इतिहासकार राधा कुमार के शब्दों में-‘नारी के प्रति स्त्रैण विचारों एवं राजनीति का नारीकरण करने की प्रवृत्ति के कारण गाँधी जी को भारतीय नारी आन्दोलन के जनक के रूप में ख्याति मिली’ (स्त्री संघर्ष का इतिहास – राधा कुमार, पृष्ठ 13)। जी हाँ!
महात्मा गांधी अवश्य ही भारतीय नारी आन्दोलन के जनक थे। जिस समय भारत की राजनीति में गांधीजी का प्रवेश हुआ, उस समय तक आम भारतीय स्त्रियाँ घूँघट, पर्दा, बुर्का में कैद थी। आँगन की दहलीज तक नहीं लांघ सकती थीं। सामंती प्रथा और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के बोझ तले औरतों का सार्वजनिक प्रदर्शनों में, जुलूसों में, मोर्चों में भाग लेना तो कल्पना के परे था। पर गांधीजी ने ये चमत्कार कर दिखाया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण तत्कालीन भारत के स्त्रियों की भारी संख्या में सड़कों पर उतारा। स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ी औरतों में जितनी हिम्मत, आजादी और गतिशीलता नजर आती है, वह सब गांधीजी की देन थी। मेरा आज का विषय है- महिला सशक्तिकरण के लिए गांधीजी की भूमिका गांधीजी ने स्वयं कहा- मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है। इसी परिप्रेक्ष्य में हम गांधीजी द्वारा महिलाओं को दी गई समता और समानता पर विचार करेंगे-
राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी गांधीजी के प्रभाव से हुई। 1920 तक गांधीजी एक गाथा पुरुष बन चुके थे। गांधीजी महिलाओं को इसलिए भी जुटा सके क्योंकि उन्हें पुरुषों के रवैये का भी ध्यान था। गांधीजी के व्यक्तित्व की खासियत यह थी कि वे न केवल महिलाओं में विश्वास जगाने में सक्षम थे, वरन् महिलाओं के पति, पिता, पुत्र, भाइयों का भी विश्वास उन्हें प्राप्त था। उनके नैतिक आदर्श इतने ऊँचे थे कि जब महिलाएँ बाहर आकर राजनीति के क्षेत्र में काम करती थी, तो उसके परिवार के सदस्य उनकी सुरक्षा के बारे में निश्चिंत रहते थे। इसका कारण था कि गांधीजी का ध्यान महिलाओं की जुझारू क्षमता पर पहली बार दक्षिण अफ्रीका में खिंचा था। वहाँ उन्होंने देखा कि भारी संख्या में महिलाएँ उनके राजनीति विचारों से प्रभावित होती हैं। उनके नेतृत्व में हुए आन्दोलनों में महिलाएँ जेल गई, बिना किसी शिकायत के उन्होंने जेल की कठोर सजा झेली और खदान श्रमिकों की हड़ताल में शामिल हुईं। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आन्दोलन में उन्होंने महिलाओं में आत्मत्याग और पीड़ा सहने की अद्भुत क्षमता देखी।
[bs-quote quote=”कार्यकर्ताओं का एक समूह चंपारण में कस्तूरबा के साथ कार्यरत रहा। मितिहवा, बहरवा तथा मधुबन गांव में स्कूल तथा आश्रम खोले गए जिनमें स्त्रियों को पढ़ने-लिखने एवं सूत काटने का प्रशिक्षण दिया जाता था। हमने देखा कि गांधीजी ने हमेशा अपनी पत्नी को राजनीतिक जीवन में जगह दिया। चाहे साबरमती आश्रम हो या सेवाग्राम, वर्धा आश्रम हो, वहां पर ’बा-कूटी’ अलग से बनाया गया था। जहाँ उनकी पत्नी ढेरों स्त्रियों से स्वतंत्र रूप से मिलती, तथा स्वतंत्र रूप से सामाजिक, राजनीतिक पहचान बनाए हुए थीं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
महिलाओं के आत्मत्यागी एवं बलिदानी स्वभाव के हिमायती गांधीजी पहले ही व्यक्ति नहीं थे, समाज सुधारकों ने महिला के आत्मत्याग को एक जबरदस्ती थोपे कर्मकाण्डों की तरह देखा। पुनरुद्धार की सोच थी कि इन कर्मकाण्डों से हिन्दू महिलाओं की छवि गौरवमयी बनती है। गांधीजी ने नारी के इन गुणों की हिन्दू कर्मकाण्डों से अलग परिभाषित किया। गाधीजी ने कहा कि यह भारतीय नारीत्व का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि उनकी अहम् भूमिका माँ की है। गांधीजी की सोच थी कि गर्भधारण और मातृत्व के अनुभवों से गुजरने के कारण महिलाएँ शांति और अहिंसा का सन्देश फैलाने में ज्यादा उपयुक्त है। गांधीजी के अनुसार स्त्री-पुरुष में जैविक गुणों के अंतर के कारण उनकी अलग-अलग भूमिकाएँ है और ये दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। पुरुष कमाकर लाता है और स्त्री घर और बच्चों की देखभाल करती है। यहाँ भी गांधीजी ने स्त्री के मातृत्व गुणों और स्त्रियों की भूमिका को अलग परिभाषित किया है। गांधीजी को लगता था कि उनकी अहिंसा की लड़ाई में महिलाएँ उनकी विचारधारा के ज्यादा नजदीक है क्योंकि उसमें काफी पीड़ा सहना शामिल है और महिलाओं से ज्यादा बेहतर कुलीन और श्रेष्ठ ढंग से पीड़ा कौन सह सकता है। गांधीजी की नजरों में पीड़ा सहन करने का गुण होना बहुत जरुरी है। उनकी नजरों में ‘स्वैच्छिक विधवा’ आदर्श ‘एक्टिविस्ट’ (कार्यकर्ता) थीं क्योंकि उसने पीड़ा में सुख का रास्ता खोज लिया। उनकी नजरों में वह सच्ची सती थी न कि वह जो पति की चिन्ता में जलकर प्राणों की आहुति दे देती थी।
गांधीजी की व्यक्तिगत छवि संत महात्मा की होने के कारण उनके नेतृत्व में शुरू हुए देश-भक्ति आन्दोलन की राजनीतिक और धार्मिक मिली-जुली छवि बनी। उसका क्षेत्र राजनीति से ऊपर उठकर धार्मिक हो गया। देशभक्ति को धर्म माना गया, देश को देवी माँ की संज्ञा दी गई जिसके लिए बड़े से बड़े बलिदान भी कम थे। गांधीजी आन्दोलनों में महिला भागीदारी के पूर्ण पक्षधर थे। वे अपनी सभाओं में, अपने भाषणों में, आन्दोलनों में महिलाओं की भागीदारी को अनिवार्य मानते थे और साथ ही यह कहकर प्रेरित करते थे कि देवियों और वीरांगनाओं की तरह आन्दोलन में उनकी अपनी अलग भूमिका है और उनमें इस भूमिका को निभाने की शक्ति और हिम्मत है। गांधीजी ने महिलाओं को विश्वास दिलाया कि आन्दोलन को उनके महत्वपूर्ण योगदान की जरुरत है। वे कहते है कि जब महिलाएँ सत्याग्रह आन्दोलन में शामिल होंगी, तभी पुरुष भी आन्दोलन में पूरा सहयोग देगा। 