मोदी सरकार अपने कार्यकाल के 9 साल बेमिसाल मना रही है। इस बेमिसाल की ओर बढ़ने से पहले मैं सभी संवैधानिक सस्थानों से क्षमा चाहता हूं; क्योंकि मैं ‘भारत सरकार’, ‘केंद्र सरकार’ या ‘एनडीए सरकार’ की जगह मोदी सरकार लिख रहा हूं। हालांकि समर्थकों के एक विशेष वर्ग के लिए यह भी पिछले 9 वर्षों की एक उपलब्धि की तरह ही है कि भारत में भारत सरकार लगभग विलुप्त हो चली है। संवैधानिक संस्थाओं से मैंने इस उम्मीद के साथ माफ़ी मांगी है कि वे भी अपना-अपना मूल्यांकन करें और अपने-अपने योगदान गणना करें, जिन कारणों से भारत में भारत सरकार विलुप्त हो रही है।
2014 के बाद से केंद्र में किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार नहीं बनी। नरेंद्र मोदी नामक ‘एक आदमी’ की सरकार बनी। समर्थकों के विशेष वर्ग को उन आलोचनाओं को सुन अपना पारा नहीं चढ़ाना चाहिए, जिन आलोचनाओं में भारत सरकार, केंद्र सरकार या एनडीए सरकार का संबोधन प्रयोग किया जाता है। ये तीनों अब कहीं हैं ही नहीं। यहां तक कि अब तो विदेश भी मोदी सरकार ही जाती है, भारत सरकार नहीं। जब भारत सरकार की जगह एक व्यक्ति विदेशी दौरों पर जाएगा, तो वो देश के कार्य से अधिक तवज्जो व्यक्तिगत कार्य को देगा। इसी परिपाटी का पालन करते हुए मोदी सरकार जब विदेशी दौरों पर जाती है, तो अपने दानदाताओं और मित्रों के हित में ही कार्य भी करती है।
दिल्ली में मोदी सरकार के 9 साल पूरा होने पर किस प्रकार का जलसा चल रहा है, वो मैं बनारस से नहीं देख पा रहा हूं। आप कह सकते हैं कि न्यूज़ चैनल देख लो, पता चल जायेगा कि जलसा 5 स्टार है या 7 स्टार। आपका कहना बिलकुल सही है, पर इस समय परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं, जो मैं न्यूज़ चैनल देख सकूं। मैं इस समय बनारस में मोदी सरकार के 9 साल की चर्चा सुन रहा हूं जिसका मैं खुद गवाह भी हूं। मैं गोदौलिया चौराहे पर हूं। इसी चौराहे पर कुछ दिन पहले तक ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ मंदिर का रास्ता बताने वाला एक संकेतक लगा हुआ था। अब ज्ञानवापी का रास्ता बताने वाला संकेतक हटा दिया गया है।
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गोदौलिया चौराहे पर एक चाय की दुकान पर पक्का महाल निवासी ‘झुल्लन’ और ‘कचौड़ी’ बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी की पिछले 9 वर्षों की उपलब्धियों की चर्चा कर रहे हैं। आज इनके साथ ‘खरुल्ला’ नहीं हैं। ज्ञानवापी का रास्ता बताने वाला संकेतक हटाकर त्रिमूर्ति तोड़ दी गई। पहले खरुल्ला सरकार की नीतियों पर खुलकर चर्चा करते थे। त्रिमूर्ति तोड़े जाने के बाद उनकी अभिव्यक्ति का दायरा सीमित हो गया है। अब वे अपने ‘मन की बात’ सार्वजनिक स्थानों पर नहीं कर पाते। झुल्लन और कचौड़ी से एकांत में मन की बात करते हैं।
आज हुई बारिश में गोदौलिया चौराहा तालाब हो गया है। झुल्लन और कचौड़ी से जब मैंने मिलने का ‘अपॉइंटमेंट’ लिया था, उसी समय दोनों जनों ने कहा था कि- ‘नाव ले के आया।’ खैर मैं वहां पहुंच गया।
झुल्लन ने चाय वाले से पूछा- का हो पंधारी, मोदीजी एही तलबवा में मगरमच्छवा पकड़ले रहलन का?
पंधारी कल्ले में दबे पान के दबाव में थे। झुल्लन का सवाल सुन दबाव खुल गया। पान की पीक होंठ से झांकने लगी। पीक संभालते हुए पंधारी ने अपने चेहरे पर ‘हम का जानी’ का भाव बना दिया।
सामने बन रहे कॉरिडोर की तरफ इशारा करते हुए झुल्लन ने कचौड़ी से पूछा- का रजा कचौड़ी, ई का बनत हव?
कचौड़ी- मर्दवा ई धार्मिक मॉल बनत हव।
झुल्लन- लेकिन रजा, मलवा के रस्तवा पर अस्सी नदी कहां से आ गइल?
