करसड़ा के उजाड़े गए मुसहर परिवार नौकरशाही के आसान शिकार बन गए हैं
जिन दिनों उनको वहां से उजाड़ा गया था उन दिनों कई अधिवक्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि करसड़ा के मुसहर परिवार जिस ज़मीन पर रह रहे हैं वह दो दशक से भी पहले से चमेली देवी पत्नी मट्ठल के नाम से दर्ज है। लेकिन प्रशासन का कहना था कि यह ज़मीन हथकरघा विभाग की है। उस समय जब छानबीन की गई तब पता चला कि चमेली देवी अब चंदौली जिले में रहती हैं। करसड़ा में रह रहे परिवार उनके दूर के रिश्तेदार हैं। उत्तर प्रदेश भूलेख की खतौनी में तहसील राजातालाब वाराणसी के ग्राम करसड़ा के खसरा संख्या 821 और खाता संख्या 00028 में अशोक व पिंटू पुत्रगण चमेली देवी पत्नी मट्ठल का नाम दर्ज था। ज़मीन का कुल रकबा चार बीघा है। उसके पश्चिम दिशा में बंधा, उत्तर में सनबीम स्कूल की दीवार, पूरब में बुनकर विद्यालय है। 29 अक्तूबर 2021 को बुलडोजर चला और 27.11.2021/02.12.2021 के फैसले में उपजिलाधिकारी तहसील राजातालाब ने इस ज़मीन से उक्त खातेदारों का नाम निरस्त करते हुए इसे पूर्ववत बंजर के खाते में दर्ज करने का आदेश दिया।
बिना किसी पूर्व सूचना के मुसहर बस्ती में रहने वाले परिवारों को बेघर करने की ग्राउंड रिपोर्ट (गाँव के लोग यूट्यूब चैनल की रिपोर्ट)
कोई भी बात नहीं मानी गई
उजाड़े गए तेरह मुसहर परिवारों के घरों को बुलडोजर चला कर गिरा दिया गया और वे देखते रह गए। सैकड़ों की संख्या में पुलिस की मौजूदगी से वे केवल यह देखते रहे कि उनके घर की एक-एक चीज को निकाल कर फेंका जा रहा है। उस समय जब हम रिपोर्टिंग के लिए वहां गए तो पूरी बस्ती अपने हाल पर आंसू बहा रही थी। कपड़े-बर्तन सब बिखरे पड़े थे। एक परिवार में लड़की की शादी थी और इसके लिए जुटाया गया चावल कमरे से लेकर बाहर तक बिखरा हुआ था। एक परिवार में सिलाई की मशीन थी उसे भी निकालकर बाहर फेंक दिया गया था। इसी तरह एक परिवार में पाले जा रहे सूअरों का बाड़ा खोल देने से सारे सूअर बाहर भाग गए।
उस समय ठण्ड का मौसम आ चुका था लेकिन वे सब के सब कड़कती ठण्ड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर थे। जब हम वहां गए तो अनेक सामाजिक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों के लोग उन परिवारों की मिजाज़पुर्सी के लिए आये थे। दलित फाऊन्डेशन नामक एक संगठन के कार्यकर्ता राजकुमार गुप्ता उनके मुद्दे को प्रशासन के सामने रखने की कोशिश में यहाँ-वहां फोन कर रहे थे। वहां खुले में एक स्कूल भी चल रहा था जिसे शायद दलित फाऊन्डेशन ही संचालित कर रहा था। उस समय यह बात उठ रही थी कि उस जगह पर अटल आवासीय विद्यालय बनाने की सरकारी योजना है। लेकिन चूँकि ज़मीन की खतौनी में मुसहर परिवार का नाम था इस आधार सामाजिक संगठनों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं आदि ने इस घटना को सरकारी अन्याय कहा। वाराणसी के एक अधिवक्ता प्रेम प्रकाश सिंह यादव समेत कई लोगों ने जिलाधिकारी वाराणसी को इसके विरोध में ज्ञापन दिया।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब उस ज़मीन पर मुसहर परिवार का पट्टा था तो उन्हें विस्थापित करने के लिए बिना किसी पूर्व सूचना के उनके घरों पर बुलडोजर कैसे चलवा दिया गया? जिस दिन उनका घर उजाड़ा गया उस दिन तक ज़मीन उस समुदाय के व्यक्ति के नाम थी। बिना उचित प्रक्रिया और पुनर्वास की कोई व्यवस्था किये पहले उजाड़ने और बाद में उनके खिलाफ फैसला देते हुए उनका नाम निरस्त किस आधार पर कर दिया गया? अनेक ऐसे सवाल हैं जो आज तक अनुत्तरित हैं।