85 प्रतिशत भारतीय महिलाएँ निर्धनता और अज्ञान के अंधकार में डूबी हुई हैं। उन्होंने महिला नेताओं से कहा कि उन्हें सामाजिक सुधार महिला शिक्षा एवं महिला अधिकार के लिए कानून बनाने के लिए काम करना चाहिए, ताकि उन्हें एक बुनियादी अधिकार मिल सके। उन्होंने कहा कि महिला नेताओं को सीता, द्रौपदी और दमयंती की तरह सात्विक दृढ़ और नियंत्रित होना चाहिए, तभी वह स्त्रियों के भीतर पुरुषों के साथ बराबरी का भाव जगा सकेगी और अपने अधिकरों के प्रति सचेत तथा स्वतंत्रता के प्रति जागृत कर सकेंगी। गांधीजी के अनुसार बराबरी का यह अर्थ कदापि नहीं था कि महिलाएँ वे सब काम करें, जो पुरुष करते हैं। गांधीजी की आदर्श दुनियाँ में स्त्रियों और पुरुषों के अपने स्वभाव व क्षमतानुसार काम के अलग-अलग क्षेत्र निश्चित थे।
गांधीजी ने महिलाओं को ’स्पेस’ (सार्वजनिक/व्यक्तिगत जीवन में स्वतंत्र स्थान) दिया। हम देखते है कि सन् 1915 में गांधी जी ने कस्तूरबा के साथ मिलकर साबरमती आश्रम की स्थापना की जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष शामिल हुए, गांधीजी प्रारंभ में गुजरात के स्थानीय आन्दोलन से जुड़े। जिसमें 1917 का 1918 में लगान ने देने का खेड़ा सत्याग्रह तथा 1917 में ही मिल मालिकों द्वारा श्रमिकोें को प्लेगबोनस भुगतान न करने के परिणामस्वरूप अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में हड़ताल जैसे आन्दोलन में उनकी अहम भूमिका देखने को मिलती है। कार्यकर्ताओं का एक समूह चंपारण में कस्तूरबा के साथ कार्यरत रहा। मितिहवा, बहरवा तथा मधुबन गांव में स्कूल तथा आश्रम खोले गए जिनमें स्त्रियों को पढ़ने-लिखने एवं सूत काटने का प्रशिक्षण दिया जाता था। हमने देखा कि गांधीजी ने हमेशा अपनी पत्नी को राजनीतिक जीवन में जगह दिया। चाहे साबरमती आश्रम हो या सेवाग्राम, वर्धा आश्रम हो, वहां पर ’बा-कूटी’ अलग से बनाया गया था। जहाँ उनकी पत्नी ढेरों स्त्रियों से स्वतंत्र रूप से मिलती, तथा स्वतंत्र रूप से सामाजिक, राजनीतिक पहचान बनाए हुए थीं।
[bs-quote quote=”उन्होंने महिला नेताओं से कहा कि उन्हें सामाजिक सुधार महिला शिक्षा एवं महिला अधिकार के लिए कानून बनाने के लिए काम करना चाहिए, ताकि उन्हें एक बुनियादी अधिकार मिल सके। उन्होंने कहा कि महिला नेताओं को सीता, द्रौपदी और दमयंती की तरह सात्विक दृढ़ और नियंत्रित होना चाहिए, तभी वह स्त्रियों के भीतर पुरुषों के साथ बराबरी का भाव जगा सकेगी और अपने अधिकरों के प्रति सचेत तथा स्वतंत्रता के प्रति जागृत कर सकेंगी। गांधीजी के अनुसार बराबरी का यह अर्थ कदापि नहीं था कि महिलाएँ वे सब काम करें, जो पुरुष करते हैं। गांधीजी की आदर्श दुनियाँ में स्त्रियों और पुरुषों के अपने स्वभाव व क्षमतानुसार काम के अलग-अलग क्षेत्र निश्चित थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
गांधीजी को अहमदाबाद की कपड़ा मिल हड़ताल का नेतृत्व करने के लिए अनुसुइया साराभाई लेकर आयीं थी। इनका परिवार कई कपड़ा मिलों का मालिक था। उन्होंने साबरमती आश्रम के लिए उदारतापूर्वक दान दिया था। अनुसुइया गांधीवादी बन गईं। उन्होंने मिल-मजदूरों के बीच काम किया, उनके लिए रात्रिकालीन स्कूल खोले। हालाँकि अनुसुइया धनी व विशिष्ट जीवन की अभ्यस्त थी फिर भी उन्हें मजदूरों के बीच काम करने वाली प्रथम महिला का श्रेय प्राप्त है।
सही मायने में गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की सहभागिता सन् 1919 में रोलेट एक्ट बनने के बाद शुरू हुई। राजद्रोह बैठक कानून के नाम से जाना जाता था, इस एक्ट का मकसद था नागरिक अधिकारों पर पाबन्दियाँ लगाना। इस एक्ट के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति के पास सरकार विरोधी कोई सामग्री (लिखित या प्रकाशित) पाए जाने पर बिना मुकदमा चलाए उस व्यक्ति को जेल भेजा जा सकता है। इस कानून के विरोध में संघर्ष छेड़कर गांधीजी एक अखिल भारतीय नेता के रूप में उभरें। 6 अप्रैल 1919 को अखिल भारतीय हड़ताल के दिन, सभी समुदाय-वर्गों की महिलाओं को एक सभा में संबोधित करते हुए गांधीजी ने महिलाओं से सत्याग्रह आन्दोलन में शामिल होने का आग्रह किया ताकि पुरुषों की संपूर्ण भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सके। सप्ताह भर के भीतर ही जलियाँवाला बाग कांड हो गया। गांधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया था, लेकिन तब तक यह साफ हो चुका था कि अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में महिलाएँ आ जुटी थीं। गांधीजी ने महिलाओं को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी की शपथ लेने और रोज सूत काटने का आग्रह किया। उन्होंने इसकी व्याख्या की कि स्वदेशी हस्तकल्प की अनदेखी करके विदेशी सामान खरीदने से भारत की गरीबी कैसे बढ़ती है, उन्होंने बताया कि रामराज्य की पुर्नस्थापना तभी संभव होगी जब अनैतिक शासकों के खिलाफ संघर्षों में जुटे भारतीय पुरुषों का साथ भारतीय महिलाएँ सीता की तरह वीर और विश्वासपात्र बनकर देंगी। उन्होंने अपने इसी संदेश को थोड़ा फेरबदल करके मुस्लिम औरतों से आग्रह किया कि वे भी चरखा कातें और आन्दोलन में शरीक होने के लिए अपने पतियों को प्रोत्साहित करें। उन्होंने ब्रिटिश शासन को शैतान का शासन बताते हुए इस्लाम को बचाने की खातिर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए मुस्लिम औरतों को उत्साहित किया।