कचौड़ी- बकलंठे हउवा का मर्दवा, ई अस्सी नदी ना हव। ई मॉल में जाए बदे ऑटोमैटिक सीढ़ी हव, जे के ‘एस्किलेटर’ कहल जाला। एही पे चढ़के ‘पकौड़ी’ मॉल में जइहन…गुड़ुप्प।
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झुल्लन और कचौड़ी द्वारा की जा रही विकास की बतकही सुन पंधारी को अपना कल्ला खाली करना पड़ा। इस बात की संभावना बढ़ती जा रही थी कि दबाव में कल्ला कभी भी खुल सकता है और पान की पीक वाटर कैनन से निकली पानी की गोली की गति से सड़क पर किसी राहगीर को घायल कर सकती है।
कल्ला खाली कर पंधारी ने कहा- यार तू लोग खाली मजाक उड़ावेला। तू लोगन के ई ना लउकत हव कि एसे केतना जने के रोजगार मिलल हव।
ये कहकर पंधारी कल्ले में दूसरा पान ज़माने जा रहे थे, लेकिन उसी समय झुल्लन और कचौड़ी ने पंधारी की बात का समर्थन कर दिया। समर्थन से पंधारी समझ गए कि अभी कल्ला खाली रखना ही उचित है।
झुल्लन ने पंधारी से कहा- ई त एकदम मार्के वाली बात कहला। हर साल दू करोड़ रोजगार मिलल हव। कचौड़ी विरोध में आन्हर हो गयल हउवन। इनके कुच्छू न लउकी।
कचौड़ी ने झुल्लन से कहा- हम विशेष समर्थकवन के तरे (की तरह) आंख पर पट्टी बांध के आन्हर ना बनल हई। हम त रोज घाट पर लगे वाला रोजगार मेला देखी ला। बाप मणिकर्णिका घाट पर बइठ के सट्टा खेलत हव। बेटवा अस्सी पर बइठ के। दूनों में गज़ब का याराना हव। बाप, बेटवा से कहयला मणिकर्णिका पर मत आये। ईहां हम खेलत हई। बेटवा, बाप से कहयला अस्सी ओरी मत आया। ईहां हमार फड़ बइठल हव। एक मिला त नइया पर घूमत-घूमत खेले ला। ऊ सबकर दादा हव।
आगे झुल्लन ने सलाह दी- यार पंधारी, यहू के सरकारी रोजगार क दर्जा मिल जात त देश में एक्को खलिहर न बचतन। कुटीर उद्योग के तरे ‘घर-घर सट्टा’ चलत हव।
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झुल्लन की बात सुन पंधारी को अपना कल्ला खाली रखने के फैसले पर संतोष हुआ। संतोष का और सुख लेने के लिए पंधारी ने कहा- तू लोग खाली अंड-बंड बतियावेला। देश क डंका दुनिया भर में बजत हव। अर्थव्यवस्था लकलकात हव।
कचौड़ी ने डंका बजाया- हां हो, एतना तेज बजत हव कि काने क पर्दा फट गयल। आंखीं पर पहिले से पट्टी बंधल हव। डंका से कान क पर्दा भी फट गयल। अब झुल्लन के न कुछ लउकत हव, न कुछ सुनात हव।
अंगुली से कान का मैल निकालते हुए झुल्लन ने कहा- मर्दवा पंधारी, जवन तोहके पुरवा देला, हमके त सबसे बड़ा अर्थशास्त्री ऊहे लगेला। एक दिन हम हाल-चाल पुछली त बतउलेस कि बजार में पइसा कम भयल जात हव। पहिले महिन्ना भर में दस हजार पुरवा बिकत रहल। अब साते हजार बिकत हव। पंधारी भइया भी अब रोज डेढ़ सौ पुरवा लेलन। पहिले ढाई-तीन सौ लेंय।
कचौड़ी ने पंधारी से पूछा- का हो, पुरउवा वाला सही कहत हव?
पंधारी- हां भाय। पइसा बचावे बदे लोग चाय पीए भी छोड़त हउवन। कर्नाटक वाले भी छोड़ देहलन। अइसहीं चलल तब त हमार दुकनिये बंद हो जाई।
झुल्लन ने पंधारी को सांत्वना दी- परसान मत होआ। तोहार दुकान चलत रही मर्दवा। हम अउर कचौड़ी आवत रहल जाई। खरुल्ला के भी लियावल जाई।
उसी समय कचौड़ी के मोबाइल पर खरुल्ला का नम्बर चमका। पंधारी को ‘उधारी नमस्कार’ कर झुल्लन और कचौड़ी खरुल्ला के मन की बात सुनने उनके घर की तरफ चल दिए।
विभांशु केशव व्यंग्यकार हैं और गाँव के लोग डॉट कॉम से सम्बद्ध हैं।