पुनर्वास के नाम पर मौत के मुहाने पर धकेल दिया गया है
महीनों उजाड़े गए मुसहर परिवार वहीँ पड़े रहे। जाड़े के उन दिनों में वे वहां पेड़ों के नीचे रहे। बस्ती के एक युवक राजेश कुमार ने बताया कि हमको लगता था कि ज़मीन हमारे रिश्तेदार के नाम है और प्रशासन ने जबरन हमें उजाड़ा है इसलिए हमको पुनः अपने घर वहीँ बना लेना चाहिए लेकिन हमारी हिम्मत नहीं पड़ी। प्रशासन से लगातार धमकियाँ मिलती रहीं और हमारी आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि नए घर बनवा सकें।
प्रशासन ने उनके पुनर्वास के लिए बंधे के उस पार सहदो-महदो के पुल से गुजरने वाले नाले के पास व्यवस्था की। इस बात की सुगबुगाहट उन्हीं दिनों थी और उजाड़े गए परिवारों को इसको लेकर ऐतराज था क्योंकि यह जगह रहने के लिए खतरनाक है क्योंकि एक तरफ नाले की वजह से बरसात में घरों के डूब जाने का खतरा है तो दूसरी ओर इस जगह के ठीक ऊपर हाई टेंशन तार (25000 बोल्ट) गुजरता है।इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि पानी बढ़ने के साथ बिजली उतरने का खतरा भी हो सकता है। इसके अलावा निरंतर रेडियेशन से भी स्वास्थ्य को गंभीर खतरा है। लेकिन प्रशासन ने इन बातों पर कोई ध्यान न दिया और इन परिवारों को यहीं आकर रहना पड़ा।
तक़रीबन नौ महीनों बाद जब हम उनसे मिलने और उनकी स्थितियों का जायज़ा लेने पहुंचे तो पुरानी जगह का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था। वाराणसी-चुनार मार्ग से उतरते ही कच्ची सड़क पर बड़े ट्रकों के गुजरने से बने निशान और कीचड़ में फिसलने से बचते हुए जब हम बुनकर विद्यालय के सामने पहुंचे तो आगे एक विशाल बिल्डिंग बन रही थी। यह आम रास्ता नहीं था। बैरिकेटिंग लगी हुई थी और कई गार्ड वहां मौजूद थे। वहां से पुलिस की दो जीपें निकल रही थीं। गार्ड ने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया। अन्दर एक स्कॉर्पियो खड़ी थी जिसपर बीजेपी का झंडा लगा था। बन रहा भवन अटल आवासीय विद्यालय है, कई मंजिलें बन चुकी हैं, रेत, गिट्टी, बालू, ईंटें, और छड़ से आसपास का एरिया पटा हुआ है। वहां खड़े गार्ड ने पूछने पर बताया कि यहाँ से उजाड़े गये तेरह मुसहर परिवारों को नहर के किनारे ज़मीन आबंटित की गई है।
थोड़ा आगे चलने चलने पर हम वहां पहुंचे। सड़क से पचास मीटर अंदर नीचे उतरकर कच्ची पगडण्डी से चलकर नाले के किनारे उन तेरह मकान बन रहे हैं। हमारे पहुँचने पर एक मकान में काम कर रहे शंकर वनवासी पास चले आये। यह पूछने पर कि यहाँ कब से आये, उन्होंने बताया कि उजाड़े गए परिवारों को प्रशासन ने दबाव बनाकर यहाँ भेज दिया। कुछ दूर पर ईंटे जोड़कर एस्बेस्टस की छत वाले झोंपड़े दिख रहे थे, वहां मौजूद एक युवक ने बताया कि जब हम भागदौड़ किये और कुछ नहीं हुआ तो एक दिन साहब लोग हमसे बोले कि तुम लोग बंधे के उस पार चलो। वहीं सरकार ने उन लोगों के रहने का इंतजाम किया है। अब हम क्या करते, यहीं आ गए।
