कुछ खबरें अलग होती हैं। सामान्य तौर पर राजनीतिक खबरें ऐसी नहीं होती हैं आदमी की नींद खराब हो जाय। और मैं तो राजनीतिक खबरों को हमेशा इसी रूप में लेता हूं कि इन्हें बाद में देखा जा सकता है। लेकिन कुछ खबरें अलग होती हैं। कल देर शाम एक खबर मिली। मेरे अपने इलाके के एक स्थानीय पत्रकार ने यह जानकारी दी। उनके मुताबिक, पटना में मेरे गांव ब्रह्मपुर के दक्षिण बेतौड़ा गांव के एक दलित की मौत पीएमसीएच में हो गयी है। वह बेऊर जेल में विचाराधीन कैदी था। मृतक का नाम सुरेश मांझी और उसकी उम्र करीब 55 साल थी। मैंने पूछा कि किस आरोप में वह जेल में बंद था? जवाब मिला कि शराब बनाने और बेचने के आरोप में। उसके घर के बारे में जानकारी मिली कि हालांकि उसके दो बेटे हैं जो कमाते हैं लेकिन वे अलग रहते हैं। सुरेश मांझी को दो बेटियां हैं, जिनकी शादी वह नहीं कर पाया। अब उसके परिवार में उसकी पत्नी और बेटियां हैं।
मौत कैसे हुई? इस बारे में जानकारी मिली कि वह बीमार चल रहा था और इसी क्रम में उसे पीएमसीएच में भर्ती कराया गया था। जेल प्रशासन का यही कहना है। मतलब यह कि एक आदमी को मौत की सजा दे दी गयी और जेल प्रशासन के पास कहने को केवल इतना ही।
खैर, शराबबंदी कानून का असर सबसे अधिक दलितों और पिछड़ों पर पड़ा है। रोजगार के साधन नहीं होने की वजह से दलित शराब बनाते और बेचते हैं। अब यह काम पिछड़े वर्ग के लोग भी करते हैं। सवर्ण जातियों के लोग भी यह काम करते हैं। लेकिन वे पुलिस की पकड़ में नहीं आते हैं और कभी आ भी गए तो थाने में ही उनका मामला रफा-दफा हो जाता है।
यह सब जेहन में था और नींद कोसों दूर। कोई उपाय न देख रवींद्रनाथ टैगोर की कालजयी कृति “गोरा” पढ़ने लगा। इस दौरान मन में एक टीस फिर उठी कि काश मुझे बांग्ला पढ़ना आता तो कम से कम वह पढ़ पाता जो टैगोर का लिखा है। हिंदी अनुवाद में कई जगहों पर खामियां दिखीं।
भाषा मेरे लिए कभी इतनी महत्वपूर्ण भी होगी, मैंने कम से कम उन दिनों तो नहीं ही सोचा था जब कॉलेज के दिन थे। तब तो मेरे लिए कुछ और ही महत्वपूर्ण था। शादी हो चुकी थी और गृहस्थी चलाने की जिम्मेदारी आ गयी थी। जिम्मेदारियां कहां किसी को अपने मन का करने की इजाजत देती हैं। मुझे भी नहीं मिली थी। उन दिनों जब मैंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी तब मेरे पिताजी को लगता कि मुझे टाइपिंग और शार्टहैंड सीख लेनी चाहिए। संभवत: उन्हें इसके लिए उनके किसी सहकर्मी ने कहा होगा या फिर उनके किसी वरीय अधिकारी ने। पिताजी कहते कि टाइपिंग और शार्टहैंड सीख लेने से कहीं न कहीं सरकारी नौकरी मिल ही जाएगी।
[bs-quote quote=”भाषा के प्रति ललक आज भी है। अनेक भाषाओं को सीखने की इच्छा होती है। परंतु, जिम्मेदारियां आड़े आती हैं। अंग्रेजी मददगार साबित हुई है। इसके जरिए विश्वस्तरीय साहित्य का अध्ययन करने में सफल हो पाया हूं। कल गोरा को पढ़ते हुए मुझे तीन अलग-अलग पात्र एक सीध में दिखे। इनमें एक महाभारत का कर्ण, दूसरा रहीम खानखानां और तीसरा रवींद्रनाथ टैगोर का गोरा” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उन दिनों मेरी शादी की बात चल भी रही थी। तब मुझे भी लगता कि सरकारी नौकरी हो जाय तो जिंदगी अच्छी हो जाएगी। पैसे आने लगेंगे तो मैं अपने मन की करूंगा। इसी लोभ में मैं अनीसाबाद के उड़ानटोला मुहल्ले में चलने वाले एक टाइपिंग सेंटर में टाइपिंग व शार्टहैंड दोनों सीखने लगा। अनीसाबाद मोड़ के समीप डाकखाने के पास ही एक आदमी मैगजीन व फार्म आदि बेचता था। मैं लगभग रोज वहां जाता और यह तलाश करता कि मैट्रिक पास के लिए कोई वैकेंसी आयी है या नहीं। आयी है तो क्या टाइपिंग और शार्टहैंड करने वाले के लिए है?
