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स्त्री संवेदना के बहुत करीब थे प्रेमचंद ..( दूसरा भाग)

दूसरा हिस्सा : प्रेमचंद की जयंती के मौके पर पूरे देश में लोग उन्हें याद करते हैं। प्रेमचंद के प्रशंसकों और आलोचकों का विस्तृत संसार है। इस बार हमें लगा कि प्रेमचंद आधी दुनिया में क्या जगह रखते हैं यह जानना चाहिए। इसलिए हमने लगभग चालीस महिलाओं को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा कि उन्होंने प्रेमचंद […]

दूसरा हिस्सा :

प्रेमचंद की जयंती के मौके पर पूरे देश में लोग उन्हें याद करते हैं। प्रेमचंद के प्रशंसकों और आलोचकों का विस्तृत संसार है। इस बार हमें लगा कि प्रेमचंद आधी दुनिया में क्या जगह रखते हैं यह जानना चाहिए। इसलिए हमने लगभग चालीस महिलाओं को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा कि उन्होंने प्रेमचंद को कब पढ़ा ? उनकी कौन सी रचनायें याद हैं ? उनमें क्या खास बात है और आज वे उन्हें कैसे देखती हैं? इनमें सभी आयुवर्ग से जुड़ी महिलाएं शामिल हैं। अध्यापक, लेखक, गृहिणी और विद्यार्थी सभी तरह की महिलाएं सहभागी हुईं । उनकी ही भाषा में प्रस्तुत है प्रेमचंद को लेकर उनके विचार। सामग्री बहुत है इसलिए इसे हम कई हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं :

 

सामंतों और पूंजीपतियों की सत्ता समाज में घीसू-माधव ही पैदा करती है

अमिता कुमारी, अध्यापिका, दिल्ली

पहली बार प्रेमचंद के बारे में दूसरी कक्षा में थी तब जाना  दो बैलों की कथा पढ़कर।  चूंकि हम पशुपालक समाज से आते हैं तो यह कहानी हमें कहानी नहीं, बल्कि लगा हमारे घरों की ही बातें की जा रहीं हैं और बडा़ मजेदार लगा हीरा और मोती का गया को गाँव के बाहर तक खदेड़ना। ये कहानी बाल सभा और प्रार्थना में सुनाती थी, अध्यापिका जी ने बताया था कि इससे यह शिक्षा मिलती है कि पशु भी प्यार का भूखा होता है, इसका यह प्रभाव पड़ा कि प्यार से तो कोई हमसे काम करवा सकता है लेकिन डरा-धमका कर नहीं। मैं अपने भाई से कहती थी कि हम दोनों हीरा और मोती हैं।  इस कहानी की भाषा पूरी तरह से समझ में आती थी और अन्य जानवरों का वर्णन पढ़-पढ़ कर खूब हंसी आती थी। हमें हैरानी होती थी कि यह तो सचमुच का स्वभाव बयान कर रहे हैं। ऐसा लगता था जैसे ये सचमुच की घटना हो हमारे आस-पास की | आगे चलकर कक्षा पांच  में हमें ईदगाह पढ़ने को मिली लेकिन हमें यह कहानी हामिद के नाम से याद है। उस समय बस इतना ही समझा कि हमें दूसरों की जरूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए हामिद की तरह।  बल्कि हामिद से हमें प्यार हो गया।  लगा जब हामिद इतना समझदार हो सकता है तो हम क्यों नहीं? आगे चलकर बड़ी कक्षाओं में पूस की रात, मंत्र, गुल्ली डंडा, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, रानी सारंधा,नमक का दारोगा, निर्मला, गोदान, गबन, गरीब की हाय अनेक कहानियाँ और उपन्यास पढ़े और अभी भी पढ़ते हैं। प्रेमचंद के कहानी और उपन्यास के पात्र शोषितों की आवाज़ उठाते हैं, कृषि प्रधान देश की वास्तविक तस्वीर ही नहीं दिखाते बल्कि कारणों के बारे में भी बताते हैं। रानी सारंधा जब कहती है कि मैं ओरछे में रानी थी यहाँ मनसबदार की बीबी हूँ तो लगा हम भी तो यही चाहते हैं कि किसी के महल की दासी बनने की बजाय झोंपड़ी की रानी बनना और हम तो झोंपड़ी में रहते भी थे। तो प्रेमचंद आपको सम्मान दिलाते हैं जिस हालत में आप हो उसी में। मंत्र के जैसा द्वंद्व  अन्यत्र दुर्लभ है। चेतना ढकेलती थी उपचेतना रोकती थी। कैसे एक बूढ़ा धनवान चड्ढा से बड़ा हो जाता है। गोदान तो लगता है हमारे किसानों की दयनीय दशा का जीता- जागता दस्तावेज है। इतनी पैनी दृष्टि कृषक समाज में कार्य रत लोगों की भी नहीं होती है। यह उपन्यास गाँवों के अनपढ़ लोगों को भी समझ में आता है और उन्हें हैरानी होती है कि ये लेखक उन लोगों को कैसे इतने करीब से जानता है। जितनी प्रतिबद्धता प्रेमचंद जी ने उस समय दिखाई आज कल के लेखक नहीं दिखा पाते और न ही इतनी सूक्ष्मता-सरलता से वर्णन ही मिलता है। प्रेमचंद जी अपने समय के वामपंथी नहीं तो लगभग वामपंथी लगते हैं, क्योंकि वामपंथी बनना तो जीवन भर चलता रहता है लम्बी प्रकिया है।