करसड़ा के 13 परिवार और उनके घर के सदस्य
- बुद्धू राम पुत्र स्व. विश्वनाथ, सीता देवी पत्नी बुद्धू राम।
- राजेश कुमार पुत्र बुद्धू राम, पूनम देवी पत्नी राजेश कुमार, दो बेटियां कामिनी और ज्योति, दो बेटे जागरण और आनंद।
- बलदेव पुत्र बुद्धू राम, रन्नो देवी पत्नी बलदेव, दो बेटियां नंदिनी और अंतरा।
- राहुल पुत्र बुद्धू राम, नीलम पत्नी राहुल, दो बेटे भोला और राजकुमार।
- कार्तिक पुत्र स्व. जयराम, रीता देवी पत्नी कार्तिक, तीन बेटे अजय, विजय कुमार और पिंटू, एक बेटी आरती।
- सदानंद पुत्र स्व मुनीब, पार्वती देवी पत्नी सदानंद, एक बेटी राधिका, तीन बेटे सनी, सूरज और नीरज।
- विजय स्व. कल्लू, सोनी देवी पत्नी विजय, एक बेटी किरण, दो बेटे नल और नील।
- मुनिब पुत्र स्व. विक्रम, लालमनी पत्नी मुनीब, चार बेटियां नेहा, काजल, रागिनी, प्रियंका और बाबू।
- नन्हकू पुत्र स्व. जयराम, लक्ष्मीना पत्नी नन्हकू, दो बेटे धर्म कुमार और विकास, तीन बेटियां रोशनी, ज्योति और शिवानी।
- रामप्रसाद पुत्र स्व. विश्वनाथ, सुशीला पत्नी रामप्रसाद।
- सोमरा देवी पत्नी स्व. शोभा, काशी बनवासी स्व. शोभा।
- शंकर स्व. अलगू, फूला देवी पत्नी शंकर, एक बेटा धर्मेंद्र।
- गनेश पुत्र स्व. मिठाई, इंदु देवी पत्नी गनेश, दो बेटियां अंजली और रानी, दो बेटे राजा और नीरज।
घर बनवाने के लिए एक लाख बीस हजार रुपये
यहाँ सबको एक-एक बिस्सा ज़मीन का पट्टा मिला है। अफसरों ने उन्हें आश्वासन दिया गया कि आपको सही तरीके से बसाया जायेगा लेकिन आज लगभग दस महीने हो गए उनके सर पर आज भी छत नहीं बन पाई है। जब तक ये तेरह परिवारों ने घर बनवाने का काम शुरू नहीं किया तब तक प्रशासन के अधिकारी रोज आकर उनपर दबाव बनाते थे,आश्वासन देते थे लेकिन जैसे ही काम शुरू हुआ उसके बाद वे कभी झाँकने तक नहीं आये। सरकार ने घर बनवाने के लिए एक लाख बीस हजार रूपये मंजूर किये और हाथ में आये एक लाख दस हजार, शेष दस हजार घर बन जाने के बाद दिया जायेगा। नींव पड़कर दीवालें छत तक खड़ी हो गईं हैं लेकिन अब पैसा खत्म हो चुका है और कोई व्यवस्था नही है कि छत की ढलाई करवा पायें।
आज भवन निर्माण के सामानों की जिस तरह कीमत बढ़ी है, उससे कोई भी यह आकलन कर सकता है कि एक लाख बीस हजार रूपये में कैसे कोई दो कमरा बनवा सकता है? वहां रहने वाले राजेश ने बताया कि एक ट्रेक्टर ईंट की कीमत तेरह हजार है। हरेक मकान में पांच से छः ट्रेक्टर ईंट लग चुका है। लगभग पचहत्तर हज़ार की ईंटें ही आईं। बचे हुए पैंतीस हजार में सीमेंट, रेत छड, गिट्टी और मिस्त्री का मेहनताना हो गया। मजदूरी हमने ही की। हाथ एकदम खाली हो चुका है लेकिन छत ढलाई बाकी है। शंकर कहते हैं कि बाकी का काम हम कैसे करें। प्रधान जी कहते हैं कि छत ढलवाओ तो बाकी पैसा मिल जाएगा। हमारे पास मजूरी के अलावा कोई रोजगार नहीं। परिवार भी चलाना है, ऐसे तो पता नहीं कब हमारी छत बनेगी।
बारिश में बाढ़ आने पर क्या होगा