वे दिन भी अच्छे थे। लेकिन मुझे सरकारी नौकरी न तो करनी थी और न ही कुछ ऐसा कि मेरी जिंदगी बेरंग हो जाय। समय बीता और मैंने अपने लिए राह का निर्माण स्वयं किया। एक वजह यह कि मेरे पास कोई नहीं था जो मुझे बताता कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसलिए जो मन ने कहा, वह करता गया। पहले इंजीनियरिंग की इच्छा हुई तो इंटर के दौरान जमकर आईआईटी की तैयारी की। परीक्षा में फेल हो गया। फिर राज्य स्तरीय परीक्षा में शामिल हुआ और अनीसाबाद मोड़ पर ही स्थित मौलाना मजहरूल हक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला का मौका मिला। आर्थिक कारणों से यह मौका हाथ से निकल गया। एकबार फिर से जोर लगाया कि एएमआई (एसोसिएट मेंबर्स ऑफ इंडियन इंजीनियर्स) के जरिए कुछ हो जाय। इस बीच एक व्यक्ति ने सलाह दी कि बिहार एयरोनोटिकल इंस्टीट्यूट से एरोप्लेन मेंटनेंस में डिप्लोमा कर लूं। इंट्रेंस परीक्षा दी और पास भी हो गया। लेकिन फिर आड़े आयी मेरी निर्धनता।
खैर, इन घटनाओं ने मुझे अंतत: कंप्यूटर साइंस का छात्र बना दिया और पहली बार मेरा सामना दो अलग तरह की भाषा से हो रहा था। पहली भाषा थी अंग्रेजी और दूसरी कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा। अंग्रेजी को लेकर मेरा गुमान खत्म हो चुका था कि व्याकरण में उस्ताद होना ही काफी है। असल में अंग्रेजी लिखना और फिर उसे पढ़ना दोनों कठिन काम है। खासकर तब जब आप इस गुमान में हों कि आप जटिल से जटिल अनुवाद भी कर सकते हैं। बोलचाल में अंग्रेजी बोलना सीखना एकदम अलग अनुभव था। दूसरी कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा ने मुझे भाषा के बनने की कहानी को समझा दिया। बेसिक से लेकर सी और फिर विजुअल बेसिक तक पढ़ने के दौरान मैं यह समझ गया था कि भाषा चाहे लिखने-पढ़ने की हो या फिर बोलने की, सबका निर्माण कंप्यूटर लौंग्वेज के अनुसार ही हुआ होगा। मसलन पहले आदमी ने कुछ वस्तुओं का चयन किया होगा जो उसके जीवन के लिए जरूरी होंगे। फिर उन्हें उसने एक नाम दिया होगा। इससे उसके पास कुछ शब्द हुए होंगे। फिर उसने उन वस्तुओं को नाम दिया होगा जो उसके उपयोग के लिए आवश्यक तो नहीं थे लेकिन उसके इर्द-गिर्द मौजूद अवश्य रहे होंगे। कंप्यूटर लैंग्वेज के मामले में भी ऐसे ही होते हैं। कीवर्ड्स होते हैं। हर कीवर्ड का एक मतलब होता है। फिर जेनरेशनवाइज लैंग्वेज का विकास। मैंने फिफ्थ जेनरेशन तक की भाषा का अध्ययन किया। यह एक रोमांचक यात्रा थी।
खैर, भाषा के प्रति ललक आज भी है। अनेक भाषाओं को सीखने की इच्छा होती है। परंतु, जिम्मेदारियां आड़े आती हैं। अंग्रेजी मददगार साबित हुई है। इसके जरिए विश्वस्तरीय साहित्य का अध्ययन करने में सफल हो पाया हूं। कल गोरा को पढ़ते हुए मुझे तीन अलग-अलग पात्र एक सीध में दिखे। इनमें एक महाभारत का कर्ण, दूसरा रहीम खानखानां और तीसरा रवींद्रनाथ टैगोर का गोरा।
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कर्ण मुझे ऐसा पात्र लगता है जिसकी रचना ही जातिगत श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए की गयी है। उसका दानवीर होना मुझे प्रायश्चित सा लगता है। कर्ण को हमेशा लगता है कि सूर्य के साथ प्रेम में कुंती ने उसे जन्म देकर पाप किया है। इससे भी बड़ा पाप यह कि उसने उसे एक अस्पृश्य (अछूत) को दे दिया, जिसने उसके पुरईन को चुपके से जमीन में गाड़ा था। सारी उमर कर्ण दान करता रहा ताकि उसे भी कौरवों और पांडवों के जैसा वीर, ज्ञानी और सबसे अधिक उनके समान माना जाय। दुर्योधन ने उसे यह सम्मान दिया तो वह उसके प्रति आजीवन ऋृणी रहा।
