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सीता, द्रौपदी और जोधा बाई, डायरी (25 मई, 2022) 

सपने मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। बाजदफा ही ऐसा कोई सपना आता है, जिनके आने पर मैं खुद की कमियों का आकलन करने लगता हूं। वैसे अधिकांश सपने तारीख के साथ मेरी डायरी में दर्ज जरूर रहते हैं। वैसे सारे सपने एकदम से गंभीर वाले सपने नहीं होते। कुछ रोमांटिक भी होते हैं। वजह […]

सपने मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। बाजदफा ही ऐसा कोई सपना आता है, जिनके आने पर मैं खुद की कमियों का आकलन करने लगता हूं। वैसे अधिकांश सपने तारीख के साथ मेरी डायरी में दर्ज जरूर रहते हैं। वैसे सारे सपने एकदम से गंभीर वाले सपने नहीं होते। कुछ रोमांटिक भी होते हैं। वजह यह कि मैं भी सामान्य इंसान हूं और जो बातें अन्य किसी को प्रभावित करती हैं, मुझे भी करती हैं। मेरे सपने में भी प्रेमिका आती है और मैं उससे तमाम बातें करता हूं।
लेकिन कल का सपना जरा अलग था। सपने में सीता, द्रौपदी और जोधा बाई नजर आयीं। सपने में मेरी प्रेमिका भी थी और सवाल था कि तीनों में सबसे बड़ा स्त्रीवादी कौन? सपने में मेरा काम केवल सुनने और देखने का था तो मैं वही कर रहा था। अच्छा एक बात है कि ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ वाली बात पूर्ण सत्य नहीं है। यह हर सामान्य आदमी के लिए सत्य है। जैसे कि मैं यह देख रहा था कि चार अलग-अलग स्त्रियां एक साथ मेरे सपने में थीं– सीता, द्रौपदी, जोधा बाई और मेरी प्रेमिका।
जब कुछ असामान्य सा होता है तो नींद खुल जाती है और मैं तकिए के नीचे रखे अपने नोटबुक में सपनों को कीवर्ड्स की सहायता से दर्ज कर लेता हूं। फिर उन कीवर्ड्स को जोड़कर दिन के उजाले में लिखने की कोशिशें करता हूं। तो यह समझिए कि फिलहाल वही कर रहा हूं। कीवर्ड्स मेरे सामने हैं और मैं यह सोच रहा हूं कि यह सपना मुझे आया क्यों?
दरअसल, मेरे सपने में सीता और द्रौपदी के आने के पीछे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित का कल का दिया बयान है। कल उन्हें सुषमा स्वराज स्त्री शक्ति सम्मान–2022 से सम्मानित किया गया। यह एक गैर-सरकारी सम्मान है, जो कि आरएसएस द्वारा फंडेड यानी वित्तपोषित है। इसी मौके पर कुलपति महोदया ने कहा कि ‘स्त्रीवाद पश्चिमी अवधारणा नहीं, बल्कि भारतीय अवधारणा है और द्रौपदी तथा सीता से बड़ी कोई स्त्रीवादी नहीं हो सकती।’
वैसे मैं यह मानता हूं कि भारतीय समाज में पवित्र और अपवित्र, पाप और पुण्य, अच्छा और बुरा आदि का बड़ा महत्व है। हर बात को इन्ही कसौटियों पर कसा जाता रहा है। आज भी आम जीवन में यही सब होता है। लेकिन यह तो पश्चिम के देशों से आयी संस्कृति का परिणाम है कि आज भारत में स्त्री विमर्श भी एक विषय है। लोग आज खुलकर बातें कर सकते हैं। फिल्मकार भी आराम से ऐसी फिल्में बना सकते हैं जिनमें महिलाएं खुलकर अपनी बात कहती हैं। लेकिन इन सबके बावजूद कसौटियां पहले की तरह कायम हैं। आज भी योनि की पवित्रता एक महत्वपूर्ण विषय है।
संयोग ही रहा कि कल एक महिला फिल्म कलाकार मित्र से बात हो रही थी। बातचीत के केंद्र में आज की फिल्में ही थीं। एक फिल्म के संबंध में उनकी खास टिप्पणी थी कि फिल्म में सेक्स कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता दिखायी गयी है। वह भी इस तरह की मानसिकता के साथ कि सेक्स की बातें करने का अधिकार केवल पुरुषों को है। उनकी इस टिप्पणी से मैं भी सहमत रहा कि सेक्स कॉमेडी का मतलब यह नहीं है कि हर डायलाग में महिलाओं के आत्मसम्मान को चोट पहुंचायी जाय।
दरअसल, भारतीय समाज अभी भी महिलाओं को घरेलू जानवर मानता है। भारतीय पुरुष यह अपेक्षा रखता है कि उसकी महिला उसके लिए घर में श्रमिक की तरह काम करे और उसकी  बेड डॉल भी बने। वह यह कभी समझने की कोशिश ही नहीं करता कि महिला के मन में क्या है।