नाले के किनारे मिली ज़मीन बिलकुल ढलान पर है। यदि नाले में दो फुट पानी भरेगा तो वे सभी घर डूब जायेंगे। तेज बारिश अथवा गंगा का जलस्तर बढ़ते ही वे घर डूबेंगे। लेकिन इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल है कि उनका घर कब तक पूरा होगा? अभी अस्थाई घर बनाकर रह रहे हैं। बारिश का दिन है। गंगा में बाढ़ आई हुई है। किसी भी समय नाले का पानी बढ़कर उनके घरों तक घुस सकता है। दीवारों का मसाला अभी सूखा नहीं है, पानी का एक झटका भी उन्हें धराशायी कर देगा। फ़िलहाल जिस झोंपड़े में रह रहे हैं वे तो केवल ईंटें जोड़कर बने हैं।
जमीन देते समय इसी बात का बहुत विरोध हुआ था कि किसी सुरक्षित जगह जमीनें देकर पुनर्स्थापित किया जाए लेकिन प्रशासन ने अपना पीछा छुड़वाने के लिए यहाँ की ज़मीनें दे दी। यह पूछने पर कि नीचे पानी भरने पर वे कहाँ जायेंगे। एक महिला ने बताया कि कहाँ जायेंगे यहीं रहेंगे, वहां पानी भरेगा तो इसी बंधे पर रहेंगे, पानी उतरने पर ही वहां रहेंगे।
लेकिन ऊपर से जाता हुआ बिजली का तार तो बहुत डरावना है। राजेश कुमार ने कहा कि हम जहाँ रहे हैं कि यहाँ मौत का खतरा हमेशा बना हुआ है लेकिन और हम कहाँ जायेंगे। कभी-कभी दोनों हाथ सटाने पर लगता है जैसे इसमें करंट लग रहा है।
उचित तरीके से बिजली-पानी कनेक्शन नहीं है
अस्थायी घर बनाने के बाद जब बिजली कनेक्शन की मांग की तब अधिकारियों ने मुसहर परिवारों से कहा कि पहले बन रहे घरों की छत ढलवा लें उसके बाद स्थायी बिजली पहुंचाई जाएगी। फिलहाल हाई वोल्टेज तार द्वारा अस्थाई बिजली दी गई है, जिससे इस बस्ती के लोग काम चला रहे हैं लेकिन उन लोगों ने बताया कि बिजली के तार के नीचे खड़े होने पर करंट सा लगता है, वह तार बहुत नीचे से गया है यदि जरा तेज हवा-तूफ़ान आया तो और नीचे लटक सकता है और किसी की भी जान जा सकती है।
इसी तरह पानी का भी कोई कनेक्शन नहीं है। एक हैण्डपंप के सहारे तेरह परिवार के लगभग सत्तर सदस्य काम चला रहे हैं। सारा काम इसी एक हैण्ड पंप के पानी के भरोसे होता है। नहाने-धोने, सफाई के लिए इसी से सभी को पानी लेना होता है। गुड्डू बनवासी ने बताया कि अभी बारिश में पानी साफ़ नहीं आ रहा है बल्कि पानी में पीलापन हैं। पुरानी बस्ती में लगा हुआ एक सबमर्सिबल पंप यहाँ हैण्ड पंप के पास लगाये हैं, जिससे केवल पीने का साफ़ पानी निकालते हैं।
यहाँ ओडीएफ एक मज़ाक है
इस मुसहर बस्ती में यहाँ के लोगों ने अधिकारियों से टॉयलेट बनवाने की बात कही तब उन्होंने एक ही जवाब दिया कि पहले जो घर बनवा रहे हैं उसकी छत ढलवा लो, उसके बाद टॉयलेट भी बनेगा। इस बस्ती की महिलाएं, लडकियाँ, बच्चे, बुज़ुर्ग हर किसी को बारिश-पानी-ठण्ड में अलसुबह अँधेरे में जाकर निपटना पड़ता है। मुसहर बस्ती के लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकताएं अधिकारी छत ढलाई के नाम पर रोके हुए हैं।
वाराणसी प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र है, जिसे ओडीएफ याने खुले में शौच मुक्त घोषित किया गया है। इसका जोर-शोर से गुणगान होता है लेकिन यह केवल कागजों पर है वास्तविता कुछ और ही है। वाराणसी की अनेक गांवों में लोग शौच खुले में जाते हैं। स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में शुरू हुई थी लेकिन सभी इसकी सच्चाई से वाकिफ हैं।