1910-1920 के बीच राष्ट्रीय आन्दोलन में नारी-अधिकारों की तथा समानता पर चर्चा होने लगी थी। जो पुरुष कह रहे थे कि कुछ ही समय में महिलाओं को समानता का अधिकार दिया जाएगा। उनसे महिलाएँ सवाल करने लगी थी। रौलक एक्ट के विरोध में जालंधर की असहयोग आन्दोलन 1920 सभा में जाने वाली महिलाओं ने खुलेआम घोषित कर दिया था की यदि एक भी महिला को गिरफ्तार किया तो सब की सब जेल चली जाएंगी। घर पर यह भी कहकर आयीं थी कि यदि उन्हें घर आने से देरी हो या ना लौटे तो चिन्ता ना करें।
असहयोग आन्दोलन 1920
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में असहयोग आन्दोलन के दौरान सही मायने में गांधीजी के नेतृत्व में महिलाओं का आन्दोलन आगे बढ़ा। गांधीजी की आवाज सुदूर गांवों तक पहुँची और देश की आजादी के उदेश्य को लेकर महिलाओं ने रातों-रात पर्दे को तिलांजलि दे डाली। देशभक्ति से प्रेरित होकर, सब बाधाओं को पीछे छोड़कर हजारों महिलाएँ स्वतंत्रता आन्दोलन की लड़ाई में कूद पड़ी। सैकड़ों महिलाएँ पंजाब के शहरों की सड़कों-गलियों में खादी और चरखे का प्रचार करती, तो जुलूसों में ’’फैशन’’ की खिल्ली उड़ाने वाली गीत गाती और विदेशी कपड़ों की होली जलाती दिखीं। लेकिन चूँकि लाला लाजपतराय औरतों के जेल जाने के पक्ष में नहीं थे इसलिए कांग्रेस तय नहीं कर पा रही थी कि औरतों को गिरफ्तारी की अनुमति दी जाये या नहीं। कांग्रेस नेतृत्व में पंजाब में इस बारे में मतभेद था। इसलिए शराब की दुकानों पर धरना देने या स्वयं गिरफ्तारी देने नहीं गयीं।
लेकिन मुम्बई और कोलकाता में माहौल भिन्न था। वहाँ औरतें शराब की दुकानों पर धरना दे रही थीं और टाउन हाॅल में शराब की नीलामी का विरोध कर रही थीं। 13 अप्रैल, जलियाँवाला बाग कांड की प्रथम बरसी पर मुम्बई की महिलाओं ने ’’राष्ट्रीय स्त्री सभा’’ की स्थापना की। यह संस्था पूरी तरह राष्ट्रीय गतिविधियों के लिए समर्पित थी इस तरह की यह पहली नारी संस्था थी। यह संस्था खादी का प्रचार करती। नवम्बर 1921 में प्रिन्स ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के विरोध में इस संस्था ने मुम्बई में व्यापक हड़ताल की।
[bs-quote quote=”अहमदाबाद में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में अखिल भारतीय खिलाफत समिति के नेता शौकत अली और मोहम्मद अली की माँ बी अम्मा का भाषण सुनने के बाद 6,000 औरतें इकट्ठी हुई। उन्होंने औरतों से आग्रह की कि वे कांग्रेस की स्वयंसेविकों की सूची में अपना नाम लिखाये और अगर उनके घर के पुरुष सदस्यों की गिरफ्तारी हो जाये, तो घरने पर बैठ जाये और झण्डा ऊँचा रखें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बंगाल में बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति की महिला संगठन बोर्ड की सदस्यों ने महिला कर्म समाज की स्थापना की। यह संस्था बंगाल की महिलाओं के बीच रचनात्मक कार्य करने और प्रचार-प्रसार करने के काम करती। संस्था की शाखाएँ कोलकाता के सभी क्षेत्रों में खोली गयी। संस्था की सभाओं में महिलाओं ने अपने गहने दान में दे दिये। अपने नाम स्वयं सेविकाओं की सूची में दर्ज करवाये। असम के गुवाहाटी की एक सभा में साठ महिलाओं ने अपने नाम स्वयं सेविकाओं की सूची में दर्ज करवाये।विदेशी कपड़े पहनने बेचने के खिलाफ संदेश लेकर वे समाज के हर वर्ग के लोगों के बीच गयीं।
लखनऊ में महिलाओं से खादी पहनने का आग्रह किया गया और कहा गया कि ये पुरुषों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित करें। श्रीमती अब्दुल कादिर की अध्यक्षता में महिलाओं के बीच काम करने के लिए एक समिति बनायी गयी। उत्तर भारत में इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली और लाहौर की महिलाएँ सार्वजनिक प्रदर्शनों, जुलूसों में शामिल होने लगी। घर की औरतों को बिना घूँघट-बुर्का-पर्दा के सड़कों-गलियों में इससे पहले कभी न उतरते देखने वाली जनता इस परिवर्तन और उत्साह से चकित थी। कुछ परिवारों से नेतृत्व उभर कर आया। जैसे-नेहरू परिवार, जुत्थी परिवार।
मोतीलाल नेहरू के भतीजे की पत्नी लाड़ो रानी जुत्थी और उनकी तीन बेटियाँ मनमोहिनी, श्यामा और झनक ने लाहौर में आन्दोलन का नेतृत्व किया। 1929 में मनमाहिनी को लाहौर छात्र संघ का अध्यक्ष चुना गया। इस पद पर वे पहली महिला थी। मनमोहिनी ने द्वितीय अखिल भारती पंजाब छात्र सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत किया। जब भगत सिंह और उनके साथियों को मौत की सजा सुनाई गई तब मनमोहिनी ने तीन जगहों पर धरना देने की योजना बनायी, गवर्नमेंट काॅलेज, लाॅ काॅलेज और फार्मन डिरिययन काॅलेज। इस धरने में छात्रों ने भी छात्राओं का साथ दिया। इसमें 16 छात्राओं और 35 छात्रों की गिरफ्तार किया गया। मनमोहिनी को छह महीने की कैद की सजा सुनाई गई।
1921 में कांग्रेस अधिवेशन में 144 महिला प्रतिनिधि, 131 महिला स्वयं सेविका और विभिन्न समितियों में 14 महिलाओं ने हिस्सा लिया। सरकार द्वारा शहर के कुछ इलाकों में तिरंगा फहराने पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ नागपुर में हुए झण्डा सत्याग्रह में महिलाओं ने हिस्सा लिया। डाकुओं के खिलाफ गठित एक पुलिस वाहिनी का खर्चा पूरा करने के लिए सरकार द्वारा ग्रामीणों पर लगाये गये दण्डात्मक कर के विरोध में 1923-24 में हुए बोरसद सत्याग्रह में महिलाएँ शामिल हुईं। नागपुर में सरकारी आदेश के खिलाफ निकले जुलूस का नेतृत्व भक्तिबेन देसाई ने किया। 