दूसरा पात्र रहीम खानखानां का है। मुगलिया सल्तनत का सबसे शानदार लड़ाका, बेजोड़ कवि और इन सबसे बढ़कर एक शानदार इंसान। रहीम बैरम खां के बेटे थे। वह भी बहादुर मुगल सरदार थे। रहीम तब छोटे थे जब उनके पिता का इंतकाल जंग के मैदान में हो गयी। बैरम खां को अकबर बहुत मानता था। उसने बालक रहीम और उनकी मां को अपने पास बुला लिया। फिर शाही माहौल में रहीम बड़े हुए। फितरत मस्तमलंग की थी। पढ़ने-लिखने-रचने का शौक था। मुझे एक बात रहीम के मामले में खटकती है कि क्या रहीम कबीर के संपर्क में कभी नहीं आए थे? मुझे रहीम के दोहों में कबीर का प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आता है। लेकिन मैंने रहीम की जीवनियों में पाया है कि वे तुलसीदास के मित्र रहे।
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खैर रहीम का अंत दुखद था। रहीम ने जहांगीर को शस्त्र और साहित्य की शिक्षा अकबर के कहने पर दी। साथ ही कई लड़ाईयों में अकबर का भरपूर साथ दिया। अकबर के बाद रहीम जहांगीर के भी काम आए। लेकिन मुगलिया सल्तनत में गद्दी हड़पने का रिवाज था। इसके लिए बेटों ने अपने बापों से लड़ाई की। मसलन जहांगीर ने अकबर से तो जहांगीर से शाहजहां ने और शाहजहां से उसके बेटे औरंगजेब ने। रहीम जहांगीर और शाहजहां की लड़ाई के बीच में फंसे थे। उनकी स्थिति महाभारत के भीष्म के जैसी थी। शाहजहां के निशाने पर आ गए। हालांकि इसमें उनके अपने बेटों और दामाद की भूमिका भी रही जो शाहजहां के अधीन नहीं रहना चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि 72 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते रहीम बेऔलाद हो चुके थे। उन्हें बेऔलाद उसी सल्तनत ने किया जिसके लिए उन्होंने आजीवन खून बहाया।
तीसरा पात्र है रवीन्द्रनाथ टैगोर का गोरा। मुझे लगता है कि हर हिंदी भाषी को यह उपन्यास जरूर पढ़नी चाहिए। इसमें टैगोर ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में छुआछूत व महिलाओं की स्थिति का वर्णन किया है। इसकी एक और खास बात है। लेकिन इससे पहले यह कि इसकी रचना उन्होंने 1910 के आसपास की। यदि यह रचना 1927 के बाद हुई होती तो मैं बड़े आराम से कह सकता था कि इसके पीछे उनकी प्रेरणा कैथरीन मेयो रही होंगी, जिन्होंने “मदर इंडिया” लिखकर पूरे विश्व में भारतीय द्विजों के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश कर चुकी थीं।
अब बात उस खास बात की जो मैं पहले दर्ज करना चाहता था। रवींद्रनाथ टैगोर की यह रचना सोचने का नया दृष्टकोण देती है। मतलब यह कि इस देश में आर्य आए। उन्हें भी इस धरती पर जगह मिली। वे इसके राजा बन गए। उन्होंने यहां संतान भी पैदा किये। किसी प्रकार का विरोध हुआ हो, ऐसा मुझे पढ़ने को नहीं मिला। फिर मुसलमानों को ही देख लें। मुसलमानों ने सवर्ण हिंदुओं को अपनी बेटियां दी और उनसे बेटियां ली भी। गरीब और छुआछूत के शिकार हिंदुओं को भी नारकीय धार्मिक व्यवस्था से बाहर निकलने का मौका मिला। इन सबका बहुत विरोध हुआ हो, ऐसा मेरे संज्ञान में अबतक नहीं आया। मुसलमानों को द्विजों ने भी स्वीकारा और अछूतों ने भी। हालांकि सामाजिक व्यवस्था के अलग-अलग पायदान तब भी बरकरार रहे। लेकिन अंग्रेजों को ऐसी स्वीकृति नहीं मिली। कोई अंग्रेज किसी हिंदू महिला के साथ शादी करके अपना घर बसाए, इस तरह का कोई खास उल्लेख नहीं मिलता। वैसे यह भी महत्वपूर्ण है कि केवल रंग से सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती।