अमिता कुमारी

भाषा शैली, कथानक, परिवेश और पात्रों की भाषा बिल्कुल अनुकूल होती थी। बड़ों और छोटों सभी को समझ में आती थी। सरल तरीके से बड़ी से बड़ी बातें पात्रों से कहलवाने में माहिर थे प्रेमचंद – क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे।  निर्मला में अनमेल शादी की दारुण कथा है। वामपंथी लेखकों को छोड़ दें तो सबसे अधिक प्रिय प्रेमचंद जी ही हैं, खासतौर पर ग्रामीण परिवेश के लिए तो प्रेमचंद जी ही प्रिय कहानीकार हैं।  घीसू-माधव को श्रम की ओर से अकर्मण्यता की तरफ ढकेलता पूंजीवादी समाज आज तो और भी सब साफ़ हो गया है कि पूंजीपतियों की सत्ता समाज में घीसू-माधव ही पैदा करती है। असंवेदनशीलता और असंवेदनशील समाज। आज के दौर में तो और अधिक याद आते हैं मुंशी प्रेमचंद, जब सभी किसानों को एक साथ भूमिहीन करने के लिए कानून बनाये जा रहे हैं। कृषक समाज के लेखक के तौर पर भी मुंशी प्रेमचंद ही याद आते है!

प्रेमचंद ने गाँव को क़ायदे से देखना सिखाया

डॉ. प्रियदर्शिनी, असि. प्रो. हिंदी अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विवि, हैदराबाद

बात 1997 की है। एक दिन दीवाली की सफाई के दौरान पाटन पर रखे बोरे में से कुछ किताबें गिरीं। मैने मां से पूछा कि ‘इनका क्या करना है?’ तो उन्होंने कहा पापा से पूछ लो। मैंने बोरा पिता जी के आगे उलट दिया और पूछा कि कोई काम की किताब है तो छांट लीजिये, बाकी रद्दी में दे दी जाएगी। उन्होंने किताबों का मुआयना किया और एक अजिल्द किताब निकाल कर हाथ में रख ली और कहा कि ‘बस यही एक काम की है’। मुझे थोड़ा विचित्र लगा। किताब उन्होंने टीवी पर रख दी। मुझे एक अजिल्द पुस्तक, जिसके पन्ने पीले पड़ चुके थे, से उनका अनुराग समझ में नहीं आया। थोड़ी देर बाद मैंने उस किताब को देखा। किताब की दाहिनी तरफ नीचे की ओर छोटे अक्षरों में लिखा था गोदान। स्कूल में प्रेमचंद की जीवनी पढ़ते हुए उनकी रचनाओं की सूची में गोदान का नाम पढ़ा था। आज वह क्लासिक पुस्तक मेरे हाथ में थी। और यह  तब की है जब मैं नहीं जानती थी कि वह क्लासिक है। प्रेमचंद की रचनाओं से परिचय पहले से ही था तब उनकी एक कहानी बूढ़ी काकी पढ़ी थी और उसे पढ़ने के बाद कहानी मिज़ाज पर इतनी छा गयी थी कि हर वृद्ध स्त्री मुझे उपेक्षित और भूखी ही दिखायी पड़ती थी।