राशन कार्ड भी छत ढलने के बाद मिलेगा
इन तेरह परिवारों के पास राशन कार्ड भी नहीं है, जिससे इन्हें अपने लिए अनाज खुले बाजार से खरीदना पड़ता है। जब राजेश अधिकारी के पास राशनकार्ड बनवाने के आवेदन देने गए तो वहां छत ढलवाने के बाद ही बनवा देने की बात कही गई। जब सरकार गरीबों को मुफ्त राशन देने की योजना चला रही है। लेकिन ये तेरह परिवार इसका फायदा उठाने में असमर्थ हैं।
गन्दगी और बेरोजगारी अपने चरम पर है
बस्ती के आसपास गन्दगी का अम्बार है। पास में बहता हुआ नाला रुके हुए पानी के कारण मच्छर-मक्खियों की कॉलोनी बना हुआ है। उबड़-खाबड़ ज़मीन और आसपास झाड-झंखाड़, बारिश में सड़ता हुआ पानी और गन्दगी, मच्छर-मक्खियों का जमावड़ा बीमारियों को खुला आमंत्रण दे रहे हैं। ज़मीन पर सोई हुई एक बच्ची के उपर सैकड़ों मक्खियाँ बैठी हुई थीं। एकबारगी उसे देखकर हमारा कलेजा धक से रह गया कि यह कैसे सो रही हैं। हर तरफ से अभाव झेल रहे हैं ये लोग। इन्हें न मुफ्त इलाज का फायदा मिल रहा है न मुफ्त शिक्षा का, क्योंकि आधार और वोटर कार्ड नहीं होने के कारण सरकार द्वारा चलाई जा रही किसी भी योजनाका फायदा उठाने से वंचित हैं।
इन तेरह परिवारों में लगभग 70 सदस्य हैं, लेकिन किसी के पास कोई ठोस काम नहीं है। कुछ पुरुष मजदूरी करते हैं। एक टोटो रिक्शा चलाते हैं। पहले शंकर पैडल रिक्शा चलाते थे लेकिन अब बूढ़े हो गए हैं इसलिए उतनी ताकत नहीं रही। जब हम वहां पहुंचे तो कुछ 5-6 महिलायें कहीं से वापस आती दिखीं। पूछने पर बताया कि पास के किसी खेत में धान रोपने गई थीं। उन लोगों ने बताया कि धान रोपने और धान कटाई के समय यह काम चार-पांच दिन से लेकर एक हफ्ते तक से ज्यादा का नहीं होता। दो सौ रुपया मजदूरी मिल जाती है लेकिन बाकी समय उनके पास कोई काम नहीं होता है। यूँ ही बैठे-बैठे पूरा दिन निकल जाता है।
आराम से पेड़ की छाया में बैठी दिख रही महिलायें निश्चिंत नहीं हैं। न ही वे इस खाली समय को एन्जॉय कर रही हैं बल्कि अपने भविष्य को लेकर अच्छी-खासी चिंतित है। यहाँ मिली सभी महिलायें अनपढ़ हैं लेकिन कुछ लड़कियां कक्षा चार-पांच तक पढ़ी हुई हैं।
ग्राम करसडा से उजाड़े गए परिवारों को शासन ने ज़मीनें बेशक दे दी हो। पक्का घर बनवाने के लिए एक लाख दस हजार रूपये भले दे दिए हों लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। वहाँ पहुँचने पर बातचीत से जो स्थिति सामने आई, उसमें एक बात स्पष्ट है कि उन्हें बेघर कर सड़क पर ला दिया गया है। ये तेरह परिवार मुसहर जनजाति, जिसे बनवासी भी कहते हैं, के हैं लेकिन ये परिवार न बनवासी रहे न शहर के हो पाए। पुरुष किसी तरह मजदूरी कर, रिक्शा चलाकर मेहनत कर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं लेकिन यहाँ की महिलायें पूरी तरह खाली हैं। बातचीत में उन्होंने बताया कि वे भी कुछ न कुछ करना चाहती हैं।
हम लौट रहे थे तो राजेश कुमार ने कहा कि देखिये कब तक हमारी छत ढलती है। छत के भरोसे हर काम रुका है और बिना पैसे के कैसे बनेगी छत?
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