Sunday, May 19, 2024
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पीयूसीएल ने किसानों के दमन के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की

पीयूसीएल किसानों के मार्च पर केंद्र सरकार की अलोकतांत्रिक, अत्याचारी प्रतिक्रिया की कड़ी निंदा करता है। केंद्र सरकार ने हिंसक कदम उठाए हैं किसानों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोकना घोर अन्याय है।

सरकार अपने ही देश के किसानों के खिलाफ युद्ध छेड़ना बंद करे 

‘संयुक्त किसान मोर्चा’ (गैर-राजनीतिक), किसान मजदूर मोर्चा (केएमएम) और किसान मजदूर संघर्ष समिति (केएमएससी) और कई अन्य श्रमिक संघों ने 13 फरवरी 2024 को ‘दिल्ली चलो’ मार्च का आह्वान किया था। हम साल भर चले किसानों के विरोध के बाद 2021 में दिए गए वादे को पूरा करने में केंद्र सरकार की विफलता की निंदा करते हैं।

वर्ष 2020-2021 में किसानों के विरोध प्रदर्शन में हजारों महिलाएं, पुरुष किसान, श्रमिक संघ और अन्य लोग कड़कती ठंड सहते हुए और प्रतिकूल मौसम का सामना करते हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। 13 महीने चले इस विरोध के दौरान 700 से अधिक किसानों की मृत्यु हो गई। मोदी सरकार द्वारा किसानों को सार्वजनिक रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का आश्वासन दिया गया था लेकिन उन्हें पूरा नहीं किया गया। इस कारण किसानों ने फिर से आंदोलन शुरू किया।

किसान यूनियन और सरकार की बातचीत विफल होने के बाद किसान यूनियनों ने सरकार पर आरोप लगते हुए कहा कि देरी करने और आश्वासनों के कार्यान्वयन से बचने के लिए सरकार वार्ता कर कर रही है। किसानों को दिये गए आश्वासनों को पूरा करने और उनकी शिकायतों को दूर करने की बदले केंद्र और राज्य सरकारें उनके द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से निकाले जा रहे मार्च को स्वीकृति नहीं दे रही हैं बल्कि उनके दमन के लिए बल का प्रयोग कर रही हैं। सरकारें अपने ही देश के किसानों के खिलाफ दुश्मनों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति अपना रही हैं। उनकी आवाज को दबाने के लिए जिस तरह की कार्यवाही कर रही है वह हर किसी के लिए भयानक, चिंता और शर्म की बात होनी चाहिए।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज उन प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ केंद्र सरकार के दमनकारी कदमों की कड़ी निंदा करती है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी गारंटी, किसानों के कर्ज की पूर्ण माफी, किसानों को पेंशन और प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ 2020-21 में मामले दर्ज किए गए मुकदमों की वापसी की मांग के लिए अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं।

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र और हरियाणा सरकार द्वारा किसानों के विरोध प्रदर्शन से निपटने के लिए निम्नलिखित दमनकारी उपाय किए गए हैं-

(1) किसानों को एनसीआर क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकने के लिए सीमाओं पर कंटीले तारों, कीलों और विशाल कंटेनरों से बनी भारी नाकेबंदी की गई।

(2) दिल्ली और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धारा 144 लागू।

(3) किसानों को अपना मार्च जारी रखने से रोकने के लिए विभिन्न स्थानों पर अस्थायी जेलें स्थापित की गईं।

(4) हरियाणा के कई जिलों में इंटरनेट बंद.

इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात इसका उपयोग है:

(ए) रबर की गोलियां।

(बी) लंबी दूरी के ध्वनिक उपकरण या ध्वनि उपकरण जो लोगों को बहरा बना दें।

(सी) सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) द्वारा विकसित ड्रोन-आधारित आंसू-गैस लांचर का उपयोग।

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अपनाई गई रणनीति से एक बुनियादी सवाल सामने आता है कि क्या केंद्र सरकार प्रदर्शनकारी किसानों को भारत का नागरिक मानती है या दुश्मन विदेशी?

