Saturday, July 27, 2024
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रेवड़ियों का मतलब मैं तो यही समझता हूं और आप? (डायरी, 17 जुलाई, 2022) 

कबीर को पढ़ना अच्छा लगता है। कई बार सोचा कि ऐसा क्या है कबीर के पदों में कि मैं हर बार उसमें डूबता चला जाता हूं? कल रात भी यह ख्याल तब आया जब आबिदा परवीन द्वारा गाये गये कबीर के पदों को सुन रहा था। सोने से पहले पढ़ने की आदत है तो कबीर […]

कबीर को पढ़ना अच्छा लगता है। कई बार सोचा कि ऐसा क्या है कबीर के पदों में कि मैं हर बार उसमें डूबता चला जाता हूं? कल रात भी यह ख्याल तब आया जब आबिदा परवीन द्वारा गाये गये कबीर के पदों को सुन रहा था। सोने से पहले पढ़ने की आदत है तो कबीर के पदों को ही पढ़ने लगा। ऐसे ही गालिब की रचनाएं अच्छी लगती हैं। दोनों में बहुत फर्क है। यह इसके बावजूद कि दोनों के बीच अनेकानेक समानताएं हैं। गालिब अपनी रचनाओं के मामले में बेहद अनुशासित हैं। लेकिन कबीर अनुशासन को नहीं मानते। अपने छंदों को किसी व्याकरण की सीमा में नहीं बांधते। वह शब्दों का निर्माण भी करते हैं।
शब्दों से एक बात याद आयी कि बचपन में मुझे शब्द कैसे मिलते थे। मैं तो उस परिवार से आता हूं जहां पढ़ने-लिखने का रिवाज ही नहीं था। बस मम्मी-पापा की इच्छा थी कि उनके बेटे पढ़-लिख जाएं। बेटियों के मामले में दोनों दकियानुसी विचार के ही रहे। आज भी दोनों के लिए बेटे ही महत्वपूर्ण हैं। बेटियां केवल संवासिन हैं। तो बचपन में दो तरह के शब्द मिलते थे। एक तो स्कूल में मिलनेवाले शब्द और दूसरे गांव में मिलनेवाले शब्द। मसलन, स्कूल में घड़ा तो गांव में घैला। ऐसे ही टोकड़ी और छैंटी। एक और यह कि सिलबट्टा और सिलौटी। तब बच्चा था तो दिमाग में यह सवाल जरूर रहता था कि इतना अंतर क्यों है? तब यह कहां पता था कि हम गांव में जो बोलते हैं, वह मगही के शब्द हैं और स्कूल में खड़ी हिंदी के।
आंचलिक शब्दों को लेकर आज भी मेरे मन में सवाल शेष हैं। ख्वाहिश भी है कि मगही के शब्दों का एक संकलन तैयार किया जाय। लेकिन फिर गालिब की ख्वाहिश वाली रचना याद आती है– हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले।
खैर, कल मुझे एक शब्द और मिला। यह शब्द है– रेवड़ियां। मुझे स्मरण नहीं कि इसके पहले कभी मैंने रेवड़ियां शब्द का उपयोग अपने लेखन में किया हो। दरअसल, यह शब्द भी वैसे ही जैसे मेरे स्कूल के शब्द और गांव के शब्द। गांव में हम रबड़ी कहते हैं। हालांकि रबड़ी और रेवड़ियां में बहुत अंतर है। जबकि दोनों मिठाइयां हैं। रेवड़ियां मैंने आजतक नहीं खाई। दिल्ली में रेवड़ियां आसानी से मिल जाती हैं तो सोच रहा हूं कि एक दिन रेवड़ियां खाकर देख ही लूं।
रेवड़ियां दरअसल छोटी और ठोस मिठाई होती है। रबड़ी गाढ़ी होती है। रेवड़ियों का वितरण आसान है। यह तो मैंने दिल्ली में ही कांच की गोलियों के आकार के रसगुल्ले और गुलाबजामुन देखा है। पटना में तो राजभोग और दिलबहार जैसी मिठाइयां। इसकी वजह संभवत: यह कि दिल्ली में लोग अपने स्वास्थ्य की परवाह अधिक करते हैं।
असल में कल रेवड़ियों शब्द का उपयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का लोकार्पण करने के बाद एक जनसभा को संबोधित करते हुए किया। उनका कहना है कि कुछ राजनीतिक दल हैं जो रेवड़ियां बांटते हैं और जनता-जनार्दन को भ्रमित करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जो रेवड़ियां बांटते हैं, वे एक्सप्रेस-वे नहीं बनाने वाले, वे हवाई अड्डे नहीं बनानेवाले।
तो असल मामला यही है कि रेवड़ियों की परिभाषा क्या है? मैं यह सोच रहा हूं कि 2014 में 15 लाख रुपए खाते में डाले जाएंगे जैसे चुनावी वादे क्या थे? हालांकि बाद में अमित शाह ने खुद ही स्पष्ट कर दिया कि वे जुमले थे। यानी रेवड़ियां नहीं थीं। वैसे भी रेवड़ियां बहुत छोटी होती हैं। जुमलों का आकार बड़ा होता है। ठीक वैसे ही जैसे स्थायी नौकरियां और अग्निपथ योजना के तहत चार साल के लिए दी जा रही नौकरियां। संविदा के आधार पर अन्य क्षेत्रों की नौकरियों को भी रेवड़ियों की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए।
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अद्भूत हैं। उनकी खासियत यह है कि वह शब्द खोजते रहते हैं। उनके हर संबोधन में कोई ना कोई एक शब्द ऐसा जरूर होता है, जो अलग होता है। यह ऐसा इसलिए भी है कि बोलने के लिए नरेंद्र मोदी श्रम करते हैं। वे उन नेताओं के जैसे नहीं हैं, जो लगभग एक तरह की भाषा,शैली व शब्दों का उपयोग करते हैं।
दुखद यह कि प्रधानमंत्री केवल बोलने के लिए श्रम करते हैं। ऐसे ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश महोदय हैं। कल ही उन्होंने भी एक बात कही कि राजनीतिक विरोध को शत्रुता में नहीं बदला जाना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि आज विपक्ष के लिए जगह कम हो गई है। मैं यह सोच रहा हूं कि मुख्य न्यायाधीश किस तरफ इशारा नहीं कर रहे हैं। यह तो साफ है कि वह देश में मौजूदा विधायिका को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, जिसके सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी हैं। लेकिन यह तो है कि उनमें यह कहने की हिम्मत है।
ही एक शब्द मेरी प्रेमिका ने दिया और एक कविता जेहन में आयी–
खेत की पगडंडियों पर
चलने का अनुभव अलहदा होता है
और रात में करिंग* चलाना
आसान नहीं होता।
वैसे आसान तो कुछ भी नहीं
न सूरज का उगना
और ना शाम का ढलना।
दुनिया भर की चुनौतियां एक तरफ
और तुम्हारी मुस्कान
जो कि मेरी हिम्मत का स्रोत है
यह तुमसे बेहतर कौन समझेगा मेरी जान?
*नहर से खेतों में पानी पहुंचाने के लिए पैरों से चलाया जानेवाला पारंपरिक उपकरण।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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