[bs-quote quote=”असुर जनजाति के लोग डोल जतरा मनाते हैं। अमूमन यह आयोजन फागुन के महीने में होता है। इसमें युवक-युवती मिलते हैं। गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं। इस दौरान यदि कोई दूसरे के साथ जीना चाहता है तो वह चुनाव कर सकता है। लेकिन ऐसा करने से पहले दोनों को अपने परिजनों को सूचित करना होता है। फिर वहां मौजूद बैगा (धर्म प्रमुख) उनके परिजनों की सहमति से उन्हें ऐसा करने की अनुमति देता है। दोनों साथ रह सकते हैं और साथ रहते हुए यदि उन्हें ऐसा लगता है कि वे एक-दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पा रहे या फिर दोनों के बीच समन्वय की कमी है तो वे अलग हो सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आखिर क्या वजह है इसके पीछे? जाहिर तौर पर इसके पीछे सामाजिक मान्यताएं हैं और मान्यताओं के पीछे धर्म। अभी हाल ही में जानकी नवमी थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सरकारी खजाने के पैसे से इस मौके पर अखबारों को शुभकामना संदेश छपवाये। मैं चूंकि नास्तिक आदमी हूं, इसलिए ऐसे विज्ञापन मुझे प्रभावित नहीं करते। वैसे ब्राह्मण वर्गों को इस बात को स्थापित करने में सफलता मिल गई है कि सीता का जन्म मिथिला में हुआ और वह आज भी संवासिन ही है। संवासिन हमारे यहां आंचलिक शब्द है। यह शब्द ब्याह दी गई बेटियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जब वह ससुराल से मायके अल्पप्रवास पर आती हैं।
हालांकि मुझे आश्चर्य होता है कि मिथिला के ब्राह्मण भी राम को पूज्य मानते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में उसकी आराधना करते हैं। साथ ही, वे सीता को महान भी मानते हैं। जेएनयू की कुलपति महोदया के लिए तो सीता स्त्रीवाद का पर्याय ही है।
लेकिन मुझे लगता है कि सीता सचमुच स्त्रीवादी होती यानी कि अपने अधिकारों को लेकर असर्ट करनेवाली होती या फिर यदि उसे अपने मन की बात कहने की आजादी होती तो यह मुमकिन था कि वह रावण के व्यवहार से प्रसन्न होकर लंका में ही रह जाती। उसका यह निर्णय तब भी हो सकता था जब राम ने उससे अग्नि परीक्षा देने को कहा था। ऐसा कहते समय राम ने उसकी योनि की पवित्रता पर सवाल उठाया था। उसे यह यकीन ही नहीं था कि रावण जैसे बलशाली और सुंदर पुरुष को देख सीता का दिल उसके ऊपर नहीं आया हो। उसे जितना रावण पर शक था, उससे कहीं अधिक अपनी पत्नी के ऊपर था।
सीता की कहानी कुछ ऐसी होती कि वह अपनी इच्छाओं के बारे में लिखती। तब जब उसके पिता ने उसके स्वयंवर के लिए शिव धनुष को तोड़ने की शर्त रखी थी, सीता को बोलने का अधिकार होता तो वह मना कर देती। वैसे भी यह स्वयंवर नहीं था। स्वयंवर का मतलब तो अपनी मर्जी से अपना वर चुनना होता है। लेकिन जनक ने तो शर्त रखी थी। यह शर्त सीता की ओर से नहीं था।
यह मुमकिन था कि सीता जब अपनी पसंद से अपना वर चुनती तो सांवले राम को पसंद नहीं करती। वह रावण को भी पसंद कर सकती थी, जिसके अंदर शिव के प्रति इतनी भक्ति थी, कि उसने शिव के धनुष को हाथ तक नहीं लगाया। शिव भक्ति के लिहाज से यह रावण का सकारात्मक गुण था। या फिर यह भी संभव है कि उस समय और भी कई सारे राजा होंगे जो सीता को पसंद आ सकते थे (आए भी होंगे) लेकिन वह राजा जनक के वचन से बंधी हुई थी।

[bs-quote quote=”असुर जनजाति में ही एक और प्रथा है। इसमें महिला खुद से अपने लिए वर चुनती है और अपनी पसंद के बारे में अपने परिजनों को बताती है। इसे ‘घर ढुकू’ प्रथा कहते हैं। इसके तहत वह अपने इच्छित युवक के घर में घुस जाती है और रहने लगती है। असुर जनजाति समाज युवक को भी आजादी देता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