1919 में बिना कोई अतिरिक्त लाभ दिये 4000 रुपयों के ’कर’ को 40,000 रुपयों के कर दिये जाने के विरोध में आंध्रप्रदेश के चिटाला-पेराला सत्याग्रह के दौरान एक वृद्ध राबूरी अलिवेलू मंगधापरम्मा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। राजनीतिक आरोप में जेल भेजी जाने वाली शायद ये पहली महिला थी मवेशियों पर लगाये गये ’कर’ के विरोध में कन्नेगंटी हनुमंतुल के नेतृत्व में हुए पुल्लारि सत्याग्रह में भी औरतें बहुत सक्रिय रहीं। उन्नावा लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में गुंटूर में एक विराट विरोध आन्दोलन हुआ। पलाॅड में भी ’कर’ नहीं देने का अभियान चलाया गया उस धरने का जिक्र करते हुए 17 अगस्त 1921 के ’’आंन्ध्र पत्रिका’’ में लिखा गया- ‘जब उन्नावा लक्ष्मीबाई गुंटूर में गिरफ्तार किये जाने पर अपने पति का अभिनन्दन किया, तो उनके रथ को सैकड़ों महिलाओं ने अपने विनम्र हाथों से खींचा। इसमें आम जनता की शक्ति की अभिव्यक्ति स्पष्ट दिख रही थी।’ स्थिति तब बहुत चिन्ताजनक हो गयी, जब कई गांवों में स्वराज शासन का दावा कर दिया गया। 26 फरवरी 1922 को जब एक पुलिस दल ने घास चरने गयी 50 बकरियों और 120 भैंसों को जंगल कानून तोड़ने के आरोप में बांध दिया गया, तब मिंचलपाडु के सीमांत में दो-तीन सौ ग्रामीणों की भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया। जवाब में पुलिस ने गोली चलाई, तो हनुमंतु की मौत हो गई। 29 पुरुष और 9 औरतों को गिरफ्तार किया गया।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच 1923 में काकीनाड़ा कांग्रेस महासभा का आयोजन हुआ। सैकड़ों महिलाओं ने स्वयं सेविका के रूप में काम किया। 15 साल की दुर्गा बाई ने कई स्वयं सेविकाओं की भरती की, किन्तु स्वयं छोटी उम्र की होने के नाते स्वयंसेविका नहीं बन पायी महिलाओं ने घर, गांव छोड़कर, परिवार छोड़कर आन्दोलन में शामिल हुई। महिलाएँ पुरुषों से आगे निकल गई थी। दुब्बूरि सुब्बाम्मा, पोनका कनकम्मा और उन्नावा लक्ष्मीबायम्मा जैसे महिलाओं ने पुरुष प्रचारकों से बाजी मार ली। 1922 जनवरी में महिला कांग्रेस समिति का गठन हुआ। इस समिति की संयोजिका सुब्बम्मा पहली ऐसी देशभक्त महिला थीं जिन्हें एक साल के सश्रम करावास की सजा दी गयी। कांग्रेस द्वारा चंदा देने के आग्रह पर आन्ध्र की महिलाओं ने अपने गहने दे दिये थे। नेल्लोर जिले में महिलाओं ने खादी केन्द्रों की स्थापना की। जब गांधीजी गिरफ्तार हुए तो उसके विरोध में उन्नावा लक्ष्मीबयम्मा ने गुटूर जिला बोर्ड से इस्तीफा दे दिया।
बंगाल में गलियों-सड़कों में खद्दर बेचने के आरोप में चितरंजन दास के बेटे सहित स्वयंसेवकों के पहले जत्थे को गिरफ्तार कर लिया। उस समय चितरंजनदास की पत्नी, बसन्ती देवी, बहन उर्मिला देवी भतीजी सुनीति देवी महत्वपूर्ण महिला संगठक थी। सुनीति देवी ने नौकरीसुदा महिलाओं के लिए रहने-खाने के लिए एक आवास बना रखा था-’नारी कर्म मंदिर’ ये सब सड़कों पर उतरी और गिरफ्तार कर ली गयीं। गिरफ्तारी की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। एक हजार से ज्यादा पुरुषों ने गिरफ्तारी दी। खबर फैलते ही मारवाड़ियों, मुसलमानों, सिखों, कुलियों, छात्रों, मजदूरों की भारी भीड़ जमा हो गई, जिससे महिलाओं को छोड़ना पड़ा। दूसरे दिन 8 दिसम्बर 1921 को पूरा शहर आन्दोलन पर उतर आया। सैकड़ों छात्र खद्दर पहनकर सड़कों पर जुलूस निकालते हुए गिरफ्तार हुए एक दिन में 170 प्रदर्शनकारी गिरफ्तार हुए। दास परिवार की महिलाओं ने दुकानों के सामने धरना दिया, खादी बेचे।
यंग इंडिया में गांधी ने लिखा कि- ’बंगाल की बहादुर महिलाओं की तरह भारत के दूसरे प्रान्तों की महिलाओं को भी आगे आना चाहिए।’ अहमदाबाद में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में अखिल भारतीय खिलाफत समिति के नेता शौकत अली और मोहम्मद अली की माँ बी अम्मा का भाषण सुनने के बाद 6,000 औरतें इकट्ठी हुई। उन्होंने औरतों से आग्रह की कि वे कांग्रेस की स्वयंसेविकों की सूची में अपना नाम लिखाये और अगर उनके घर के पुरुष सदस्यों की गिरफ्तारी हो जाये, तो घरने पर बैठ जाये और झण्डा ऊँचा रखें।
गांधीजी के आवाहन पर ब्रिटिश शासित भारत के सभी प्रान्तों से महिलाएँ आगे आयीं। गांधीजी ने महिलाओं से कहा कि वे विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें, खुद खादी कातें-बुने और ब्रिटिश कानूनों की अवमानना करें। 1922 में असहयोग आन्दोलन की वापसी से लेकर 1928 तक, जब वह नेता के रूप में वापस आये। गांधीजी इस बीच पुर्नचनात्मक कार्यों में लगे रहे। रचनात्मक कार्यों के लिए उत्साहित करते रहे, समझाते रहें कि उन्हें सीता को आदर्श मानकर चलना चाहिए और सूत कातने-खादी बुनने से भारतीय महिलाओं की समस्याएँ सुलझायी जा सकेंगी। उन्होंने महिलाओं से कहा कि वे ग्रामीण गरीब महिलाओं की परिस्थितियों को देखें-समझें और तब सीखें कि बेहतर तरीके से काम कैसे किया जाए। लेकिन गांधीजी ने महिलाओं को सावधान किया कि इन सब कामों की वजह से वे अपने परिवारों की उपेक्षा न करें।
अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (दि ऑल इंडिया वीमेन्स कान्फ्रेस ) और गांधीजी
गांधीजी ने सन् 1920 के दशक में आखिरी दिनों में स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा-’’पश्चिमी सभ्यता की ऊँचाइयों से उतरकर भारत के मैदानों में आओ, क्योंकि यह प्रश्न भारत की आजादी, स्त्रियों की आजादी, अस्पृश्यता के खात्मे तथा आम लोगों की आर्थिक दशा सुधारने से जुड़ा हुआ है। अपने-आपको गांवों से जोड़ों, ग्रामीण जीवन का सुधार करने की बजाय उसका पुर्ननिर्माण करो।’ (गांधी ऑन विमेन मधु किश्वर का आलेख, पृष्ठ-12)