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प्रेमचंद मेरी अंतर्मन की संवेदना को चुपके से जगा चुके थे। जब उनकी कहानियों के बारे में सुनती तो वैसा ही उल्लास और अभिलाषा जगती जैसा उस उम्र के बच्चों को आइसक्रीम या टॉफी देख कर जगती है। प्रेमचंद ‘फेवरेट’ हो चुके थे। लेकिन तब तक हमारे बीच केवल प्रिय लेखक और पाठक का ही संबंध था। उनका हामिद,दुक्खी, मंगल सब हमारे कल्पना संसार में जी उठते थे। तब वह ‘पात्र’ थे अब वह ‘सत्य’ हैं। लेकिन यथार्थ की उतनी समझ विकसित नहीं हुई थी। मुझे जरा भी भान नहीं था कि उस दिन दीवाली की सफाई में जो पुस्तक हाथ लगी है वह दिमाग के रूढ़ जालों को साफ करने का एक कारगर उपकरण साबित होगी।छुट्टियों के दिन थे सो पढ़ना शुरू किया। प्रेमचंद के लेखन का जो सम्मोहन था जिससे बाहर निकलना असंभव सा हो रहा था ;उस सम्मोहन ने मुझे होरी, धनिया की गृहस्थी, दुःखों, कर्मों में ऐसा बांधा की मानो मेरी जिंदगी भी पाई-पाई की कर्ज़दार हो। मैं किसी भी तरह होरी की दुनिया से निकल ही न पाती या ये भी कह सकते है कि प्रेमचंद के लेखन का कौशल मुझे निकलने ही नहीं दे रहा था।

डॉ. प्रियदर्शिनी,

प्रेमचंद के एक गोदान ने मुझे मर्यादा,ऋण, बंटवारा, दायित्व, निर्धनता, अनथक परिश्रम,डाँड़-जुर्माना ,जाति, सामाजिक चेतना, स्त्री स्वाधीनता, ऊंच-नीच और एक गाय की मृत्यु और न जाने कितना कुछ समझा दिया या इन्हें गंभीरता से समझने का एक मार्ग प्रदान किया। उस दिन से मैंने कलम और उसके सिपाही के महत्व को समझा। इसके बाद तो जैसे प्रेमचंद सजिल्द होकर मेरी अलमारी के रैक पर सजते गए। मानसरोवर, गोदान, गबन, सेवासदन, निर्मला, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रतिज्ञा कुछ भी नहीं छोड़ा। सब पढ़ डाले। प्रेमचंद को हर बार पढ़ते हुए ‘नयो-नयो लागत है ज्यों-ज्यों निहारिए’ वाली अनुभूति होने लगी। प्रेमचंद ‘फेवरेट राइटर’ से कब क्रांतिकारी समाजसुधारक में तब्दील हुए यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन साहित्य पढ़ने का शउर उन्हीं से मिला। प्रेमचंद की भाषा इतनी सरल और प्रवाहमयी है कि मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी भाषा का कोई अर्थ किसी और से पूछना पड़ा हो। उर्दू के शब्दों के भी ऐसे सहज प्रयोग उन्होंने किए कि अर्थ न मालूम होने पर भी अर्थ संप्रेषित हो जाता था। उन्होंने ऐसी समस्याओं को चुना जो तत्कालीन राष्ट्र की प्रतिनिधि समस्याएँ कही जा सकती है बस उनके पहले हिंदी समाज को उन समस्याओं को देखने का सही नजरिया नहीं मालूम था। किसान, दलित,स्त्री, महाजनी सभ्यता, राष्ट्र, सांप्रदायिक एकता, स्त्री की स्थिति में सुधार जैसे कई मुद्दों पर वह कई-कई बार लिखते लेकिन हर बार अलग ताब और तेवर के साथ। प्रेमचंद ने गाँव को क़ायदे से देखना सिखाया जो उनसे पहले उस तरह से दिखता नहीं था जैसा उन्होंने दिखाया। दूसरे रचनाकारों से कहीं सरल और गहरे पैठने वाले लेखक है हालांकि मेरी दृष्टि में वह केवल लेखक नहीं है। मेरी दृष्टि में वह शिक्षक ,मित्र,राजदार,परामर्शदाता,मनोचिकित्सक सब कुछ हैं। वह जब भी याद आते हैं तो इस वाक्य के साथ कि ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे’ आज 141 वर्ष बाद भी उनकी इन पंक्तियों में जो सत्य है इस सत्य को कहने का साहस सबके पास नहीं होता। भले ही प्रेमचंद सबके लिए कथा सम्राट हो मेरे लिए तो मेरे ‘संगी’ हैं जो गलत बोलना तो छोड़िए गलत सोचने पर हजार बार फटकारता है। प्रेमचंद मेरे पुरनिया हैं जिनपर मुझे अगाध श्रद्धा और प्रेम है । उनकी गलती निकालने पर भी वह शाबाशी ही देता है। ऐसा सच्चा साथी किसे न चाहिए होगा भला? प्रेमचंद व्यक्ति नहीं विचार है जो युगों-युगों तक जीवित रहता और रखता हैं । मैं अपनी पूरी श्रद्धा से उस महान विचारक और उनकी विचारधारा को प्रणाम करती हूँ।

