तमनार विकासखंड में महाजेनको यानी महाराष्ट्र स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड को खनन के लिए 2015 में खदान आबंटित हुई है। तमनार विकासखण्ड में कुल 8 कोयला खदानें हैं। जिसमें एक को छोड़कर शेष सात खदानों पर खनन का काम चल रहा है। महाजेनको द्वारा जिन क्षेत्रों में खनन काम होना है, उनमें घनी आबादी वाले गाँव सरईटोला और मुड़ागाँव भी हैं, जहां से लोगों को या तो विस्थापित कर उनकी जमीनें ले ली गईं हैं या लिए जाने की तैयारी है।
यह कल्पना करना बहुत कठिन नहीं है कि किसी के लिए भी अपना वह गाँव छोड़ना बहुत यातनादायक होता है जहां वह कई पीढ़ियों से रह रहा हो। मुड़ागाँव के आदिवासी समुदाय से आने वाले सितंबर प्रसाद ने बताया कि ‘हमारा गाँव आदिवासी राजा के जमाने से है। मेरी पैदाइश यहीं की है। ठेठ रूप से जल, जंगल,जमीन से जुड़ा हुआ हूँ। मेरे पिताजी खेती-किसानी करते थे। धान बोते थे। जंगल से वनोपज, महुआ, चार, तेंदू आसानी से मिल जाता था और इसे इकट्ठा कर बाजार में बेचते थे। लेकिन अब जंगल कम बचे हैं और जो जंगल बचा हुआ उसमें प्रदूषण के चलते उत्पादन भी कम हो रहा है।’
30-35 एकड़ का मालिकाना हक रखने वाले सितंबर प्रसाद से जब मैंने पूछा कि आपका गाँव तो खनन क्षेत्र में आ गया है, ऐसे में इतने प्रदूषण में रहने से अच्छा है कि आप इसका मुआवजा लेकर शहर में ही क्यों नहीं बस जाते। वहाँ तो बहुत सारी सुविधाएं भी हैं। इस बात के जवाब में उन्होंने कहा कि ‘हम आदिवासी हैं और हमारा जुड़ाव जल, जंगल, जमीन से है। हमारे देवता यहाँ बसते हैं। यहाँ जो शांति और सुख है वह शहर में कहाँ है? हम आदिवासी शहर में नहीं रह सकते। चाहे कितनी भी सुविधा हो, गाँव में हमारी जड़ें हैं। यहाँ हम बहुत अच्छे से रह सकते हैं। रीति-रिवाज, संस्कृति, पुरखे सब यहाँ है। गाँव जैसी सहजता शहर में कहाँ?’
हर आदमी का यही सवाल है। यहाँ से जाएंगे तो कैसा होगा जीवन? जीवन के लिए साफ हवा और शुद्ध पानी के साथ हरियाली बहुत जरूरी तत्त्व है लेकिन जब-जब विकास किया जाता है, तब-तब प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ प्राणिमात्र के जीवन को भी नुकसान पहुंचाया जाता है। विज्ञान ने जितनी खोजें की हैं, उनका उपयोग मनुष्य के लिए उपयोगी होने के साथ हानिकारक भी रहा है। सिंचाई जरूरी है लेकिन उसके लिए नदियों पर बांध और नहरें जरूरी हैं। बिजली जरूरी है लेकिन उसके उत्पादन के लिए कोयला जरूरी है। ज़ाहिर है इन जरूरतों को पूरा करने के लिए बसे-बसाये गाँव और ग्रामीण सभ्यता का विस्थापन जरूरी बना दिया गया है।