यह बताया जाना चाहिए कि क्या मौजूदा कार्रवाइयां किसान यूनियनों और सरकार के बीच वार्ता विफल होने के बाद ही तय की गईं? किसान यूनियनों ने आरोप लगाया कि सरकार केवल देरी करने और आश्वासनों के कार्यान्वयन से बचने के साधन के रूप में वार्ता में लगी हुई है।

पीयूसीएल किसानों के मार्च पर केंद्र सरकार की अलोकतांत्रिक, अत्याचारी प्रतिक्रिया की कड़ी निंदा करता है। किसानों की शिकायतों को दूर करने के लिए सद्भावना वार्ता में शामिल होने के किसी भी महत्वपूर्ण प्रयास के बजाय, राज्य ने उनकी आवाज़ को दबाने के लिए बलप्रयोग और दमन का का रास्ता चुना है। प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए यह भयावह चिंता और शर्म की बात होनी चाहिए कि सरकार ने अपने देश के किसानों के खिलाफ उस तरह की रणनीति अपनाई है जैसी रणनीति  युद्ध के समय दुश्मनों के खिलाफ बनाई जाती है!

खबरें आ रही हैं कि पुलिस की ज्यादती से करीब 200 किसान घायल हो गए हैं। इससे किसानों के ऊपर की जानेवाली हिंसा का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

इस रणनीति के अलावा, दिल्ली मार्च से पहले एक्स (पूर्व में ट्विटर) और फेसबुक पर प्रमुख किसान नेताओं/यूनियनों के कई सोशल मीडिया अकाउंट बंद कर दिए गए थे। हरियाणा सरकार ने भी सात जिलों में इंटरनेट शटडाउन और बल्क मैसेजिंग पर प्रतिबंध लगा दिया था। दिल्ली की सीमाओं को सील करने के साथ-साथ इन निषेधात्मक उपायों को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।

यह क्रूर कार्रवाई केंद्र सरकार के पाखंड को भी उजागर करती है। प्रसिद्ध किसान नेता और पूर्व प्रधान मंत्री चरण सिंह और कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, भारतरत्न से सम्मानित करने के एक ही सप्ताह के दौरान केंद्र सरकार ने किसानों के खिलाफ हिंसक कदम उठाए हैं। विडंबना की पराकाष्ठा यह है कि किसान एमएस स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार एमएसपी और अन्य किसान कल्याण उपायों का समर्थन करने वाली सिफारिशों को अपनाने से लगातार इनकार कर रही है।

हम यह बताना चाहते हैं कि किसानों की मांगों को उनके जीवन और आजीविका के अधिकार के रूप में मान्यता देने के बजाय, राज्य उन्हें अपराधियों के रूप में मान रहा है और उनके संघर्ष को ‘कानून और व्यवस्था’ की समस्या के रूप में दबा रहा है।

हमारा मानना है कि केंद्र सरकार, हरियाणा सरकार और दिल्ली पुलिस की हरकतें मौजूदा रूप में अपने ही नागरिकों और लोकतंत्र के स्थान पर पुलिस-राज्य की कार्यप्रणाली के प्रति गहरे अविश्वास को उजागर करती हैं।

उनके कार्य, अनुच्छेद 19(1) (ए), (बी), और (डी) का उल्लंघन हैं, जिसके परिणामस्वरूप किसानों को अपनी बात कहने, शांतिपूर्वक इकट्ठा होने और भारत के राज्यों के बीच स्वतंत्र रूप से घूमने के अधिकार को कुचल दिया गया है। ये संवैधानिक अधिकार किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद  हैं क्योंकि सार्वजनिक सभाओं और मार्चों के जरिये विचारों की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति से ही परिवर्तन लाया जा सकता है। वास्तव में, बाबासाहेब अम्बेडकर ने लोकतंत्र को ‘सरकार के एक रूप और एक तरीके’ के रूप में परिभाषित किया है जिसके तहत लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में बिना रक्तपात के क्रांतिकारी बदलाव लाए जाते हैं।’ यह वह सार है, जो भारत को इसके संस्थापकों की नजर में एक जीवंत लोकतंत्र बनाता है, जिसे हमारी आंखों के सामने बंद किया जा रहा है।

पीयूसीएल प्रदर्शनकारी किसान यूनियनों और संगठनों और उन सभी किसानों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करता है जो अभिव्यक्ति, आंदोलन और सभा के अपने संवैधानिक और मौलिक अधिकार का दावा कर रहे हैं। प्रदर्शनकारी किसान इसी दावे के साथ हम सभी के लिए भारतीय संविधान को पुनः स्थापित कर रहे हैं।
कविता श्रीवास्तव, अध्यक्ष
डॉ. वी. सुरेश, महासचिव
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़
गाँव के लोग
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