 

उनकी कहानियों में किसी किरदार को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाया गया  

पूजा यादव, विज्ञान की शोधार्थी, मुंबई

प्रेमचंद की बहुत-सी कहानियां मेरे पाठ्यक्रम का अंश थी जिनमें शामिल है पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा ईदगाह इत्यादि। मेरी पसंदीदा  कहानी है ईदगाह  जो कि एक दादी और पोते की एक दूसरे के प्यार और फ़िक्र के बारे में है। जहां हामिद की दादी उसके लिए बड़ी मुश्किल से पैसे जोड़ कर उसे देती है ताकि वो भी औरों की तरह ईद के दिन अपने लिए कुछ ले और मस्ती करे लेकिन हामिद अपनी खुशी के बारे में न सोचकर अपनी दादी की लिए चिमटा लेता है ताकि उसकी दादी के हाथ ना जलें रोटी बनाते वक्त। इस कहानी का अंत काफी भावुक कर देता है और हमें अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना सिखाता है।

पूजा यादव

प्रेमचंद और बाकी लेखकों  में मैंने ये फ़र्क पाया है कि प्रेमचंद की कहानियां हमेशा उन मुद्दों पर होती हैं जो हमारे आस-पास होता है। उनकी कहानियों में किसी किरदार को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाया गया है, चाहे वो हामिद हो, उसकी दादी या फिर पंच परमेश्वर में जुम्मन शेख हो या अलगू चौधरी हो। उनकी कहानियों के किरदार ही आपको उनकी कहानियां पढ़ने पर मजबूर करते हैं और आपको उनकी हर एक कहानी कुछ नई बात सिखाती है।

 

अति-साधारण व्यक्तित्व में असाधारण संवेदनाओं का संकलन

अनीता दीक्षित, गृहिणी, रायगढ़

एक अनूठे पर असाधारण व्यक्तित्व के लेखक का नाम अगर लेना चाहूँ तो एक ही नाम उभरकर सामने आता है। और वह नाम है मुंशी प्रेमचंद।

प्रेमचंद के बारे में जानने का पहला मौका शायद 5वी-6ठी कक्षा में मिला। जब उनकी लिखी कहानी ईदगाह को पढ़ा। उस समय स्कूल में लेखक का जीवन परिचय नहीं पढ़ाया जाता था। बस कहानी होती थी और लेखक का नाम। तो उनके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती थी। पर कहानी को पढ़कर और सुनकर आंखें भर जाने को होती थीं। क्योंकि उम्र का वो पड़ाव ममत्व और वात्सल्य से लबरेज़ था।

संवेदनाओं के सिरे लेखक और पाठक के बीच जो संबंध साधते थे, वो अकल्पनीय होते थे। मन के तारों को हिला देने वाले सांचे और सच से रूबरू होते हुए शब्दों का सम्मोहन गज़ब का होता था। आज भी जब हामिद के मन का वो कौन जो लेखक के द्वारा द्रवित अवस्था में दर्शाया गया, अमीन की उंगलियों का जलना और हामिद का चिमटे के बारे में सोचना, बालमन के अंदर चल रही उथल-पुथल का हिलोरें लेता चंचलपन लेखक के प्रस्तुतिकरण को असाधारण लेखन के सिरे पर रखता है। दूसरी कहानी बूढ़ी काकी पढ़ी थी 8वीं या 9वीं कक्षा में, और यहां भी संवेदनाएं सामाजिक दायरे में उलझते-सुलझते वृद्धावस्था की सीमा रेखा को पार करते हुए जाने कब हृदय के अन्तःस्थल को झकझोर देती हैं। पाठक होने के नाते मुझे कभी क्रोध भी आया और विवशता को समझते हुए न्याय के लिए अपनी अस्मिता के रक्षार्थ बूढ़ी काकी अपने घर के आस-पास ही बहुत सी नज़र आने लगती थीं।

