न्यूनतम वेतमनान के लिए जूझ रहे श्रमिकों को 18 हजार रुपये वेतन मिलने का रास्ता साफ होता दिख रहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के अपर महाधिवक्ता ने सरकार के एक नीतिगत फैसले का जिक्र करते हुए उसे लागू करने की बात कही है। ज्ञात हो कि राज्य सरकार ने वन विभाग में कार्यरत उन सभी आकस्मिक श्रमिकों को बड़ी राहत दी है जो अभी तक छठें वेतन आयोग के तहत 7000 रुपये न्यूनतम वेतनमान पा रहे थे। नीतिगत फैसले के अनुसार उन्हें सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन दिया जाना चाहिए जो 7000 से बढ़कर 18,000 रुपये हो जाएगा।
आकस्मिक श्रमिकों के पक्ष में सातवें वेतन आयोग कि सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए अपर महाधिवक्ता अशोक मेहता के कथन को आधार बनाते हुये न्यायमूर्ति अश्वनी कुमार मिश्र ने उपरोक्त मामले की सुनवाई करते हुये कोई नया फैसला न देकर याचिका को उचित न्यायालय में पेश करने का आदेश दिया है।
न्यायालय के इस फैसले से आकस्मिक श्रमिक थोड़ा उत्साहित हुये थे कि 28 अगस्त को इस फैसले के तीसरे दिन नया आदेश पारित कर उनकी उम्मीदों को खत्म कर दिया गया है। दरअसल अनुसचिव ने उस आदेश को बिना खारिज किए एक ऐसा रास्ता निकाल लिया जिससे आकस्मिक श्रमिक स्वतः ही इस कानून के दायरे से बाहर होते दिख रहे हैं।
अनुसचिव ने सभी प्रमुख वन संरक्षकों व विभागाध्यक्षों को आदेश जारी कर दिया है कि यदि आकस्मिक श्रमिकों को न्यूनतम वेतनमान दिया गया तो यह राज्य की विधिक बाध्यता होगी और दूसरे विभाग भी ऐसी ही मांग करेंगे। सरकार के दोहरे चरित्र को यहाँ बड़े आराम से समझा जा सकता है और यह भी देखा जा सकता है कि सरकारी तंत्र किस तरह से नीतियों से खिलवाड़ करता है। एक तरफ जहां सरकार ने आकस्मिक श्रमिकों के पक्ष में सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिश को आभासी तौर पर लागू कर उन्हें झूठी तसल्ली देने का काम कर दिया है, वहीं कोर्ट की अवमानना से बचने के लिए बीच का ऐसा रास्ता निकाल लिया है कि यथा स्थिति में आमूल परिवर्तन भी ना करना पड़े। अनुसचिव की तरफ से स्पष्ट आदेश जारी हो गया है कि किसी भी कर्मचारी से लगातार सेवा न ली जाये ताकि किसी को सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिश के अधीन आने का हक ना मिल सके न ही वह कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकें। इतना ही नहीं सभी विभागाध्यक्षों को यह भी कहा गया है कि यदि किसी अधिकारी ने आकस्मिक श्रमिक को लगातार काम पर रखा तो उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी।
फिलहाल यह मामला अभी भी कोर्ट के अधीन है जिसकी अगली सुनवाई 26 सितंबर को होनी है। फिलहाल इस मामले से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी तंत्र किस तरह से श्रम का अवमूल्यन करता है और उनके हक पर कुंडली मारकर बैठ जाता है।
आदेश में कहा गया है की आकस्मिक श्रमिकों को कार्य का भुगतान किया जाता है अतः उनके न्यूनतम वेतनमान, भत्ते अनुमान्य करना शासकीय नीति के खिलाफ होगा। यह सब इसलिए लागू किया जा रहा है ताकि भविष्य में आकस्मिक श्रमिक नियामतीकरण की मांग ना करें।
सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बावजूद न्यूनतम वेतनमान के लिए फिलहाल इन श्रमिकों को अभी कितना और जूझना होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है पर इस कार्यवाही ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संविदा कर्मचारियों और आकस्मिक तौर पर सेवा में लिए गये श्रमिकों को अभी और कठिन हालात से जूझना पड़ेगा।
श्रमिकों की हमारे यहाँ दो तरह की श्रेणियाँ होती है। पहली संगठित श्रमिक और दूसरी आकस्मिक श्रमिक। आकस्मिक श्रमिक डबल्यूएच होते हैं जिनका कार्यदाई संस्था के साथ किसी तरह का अनुबंध नहीं होता है। वन विभाग में आकस्मिक श्रमिक बड़ी संख्या में जोड़े जाते हैं और उनसे काम लिया जाता है। लंबे समय से सेवा में रहने वाले श्रमिकों ने जब अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो कोर्ट ने उनके हित और हक का का ख्याल रखते हुये शासन के नियमानुसार उनके पक्ष में सातवें वेतन आयोग को लागू करने की बात कही। बावजूद सरकार ने चोर दरवाजा अख़्तियार करते हुये उस फैसले से बाहर निकलना चाहती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनता द्वारा जनता के लिए चुनी हुई सरकार ही जनता के हक के खिलाफ खड़ी है।
