति की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे। मुझे कई स्थानीय लोगों ने बताया कि उस जमाने में दलित और पिछड़ी जतियों की महिलाओं को प्रसव के समय स्थानीय सामंत और ब्राह्मण गाँव से बाहर बनाए गए झोपड़ों में रहने को मजबूर कर देते थे जिससे उनकी जचगी के समय गाँव अपवित्र न हो। प्रसव के तीन दिन बाद ही उन्हें गाँव में घुसने दिया जाता था। यह एक प्रथा बन चुकी थी। चौधरी गज्जू सिंह ने इस प्रथा के खिलाफ लाठी उठाई और अंततः इसे बंद कराया।

पेरियार ललई सिंह के पिता गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्य समाजी थे। वे सामाजिक भेदभाव और जाति के सख्त खिलाफ तो थे ही सामंती गुलामी और उत्पीड़न का भी उन्हों ने हमेशा विरोध किया। पुराने जमाने के लोग बताते हैं कि बहुत ऊँचे डील-डौल वाले और बहादुर व्यक्ति थे तथा बड़े किसान तो थे ही। उन्होंने अपने समय में होनेवाले अन्याय के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया।

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मुहावरों और कहावतों में जाति

पेरियार ललई को यह निर्भीकता और कर्मठता विरासत में मिली थी। वे स्वयं भी अन्य के खिलाफ आजीवन लड़ते रहे। उनके पिता ने अपने दरवाजे पर बने कुएं से सबको पानी लेने की छूट दे दी थी। तो पुत्र ने भी अपने गाँव के दलितों को अपना आजीवन मित्र माना और उनके साथ हमेशा खड़े रहे।

पेरियार ललई का सरोकार बहुत बड़ा था और इसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया। अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर उत्तर प्रदेश के इतिहास में इतना बड़ा मुकदमा किसी ने नहीं लड़ा। वे लड़े भी और जीते भी।

ललई सिंह की जीवन यात्रा

ललई सिंह यादव का जन्म एक सितम्बर, 1911 को कठारा नामक गाँव में हुआ जो रेलवे स्टेशन-झींझक के पड़ोस में है। उनकी माता मूलादेवी बहुत ममतामयी स्त्री थीं। ललई सिंह के नाना उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चौ. साधौ सिंह यादव थे। उनके मामा चौ. नारायण सिंह यादव धार्मिक और समाजसेवी कृषक थे। पुराने धार्मिक होने पर भी यह परिवार अंधविश्वास रूढ़ियों के पीछे दौड़ने वाला नहीं था।

ललईसिंह यादव ने सन 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू लेकर मिडिल पास किया। सन 1929 से 1931 तक दो वर्ष वे फॉरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में इनका विवाह रूरा रेलवे स्टेशन के निकट के गाँव जरैला के सरदार सिंह यादव की पुत्री दुलारी देवी के साथ हुआ।1933 में शशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल पद पर भर्ती हुए। नौकरी से समय बचा कर विभिन्न शिक्षायें प्राप्त की।  सन् 1946 ईस्वी में वे नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ, ग्वालियर कायम कर के उसके अध्यक्ष चुने गए। ‘सोल्जर ऑफ दी वार’ की तर्ज़ पर उन्होंने सिपाही की तबाही नामक किताब लिखी। इस किताब ने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तरह ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल भी कराई।

उत्तर भारत के पेरियार ललई सिंह यादव की जयंती पर गाँव कठारा में जुटे लोगों के साथ लेखक

 

ग्वालियर स्टेट्स स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस एवं सेना में हड़ताल कराने के आरोप में धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत ललई सिंह यादव अपने साथियों सहित राज-बन्दी बनाए गए। 6 नवंबर 1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने उनको 5 वर्ष का सश्रम कारावास तथा पाँच रुपये जुर्माना की सज़ा दी। लेकिन अगले साल ललई सिंह अपने साथियों के साथ रिहा कर दिये गए।

ललई सिंह स्वाध्यायी व्यक्ति थे और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने हिन्दी-संस्कृत की तमाम धार्मिक किताबों को चट कर डाला लेकिन उन्हें इन पर कोई श्रद्धा न थी बल्कि उनकी दृष्टि उनके प्रति अधिकाधिक आलोचनात्मक होती गई। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वह तिलमिला उठे। स्थान-स्थान पर ब्राह्मण-महिमा का बखान तथा दबे-पिछड़े शोषित समाज की मानसिक दासता के षड्यन्त्र से वह व्यथित हो उठे। वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि समाज के ठेकेदारों द्वारा जानबूझ कर सोची समझी चाल और षड़यन्त्र से शूद्रों के दो वर्ग बना दिये गये है। एक सछूत-शूद्र, दूसरा अछूत-शूद्र लेकिन शूद्र तो शूद्र ही है। चाहे कितना सम्पन्न ही क्यों न हो।

उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, श्रृति, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। अब तक इन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि विचारों के प्रचार-प्रसार का सबसे सबल माध्यम लघु साहित्य ही है। इन्होंने यह कार्य अपने हांथों में लिया।

सन् 1925 में इनकी माताश्री, 1939 में पत्नी, 1946 में ग्यारह साल की पुत्री शकुन्तला और सन 1953 में पिता की मृत्यु ने उन्हें निजी तौर पर झकझोर कर रख दिया। वे अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। अब घर में उनके अलावा कोई नहीं था। लोगों की सलाह के बावजूद उन्होंने पत्नी के मरने के बाद दूसरा विवाह नहीं किया। क्रान्तिकारी विचारधारा होने के कारण उन्होंने कहा कि अगली शादी स्वतन्त्रता की लड़ाई में बाधक होगी।

सच्ची रामायण के प्रकाशन और मुकदमे की कहानी

उनका ध्यान साहित्य प्रकाशन की ओर गया। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. वी. रामस्वामी नायकर के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हुए। ललई सिंह उनके सम्पर्क में आये। उन्होंने उनके द्वारा अंग्रेजी में लिखित रामायण ए ट्रू रीडिंग के अनुवाद में रुचि दिखाई। दोनों में इस पुस्तक के प्रचार-प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में लाने पर भी विशेष चर्चा हुई। 1968 में पैरियार रामास्वामी नायकर इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति ललईसिंह यादव को को दे दी।

सच्ची रामायण का प्रकाशन दो साल के अभूतपूर्व परिश्रम और लगन के बाद 1969 में हुआ। इसके छपते ही सम्पूर्ण उत्तर पूर्व तथा पश्चिम भारत में एक तहलका मच गया। बात यहाँ तक पहुंची कि कुछ ही महीनों बाद उ.प्र. सरकार द्वारा पुस्तक जब्त करने का आदेश प्रसारित हो गया। कहा गया कि यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी है। प्रकाशक ललई सिंह यादव ने उपरोक्त आज्ञा के विरुद्ध हाईकोर्ट आफ जुडीकेचर इलाहाबाद में क्रमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-70 को प्रस्तुत किया। इस केस के सुनने के लिए तीन जजों की स्पेशल बैंच बनाई गई। अपीलांट ललईसिंह यादव की ओर से निःशुल्क एडवोकेट बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट और आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार तीन दिन तक चली। दिनांक 19-01-71 को माननीय जस्टिस ए.के. कीर्ति, जस्टिस के.एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत का निर्णय दिया कि गवर्नमेन्ट ऑफ उ.प्र. की पुस्तक सच्ची रामायण की जब्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है। जब्त की गई सारी पुस्तकें अपीलांट ललईसिंह यादव को वापिस दी जाये। इसके अलावा उ.प्र. सरकार की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को तीन सौ रूपये खर्चे के दिलाने का निर्णय किया।

अभिव्यक्ति की आज़ादी की लंबी लड़ाई  

सच्ची रामायण की जब्ती के खिलाफ ललईसिंह यादव की यह बहुत बड़ी जीत थी। लेकिन अभी उन्हें और भी बड़ी लड़ाइयाँ जीतनी थी। उन दिनों उ.प्र. में चौधरी चरण सिंह की सरकार थी। 10 मार्च 1970 की विशेष सरकारी आदेश से सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें नामक पुस्तक को भी जब्त कर लिया गया। इस किताब में में डॉ. अम्बेडकर के भाषण संकलित थे। इसके अलावा डॉ अंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक जाति भेद का उच्छेद भी 12 सितम्बर 1970 को चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी। इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने बनवारी लाल यादव एडवोकेट के सहयोग से मुकदमे की पैरवी की। 14 मई 1971 को मुकदमे की जीत से उ.प्र. सरकार द्वारा इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी। इस प्रकार ये पुस्तकें जनता को सुलभ हो सकी। ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश के विरुद्ध 1973 में मुकदमा हुआ। यह मुकदमा उनके जीवनपर्यन्त चलता रहा।