पंच-परमेश्वर भी मैंने पढ़ी। गोदान के भी कुछ अंश पढ़े। इस प्रकार जितना भी मैंने लेखक की लेखनी को समझा मुझे उनके अति-साधारण व्यक्तित्व में असाधारण संवेदनाओं का संकलन नज़र आया। ईदगाह और पूस की रात ये दो कहानियाँ अक्सर मेरे दादाजी अपने अंदाज में सुनाया करते थे। और लेखक एवम पाठक के बीच वाचक का अपना स्थान होता है ये कहानियां मुझे मुँह जबानी याद हो गईं। या यूं कहूँ की अंकित हो गई स्मृतियों में।

अनीता दीक्षित

दूसरे लेखक और प्रेमचंद जी के लेखन में मुझे जो फर्क नज़र आता है वह सोच और संवेदनाओं का अंतर है कहानी के पात्र जीवंत रहते है। मानो आपबीती है सब कुछ यथार्थ सा। आस-पास घटित ही लगता है। अभी कुछ दिनों पहले ही एक तसवीर वायरल हुई- जिसमे लेखक अपनी धर्मपत्नी के साथ बैठे नज़र आये।  फ़ोटो को देखकर मेरी भी नज़र जूतों पर जा टिकी। एक जूता थोड़ा फटा हुआ था। इस तसवीर को सबने अलग अलग नज़रिये से देखा । और इस बात पर सबकी लेखनी ने अलग अलग दृष्टिकोण बांटे । पर मुझे तो जो सच बाहर झांकता नज़र आया। मैंने अपने आस-पास गरीबी का मंज़र देखा है। ऐसे भी लोग देखे हैं जिनके पास फ़टे जूते भी नही हुआ करते थे।

बारिश में फटी प्लास्टिक की बड़ी बोरियों को अंदर की तरफ मोड़कर फिर उसे सिर पर ओढ़कर सड़क पर चलते लोगो को देखा है। गरीबी के आलम को मेरी बाल संवेदनाएं परखने की कोशिश करतीं और में खुद को साहित्य से जोड़ती।

बस, लेखक के विषय में इतना ही जानती हूं कि आज मेरी लेखनी में जो ताकत आयी है वह इस असाधारण लेखक की कहानियों की वजह से आई है।

 

हामिद के चिमटे की तरह कलमकारों  में बादशाह प्रेमचंद

श्वेता गुप्ता, अध्यापिका, जमशेदपुर

आजादी से पहले भारत की हकीकत का जैसा वर्णन प्रेमचंद ने किया वैसा किसी और लेखक के साहित्य में नहीं मिलता।  मैंने प्रेमचंद की सबसे पहली कहानी कक्षा 4 में पढ़ी थी । उस कहानी का नाम था ईदगाह। मुझे लगता है यह कहानी लगभग सभी ने पढ़ी होगी। ईदगाह कहानी हामिद नाम के बालक के इर्द-गिर्द घूमती है। हामिद के दोस्त ईदगाह के मेले में जाने के लिए बहुत उत्साहित हैं और वहां पर अपने ऊपर खर्च करने के लिए साथ पैसे भी ले जाते हैं। हामिद अपनी दादी अमीना के साथ रहता है और मेले में जाने के लिए उसकी दादी ने उसे तीन पैसे भी दिए।

श्वेता गुप्ता

हामिद एक समझदार बालक है और अपनी दादी के प्रति अत्यंत संवेदनशील भी है, तभी तो वह मेले में अपने लिए कुछ न खरीदकर दादी के लिए चिमटा खरीद लाता है। हामिद अपने मन को समझाने के लिए चिमटे की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए तर्क देता है, जैसे खिलौने तो थोड़ी देर में टूट जाते हैं पर चिमटे का कुछ नही बिगड़ता। चिमटा खिलौनों में बादशाह सिद्ध हुआ। हामिद के हाथों में चिमटा देखकर दादी क्रोधित होते हुए पूछती है कि ,पूरे मेले में उसे कोई और चीज खरीदने को नहीं मिली। हामिद अपराधी भाव से बताता है की आपकी उंगलियां तवे से जल जाती थी, इसलिए चिमटा खरीदा। यह सुनते ही दादी अमीना का क्रोध प्यार में बदल गया और वह हामिद के त्याग और विवेक को देखकर हैरान रह गई । दादी अपनी आंखों से छलकते हुए खुशी के आंसुओं को रोक न सकी और हामिद को दुआएं देती रहीं।