रायगढ़ जिले के तमनार और घरघोड़ा ब्लॉक में कोयले की अनेक खदानें हैं। उन कोयला संसाधनों पर सैकड़ों गाँव बसे हुए हैं। लगातार खनन के लिए लोगों का विस्थापन कंपनी अपनी शर्तों पर कर रहा है। गाँव के विस्थापन का मतलब गाँव का नक्शे से खत्म हो जाना और विस्थापित व्यक्ति के लिए यह एक तरीके से मौत है। जिसे अपनी जमीन से विस्थापित कर दिया जाता है, संबंध उस जगह से उसका भावनात्मक जुड़ाव और रिश्ता होता है। भले ही विस्थापन के लिए मुआवजा दिया जाता है लेकिन व्यक्ति की भावनाओं का कोई मुआवजा और मूल्य नहीं आँका जा सकता।
सरईटोला और मुड़ागाँव के लोगों से मिलने के लिए हम भींगते हुए निकले। खपरेल से छाई हुई एक दुकान की पक्की परछी में एक बड़ी सी खिड़की पर गाँव का जनरल स्टोर था, जिसमें एक अधेड़ स्त्री बैठी आने वालों को सामान दे रही थी। बाद में उस स्त्री के पति वहाँ आ गए। आमतौर पर गाँवों में दुकानें बहुआयामी होती हैं। इन दुकानों में पान-बीड़ी राशन और छोटी-मोती जरूरत का हर सामान मिल जाता है। यहाँ पहुँचने पर देखा चार-पाँच व्यक्ति ही इकट्ठे हुए थे और इंतजार कर रहे थे, जबकि मेरे साथी ने पहले ही फोन पर गाँव वालों को सूचना दे दी थी। पता चला जिनको फोन किया था उन्होंने पहले ही बता दिया था कि गाँव में आधे से ज्यादा लोग बुआई के लिए अपने-अपने खेतों में गए हुए हैं। इसीलिए कुछ पुरुषों से ही मुलाकात हो पाई। एक भी स्त्री घर पर नहीं थी।
सविता रथ ने हँसते हुये कहा कि लोग कहते हैं स्त्रियाँ कंधे से कंधा मिलाकर पुरुषों के साथ खड़ी रहती हैं लेकिन यहाँ उससे भी आगे का मामला है। यानी स्त्रियाँ किसानी के मोर्चे पर और पुरुष घर में। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि खेती-किसानी के काम में स्त्रियाँ की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। यह और बात है कि उन्हें किसान की श्रेणी में नहीं रखा जाता। समाज में पुरुषों को ही किसान माना और समझा जाता है। पूरी दुनिया ने देखा कि पिछले 2020-21 में साल भर से ज्यादा चला किसान आंदोलन में स्त्रियों की भारी तादाद शामिल रही है।’
बहरहाल, मुड़ागाँव में समय पर अच्छी बारिश हो रही थी और खेती-किसानी का काम भी सही चल रहा था। उपस्थित लोगों से बातचीत शुरू हुई। मैंने उन लोगों से यह जानना चाहा कि जिस तरह खनन के काम के लिए कंपनी गाँव-गाँव में सर्वे करवा कर ग्रामीणों में दहशत भर रही है। ऐसे समय में ग्रामीण क्या सोच रहे हैं और कैसे आगे की रणनीति तय करेंगे?
70 वर्ष के गोकुल सिदार से जब बातचीत शुरू की तो वे हिन्दी में एक लाइन बोलकर रुक गए। तब मैंने कहा कि आप छतीसगढ़ी में ही कहिए। जैसे ही अपनी बोली में बोलना शुरू किये बहुत ही सहज होकर अपने मन की बात कह गए।
हमर पुरखा मन इहाँ कमात-खात रिहिन, हमु मन कमात खात आत हन और आघु भी कमात खात रहिबो। इहाँ के जंगल-झाड़ी ले हमर सब काम हो जात रिहिस,कभु बाहिर जाए के जरूरत नी पड़िस। मोर 6-7 एकड़ खेती हे, ओहि म गुजारा हो जात हे। अब ए जो कंपनी मन आथ हे, सोझे (बेकार में) ल हमन ल बिठारत हन। जंगल से कांदा-कुसा लानत हन, लकड़ी-पट्टा मिलत हे।’