सरकारी क्षेत्र में क्यों बढ़ रही है आकस्मिक श्रमिकों की मांग
आकस्मिक श्रम, अनियमित रोज़गार या अंशकालिक श्रम, जिसमें उन श्रमिकों का श्रम शामिल है जिनके सामान्य रोज़गार में अल्पकालिक नौकरियों की एक श्रृंखला शामिल होती है। कैज़ुअल लेबर को आम तौर पर घंटे या दिन के हिसाब से या विशिष्ट कार्यों के प्रदर्शन के लिए काम पर रखा जाता है, जबकि अंशकालिक लेबर को आम तौर पर प्रति सप्ताह न्यूनतम घंटों के लिए निर्धारित किया जाता है। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत का एक सामान्य आकस्मिक मजदूर गोदी कर्मचारी था। अन्य प्रमुख उद्योग जो आकस्मिक श्रम पर बहुत अधिक निर्भर हैं, वे हैं निर्माण, लॉगिंग, आरा मिलिंग, कृषि और सेवा व्यापार। अंशकालिक श्रम अक्सर उन लोगों द्वारा पसंद किया जाता है जो नियमित रूप से निर्धारित काम की तलाश में हैं लेकिन पूर्णकालिक आधार पर काम न मिलने से बेरोजगार हैं। अंशकालिक श्रमिकों को नियोजित करना कम खर्चीला हो सकता है। उदाहरण के लिए, आकस्मिक श्रमिकों को स्वास्थ्य बीमा या अन्य लाभ प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है। आकस्मिक और अंशकालिक श्रम का उपयोग नियोक्ताओं को काम पर रखने और निकालने में अधिक लचीलेपन की अनुमति देता है और इस प्रकार उन्हें उत्पादन में उतार-चढ़ाव के साथ समायोजित करने में सक्षम बनाता है।
आकस्मिक श्रमिकों के लिए भारत सरकार श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वरा जारी आधिकार पत्र
सरकार ने भारत सरकार की आकस्मिक श्रमिक (अस्थायी स्थिति और नियमितीकरण का अनुदान) योजना, 1993 नाम से एक योजना शुरू की थी। इस योजना के अनुसार उन सभी आकस्मिक श्रमिकों को अस्थायी स्थिति प्रदान की जाएगी जो रोजगार में थे और जिन्होंने निरंतर सेवा प्रदान की है। कम से कम एक वर्ष, जिसका अर्थ है कि उन्हें कम से कम 240 दिनों की अवधि के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए (5 दिन का सप्ताह मानने वाले कार्यालयों के मामले में 206 दिन)। अस्थायी स्थिति से आकस्मिक मजदूरों को निम्नलिखित लाभ मिलेंगे:
1- डीए, एचआरए और सीसीए सहित संबंधित समूह ‘डी’ अधिकारी के लिए न्यूनतम वेतनमान के संदर्भ में दैनिक दरों पर मजदूरी।
2- सेवा के प्रत्येक एक वर्ष के लिए आनुपातिक वेतन की गणना के लिए समूह ‘डी’ कर्मचारी के लिए लागू समान दर पर वेतन वृद्धि के लाभों को ध्यान में रखा जाएगा।
3- छुट्टी की पात्रता प्रत्येक 10 दिन के काम के लिए एक दिन की दर से आनुपातिक आधार पर होगी, मातृत्व अवकाश को छोड़कर आकस्मिक या किसी अन्य प्रकार की छुट्टी स्वीकार्य नहीं होगी।
4- छुट्टी की पात्रता प्रत्येक 10 दिन के काम के लिए एक दिन की दर से आनुपातिक आधार पर होगी, मातृत्व अवकाश को छोड़कर आकस्मिक या किसी अन्य प्रकार की छुट्टी स्वीकार्य नहीं होगी।
5- 50% अस्थायी स्थिति के तहत प्रदान की गई सेवा को उनके नियमितीकरण के बाद सेवानिवृत्ति लाभों के प्रयोजन के लिए गिना जाएगा।
6- अस्थायी स्थिति प्रदान किए जाने के बाद तीन साल की निरंतर सेवा प्रदान करने के बाद, कैजुअल मजदूरों को सामान्य भविष्य निधि में योगदान के उद्देश्य से अस्थायी समूह ‘डी’ कर्मचारियों के बराबर माना जाएगा, और वे त्यौहारी अनुदान के लिए भी पात्र होंगे।
7- जब तक उन्हें नियमित नहीं किया जाता, वे उत्पादकता से जुड़े बोनस के हकदार होंगे।
फिलहाल तो सरकार आकस्मिक श्रमिकों के साथ जिस तरह का व्यवहार कर रही है उससे यह तो तय है कि वह सरकार के इस अधिकार पत्र पर अधिकार लेने की पात्रता किसी भी सूरत में पूरी नहीं कर पाएंगे।
स्वतंत्र नियोक्ता की राह पर सरकारी मशीनरी भी कार्य करती दिख रही है और वह भी स्वतंत्र नियोक्ता की तरह श्रम को गिग अर्थव्यवस्था के आधीन लाने के प्रति मुखर दिख रही है। अगर सरकार इसी तरह चौतरफा लाभ कमाने का प्रयास करेगी तो आने वाले समय में श्रम का भयावह अवमूल्यन देखने को मिल सकता है। अभी तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी ही इस सरकारी संजाल के दुष्चक्र में फंसे हैं पर आने वाले समय में यह मामला और भयावह हो सकता है और सरकार के ज़्यादातर संस्थान स्वतंत्र उद्योगपतियों को सौंपे जा सकते हैं।