ईदगाह कहानी में लेखक प्रेमचंद ने हामिद से जीवन की बड़ी-बड़ी बातें लिखी थी जो न केवल लोगों के दिल को छू जाती हैं, बल्कि लोग उन्हें अपने जीवन से जोड़ते भी हैं।

मैने प्रेमचंद की अन्य कहानियां और उपन्यास भी पढ़ा, जैसे नमक  का दारोगा, बड़े घर की बेटी, निर्मला, कर्मभूमि आदि। इनमें भारत के ग्रामीण जीवन को प्रेमचंद ने आम लोगों की भाषा में लिखा।

प्रेमचंद वो रचनाकार थे जिन्होंने इंसानों के मनोविज्ञान को भली-भांति समझा।

 

गोदान करते हुए मैंने खुद में बदलाव महसूस किया

ममता पंडित, रंगकर्मी, आज़मगढ़

हमारे बचपने का एक दौर था जब हम लोगों के मनोरंजन का सिर्फ एक ही माध्यम हुआ करता था, वो था दूरदर्शन !

इसी दूरदर्शन ने मुझ जैसों को  रंगोली, चित्रहार , पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों व सीरियल के जरिये कथा-कहानी, प्रेम, सौंदर्य, विछोह, विरह से परिचित (शिक्षित) कराया था। प्रेमचन्द और उनकी रचनाओं से पहली जान-पहचान भी इसी दूरदर्शन के जरिये हुआ।

ममता पंडित

दोपहर में कभी कभी शरद जोशी, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय एव मुंशी प्रेमचन्द जैसे लेखकों के उपन्यास/कहानी पर आधारित छोटे-छोटे सीरियल खूब देखने को मिल जाते थे। तब से प्रेमचन्द को जानती हूँ।

उनकी कहानियां इतनी रोचक व मार्मिक होती हैं कि किसी साधारण व्यक्ति को भी सीधे-सीधे अपने से जोड़ ले। मैंने एक सजग पाठक के रूप में प्रेमचन्द को नाटक करने के दौरान पढ़ा। प्रेमचन्द ने वही लिखा जो उस समय के परिवेश में घटित हो रहाथा। पर आज भी उनका लेखन भारतीय समाज की विद्रूपताओं को नंगा करते हुए डट कर खड़ा है। चाहे ठाकुर का कुआं हो या बूढ़ी काकी, चाहे सवा सेर गेंहू हो या नमक का दारोगा! सभी कहानियाँ या उपन्यास आज भी उतने ही प्रभावशाली, रोचक व प्रासंगिक हैं। मेरे लिए ये कहना बहुत मुश्किल है कि प्रेमचन्द की कौन-सी रचना सबसे अच्छी है, फिर भी मुझे उनका उपन्यास गोदान  बहुत ज्यादा  प्रभावित करता है। 2009 में मेरे एक दोस्त के निर्देशन में गोदान का शो चंडीगढ़ में लगा हुआ था और मुझे उसमें अचानक झुनिया के किरदार को अभिनीत करने का सुअवसर मिला। तब गोदान पढ़कर रोंगटे खड़े हो गये थे।  हर लेखक की अपनी-अपनी स्टाइल होती है। किसी को खारिज नहीं किया जा सकता। पर मेरा मानना है कि अच्छा लेखक व अभिनेता/अभिनेत्री वही होता है जिसके लेखन से पाठक अभिनेता व दर्शक के जीवन में परिवर्तन हो।

गोदान करते हुए मैंने यह बदलाव खुद में महसूस किया!

