Sunday, May 19, 2024
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राजतंत्र के शिकंजे में कसमसाता देश का लोकतंत्र

लोकतंत्र में चुनाव में जीते हुए लोग जब शासन व्यवस्था संभालते हैं, तो वे ऐसे नियम और कानूनों का प्रावधान करते हैं, जिससे कि लोगों का कल्याण हो सके। इन नियम कानूनों के लिए सरकार पूरी तरह से जनता के प्रति जवाबदेह होती है।

 किसी भी देश अथवा स्थान पर शासन करने की प्रणालियों को कई श्रेणियों में विभाजित किया गया है। राजतंत्र, प्रजातंत्र, गणतंत्र तथा तानाशाही इत्यादि कई सारी शासन प्रणालियां हैं। ऐसी प्रणाली कि  जिसमें केवल एक व्यक्ति ही शासन का अधिकारी होता है, ऐसे शासन प्रणाली को राजतंत्र कहा जाता है। राजतंत्र में राजा ही प्रजा का सर्वेसर्वा होता है। अगर दुनिया में सबसे पुराने शासन पद्धतियों के बात की जाए, तो उसमें राजतंत्र सबसे प्राचीन है। आधुनिक युग में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत में भी आज से दशकों पहले राजतंत्र हुआ करता था। राजतंत्र को भी दो श्रेणियों में बांटा गया है, जिनमें राजशाही तथा पूर्ण राजशाही का समावेश होता है। पूर्ण राजशाही यह तानाशाही का ही एक रूप माना जा सकता है।

जिस प्रकार लोकतंत्र अथवा प्रजातंत्र में शासन व्यवस्था सीधे जनता के हाथ में होती है और लोग ही देश के तथाकथित तौर पर सर्वेसर्वा माने जाते हैं। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन व्यवस्था है। यह वाक्य अब्राहम लिंकन द्वारा लोकतंत्र के परिभाषा के रूप में कहीं गई सबसे प्रसिद्ध वाक्य है। इसके विपरीत राजतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था होती है जिसमें केवल राजा को ही शासन करने का एकाधिकार प्राप्त होता है। राजतंत्र में प्रजा की कोई भी भागीदारी सत्ता में नहीं होती है।

लोकतंत्र में चुनाव में जीते हुए लोग जब शासन व्यवस्था संभालते हैं, तो वे ऐसे नियम और कानूनों का प्रावधान करते हैं, जिससे कि लोगों का कल्याण हो सके। इन नियम कानूनों के लिए सरकार पूरी तरह से जनता के प्रति जवाबदेह होती है। किंतु राजतंत्र में राजाओं की कोई भी जवाबदेही अपने प्रजा के प्रति नहीं होती है। वह जब चाहे तब कोई भी नियम कानून बना सकते हैं और तोड़ सकते हैं, इसमें प्रजा की कोई भी भूमिका नहीं होती।

लोकतंत्र में शासन के चार प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया। इनमें न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा गया है, ताकि सभी को निष्पक्ष न्याय मिल सके। देश का शासन संभालने के लिए लोकतंत्र में हमेशा चुनाव होते रहते हैं, जिसमें कई पार्टियां अथवा पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक साथ सत्ता में बने रहते हैं। इस तरह शासन का बागडोर स्थिर नहीं रहता है।

स्मरणीय है कि भाजपा नीत भारत सरकार को अपने पहले टर्म में आर्थिक मसलों, खासकर महंगाई के मोर्चे पर अधिक सवालों का सामना नहीं करना पड़ा था। किंतु भाजपा की सरकार फिलहाल रोजी-रोटी के मसले से पूरी तरह से घिर गई है तब ही तो पीएम मोदी ने एलान किया है कि फ्री में मिलने वाला राशन अब अगले 5 साल तक के लिए और बढ़ा दिया गया है जिसका देश के 80/81  करोड़ जरूरतमंदों को भोजन की गारंटी देने वाली इस योजना का लाभ होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि देश आधी से ज्यादा आबादी भूख से लड़ने को मजबूर है। क्या इस पर यह सवाल करना नहीं बनता कि भारत  में गरीबी में इजाफा हुआ है।

