शहर के बुद्धिजीवियों के जमावड़े में जलपुरुष राजेन्द्र सिंह का व्याख्यान
वाराणसी। पराड़कर स्मृति भवन सभागार में शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक समूहों के साझा समूह काशी विचार मंच के तत्वावधान में गंगा की मुश्किलों पर एकाग्र एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश के जाने-माने नदी-जल विशेषज्ञों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, इतिहासकारों और लेखकों-पत्रकारों ने शिरकत की।
कार्यक्रम की शुरुआत आशीष मिश्र के सुरों में गंगा-स्तवन से हुई। विषय-स्थापना करते हुए कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल ने कहा कि तीर्थ तीर्थ हैं ही इसलिए कि वहाँ जल है। शुद्ध जल के बगैर किसी जगह के तीर्थ होने की कल्पना असंभव है। नदियों के जल को साफ बनाना इस देश के युवाओं की जिम्मेदारी है। अगर सीवेज का गंदा पानी गंगा में लगातार गिरता रहा तो नौजवानों को अहिंसक और गैर राजनीतिक प्रतिरोध के माध्यम से उन्हें रोकने के लिए आगे आना होगा। यह भी संभव है कि उन्हें अवजल की पाइपों के सामने खड़ा होना पड़े।
विशिष्ट वक्ता संकटमोचन मंदिर के महंत प्रोफेसर विश्वंभरनाथ मिश्र ने कहा कि गंगाजी हमारे जीने का माध्यम हैं। गंगा की 2525 किलोमीटर लंबी जीवनधारा में से बनारस में पड़ने वाला 5 किलोमीटर लंबा हिस्सा धर्म, अध्यात्म, संस्कृति और नदी की सेहत से लिहाज से बहुत जरूरी है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इस महत्व को जानकार ही गंगा कार्ययोजना का आगाज 1986 में बनारस से ही किया था। लेकिन बाद की सरकारों ने योजनाओं का नाम बदलने और विचित्र अवैज्ञानिक रास्तों पर चलने में दिलचस्पी ली। 2014 के बाद दीनापुर और सतवाँ में बने दो बड़े सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का हाल हमें मालूम ही है। बनारस में गंगा की दो सहायक नदियां-असि और वरुणा-गंगा की धारा को नियमित करने और घाटों से गंगा की सिल्ट को हटाने का काम प्राकृतिक ढंग से करती रही हैं। अब नहर निकालकर गंगा के इकोसिस्टम के साथ जो खेल हो रहा है वह हमें बहुत महंगा पड़ेगा।
इतिहासकार मोहम्मद आरिफ ने बताया कि गंगा सिर्फ बहते हुए पानी का नाम नहीं है, हमारी पहचान है और उन्हें सिर्फ पैसे से साफ नहीं किया जा सकता। उन्नीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर गालिब ने गंगा और बनारस की पवित्रता से अभिभूत होकर ही चिराग-ए-दैर अर्थात मंदिर का दीया जैसी विलक्षण कृति की रचना की। अकबर और औरंगजेब ने तब जल की सफाई के लिए वैज्ञानिक नियुक्त किये थे और इसके औषधीय गुणों को पहचानकर ही इसे नहर-ए-बिहिश्त, यानी स्वर्ग की नदी माना था।
मुख्य वक्ता, जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह ने विकास के तथाकथित मॉडल को विनाशकारी बताते हुए उसकी निंदा की। उन्होंने कहा कि जब भी भारत पर संकट आया है, काशी के विद्वतजनों ने सामने आकर नये रास्ते खोजने की कोशिश की है। बनारस को निडर होकर गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ खड़ा होना होगा और इस अभियान को रोजाना गतिविधियों और नयी सूझ के साथ जोड़ना होगा। बनारस सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों की ही नहीं, हमारी अंतर्राष्ट्रीयता की भी राजधानी है। साफ नदी जल और खोई हुई पहचान को वापस पाने के लिए हमें संघर्ष करना होगा।
अपने सुचिंतित व्याख्यान में राजेन्द्र सिंह ने गंगा की अविरलता के लिए हुए संघर्षों और प्रोफेसर 2014 के बाद की क्रूर सियासत में प्रोफेसर जी डी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद जैसे पर्यावरणविदों की शहादत को याद किया। उन्होंने कहा कि जब एक कम बोलने वाला शरीफ इंसान भारत का प्रधानमंत्री था तो उसने हमलोगों के नेतृत्व में चले जनांदोलन के बाद हमसे हुई बातचीत के असर में उत्तराखंड में बन रहे चार बाँधों का निर्माण कार्य तत्काल हमेशा के लिए रोक दिया था। और जो आदमी यह चीख-चीखकर बतलाता फिरता है कि गंगा का असली बेटा वही है और उसे माँ गंगा ने ही काशी में बुलाया है, उसने गंगा की दुर्गति करने का कोई भी काम बाकी नहीं छोड़ा है।
उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी ने सन 72 के पहले विश्व पृथ्वी सम्मेलन में स्वीडन की संसद और राष्ट्रपति भवन के बीच बहती स्टॉकहोम नदी की सफाई से प्रेरित होकर गंगा से ही नदियों की स्वच्छता के एक अभियान का सूत्रपात किया, जिसे 1986 में गंगा कार्ययोजना का रूप देकर राजीव गाँधी ने अमली जामा पहनाया। कुछ राजनीतिक विश्लेषक माँ की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर को राजीवजी की जीत की वजह बताते रहते हैं, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि राजीव ही पहले राजनेता हैं जिन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में नदियों के आध्यामिक और सांस्कृतिक महत्व को पहचानते हुए उसकी सफाई के मुद्दे को जगह दी। जनता ने इस लगाव और सपने को पहचाना था और कांग्रेस की यादगार जीत हुई थी। अध्यक्षता करते हुए आचार्य विवेकदास ने कबीर की कविताओं के हवाले से पर्यावरण की चिंताओं को अनेक सन्दर्भों में याद किया।