सबसे अनूठे हैं प्रेमचंद

अंजना, गृहिणी, टाटानगर

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 और 8 अक्टूबर 1936 ) ऐसे भारतीय लेखक हैं जिनके बारे में मैंने 1990 में पहली बार स्कूल समय में जाना था। उस समय केवल उनका जीवन-परिचय आदि पढा। लेकिन अभी दो साल पहले मेरी साहित्य में रुचि हुई तो मैंने विस्तार से इनके बारे में जाना। वे भारत के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं , जिनके युग का विस्तार सन 1880  से 1936 तक है। यह कालखंड भारत के इतिहास में बहुत महत्व का है। इस युग में भारत  स्वतंत्रता संग्राम की कई मंजिलों से गुजरा ।

मैंने जब पहली बार इनके बारे में पढ़ा तो जाना कि इन्होंने किस तरीके से हमारे देश की संवेदना के निर्माण में अपना योगदान दिया। 1906 से 1936 के बीच के समय का बहुत अलग राजनितिक,सामाजिक और सांस्कृतिक है जिसमें प्रेमचंद ने उस दौर के समाज सुधार आंदोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा अन्य आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण किया है। दहेज, अनमेल विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता आदि का चित्रण मिलता है। प्रेमचंद की पूस की रात , बड़े घर की बेटी ,पंच परमेश्वर,नमक का दरोगा, मंत्र,और ईदगाह आदि अनेकों यादगार कहानी हैं। लेकिन इनमें  ईदगाह  बेमिसाल है . मैं इससे बहुत प्रभावित हुई। ये कहानी दादी और पोते की है। जो ऐसे लिखी है कि मेरी आँखों के सामने अब भी नाचती है ‘रमज़ान के पूरे तीस रोजों के बाद आज ईद आई है। कितना मनोहर ,कितना सुहावना प्रभात है। पेड़ों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो कितना प्यारा, कितना शीतल है , मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियां हो रही है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नही, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है । रोज़ ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गयी। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मां न जाने क्यों पीली होते-होते एक दिन मर गयी किसी को पता न चला क्या बीमारी है। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही खुश है। उसे किसी के मरने जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है ,बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल- बल लेकर आए हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।’

अंजना, जमशेदपुर

कई बार मन रोने-रोने को हो आया. मानो मैं ही बालक हामिद हूँ। उसकी ख़ुशी मेरे भीतर फूट पड़ी हो।  उसकी एक-एक हरकत जैसे बचपन में खींचे लिए जा रही हो। ‘हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊंगा। बिल्कुल न डरना! दादी अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवाय और कौन है? उसे कैसे अकेले मेले में जाने दे ? उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो। नहीं,अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे! पैर में छाले पड़ जाएंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोडी-थोड़ी देर में उसे गोद ले लेगी, लेकिन यहां सेवैयाँ कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहां तो घंटों चीजें  जमा करते लगेंगे। मांगे ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिये थे। आठ आने पैसे मिले थे। दादी उस पैसे को बचाकर रखी थी ईद के लिए ,लेकिन कल ग्वालिन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती । हामिद के लिए कुछ नही है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे है। तीन पैसे हामिद की जेब में पांच अमीना की बटुवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार!’

लगता है लेखक खुद कभी हामिद हुआ जा रहा है कभी बूढ़ी अमीना। कभी उल्लास में ईदगाह को जाना चाहता है कभी उसका जी भर जा रहा है। आखिर मेले में जाने के लिए इस बच्चे के हाथ में क्या दे? पूरा खेल अभाव और तंगहाली के बीच चल रहा है। गरीब की मेहनत की कमी क्या होती है , कितनी होती है यह तो उसी दम पता चल जाता है जब कोई ख़ुशी या कोई तकलीफ आती है। इसलिए अमीना परेशान है . वह उसे तीन पैसे दे देती है। यही है जो है सो। और बच्चे –‘वहां तरह-तरह के खिलौने और अनेकों  प्रकार की मिठाइयां देखी। सभी बच्चे ललचा रहे थे। उनमें से महमूद सिपाही लेता है,खाकी वर्दी और लाल पगड़ी वाला,मोहसिन को भिश्ती पसन्द आया। कमर झुकी है और मशक रखे हुए है मशक का मुंह एक हाथ से पकड़े हुए है । हामिद के पास कुल तीन पैसे है। इतने महंगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट जाए तो चूर-चूर हो जाये , जरा पानी पड़े तो सारा रंग धुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा,किस काम के। हामिद खिलौने की निंदा करता है लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाह रहा है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता । लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है। खिलौने के बाद मिठाइयां आती है।किसी ने रेउड़ी ,किसी ने गुलाबजामुन, किसी ने सोहनहलुवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद उनकी बिरादरी से अलग है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है। मोहसिन कहता है हामिद रेउड़ी ले जा ,हामिद को संदेह हुआ यह क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नही है। हामिद कहता है-मिठाई को बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयां लिखी है। लड़के बोले हम इसकी चालाकी समझते है। जब हमारे पैसे खत्म हो जाएंगे तब यह हमें चिढाकर खाएगा।

‘मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की है । लड़कों के लिए यहां कोई आकर्षण नही था वह सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया,दादी के पास चिमटा नही है।त वे से रोटियां उतारती है तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे,तो वह कितनी प्रसन्न होगी?