‘गाँव से बाहर कभी गए हैं?’ पूछने पर हँसते हुए उन्होंने कहा – ‘कहाँ जाबो, हमन त इहाँ पैदा होय हें और खूंटा गाड़कर बइठन हे।’
विस्थापित होने की आशंका से ग्रस्त मुड़ागाँव और सरईटोला के लोग बताते हैं कि एक तरफ कंपनी के लोग गाँव में आते-जाते अपनी उपस्थिति जताते हुए बताते हैं कि खाली तो करना ही पड़ेगा तो दूसरी तरफ सरकारी अमला जब-तब गाँव में पहुंचकर गाँववासियों पर मुआवजे की बात कह कर उन पर दबाव बनाता है। लेकिन ग्रामीणों को अब पेसा कानून और ग्रामसभा की ताकत का अंदाजा लग चुका है। इसलिए बातचीत हुई तो कई लोगों ने कहा कि ग्रामसभा में सभी ने एकमत हो एक टुकड़ा भी नहीं देने का निर्णय किया है।
वे कहते हैं कि जिन खदानों में खनन हो रहा है, वह विकास के लिए नहीं बल्कि विनाश के लिए है। इतना प्रदूषण है कि कई प्रकार की बीमारियाँ हो रही हैं। सांस से संबंधित बीमारी है। बाल झड़ रहे हैं। प्रदूषण से खेती पर भी असर दिखाई दे रहा है। उत्पादन तो कम हुआ ही है, गुणवत्ता में भी गिरावट आई है।’ सितंबर प्रसाद सिदार ने बताया और ज़ोर देकर कहा कि ‘इसके बाद भी हम अपना गाँव छोड़कर नहीं जाएंगे।’
गोकुल सिदार कहते हैं ‘जंगल ले तेंदू,चार, महुआ मिलत हे लेकिन पहिले से कम हो गिस हे।’ मैंने पूछा – ‘आप जाते हैं?’ ‘अब मे तो जा नी सकूँ लेकिन जवइया मन जाथन अउ मे हर त अब नी सकों। डेढ़-दो महिना पहिले कंपनी वाला मन सर्वे करे बर आय रिहिन, कहथ हें, हमन इ जमीन ल लेबो। हमन नी दें कहत हन। उन्होंने बताया कि हमारी जमीन के नीचे कोयला है, हम जमीन लेकर कोयला निकालेंगे। मैंने कहा ‘मुआवजा तो बहुत दे रहे हैं।’ इतना सुनते ही उन्होंने तुरंत कहा – ‘हमन अपन परिवार ल कैसे पोसबो (पालेंगे)? कहाँ जाबो? मुआवजा के पइसा ल थोड़ी खाबो? दूसरी जगह जमीन देने के सवाल पर उनकी प्रतिक्रिया थी -अब कोन दुसर गाँव में जमीन पाबो और पूरा गाँव वाला मन ला कहाँ जमीन मिलही। कोन दिही जमीन पूरा बस्ती के ला? पूरा बस्ती के मन हर मना कर दिन हें कि हमन नी दें जमीन ल।’(कौन से दूसरे गाँव में जमीन मिलेगी और पूरे गाँव वालों को कौन जमीन देगा? सभी लोगों ने मना कर दिया है की हम जमीन नहीं देंगे)।
गोकुल सिदार कहते हैं ‘फेक्टरी और कोयला के धुआं एतका प्रदूसन करत हें कि कपड़ा मन काला हो जात हें और नाना किसिम के बीमारी तो होत हे, अब देख, में हर रेंगत हों (चलता हूँ) तो सांस हर भर जात हे। डागटर ल दिखाए बर पडत हे, गोली दवाई खात हों। एक खर्चा हर बाढ़ गिस। पेंशन मिलथे लेकिन दू सो-अढ़ाई सो रुपिया, का होही ओमे। आधे-अधूरा राशन याने चावल, शक्कर, चना मिलथे का होही ओमे, नी देतिस। देना रिहिस त सब दाल, तेल घलो देतीस, भात ल सुक्खा थोड़ी खाबो। अउ हमन त कहत हन कि हमर लइका ला काम-बुता दे दितिस।’ ( प्रदूषण से कई बीमारियाँ हो रही हैं,चलने में सांस भर जाती है। डॉक्टर का एक खर्चा बढ़ गया है। 200-250 रुपये पेंशन में क्या होता है? राशन भी आधा-अधूरा मिलता है। राशन देना था तो चावल, चना, शक्कर के साथ दाल तेल भी देते, सूखा भात थोड़ी खायेंगे। मैं तो चाहता हूँ राशन के बदले हमारे बच्चों को काम-धंधा देते।)