मुश्किल में लोकतन्त्र 

रही किसानों की बात तो भारत में किसानों की आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रिपोर्टें दर्ज की गई है। 1997 से 2006 के बीच 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की थी। विदित हो कि भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलों का नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है।

मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचा देने के मुख्य कारणों में खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होना तथा किसानों के भरण-पोषण में असमर्थ होना है।

 हाल में किसानों द्वारा एमएसपी को कानूनी दायरे में लाने के लिए आयोजित आंदोलन को कमजोर करने के लिए हरियाणा राज्य और केंद्रीय सरकार ने पूरा जाल बिछा रखा है। किसानों के साथ इतना अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है, जैसा कि किसी दुश्मन पड़ोसी देश के साथ किया जाता है। किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए सड़कों पर न केवल बड़े-बड़े सीमेंटिड दीवारें खड़ी कर दी गई, अपितु सड़कों पर जगह-जगह सरियों के कांटे बिछा दिए गए हैं। क्या इसे किसी तानाशाह के व्यवहार से अलग करके देखा जा सकता है?

उल्लेखनीय यह भी है  कि खेती आजकल घाटे का धंधा बन गई है। दुनिया का और कोई धंधा घाटे में नहीं चलता, पर खेती हर साल घाटे में चलती है। अत: किसानी के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। किसान अब किसानी करना नहीं चाहता। इस सबसे बड़ा कारण यह है कि किसान को अपनी उपज का यथोचित दाम नहीं मिलता क्योंकि उसकी उपज की कीमत सरकार तय करती है जो वर्षों से की भी नहीं गई।

इसके ठीक उलट, पूंजीपतियों/ उद्योगपतियों अपने उत्पाद की कीमत अपने स्तर पर मनमानी कीमत करते हैं। सरकार का जैसे इस बारे में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के उत्पादों की बढ़ी कीमतों का भार  प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अंतिम पायदान के उपभोक्ता पर ही पड़ता है। यही कारण है कि किसान हमेशा घाटे में और पूंजीपति/उद्योगपति लाभ में रहता है।

भाजपा के शासन काल में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो बैंकों का कर्ज चुकाए बिना ही विदेश भाग गए और बैंक मुँह ताकते रह गए। 8 वर्ष पहले विजय माल्या 9000 करोड़ का कर्ज लेकर विदेश भाग गए या भगाए गए? माल्या ने कर्ज न लौटाने का दोष उलटे बैंकों पर ही मढ़ दिया ,”बैंकों  ने उस खतरे को भांपने के बाद ही लोन दिया था। लोन देने का फैसला बैंकों का था, हमारा नहीं। ईडी ने 17 बैंकों को नोटिस देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी। हैरत की बात है कि राज्यसभा सांसद के रूप में ये माल्या का दूसरा टर्म है। पहली बार 2002 में और इसके बाद 2010 में। दूसरी बार वो कर्नाटक से बतौर इंडिपेंडेट कैंडिडेट इलेक्ट हुए थे। एक पंक्ति में कहें तो भारत के 25  सबसे बड़े डिफॉल्टर (Willful Defaulters) ( पूंजीपतिओं)  पर देश की विभिन्न बैंकों का लगभग 58,958 करोड़ रुपये बकाया है। उल्लेखनीय है कि देश के अनेक पूंजीपतियों पर अपना बकाया वसूलने के लिए न तो बैंक ही दबाव बनाते हैंऔर न ही सरकार।

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 ‘प्लेटो सत्ता के शीर्ष पर जिन विशेषज्ञों को चाहते थे, वे विशेष रूप से प्रशिक्षित दार्शनिक होने चाहिए। उन्हें उनकी ईमानदारी, वास्तविकता की गहरी समझ (आम लोगों से कहीं ज़्यादा) के आधार पर चुना जाना चाहिए।‘ किंतु लोकतंत्र में ऐसा होता नहीं है। ज्यादातर मतदाता अपना नेता चुनते समय उम्मीदवार के रूपरंग, जाति, समुदाय, राजनीतिक दल विशेष आदि को नहीं भुला पाते। फिर होता यह है कि लोकतंत्र में धीरे-धीरे सत्ता का स्वरूप बदलता जाता है और लोकतंत्र में तानाशाही पनपने लगती है।