सच्ची रामायण के खिलाफ हाई कोर्ट में हारने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में अपील दायर कर दी। वहां भी अपीलांट उत्तर प्रदेश सरकार क्रिमिनल मिसलेनियस अपील नम्बर 291/1971 ई. निर्णय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली दि. 16-9-1976 ई. के अनुसार अपीलांट की हार हुई अर्थात रिस्पांडेण्ट ललई सिंह यादव की जीत हुई।

जीवन भर मनुवाद के खिलाफ लड़ते रहे ललई सिंह

ललई सिंह यादव केवल मनुवादियों से ही संघर्ष नहीं किया बल्कि अपने आस-पास के लोगों, पत्तिदारों और पड़ोसियों से भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा। पूरे परिवार को खोकर भी वे इसलिए नहीं टूटे क्योंकि उनके सामने एक विशाल लक्ष्य था और अपने समाज की मुक्ति के लिए उन्हें अपनी आहुति देनी थी। उन्होंने मेहनतकश शूद्रों की मुक्ति के लिए जो लड़ाई लड़ी उसमें उनके अपने लोग भी बहुत बड़े अवरोध बने। लोग चाहते थे कि वे अपनी जमीनें उनके नाम कर दें लेकिन जुनूनी प्रकाशक ललई सिंह यादव ने प्रकाशन चलाने और प्रेस लगाने के लिए अपनी उनसठ बीघे उपजाऊ ज़मीन कौडि़यों के भाव बेच दिया। साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने एक के बाद एक तीन प्रेस खरीदे। इससे उनके पट्टीदारों ने उनको धमकाया और कई तरह से प्रताड़ित किया।

ललई सिंह के गाँव कठारा में उनके पट्टीदारी के लोग

 

लोग बताते हैं कि अंतिम दिनों में ललई सिंह दुखी होकर नागपुर चले गए थे। वे मनस्वी और तपस्वी व्यक्ति थे। रोज अपनी साइकिल पोछते और साहित्य के प्रचार के लिए दूर-दूर तक निकलते। कम खर्च के लिए लकड़ी के बुरादे से चूल्हे पर खाना पकाते। बाद के दिनों में उन्हें इस बात का भय हो गया था कि कहीं पट्टीदार उनके खाने में ज़हर न मिला दें। इसलिए वे झींझक से जब गाँव आते तो एक वाल्मीकि परिवार में जाकर अपनी पोटली से रोटी निकाल कर नमक-मिर्च-प्याज के साथ खा लेते थे।

लोगों को अविश्वासनीय लग सकता है लेकिन यह बहुत हृदय विदारक तथ्य है कि ललई सिंह अपने खादी के झोले में कॉपी और कलम के साथ आत्मरक्षा के लिए एक कुल्हाड़ी भी रखने लगे थे। उसका बेंट उन्होंने एक फुट का कर रखा था ताकि किसी को शक न हो।

आज ललई सिंह बहुत ऊंचा नाम है। प्रगतिशीलता और मनुवाद विरोध के नाम पर जो लोग उन्हें महत्व देते हैं वे उनकी तरह कितना काम कर पा रहे हैं यह तो समय ही बताएगा लेकिन पिछड़ा समाज अगर उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ता है तो ललई सिंह जैसे महापुरुष की बहुत बड़ी विजय होगी।

उनके गाँव में हुये इस आयोजन में आकार जब मैं उनके पट्टीदारों से मिला तो उनमें अनेक लोगों के भीतर ग्लानि का भाव था। उनको इस बात का गहरा मलाल है कि उनके महान पूर्वज के साथ किस तरह बदसलूकी हुई। लेकिन मैंने उनसे कहा कि ललई सिंह के तो पिता उनके खिलाफ नहीं थे लेकिन महात्मा फुले को तो उनके पिता ने ही ब्राह्मणवादियों के बहकाने पर घर से बाहर निकाल दिया था। सभी महामानवों के साथ समाज ने पहले बुरा सुलूक ही किया है लेकिन बाद में चलकर उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्होंने गलत व्यवहार किया था। आखिर किस महामानव को कुछ भी आसानी से मिल गया था। ललई सिंह ने अपने हिस्से का संघर्ष कर लिया। अब आप सबकी बारी है है कि उनकी परंपरा को आगे बढाइये।

 

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