लोगों के मन में भविष्य को लेकर आशंका तो है ही क्योंकि आजीविका का कोई स्पष्ट विकल्प नहीं है। एक बार मुआवजा ले लेने के बाद अपने लिए उपयुक्त जगह की तलाश करना और घर बनवाना नए सिरे से सबकुछ करना होगा। ज़िंदगी कोई सामान नहीं है कि यहाँ से उठाए और वहाँ पटक दिये।
जहाज राम भगत कहते हैं कि ‘सात पीढ़ी से यहाँ रह रहे हैं। मेरी थोड़ी जमीन है उसमें खेती करता हूँ और दूसरे के खेत में मजदूरी भी करना पड़ता है क्योंकि अपने खेत से गुजारा नहीं हो पाता। जहां खदान है वहाँ खेतीबाड़ी की जमीन थी। खनन क्षेत्र में आने के बाद जिनकी जमीन गई, उन्हें मुआवजा मिला। प्लांट तो आ रहा है लेकिन हम जाएंगे कहाँ और बसेंगे कहाँ? हम अपने गाँव में ही अच्छे हैं।’
भगत कहते हैं कि ‘देश के जिस हिस्से में भी जमीन के अंदर खनिज संसाधन होने का पता लगता है, वहाँ रह रहे समुदाय को विस्थापित करने का काम शुरू हो जाता है। इसकी चपेट में हमेशा से ही जल, जंगल, जमीन से जुड़े आदिवासी समुदाय के लोग ही आते हैं। हमारे देश में खनन का काम से सबसे अधिक प्रभाव पर्यावरण पर दिखाई देता है लेकिन विकास के नाम पर इसे नज़रअंदाज किया जाता है। साथ ही विस्थापित लोगों को उचित और समयानुसार मुआवजा न देकर मानवाधिकारों का खुले आम उल्लंघन किया जाता है।’
मुड़ागाँव के बुज़ुर्ग बोधन का कहना था कि ‘जब ले बस्ती हर बेठीस हे, तब ल रहत हन, हमर पुरखा मन। नारा गड़हा ढोरा डीपा जम्मो ल सम कर, डोली बनाय हें। बने बनाए सकें हें त कमात-खात कयामत-खात आथ हन ((जब से बस्ती बनी है, तब से हमारे पूर्वज यहाँ रहते आये हैं। नाला, गड्ढा, जमीन को समतल कर रहने योग्य बनाए हैं। बहुत अच्छे से बनाए हैं तभी तो कमाते-खाते आ रहे हैं) पहिले त जंगल-वंगल जात रहों, उहाँ ले केंदु(तेंदू), महुआ, चार, मुखारी, पान लकड़ी अपन उपयोग बर ले आत रहन। 3 एकड़ जमीन हे, बोर(tubewell) कोड़ दीन हे तो दू फसल ले लेथों, ओही में गुजारा हो जात हे। मैंने पूछा इहाँ खदान आ गिस हे, का असर दिखत हे? इतना पूछना था कि बोधन बहुत ही नाराजगी भरे लहजे में बोले – जोन दिन ले खदान आइस हे, वोही दिन ले बीमारी हर आ गिस है। कोयला के जतका धुआँ आथे, फसल ऊपर जात हे, वोहू ला खाए बर पड़त हे। पेट के जम्मो बीमारी हो जाथ हे, खासंत हे,खखार के थूकतों तो काला कोयला हर निकलत हे। नुहाये (नहाने) के पानी हर काला हो जाथ हे। देह में खुजली होत हे।
अउ इहाँ ब्लास्टइंग होते, तब लाल झंडी दिखा के हटा देथें। जब होथे तब पूरा घर हर हिल जाथे, तब लगत हे कि दीवाल मन गिर जाही, ए ब्लासटिंग रोज होथे।