1926 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई। उन्होंने घोषित किया कि उसकी मुख्य गतिविधियाँ समाज कल्याण से संबद्ध मुद्दों पर रहेंगी। शुरुआती दौर में इसकी कुछ अध्यक्ष महारानियाँ बनी, लेकिन 1930 में इसकी सदस्यों ने महसूस किया की ऐसी अध्यक्ष सिर्फ दिखावे की सजावटी मूर्तियाँ होती है और चूँकि ए.आई.डब्ल्यू.सी.सक्रिय कार्यकताओं का संगठन है तो इसकी अध्यक्ष भी सक्रिय कार्यकर्ता को बनाया जाना चाहिए और 1931 में परिषद की अध्यक्ष पद पर सरोजिनी नायडू को चुना गया। 1931 में हुए अपने अठारहवें अधिवेशन में परिषद ने अपने गैर -राजनैतिक संगठन वाले चोले को छोड़ा क्योंकि उसने महसूस किया कि देश की नारी की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है कि पहले देश को स्वतंत्रता दिलायी जाए। 1930 के मध्य में परिषद की उप समितियों सूची में श्रम, ग्रामीण पुर्ननिमाण, स्वदेशी, उद्योग, पाठ्यपुस्तक, अफीम और शारदा कानून से संबंधित समितियाँ शामिल की गई। 1931 में इन्होंने लहौर में पहली बार महिला दिवस मनाया। इन्होंने आगे चलकर 1938 में रोशनी नामक पत्रिका भी निकाली। उन्होंने अपनी पूरी ताकत से दो महत्वपूर्ण कार्य किये-पहला नारी कल्याण मुद्दों का प्रचार-प्रसार, दूसरा भारत की नारियों की स्थिति के बारे में अधिकृत आंकड़े जुटाने के लिए व्यापक शोधकार्य।
महिलाओं की कानूनी अक्षमताओं की ओर इनका ध्यान गया और इस दिशा में सुधार करने के लिए उन्होंने अपनी गतिविधियों को विस्तार दिया, साथ ही उन्होंने गांधीजी के पुर्ननिर्माण और सामाजिक सक्रियता के कार्यक्रमों से स्वयं को जोड़ा। इन्होंने महिलाओं को इस बात के लिए प्रशिक्षित करना शुरू किया ताकि वे जन-प्रतिनिधियों को अपनी समस्याएँ समझा सकें। महिला मतदाताओं को शिक्षित किया जाने लगा।
ग्रामीण और शहरी निम्नवर्ग की महिलाओं को ए.आई.डब्ल्यू.सी. में जोड़ने के लिए सदस्यता शुल्क चार आने तक गिरा दिया गया जिससे इस वर्ग की महिलाएँ भी जुड़ी। युद्ध के दौरान प्रान्तीय शाखाओं ने स्थानीय मुद्दे उठाये, किसान आन्दोलन का समर्थन, अस्पृश्यों को शिक्षित करके और राजनीतिक संबद्धता को प्रोत्साहित किया। हालाॅकि यह गैर राजनीतिक संगठन था, पर इसका नेतृत्व देने वाली सभी महिलाएँ गांधीजी से जुड़ी थी।
अखिल भारतीय महिला सम्मेलन, गांधीजी और मुस्लिम महिलाएँः-
सरोजिनी नायडू कांग्रेस के अन्दर हिन्दू-मुस्लिम एकता की सबसे प्रबल प्रचारिका थी। वैसे भी उस समय दोनों की एकजूटता काफी मजबूत थी, फिर भी उन्होंने अपने भाषणों को ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्त्रियों की सहभागिता का यादगार क्षण बनाने के लिए प्रयोग किया।'(लाडो रानी जुत्थी, ’इंटरव्यू, पृष्ठ-3)
एस.आई.डब्ल्यू.सी. की अध्यक्ष सरोजिनी नायडू ने बहुत-सी मुस्लिम महिलाओं की इसकी समस्याएँ बनाई थी खासकर हाज़िया अहमद, शरीफा हामिद अली और कुलसुम सयानी जैसी महिलाएँ इससे जुड़ी थीं। 1929 में कुदसिया ने पर्दाप्रथा का विरोध करने वाले नवाब सैयद एजाज रसूल से शादी की। उन्होंने पर्दे का त्याग किया और पर्दा प्रथा के खिलाफ बोलने लगी। 1936 में उन्होंने संयुक्त प्रांत विधान परिषद के लिए साधारण (मुस्लिम) सीट के लिए चुनाव लड़ने का फैसला किया। उलेमाओं ने फतवा जारी किया लेकिन कुदासिया बेगम पूर्ण बहुमत से जींती, जिससे यह प्रमाणित हुआ कि मुस्लिम समुदाय वास्तव में उतने रूढ़िवादी नहीं था, जितना बताया जाता था। विधान परिषद में जब वह जन्म नियंत्रण के पक्ष में बोली और महिला पुलिस अफसरों की मांग की, तब उन्हें खूब निंदाये झेलनी पड़ी। काफी मुस्लिम महिलाएँ गांधीजी की कट्टर समर्थक थी। नारी अधिकारों के लिए अथक परिश्रम करने वाली और महिला संगठनों के समर्थन में खड़ी रहने वाली एक सक्रिय मुस्लिम महिला कार्यकर्ता थी बेगम शरीफा हाफिज अली। भारत को विभाजित करने वाली हर प्रकार की राजनीति की उन्होंने खारिज कर दिया। मुस्लिम सांप्रदायिकता के बढ़ते भारतीय राष्ट्रीयतावाद और हिन्दू सांप्रदायिकता के बीच की रेखा को धूमिल करते हुए आगे को बढ़ते जा रहे थे। कांग्रेस नेतृत्व के एक समुचित धर्मनिरपेक्ष आदर्श की स्थापना में असफल हो जाने के परिणामस्वरूप मुसलमान लोग कांग्रेस के बाहर किसी मुस्लिम समुदाय के तौर पर संगठित होने लगे।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन-1930-35
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के माध्यम से बहुत अधिक संख्या में महिलाएँ सार्वजनिक जीवन में आयीं। 1930-32 के बीच किसी भी अन्य प्रान्त की तुलना में मुम्बई की महिलाएँ सबसे अधिक धरना और प्रदर्शन से जुड़ी। महिलाओं की जुलूस हजारों की संख्या में निकलने लगे। 1930 में हिन्दुस्तानी सेवा दल के अन्तर्गत-संचालित महिला संगठन की प्रभारी कमला देवी चट्टोपाध्याय थीं। वह महिला कार्यकताओं के प्रशिक्षण के लिए शिविरों के आयोजन करतीं। लड़कियों के प्रशिक्षण का स्तर अलग था। उसमें सिलाई-बुनाई, सभाओं के आयोजन करने के साथ ही भारत के इतिहास-भूगोल का पाठ्यक्रम भी शामिल होता। सत्याग्रह आश्रम की सदस्यों और खुर्शीदबेन की देखरेख में नमक काूनन तोड़ने के सत्याग्रह अभियान में भाग लेने का प्रशिक्षण महिलाओं की देने के लिए एक कक्षा की शुरुआत की गयी । इन महिलाओं के प्रचार, गीत, गाने, गांव में सभाएँ आयोजित करने, सभाओं में शांति कायम रखने, कानून-व्यवस्था संभालने, साफ-सफाई करके स्वच्छता रखने, घायलों की प्राथमिक चिकित्सा, सेवा सुरक्षा करने और सूत कातने का प्रशिक्षण दिया जाता था।