‘फिर उनकी उंगलियां कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज़ हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा। व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा सी देर ही तो खुशी होती है। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियां तवे से उतार लो ,चूल्हे में सेंक लो। कोई आग मांगने आवे तो झटपट चूल्हे से आग निकालकर दे दो। अम्माँ बेचारी को कहां फुर्सत है कि बाजार आएं, और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती है। जब मैं चिमटा ले जाऊंगा अम्माँ चिमटा देखते ही मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी- मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। हजारों दुआएं देंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएंगी। सारे गांव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएं देगा। बड़ों की दुआएं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुंचती हैं ,और तुरंत सुनी जाती है।’

प्रेमचंद और दूसरे लेखकों में यही फर्क है कि जो चित्रण प्रेमचंद की कृतियों में है वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नही मिलता।

प्रेमचंद के बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा

असगरी अख्तर,अध्यापिका, रायगढ़

हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद की हर रचना बहुमूल्य है जो अपने समय की सच्चाई को बयाँ करती है. जब पहली बार मैंने प्रेमचंद की रचना ईदगाह पढ़ी तब मैंने लेखक को जाना. ईदगाह कहानी में बताया है कि गरीबी  कैसे इंसान को उम्र से पहले बड़ा बना देती है. प्रेमचन्द नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी पत्रिका ज़माना में दिसम्बर 1910 के अंक में प्रकशित हुई और 1915 ई. में पत्रिका सरस्वती में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई.

प्रेमचंद की कहानी पञ्च परमेश्वर अत्यंत कौतुहलवर्धक कहानी है, यह समाज में न्याय का संचार करती हैं. इस कहानी में लेखक ने बताया है कि जब समूह का नेतृत्व करते हैं तो उन्हें व्यक्तिगत लाभ एवं हानि से परे होकर निर्णय लेना चाहिए एवं फैसला बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय होना चाहिए.

असगरी अख्तर,रायगढ़

इनका लेखन हिंदी साहित्य की ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा. वे संवेदनशील लेखक,सचेत नागरिक,कुशल वक्ता तथा सुधी सम्पादक थे. प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार,कहानीकार एवं विचारक थे.उन्होंने सेवासदन,प्रेमाश्रम गबन कर्मभूमि,गोदान,निर्मला जैसे डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफ़न, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा, बड़े घर की बेटी आदि तीन सौ से अधिक कहानियां लिखीं.

प्रेमचंद की रचनायों में समाजसुधार आन्दोलन,स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिशील आन्दोलन के सामाजिक प्रभावों का चित्रण है. रचना सेवा सदन में उस दौर की यथार्थवादी समस्यायों को चित्रित किया गया है लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाला है. हिंदी में कई बड़े लेखक हुए लेकिन लोकप्रियता और प्रभाव दोनों ही मानदंडों  पर प्रेमचंद के कद के करीब पहुंचना कठिन है. आज का लेखक आत्मचेतस है. अपनी सफलता के बारे में तो सोचता है लेकिन उसके पास प्रेमचंद जैसी दृष्टि और संवेदना का सर्वथा अभाव है.

 

जल्दी ही अगला हिस्सा …

 

 

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3 COMMENTS
  1. सही अर्थ में औरतों की आजादी और मुक्ति के मसीहा

  2. प्रेमचंद तो आखिर प्रेमचंद हैं। चंद मुट्ठीभर लोगों को भले ही उनसे प्रेम न हो लेकिन फुटपाथ और खेत-खलिहान से लेकर चाय की दुकान, स्त्रियों की मुस्कान और महतो जी का दलान तक के सभी लोग उनसे अगाध प्रेम करते हैं: क्योंकि उन्हीं के जीवन का सच्चा चित्र उन्होंने उकेरा है,उनकी मुकम्मल आजादी का आजीवन संकल्प दुहराया है और मुक्ति का परचम लहराया है।

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