कंपनी वालों ने आप लोगों को काम करने या देने के लिए नहीं कहा –हमन ला नी बोलिन हे और न ओकर काम ला हमन करन। हमर त खेती-किसानी हे, ओही हर ठीक लगत हे। जमीन ले बर,ओकर सर्वे कर बर आईं रहीन, हमन नी दइन, जमीन देबो तो कहाँ ठन जीबो? ओमन कहिन कि जीए-बसे बर घर देबो, त रहे-बसे बर घर दिही त घर ल तोड़-तोड़ के आबचाब के थोड़ी खाबो। मुड़ागाँव में जइसे-जइसे हमर गाँव के मइसन मन के जमीन हे,ठीक वैसा ही हमन ल दे दे। पूरा गाँव ठीक इसने ही बनाकर दे दे। जहां बसाही वहाँ हमन ला ढोरा-नारा खपटे बर झिन लागही। ठीक करके दे देन तब तो हमन जा सकथ हन। लेकिन ए बात ला हमन अपन ग्रामसभा के बैठक में में कहे हन। सब मन तय कर लिन हे कि हमन ला नी बेचना हे। (हम लोगों को नहीं कहे हैं और न हम उनका काम करेंगे। हमारा खेती का काम ही ठीक है। सर्वे करने आये थे।कहे कि गुजारा करने के लिए घर देंगे लेकिन हम घर की दीवालों को चबा कर थोड़ी पेट भर सकते हैं। बिलकुल हमारे मुड़ागाँव जैसा गाँव बनाकर दें, जिसकी जितनी जमीन है उतनी जमीन दें। जहाँ हमको बसायेंगे वहां हमको फिर से जमीन को समतल और रहने योग्य न करने पड़े। लेकिन ग्राम सभा में सबने तय कर लिया है कि हमको अपनी जमीनें नहीं देना है।
गनपत की उम्र पचास साल है। वह ज़मीन लेने की प्रक्रिया को लेकर काफी आक्रोश में दिखे। वे कहते हैं कि – जमीन त निच्च दें हमर जियत ले। यानी जीते जी मैं ज़मीन नहीं दूँगा।’ ‘कौन मांग रहा है जमीन?’ जवाब में याद करते हुए उन्होंने कहा अदानी। गनपत ने गुस्से में कहा कतको बड़े आदमी मांग ले लेकिन नी देबो। मैंने पूछा क्यों? कहा – दे देंगे तो कमाएंगे कहाँ से। का ला खाहीं मोर नाती,पंती छँती मन। मैंने उन्हें टटोलते हुए पूछा कि यहाँ विकास होगा तो स्कूल-कॉलेज खुलेगा। अस्पताल बनेगा। आपके बच्चे पढ़ेंगे लेकिन उसने एक बात कही – पढ़ाए-लिखाए ल सकबो तब तो। जवाब तो उसने एकदम सही कहा, आज की शिक्षा व्यवस्था में गरीब बच्चों के लिए शिक्षा कहाँ है। प्लांट खुलने के बाद वहाँ स्कूल,अस्पताल सब खुला लेकिन गाँव और गाँव के बच्चों के लिए ये नहीं रहता।
अब तो जंगल से लकड़ी भी नहीं ला पा रहे हैं, कंपनी के लोग जंगल को काट दे रहे हैं। प्रदूषण तो बहुत है, पीने का पानी इतना खराब है कि लोगों का दांत रंग जा रहे हैं। यही सब कारण से गाँव के सभी लोग ग्रामसभा में निर्णय कर लिए हैं कि जमीन नहीं देंगे।
मुड़ागाँव में पुरुषों से बातचीत करने के बाद मैं सरईटोला पहुंची। यह भी एक बड़ी आबादी वाला गाँव है लेकिन इसके सिर पर भी विस्थापन की तलवार लटक रही है। महिलाएं खेतों से काम करके वापस आ चुकी थीं। हमारी मुलाक़ात विद्यामति राठिया, ललिता और गणेशवति चौहान से हुई। महिलाएँ लगातार विस्थापन के खतरे को महसूस कर रही हैं लेकिन उनके भीतर कंपनी के रवैये और सरकार की नीतियों को लेकर भारी आक्रोश है। उनकी बातचीत से लगा कि हर नए आने-जानेवाले के प्रति उनके मन में संदेह है।