कांग्रेस ने 1930 के मध्य-प्रान्त में वन सत्याग्रह की शुरुआत की जो नागपुर और जबलपुर तक फैल गया। इसमें आदिवासी महिलाएँ अपने बच्चों के साथ आतीं, हिस्सा लेती और पुलिस तथा वन अधिकारियों को किसी प्रकार का सहयोग कहीं देती।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930-31) के दौरान लगभग बीस हजार महिलाएँ जेल गई। आंकड़े बताते है कि इस प्रकार जेल जाने वालों में प्रत्येक छह व्यक्तियों में से एक महिला थीं (कनक मुखर्जी, विमेन्स इमेन्सिपेशन मूवमेंट इन इंडिया, पृष्ठ-54)। गांधीजी ने स्त्रियों को सम्मान जनक स्थान दिलाने तथा प्रगति के पथ पर अग्रसर करने का भरसक प्रयास किया। गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय आदि ने नेतृत्व संभालकर महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ाया। पुरुष नेताओं के बंदी होने पर महिलाओं ने आन्दोलन जारी रखा जिसका रोचक वर्णन जवाहर लाल नेहरू ने किया है-’आरंभ अप्रैल सन् 1930 ई. में सविनय अवज्ञा तथा सरकार द्वारा अत्याचार में पूरा देष में व्याप्त था और मैं पुनः जेल में पहुँचा। हम पुरुष लोग सब के सब जेल में थे। उस समय एक विचित्र बात हुई हमारी महिलाएँ मैदान में आयीं और उन्होंने लड़ाई का काम अपने ऊपर ले लिया। स्त्रियाँ तो बराबर साथ थीं, किन्तु इस बार उनकी मानो बाढ़ आ गई, जिसने न केवल अंग्रेजी सरकार, बल्कि अपने पुरूषों को भी अचरज में डाल दिया। ये स्त्रियाँ थी उच्च अथवा मध्यम वर्ग की जो अपने घरों के भीतर रहती आई थी, किसान स्त्रियाँ, श्रमिक वर्ग की स्त्रियाँ, धनी स्त्रियाँ, दीन स्त्रियाँ, जिन्होंने लाखों की संख्या में सरकार के आदेश तथा पुलिस के डंडे की परवाह न की। यह न केवल साहस का प्रदर्शन था (जवाहरलाल नेहरू, दिस्कवरी ऑफ इंडिया, पृष्ठ-32) भूमिका की गांधीजी ने सराहना की। 1930 के दशक के मध्य नागरिक अवज्ञा आन्दोलन में स्त्रियों की भूमिका की गांधी जी ने सराहना की। उन्होंने कहा-’भारतीय स्त्रियों ने पर्दा फाड़कर फेंक दिया और राष्ट्र के काम के लिए बाहर आ गयीं। उन्होंने महसूस किया कि देश उनके घरेलू देखभाल की जिम्मेदारी की अलावा कुछ और अधिक करने की मांग कर रहा है’ (एम.ए.गांधी ’’वीमेन्स एण्ड सोशल इनजस्टिस, अहमदाबाद, 1954 पृष्ठ-26)। वरन् इससे बढ़कर वह संगठन शक्ति थी जिसे उन्होंने करके दिखला दिया। भारतीय नारी के प्रति अपने असीम गर्व से हम सब डूब गए। यह मैं कभी नहीं भूल सकता। आपस में हम लोगों के लिए इस विषय पर बात करना कठिन था क्योंकि हमारे हृदय भरे हुए थे और हमारी आँखें आँसूओं के कारण मंद हो रही थी।’
नमक सत्याग्रह (दांडी मार्च) 1930
मार्च 1930 में गांधीजी ने अंग्रेजों का एकाधिकार तोड़कर नमक बनाने के लिए नागरी अवज्ञा आन्दोलन के तहत 240 मील की यात्रा अहमदाबाद से दांडी तक के लिए शुरू की। दांडी यात्रा के लिए गांधीजी ने जो सात सहयात्री सुने, उनमें किसी भी महिला को शामिल नहीं किये जाने से राष्ट्रवादी महिलाओं को दुख हुआ। डब्ल्यू. आए.ए. ने गांधीजी से यात्रा में महिलाओं को भी शामिल करने का आग्रह किया, लेकिन गांधीजी ने यह सोचकर इस आग्रह को ठुकरा दिया ’स्त्री धर्म’ पत्रिका में मार्गरेट बहनों ने गांधी के इस फैसले का विरोध किया। खुर्शीद नौरोजी ने नाराज होकर गांधीजी को पत्र लिखा। लेकिन गांधीजी यह कहते हुए अपने फैसले पर दृढ़ रहे कि उन्होंने ’नमक कानून’ तोड़ने की तुलना में महिलाओं के लिए कहीं ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी के काम की व्यवस्था कर रखी हैं। कमलादेवी चट्टोपाध्याय गांधीजी से आग्रह करती रही और अंततः यात्रा में शामिल होने की अनुमति प्राप्त हो गयी।
सत्याग्रह के आयोजनों के लिए समूहों का गठन किया गया और इन समूहों की नेताओं को अधिनायक कहा गया। अधिनायकों में सरोजिनी नायडू, लाड़ो रानी जुत्थी, कमला नेहरू, हंसा मेहता, अवंतिकाबाई गोखले, सत्यवती, पार्वतीसाई, रूक्मिणी लक्ष्मीपति, पेरीन और होशीबेन, कैप्टन, लीलावती, मुंशी, दुर्गाबाई देशमुख तथा कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी महिलाएँ भी शामिल थीं। पूरे देश में हजारों महिलाएँ नमक बनाने और बेचने लगी इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पहली बार भारत की महिला जनसाधरणा के शामिल होने वाली घटना के तौर पर साधारणतः याद किया जाता है। नमक सत्याग्रह में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला थी सरोजिनी नायडू उनसे प्रेरित होकर आंन्ध्र की महिलाओं ने कई जिलों में नमक बनाना शुरू किया उन पर लाठियाँ बरसाई गई, उन्हें गिरफ्तार किया गया।
इन तमाम गतिविधियों में महिलाओं को सम्मिलित करने, कार्यक्रमों की गति देने, समन्वय वापस करने के लिए महिला धरना बोर्ड, स्त्री स्वराज संघ, स्वयंसेविका संघ आदि अलग संगठनों का निर्माण किया गया। जूलूस, धरना, प्रभात फेरी, चरखा कातना, खादी बेचना, प्रचार-प्रसार करना आदि इनका काम था। कुछ मिल मजदूर महिलाएँ मुम्बई ’देशसेविका संघ’ में सक्रिय थीं, जिस पर 1931 में प्रतिबंध लगा दिया गया। एक साल बाद दूसरे संगठनों पर भी पाबंन्दी लगा दी गयी।
नमक सत्याग्रह में ऐसी औरतें शामिल हुई थी जो महिलाएँ पहले कभी घर के बाहर कदम तक नहीं रखी थी। सड़कों पर उतरने के पहले उन्हें साहस बटोरना पड़ा। उन्हें लम्बी दूरी तक पैदल चलने और देर तक धूप में खड़े रहने का अभ्यास करना पड़ा। विदेशी कपड़ों और ताड़ी की दुकानों के आगे धरना देने, कांग्रेस के बुलाने पर खतरनाक जगहों पर पहुँच कर सेवा कार्य या बचाव कार्य करने, पत्थर-पाइप हटाकर रास्तों के अवरोधों को दूर करने जैसे काम सीखने पड़े। आवारा-गुण्डों की भीड़ से निपटना सीखना पड़ा।
इन प्रशिक्षित देशसेविकों के अलावा हजारों ऐसी साधारण महिलाएँ भी थी, जो गिरफ्तारियाँ देती, जुलूसों में शामिल होती, झण्डावन्दन के कार्यक्रमों में तिरंगे को सलामी देती, अस्पतालों में नर्सों के रूप में सेवाएँ देती, खाना पकाती, खादी बेचती। इनमें से कई औरतों ने अपनी सुख-सुविधाओं जीवनशैली का परित्याग कर सर्दी-गर्मी की परवाह न करते हुए गिरफ्तारियाँ दी, दुकानों पर धरने दिये, जरूरी प्रचार कार्य के लिए शहर-शहर घूमीं। आन्दोलन के तीन साल के भीतर ही पांच हजार औरतों को कठोर कारावास सहने पड़ें, लाठियाँ झेली, संपत्ति का नुकसान सहा, बीमार होकर नौकरियाँ और आजीविका खोयी।