सरकार पर किसी का कोई अंकुश नहीं रह गया है। सरकार बिना पगाह के बैल की तरह आरचरण करने में लगी है। स्वतंत्र कहे जाने वाली तमाम सरकारी इकाइयां सरकार के इशारे पर केवल और केवल विपक्ष के नेताओं पर ही दंण्डात्मक कार्यवाही करने पर उतारू रहती है

उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसी ईडी ने लगातार सक्रियता दिखाई है। वह एक के बाद एक कई छापे मार रही है और गिरफ्तारियां भी कर रही है। हालांकि ईडी के निशाने पर लगभग सारे विपक्षी नेता और राजनीतिक दल ही रहे। इसी वजह से इस मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई।

विपक्ष इसे अपने नेताओं को परेशान करने या विपक्ष शासित राज्य को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा बता रहा है। कुल मिलाकर संकेत साफ हैं कि आने वाले समय में ईडी की तमाम कार्रवाई अगले आम चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही रहेगा कि क्या चुनावों में भ्रष्टाचार निर्णायक मुद्दा बन सकता है? इसका परिणाम क्या होगा या जनमानस पर इसका असर क्या होगा? इस मामले में अब तक के ट्रेंड विरोधाभासों से भरे रहे हैं।

 तानाशाही, सरकार का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है। तानाशाही , सरकार का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है। तानाशाह आमतौर पर निरंकुश राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए बल या धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं, जिसे वे धमकी, आतंक और बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता के दमन के माध्यम से बनाए रखते हैं। वे अपने सार्वजनिक समर्थन को बनाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर प्रचार की तकनीकों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच बीते पाँच महीनों से जारी हिंसक संघर्ष के बीच  दो महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न का एक भयावह घटना घटी। जब  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संसद के मॉनसून सत्र से पहले मीडिया से बात करने आए तो उन्होंने भी मणिपुर की घटना का ज़िक्र करते हुए केवल कहा कि उनका हृदय पीड़ा से भरा हुआ है। पीएम मोदी ने आगे कहा कि देश की बेइज्जती हो रही है और दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा। यह पहली बार था कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर में जारी हिंसा पर कुछ कहा। विपक्ष मणिपुर पर पीएम मोदी के न बोलने को लेकर लंबे समय से सवाल उठा रहा था।

सुप्रीम कोर्ट द्वार इलेक्ट्रोरल बाँड पर रोक लगाने के बाद भाजपा की भौंए तन गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि इलेक्तट्रोरल बोंड के जरिए राजनीतिक दलों को पूंजीपतियों द्वारा दिए गये चंदे के बारे में यह जानना चाहिए कि कि बीजेपी को कौन सी कंपनी चंदा दे रही है।

चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में भाजपा द्वरा की गई खुल्ल्म्खुल्ला हेराफेरी, क्या राजशाही की मार्ग प्रशस्त नहीं करती?  सरकार की इस प्रकार की गतिविधियों के चलते यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर 2024 में BJP जीती  तो 2024 का आमचुनाव अंतिम चुनाव होगा। 2024 के बाद आने वाले वर्षों में शायद ही कोई आमचुनाव होगा और नरेंद्र मोदी जी ‘नरेंद्र पुतिन’ बन जाएंगे। इस प्रकार की सोच केवल राजनीतिक दलों की ही नहीं अपितु आम जनता का भी ऐसा ही विचार है।

यथोक्त के आलोक में आजकल भारतीय लोकतंत्र में धीरे-धीरे सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री में राजशाही के गुण अवतरित होते जा रहे हैं। राजतंत्र की तरह लोकतंत्र का राजा भी यह सोचने लगा है कि जब भी सत्ता हाथ लगे 95% जनता को भिखारी बना दें और उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता को अपने हाथ से न जाने दे। कहा तो ये जाता है कि जब सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने कुछेक  विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें और 95% जनता को भिखारी बना दे। उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी। ऐसा आजके भारत में होता हुआ भी दिख रहा है। यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा के शासन काल में भारतीय लोकतंत्र राजशाही की बाहों में फंसकर बुरी तरह कसमसा रहा है।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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