विद्यामति राठिया ने बात करने पर पहले तो कुछ भी बताने से इनकार कर दिया और उल्टे मुझसे ही पूछताछ कर डाली। संतुष्ट होने के बाद ही बात करने को तैयार हुई। कारण पूछने पर कहा कि एक दिन कंपनी के लोग आए थे। अभी बिहाने आइन रिहिन, खेत ला कोड़ के तालाब बनाही कहत रहीं लेकिन हमन जम्मो मन पहुँच के ओमन ला लड़ के भगा दें। हमन काबर देबो अपन जमीन ला, हमर पुरखा के जमीन हे, उन्होंने सवाल उठाया कि कंपनी मुआवजा के रूप में केवल एक बार ही नौकरी देगी। एक बार नौकरी देने के बाद नाती-पोते को नौकरी नहीं देगी। जमीन रहने से हमारी आने वाली पीढ़ी अपना काम कर जीवन यापन कर सकता है। जमीन दुबारा तो खरीद नहीं सकते।
विद्यामति कहती हैं ‘यहाँ हमारी खेती-बाड़ी है इसलिए अच्छा लगता है। शहर में कितनी भी सुविधा क्यों न हो लेकिन हम लोगों को झोपड़ी वाला खुला खुला घर आँगन, कोला-बाड़ी ही अच्छा लगता है।’
वे बताती हैं कि ‘कोयला खनन और प्लांट के धुएं से सांस की बीमारी बढ़ रही है। बाल झड़ रहे हैं, खुजली और दूसरी कई तरह की बीमारी हो रही है। पानी के ऊपर कोयले की एक परत जम जाती है, जिसके उपयोग से नुकसान हो रहा है। कंपनी वाले स्कूल-कॉलेज खोलेंगे लेकिन हम लोग नहीं चाहते हैं क्योंकि उनकी सुविधा का उपयोग करने पर हमारे ऊपर दबाव बनेगा। खोलेंगे तो मुफ़्त तो पढ़ने की सुविधा नहीं देंगे, फीस लेंगे। हम कहाँ से देंगे इतनी फीस। हमारी जमीन है, हमारा कोयला है लेकिन उस पर कंपनी वाले अपना अधिकार बनाना चाहते हैं। हम लोग कोयला सत्याग्रह हर साल दो अक्टूबर को करते हैं।’
इसी तरह बोलने में संकोच करती ललिता मुश्किल से बोलने को तैयार हुईं। जबकि गाँव की हर लड़ाई में वे साथ देती हैं। संकोची सी हँसते हुए उन्होंने कहा ‘आज तो लड़े ही हैं उन लोगों से जो हमारे खेत की मेड़ तोड़ने के लिए आए थे। तालाब बनाने आए थे, उन्हें लड़कर भगाया है। लेकिन लंबी लड़ाई चल रही है। जिंदल से, सारडा कंपनी से। वे हम लोगों को यहाँ से भगाकर हमारी जमीन लेना चाहते हैं।’
एक बात ललिता ने और बताई कि ‘यहाँ पानी में फ्लोराइड बहुत अधिक है,जिससे यहाँ रहने वालों के दांत और हड्डियाँ प्रभावित हो रही हैं‘’ मैंने भी ध्यान दिया कि ललिता के साथ और लोगों के दांतों में फ्लोराइड का असर दिख रहा था। पहले तो गाँव वालों को मालूम नहीं चल पा रहा था कि हड्डियों के टेढ़े होने और दांत के खराब होने का क्या कारण है? लेकिन 7-8 साल पहले जब इसकी जानकारी हुई तो यहाँ पीने के पानी साफ करने वाली दो मशीनें (वॉटर प्यूरीफाइ) लग गया है।