महाभारत की अधिकांश नायिकाएं अलहदा हैं। मसलन, गंगा जिसने शांतनु के साथ गंधर्व विवाह किया था। गंधर्व मतलब आज की भाषा में लिव-इन-रिलेशनशिप भी कह सकते हैं। गंगा ने अपनी ही कोख से जने बच्चों को नदी में डुबोकर मार दिया। मैं यह सोच रहा हूं कि कोई भी मां ऐसा कैसे कर सकती है। एक बार तो ठीक है कि जमाने के अपमान से बचने के लिए वह ऐसा कर भी ले, लेकिन बार-बार उसका ऐसा करना मुमकिन नहीं है। दूसरी नायिका कुंती है। वह तो कुंवारी ही कर्ण की मां बन जाती है। हालांकि वह गंगा की तरह अपने बच्चे को मारती नहीं है, इस उम्मीद में नदी में सुरक्षित तरीके से प्रवाहित कर देती है कि कोई इस बच्चे को पाल ही लेगा। हालांकि बाद में जब उसकी शादी पांडु से होती है तो वह भी उसे पति का सुख नहीं दे पाता है, और अपनी दोनों पत्नियों को पर पुरुष के साथ संभोग कर पुत्र जनने की आजादी देता है। महाभारत में इस बात का जिक्र है कि पांडव इंद्र के ‘’मानस पुत्र’ थे।
तीसरी नायिका मैं भी द्रौपदी को मानता हूं, लेकिन एक स्त्रीवादी के रूप में नहीं, बल्कि सबसे उपेक्षिता के रूप में। उसे अर्जुन से प्यार हो गया था जब उसने उसे स्वयंवर में जीता था। लेकिन कुंती के वचनों का मान रखने के लिए उसे अपनी योनि को पांच पुरुषों के हवाले करना पड़ा। इसे यदि जेएनयू की कुलपति महोदया लैंगिक स्वतंत्रता का पर्याय मानती हैं तो बेशक यह बड़ा उदाहरण हो सकता है। लेकिन मेरा विश्वास है कि कुलपति महोदया ऐसा नहीं मानती होंगीं।
अब मैं जोधा बाई की बात करता हूं। वह तो अकबर की कई पत्नियों में से एक थीं और उसे बहुत अधिक प्यारी थीं। दो साल पहले ही मैं फतेहपुर सीकरी गया था, जहां अकबर के महल के जनाना परिसर में आज भी जोधा के लिए उसके द्वारा बनवाया गया मंदिर का अवशेष है। हालांकि वहां मूर्तियां नहीं हैं। यह मुमकिन है कि जब पानी के संकट के कारण अकबर को अपनी राजधानी आगरा स्थानांतरित करनी पड़ी होगी तब या तो जोधा बाई ने खुद ही अपने मंदिर की मूर्तियों को आगारा के महल में पुनर्स्थापित कर दिया होगा या फिर यह काम किसी और ने किया हो। जोधा बाई को मैं स्त्रीवादी एक हद तक मानता ही हूं। उसने अपनी योनि अपने अधिकार का दावा किया और अकबर की सोच भी अलहदा थी। उसने जोधा को साथ रेप नहीं किया। इस तरह के रेप को लेकर आजकल मैरिटल रेप की संज्ञा दी जा रही है।
बहुत अधिक दिन नहीं हुए। वह 2016 का साल था जब मैं झारखंड के गुमला जिले में गया था। वहां असुर जनजाति के लोगों से मिलने। वहां कई लोगों से बातचीत के दौरान यह बात सामने आयी कि उनके समाज में योनि की पवित्रता का कोई मतलब नहीं है। उनके यहां तलाक की कोई व्यवस्था नहीं है। विवाह भी महज औपचारिक रस्म है। मतलब यह कि यदि कोई अपनी पत्नी से अलग होना चाहता है और किसी दूसरी महिला के साथ जीवन जीना चाहता है तो वह आराम से जी सकता है। इसी प्रकार यदि कोई महिला अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष के साथ जीना चाहती है तो उसे यह अधिकार हासिल है। असुर जनजाति के लोग डोल जतरा मनाते हैं। अमूमन यह आयोजन फागुन के महीने में होता है। इसमें युवक-युवती मिलते हैं। गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं। इस दौरान यदि कोई दूसरे के साथ जीना चाहता है तो वह चुनाव कर सकता है। लेकिन ऐसा करने से पहले दोनों को अपने परिजनों को सूचित करना होता है। फिर वहां मौजूद बैगा (धर्म प्रमुख) उनके परिजनों की सहमति से उन्हें ऐसा करने की अनुमति देता है। दोनों साथ रह सकते हैं और साथ रहते हुए यदि उन्हें ऐसा लगता है कि वे एक-दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पा रहे या फिर दोनों के बीच समन्वय की कमी है तो वे अलग हो सकते हैं। इस बीच यदि युवती गर्भवती हो जाती है तब भी उसे अपना बच्चा गिराना नहीं पड़ता है। वह बच्चे को जन्म देती है और साथ ही दूसरी शादी कर सकती है।
असुर जनजाति में ही एक और प्रथा है। इसमें महिला खुद से अपने लिए वर चुनती है और अपनी पसंद के बारे में अपने परिजनों को बताती है। इसे ‘घर ढुकू’ प्रथा कहते हैं। इसके तहत वह अपने इच्छित युवक के घर में घुस जाती है और रहने लगती है। असुर जनजाति समाज युवक को भी आजादी देता है।
तो मेरे लिहाज से तो स्त्रीवाद आदिवासियों की अवधारणा है। भले ही जेएनयू की विद्वान कुलपति महोदया इसे मानें या ना मानें। यह उनकी मर्जी।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

अदालत-अदालत का फर्क या फिर कुछ और? (डायरी 22 मई, 2022)

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