पुलिस रिपोर्ट के अनुसार मीटिंगों में हजारों औरतें शामिल होतीं। एक मीटिंग में तो दस हजार औरतों ने हिस्सा लिया। गांधीजी ने इन ग्रामीण महिलाओं को राष्ट्रीय कर्तव्यों के बारे में बताया कि उन्हें शराब ताड़ी की दुकानों पर धरना देना चाहिए। करयुक्त नमक का बहिष्कार करना चाहिए, खादी बुनना और पहनना चाहिए। गांधीजी भारतीय नारियों के लिए एक नये ही आदर्शों की रचना कर रहे थे, जिससे निष्क्रियता और आत्मपीड़न जैसी उनकी कमियाँ दूर होकर ताकत में बदल जाये। कितनी ही महिलाएँ गोद में दूध पीते बच्चों के साथ जेल गई। नमक सत्याग्रह में अस्सी हजार लोग गिरफ्तार किये गये, उनमें सत्रह हजार महिलाएँ थी।
19वीं सदी की शुरूआत में अंग्रेजों ने अपने कानूनों को उचित ठहराने के लिए भारत की औरतों की गिरी हुई सामाजिक दशा को ही बहाना बनाया था किन्तु राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी ने इसे गलत साबित किया।
भारत छोड़ों आन्दोलन-ः
भारत छोड़ों आन्दोलन में देशभर की हजारों महिलाएँ जुड़ी। वे भूमिगत हो जाती, समानांतर सरकारें चलाती, गैर कानूनी गतिविधियों में सक्रिय होती और इन सब के दौरान कई महिलाएँ शहीद भी हुयीं। 8 अगस्त 1942 ई. को गांधीजी के नेतृत्व में मुम्बई के ग्वालियाँ टैंक मैदान में करो या मरो और अंग्रेजों भारत छोड़ो की उद्घोषणा के साथ आन्दोलन शुरू हुआ। अरूणा आसफ अली ने तिरंगा फहराया। इस आन्दोलन में यद्यपि प्रथम पंक्ति की नेत्रियाँ कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, विजय लक्ष्मी पंडित आदि आरंभ में ही जेल चली गयीं, परंतु अरूणा, आसफ अली, सुचेता कृपलानी, उषा मेहता आदि ने भूमिगत रहकर आन्दोलन को आगे बढ़ाया।
शहरों में महिलाओं ने हड़तालों में भाग लिया, रेल, डाक, तार काटने से लेकर कोर्ट, कचहरियों में तिरंगा फहराने तक में औरतें आगे थी। जब विरोध प्रदर्शनों का दमन होने लगा, तो महिलाओं ने भूमिगत आन्दोलनों में भाग लेना शुरू किया। आन्दोलन जब गांवों की ओर फैला, तो बड़ी संख्या में किसान महिलाओं ने भूमि करों, पट्टेधारी और भूस्वामियों के अधिकारों के खिलाफ आवाज उठायी। जम्मू कश्मीर में कांग्रेस संचालित भूमिगत स्वदेशी सरकार का गठन किया गया। वहाँ 46 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। बंगाल के नन्दीग्राम में किसानों की भीड़ ने स्टेशन पर कब्जा कर लिया। सिपाहियों ने बन्दूक से धमकाने की कोशिश की किन्तु 72 वर्ष की विधवा मातंगिनी हाजरा हाथ में कांग्रेस का झण्डा लेकर भाषण देती रही। उनके सिर पर गोली दागी गई वे वहीं शहीद हो गई। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान मिदनापुर, कोरापुर, चिगूर, आजमगढ़, सातारा जैसे स्थानों में हजारों औरतों को जेल भेजा गया, सैकड़ों के साथ बलात्कार हुए और कईयों के साथ अत्याचार हुए। महाराष्ट्र मुम्बई की उषा मेहता पढ़ाई छोड़ दी और शराब व विदेशी कपड़ों की दुकानों के आगे धरना देने, जुलूसों-रैलियों में शामिल होने लगी। उन्होंने अपने मित्रों की मद्द से गुप्त रेडियो स्टेशन की स्थापना की। जब सभी माध्यमों पर पाबंदी लगा दी गई उन्होंने रेडियो के माध्यम से गांधीजी के करो या मरो पर भाषण सुनाया, चिमूर और अष्टीगांव में औरतों पर हुए क्रूर अत्याचारों की खबर बताई, स्वदेशी आन्दोलनकारियों के जुलूसों, प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारियों की खबरें सुनातीं। नवम्बर में ये गिरफ्तार हो गयीं, उन्हें जेल हुई। महाराष्ट्र की विद्यादेवी देशसेवक, लीला पाटील, इन्दुमती दत्तात्रेय और लीलाताई थी। रेलवे लाइन उखाड़ने और तोड़-फोड़ के आरोप में विद्याताई को 15 वर्ष का कठोर करावास दिया गया। सातारा की समानान्तर सरकार (पत्री सरकार) से जुड़ी औरतों को 1942 में गिरफ्तार किया। 1944 में वे पूना जेल से फरार हो गई और 1946 तक सातारा के भूमिगत आन्दोलन का नेतृत्व करती रहीं। भूमिगत आन्दोलन का नेतृत्व करने के आरोप में नासिक की इन्दुमती को 7 वर्ष की कठोर करावास की सजा दी गई। 19 अगस्त् 1942 को एक विशेष ट्रेन से दो सौ अंग्रेज सिपाही और पचास भारतीय हवलदार वर्धा, सेवाग्राम पहुँचे और लोगों पर बर्बर अत्याचार किए। संपत्तियाँ लूट लीं, औरतों का बलात्कार किए, गर्भवती और प्रसव काल पूर्ण हो चुकी महिलाओं और यहाँ तक की छोटी बच्चियों को भी नहीं छोड़ा।
इस काल तक महिलाओं का आन्दोलन पूरी तरह से स्वाधीनता संग्राम में तब्दील हो गया था और नारी मुक्ति के मुद्दे को भारत की स्वाधीनता के साथ जोड़कर देखा गया। इस दौरे में महिला कार्यकर्ता की जो छवि बनी उसमें उस पर किसी सीमा या पाबन्दी का प्रश्न नहीं उठाया गया। पर यह सही है कि गांधीजी ने महिलाओं को भोग्या रूप से बाहर निकाला, जो महिलाएँ मात्र नीरस, ऊबाऊ घरेलू काम करती थी, झाडू, पोछा, बर्तन साफ करना, बच्चों, बुढ़ों की देखभाल करती थीं। वहीं उनकी जिन्दगी का मकसद था, उन्हें गांधी जी ने एहसास दिलाया कि वे कुछ है, उनका भी अस्तित्व है। जैसा कि नीरा देसाई ने स्वतंत्रता आन्दोलन के भारतीय महिलाओं पर पड़े प्रभाव के बारे में लिखा-’भारत की स्त्रियों ने पहली बार अनुभव किया कि उनका जीवन बेकार या ध्येयविहीन नहीं है। नारी का कर्तव्य मात्र अपने स्वामी को प्रसन्न रखना ही नहीं वरन् जीवन के अन्य उत्तरदायित्व निभाना भी है। राष्ट्र की प्रगति के लिए भी त्याग करना है, ऐसी धारणा सहज ही पर्दे की प्रथा को समाप्त करने में सहायक होती है। तथा स्त्रियों में निर्भयता और आत्मविश्वास उत्पन्न करती है।……..अभी तक स्त्री आन्दोलन का नेतृत्व पुरुष करते थे, उसके बदले अब स्त्रियाँ अपने कार्य का स्वयं एवं स्वतंत्र संचालन करने लगी। (नारी देसाई, भारतीय समाज में नारी, पृष्ठ-94-95)
गांधीजी और महिला समानताः-