साठ वर्ष से ज्यादा हो चुकी गणेशमति चौहान को जीवन का बहुत अनुभव है। इसका पता उनके द्वारा व्यक्त विचारों से चला कि वे दबंग किसानिन हैं। दादी, नानी बन चुकी गणेशमति कोयला खनन के लिए आ चुकी अनेक कंपनियों के ठगे जाने से बहुत नाराज दिखीं। गाँव प्रदूषित तो हो ही रहा है लेकिन कंपनी ऊंट के मुंह में जीरा जितना मुआवजा देकर जमीन लूटना चाहती है। गुस्से में उन्होंने कहा कि आदिवासी को अभी तक सीधा समझकर बहुत लूटे हैं लेकिन अब नहीं। हमको एक लाख-दो लाख देकर खुद अरबपति बन रह हैं। हमको दे दें कोयला निकालने का काम और हमसे खरीदकर ले जाएँ।’
विकास के नाम पर भू-अधिग्रहण के अनुभव, परिदृश्य और सबक : रणकौशल का सवाल
उन्होंने बताया कि ‘2007-2008 से हम लोग कंपनी का विरोध कर रहे हैं। जितनी जमीन है कंपनियाँ उसे खोदकर खत्म कर दे रही है। जंगल, झाड, पानी सब बेकार हो रहा हैं। हम नदी-तालाब में नहाते थे उसमें पूरा कोयले का पानी आ रहा है। बोर के पानी में भी कालिख निकलती है। पहले जंगल हराभरा था। खोंखड़ी, पुटू, चार-कांदा, महुआ, डोरी, हर्रा-बहेड़ा सब बीनते थे और उपयोग में लाते थे लेकिन अब जंगल खत्म हो गया है। दवाई-दारू-जड़ी-बूटी सब मिल जाता था। सरई का पान (पत्ता) खत्म हो रहा है, उससे पहले दोना-पत्तल बनाकर कमाते थे। साथ ही बड़े-बड़े सामाजिक कामों में उपयोग में लाते थे। सरई का दातुन खत्म हो गया।’
गणेशमति बताती हैं कि ‘2007-08 में खम्हारिया में लाठी चार्ज हुआ था। रायपुर, बिलासपुर सब जगह जाकर रैली निकालकर कंपनी का विरोध करते रहे हैं। यहाँ नई-नई कंपनी आ रही है और अपने-अपने साधन गाड़ रही है।’ वे हाथ के इशारे से उनके लगाए सोलर पैनल दिखाती हैं और फिर कहती हैं ‘कितनी भी कंपनी आए सबसे लड़ेंगे। हम चाहते हैं कोयला कोड़ कर हम देंगे, कंपनी हमसे खरीदे।’
उन्होंने बताया ‘गारे में हम लोग कंपनी भी खोले हैं और कुछ समय तक कोयला निकाले भी लेकिन कंपनी ने हमारा कोयला नहीं खरीदा और बंद करवा दिया। फायदा कंपनी लेना चाहती है। एक एकड़ जमीन की कीमत अस्सी हजार-साठ हजार देकर हम लोगों को ठग रही है। हजार देकर अरबों कमाना चाहती है। यदि कोयला हम बेचें तो अपना विकास हम खुद कर सकते हैं। लेकिन यह सरकार और कंपनी के मिलीभगत है।’
ये केवल दो गाँव के कुछ लोगों की बातें हैं। आदिवासियों की ऐसी हजारों कहानियाँ हमारे देश में सामने नहीं आ पा रही हैं। हर कहीं उन्हें किसी न किसी तरह दबाकर और सजा का डर दिखाकर चुप कराया जा रहा है। चाहे गारे-पेल्मा की खदानें हों, सरगुजा में बॉक्साइट की खदानें हों या हसदेव का जंगल हो।
छतीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, असम में विकास के नाम पर लगातार खदानें खोदकर विस्थापन का काम जारी है। आदिवासी प्रकृति प्रेमी और खुली जगह पर रहने वाले हैं लेकिन पुनर्वास की व्यवस्था में उन्हें जमीन का मुआवजा देकर, रहने के लिए एक छोटा सा घर दिया जा रहा है, जिसके लिए वे तैयार नहीं है।
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