गोरा एक अंग्रेज और एक सवर्ण महिला के बीच प्यार का परिणाम था। गोरा को सामाजिक उत्पीड़न झेलना पड़ा। लेकिन यह केवल एक आयामी नहीं था। उसे अंग्रेज की औलाद होने से अधिक सवर्ण होना अधिक खुशी देता था। सचमुच अद्भूत है रवींद्रनाथ टैगोर का गोरा।
एक अंश देखिए कि टैगौर ने किन शब्दों में गोरा का परिचय उसके एक मित्र विनय के हवाले से उद्धृत किया है –
[… गौरमोहन। जान-पहचान के लोग उसे ‘गोरा’ कहकर बुलाते हैं। वह मानो बेतहाशा बढ़ता हुआ आस-पास के लोगों से ऊपर उठ गया है। उसके कॉलेज के पंडितजी उसे ‘रजत-गिरि’ कहकर पुकारते थे। उसकी देह का रंग बहुत ही उग्र रूप से चिट्टा था, उसे स्निग्ध करने वाली तनिक-सी मात्र भी उसमें नहीं थी। करीब छह फुट लंबा डील, चौड़ी काठी, मानो बाघ के पंजे की तरह, गले का स्वर ऐसा भारी और गंभीर कि एकाएक सुनने पर लोग चौंककर पूछ बैठते हैं, यह क्या है? उसके चेहरे की गठन भी अनावश्यक रूप से बड़ी और अतिरिक्त कठोर है; गाल और ठोड़ी का उभार मानो दुर्ग-द्वार की दृढ़ अर्गला की भाँति, आँखों के ऊपर भौंहें जैसे हैं ही नहीं और वहाँ से माथा कानों की ओर फैलता चला गया है। ओठ पतले और दबे हुए; उनके ऊपर नाक मानो खाँडे की तरह उठी हुई हैं। आँखें छोटी किंतु तीक्ष्ण, उनकी दृष्टि मानो तीर की धार की तरह दूर अदृश्य में अपना लक्ष्य ताक रही हो, किंतु क्षण-भर में ही लौटकर पास की चीज पर भी बिजली की तेज़ी से चोट कर सकती हो। देखने पर गौरमोहन को सुंदर नहीं कहा जा सकता, किंतु उसे देखे बिना रहा भी नहीं जा सकता- लोगों के बीच होने पर दृष्टि बरबस उसकी ओर खिंच जाती है।]
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अब गोरा की मां का परिचय देखिए –
[देखने में गोरा की माँ नहीं जान पड़तीं। वह बहुत ही दुबली-पतली और संयत हैं। बाल यदि कुछ-कुछ पके भी हों तो बाहर से मालूम नहीं होता; अचकन {अचानक} देखने पर यही जान पड़ता है कि उनकी उम्र चालीस से कम ही होगी। चेहरे की बनावट अत्यंत सुकुमार; नाक, ओठ, ठोड़ी और ललाट की रेखाएँ सब मानो बड़े यत्न से उकेरी हुईं; शरीर का प्रत्येक अंग नपा-तुला; चेहरे पर हमेशा एक ममत्व और तेजस्वी बुध्दि का भाव झलकता रहता है। श्याम-वर्ण रंग, जिसका गोरा के रंग से कोई मेल नहीं है। उनको देखते ही एक बात की ओर हर किसी का ध्याचन जाता है कि साड़ी के साथ कमीज़ पहने रहती हैं। जिस समय की हम बात कर रहे हैं उन दिनों यद्यपि आधुनिक समाज में स्त्रियों में शमीज़ या ऊपर के वस्त्र पहनेन का चलन शुरू हो गया था तथापि शालीन गृहिणियाँ इसे निराख्रिस्तानीपन कहकर इसकी अवज्ञा करती थीं। आनंदमई के पति, कृष्णदयाल बाबू कमिसरियट में काम करते थे। जवानी से ही आनंदमई उनके साथ पश्चिम में रहीं थी। इसी कारण यह संस्कार उनके मन पर नहीं पड़ा था कि अच्छी तरह बदन ढँकना, या ऐसे कपड़े पहनना लज्जा की या हँसी की बात है। बर्तन माँज-घिसकर, घर-बार धो-पोंछकर, राँधना-बनाना, सिलाई-कढ़ाई और हिसाब-गिनती करके, कपड़े धोकर धूप दिखाकर अड़ोस-पड़ोस की खोज-खबर लेकर भी उनका समय चुकता ही नहीं। अस्वस्थ होने पर भी वह शरीर से किसी तरह की ढिलाई नहीं बरततीं। कहती हैं, ”बीमारी से तो मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन काम किए बिना कैसे चलेगा?”]