गांधीजी के आह्वान पर देश के कोने-कोने से भारी संख्या में औरतों और छात्राओं ने उपनिवेषवाद के विरूद्ध लड़ाई में हिस्सा लिया। इन छात्राओं को राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ा। जिनमें व्यक्तिगत, पारिवारिक अड़चनों की अलावा सामाजिक बंधन भी शामिल थें पर इन समस्याओं को जान-बूझकर एक मुद्दा अभियान बनाए रखा गया क्योंकि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उनके एक से अधिक व्यापक संघर्ष का एक अंग था।
घरेलू श्रम, उत्पादन प्रक्रिया और पूँजी तथा परिवार के साथ उसके संबंध के सवाल को उठाने का था अगर महिलाओं के रोजगार काम के हालात, परिवार के दमन जैसे मुद्दों को जोड़ा जाता, तो महिलाओं के व्यापक शोषण और क्रांतिकारी परिवर्तन की जरुरत के मुद्दे को प्रभावशाली ढंग से विकसित किया जा सकता था।
लाखों की संख्या में औरतें-छात्राएँ गांधीवादी आन्दोलन में सड़कों पर उतरीं। पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मोर्चा, प्रदर्शन, धरना, विकेटिंग, प्रभातफेरी में हिस्सा लिया, लाठी-गोली खाई। कई गर्भवती महिलाएँ जेल गयीं, कई महिलाएं छोटे बच्चों को लेकर जेल गयीं, कई पुलिस मुठभेड़ में मारी गयीं, कई लम्बे समय के लिए जेल की सजा काटीं, कई रात-रात भर जागकर पोस्टर बनातीं रहीं, घर-बार, बच्चों को छोड़कर पुरुषों के साथ आन्दोलन में कूद पड़ीं पर जब पुरुषों के साथ समानता की बात आयी तब औरतों को पितृसत्ता तले दबा दिया गया।
राधा कुमार के शब्दों में, ’गांधीजी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने सार्वजनिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता के औचित्य को सिद्ध करते हुए उसे विस्तार दिया ताकि वे सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ सकें। इसी समय महिलाओं के स्वभाव और भूमिका के बारे में गांधीजी की परिभाषा हिन्दू पितृसत्ता से गहराई से जुड़ी हुई नजर आयी और अक्सर उनका झुकाव महिला आन्दोलन के आगे बढ़ाने के बजाय उन्हें सीमित करने की ओर रहा।’ (राधा कुमार स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृष्ठ-175, वाणी प्रकाशन)
[bs-quote quote=”गांधीजी ने महिलाओं कीे आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में स्पष्ट रूप से कभी कुछ नहीं कहा। खादी संबंधित गतिविधियों में महिलाओं को श्रमिक के रूप में देखा ही नहीं गया। गांधीजी की आदर्श-स्त्री की संकल्पना में स्वतंत्र जीविकापार्जन करने वाली आधुनिक आत्मनिर्भर स्त्री की छवि तो कहीं थी ही नहीं। उनके अनुसार स्त्री त्याग और पीड़ा की प्रतिमा है और सार्वजनिक जीवन में उसका काम पुरुषों के अबाधित महत्वाकांक्षा और सम्पत्ति अर्जन पर रोक लगना है। सूत कातना और वस्त्र बिनना धार्मिक काम है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यदि गांधीजी ने समानता दी होती तो पुरुषों को भी अपनी पत्नियों, बहनों, माताओं को जेल जाने की अनुमति लेनी चाहिए थी, तब हम कहते स्त्री-पुरुष समान हैं। पर ऐसा नहीं था। वर्धा, सेवाग्राम में महिला आश्रम की संचालिका रमाबेन रूइया का कहना था कि 1942 में सेवाग्राम में गांधीजी ने उन सभी महिलाओं से, जो जेल जाने वाली थी, उन्हें अपने पिता, पति या भाई से लिखित सहमति पत्र मंगवाया था। जिन लोगों के पास उनके घरों के पुरुषों से सहमति पत्र मिला था, वे महिलाएँ ही जेल भरो आन्दोलन में शामिल हो सकीं।’
इसी तरह कमला देसिकन जी 15 वर्ष की आयु में आंन्ध्र प्रदेश से भागकर सेवाग्राम वर्धा गांधीजी के स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल होने के लिए आयीं थी, जो आगे चलकर डाॅ. सुशीला नैय्यर की (प्रथम स्वाथ्य मंत्री) सेक्रेटरी बनी और आजीवन कस्तुरबा अस्पताल से जुड़ी रहीं। उनका कहना था- ’गांधीजी ने मुझे सेवाग्राम आश्रम में रहने के लिए मेेरे पिता से अनुमति पत्र लिखवाया था। पिता की आज्ञा के बाद ही मैं सेवाग्राम आश्रम में रह सकी।’
गांधीजी ने महिलाओं कीे आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में स्पष्ट रूप से कभी कुछ नहीं कहा। खादी संबंधित गतिविधियों में महिलाओं को श्रमिक के रूप में देखा ही नहीं गया। गांधीजी की आदर्श-स्त्री की संकल्पना में स्वतंत्र जीविकापार्जन करने वाली आधुनिक आत्मनिर्भर स्त्री की छवि तो कहीं थी ही नहीं। उनके अनुसार स्त्री त्याग और पीड़ा की प्रतिमा है और सार्वजनिक जीवन में उसका काम पुरुषों के अबाधित महत्वाकांक्षा और सम्पत्ति अर्जन पर रोक लगना है। सूत कातना और वस्त्र बिनना धार्मिक काम है। देशभक्ति को धर्म में समाहित कर देने से महिलाओं का राजनीतिकरण पारम्पारिक सांस्कृतिक ढाँचे में सही उतरा था। आन्दोलन की भाषा, अवधारणाा आदि में भारतीय धर्म एवं परम्परा बनाए रखने पर जोर दिया गया। बार-बार याद दिलाया जा रहा था कि हमें पाश्चात्त संस्कृति से भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी है। यही हमें विरोधाभास की स्थिति दिखती है। आन्दोलन की इन परम्परावादी जड़ों के कारण ही हजारों महिलाएँ आन्दोलन में भाग ले सकती है और इसी कारण वे अपनी निजी सार्वजनिक जीवन में परम्परा से हटकर कुछ नहीं कर सकीं। उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़ाई के इतिहास में महिलाओं का योगदान उनकी पारम्परिक भूमिका का विस्तार मात्र है। राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं का कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता।
संदर्भ
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भारतीय समाज में नारी-नीरा देसाई, मैकमिलन प्रकाशन, मुम्बई।
धन्यवाद मैम, आप के इस रिसर्च से हमें गांधी जी का महिलाओं के प्रति विचार जानने को मिला ।