अंग्रेज की औलाद के रूप में ताने सुनने वाला गौरमोहन उर्फ गोरा किस हदतक जातिवादी है, यह मां के साथ उसकी बातचीत में दिख जाती है –
[सिर हिलाकर गोरा ने ज़ोर से कहा, ”नहीं माँ, यह नहीं होने का। तुम्हारे कमरे में विनय को नहीं खाने दूँगा।”
आनंदमई, ”वाह रे! क्यों रे, तुझे तो मैंने कभी खाने को नहीं कहा…. इधर तेरे पिता भी महा शुध्दाचारी हो गए हैं, खुद का बनाया छोड़कर कुछ खाते नहीं। मेरा विनू अच्छा लड़का है, तेरी तरह कट्टटर नहीं है…. तू इसे ज़बरदस्ती बाँधकर रखना चाहता है?’
गोरा, ”बिल्कुल ठीक! मैं इसे बाँधकर ही रखूँगा। तुम जब तक उस ख्रिस्तान नौकरानी लछमिया को भगा नहीं देतीं तब तक तुम्हारे कमरे में खाना नहीं हो सकेगा!”
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आनंदमई, ”अरे गोरा, ऐसी बात तुझे ज़बान पर नहीं लानी चाहिए। हमेशा से तू उसके हाथ का बना खाता रहा है; उसी ने तुझे बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया है। अभी उस दिन तक उसके हाथ की बनाई चटनी के बिना तुझे खाना नहीं रुचता था। जब बचपन में तुझे माता निकली थी तब लछमिया {इसाई महिला} ने ही तेरी सेवा करके तुझे बचाया, वह मैं कभी नहीं भूल सकूँगी।”
गोरा, ”उसे पेंशन दे दो, ज़मीन खरीद दो, घर बनवा दो, जो चाहो कर दो…. किंतु उसे और नहीं रखा जा सकता, माँ!”
आनंदमई, ”गोरा, तू समझता है, पैसा देकर ही सब ऋण चुकता हो जाते हैं! वह ज़मीन भी नहीं चाहती, घर नहीं चाहती; तुझे नहीं देख पाएगी तो मर जाएगी।”
गोरा, ”तुम्हारी जैसी मर्ज़ी…. रखे रहो उसे! पर वीनू तुम्हारे कमरे में नहीं खा सकेगा। जो नियम है वह मानना ही होगा, उससे इधर-उधर किसी तरह नहीं हुआ जा सकता। माँ, तुम इतने बड़े अध्यारपक वंश की हो, तुम जो आचार का पालन नहीं करतीं यह…. ”]
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काश कि मैं गोरा बांग्ला में पढ़ पाता। मुमकिन था कि इसके साहित्य सौंदर्य को और करीब से समझने में कामयाब होता। यह भी मेरी ख्वाहिशों में शुमार है। कल मेरी प्रेमिका ने शब्द दिया– “क्षमता”। कुछ सोचा तो ख्वाहिशें जिंदा हो गईं।
आसान नहीं होता
चांद की ख्वाहिश रखना।
बाजदफा नदी पहाड़ से उतरती है
और देवदार जड़ रहते हैं
गोया उन्हें है उम्मीद कि
आसमान का चांद
उतर आएगा पहाड़ की चोटी पर
और दुनिया के लोग
जंग करना छोड़
इश्क करने लगेंगे।
कई बार ख्वाहिशें
केवल ख्वाहिशें नहीं होतीं
होने लगती है हरारत बदन में
और तब एक समंदर एक झटके में
पूर्णिमा और अमावस का भेद मिटा
ज्वार-भाटे से मुक्ति चाहता है।
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कई बार ख्वाहिशें
परवरदिगार को चुनौती देने का साहस देती हैं
और आदमी निकल पड़ता है
अपनी पूरी क्षमता बटोर
गोया वह जीत सकता है
अपना प्रारब्ध खुद तय कर सकता है।
हां, आसान नहीं होता
चांद की ख्वाहिश रखना।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं