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हिन्दी प्रदेश के तीन राज्यों में भाजपा की जीत आगामी लोकसभा चुनाव पर क्या असर डालेगी

पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की जीत ने 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर कयासबाज़ी को तेज कर दिया है, जिसमें सबसे ज्यादा सवाल इंडिया गठबंधन को लेकर पैदा हो रहे हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ कारगर रणनीति के मामले […]

पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की जीत ने 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर कयासबाज़ी को तेज कर दिया है, जिसमें सबसे ज्यादा सवाल इंडिया गठबंधन को लेकर पैदा हो रहे हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ कारगर रणनीति के मामले में इंडिया गठबंधन के दो घटक सपा और कांग्रेस का क्या रवैया होगा इसका जवाब फिलहाल मुश्किल है। 

देश में लोकसभा चुनाव 2024 से ठीक पहले हुए मध्य भारत के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत और दक्षिण के एक राज्य में कांग्रेस की जीत के जीत के बाद देश की राजनीति पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर बहस शुरू हो गई है। इन चुनावी नतीजों का प्रभाव सबसे पहले और सबसे अधिक उत्तर प्रदेश की राजनीति में देखने को मिल सकता है, जिसके कारण विपक्षी गठबंधन इंडिया में दरारें साफ़ दिखाई दे रही हैं।

प्रदेश की प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में लोकसभा चुनाव के लिए समझौता हुआ है। दोनों ही विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सीट बंटवारे को लेकर दोनों के रिश्तों में खटास आ गई। दोनों दलों के नेताओं ने एक-दूसरे पर बेतुकी बयानबाज़ी शुरू कर दी। मध्य प्रदेश चुनाव अलग-अलग लड़ा गया और हार का सामना भी किया गया।

लेकिन आने वाले दिनों में 80 लोक सभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश की राजनीति का न सिर्फ़ देश की राजनीति पर प्रभाव होगा, बल्कि इससे सपा और कांग्रेस का भविष्य तय होगा। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में  तीन दशक से अधिक समय से सत्ता से दूर है, जिसके कारण उनका संगठन भी कमज़ोर हो गया है। वर्तमान में यूपी की 80 लोकसभा सीटों उसके पास मात्र एक सीट है। वर्ष 2019 में पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रायबरेली से चुनाव जीता था। कांग्रेस की खस्ता हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस के पास केवल दो सीट और 3.25 प्रतिशत वोट शेयर हैं।

सपा की स्थिति कांग्रेस जितनी ख़राब नहीं है, लेकिन वह भी 2017 से प्रदेश की सत्ता से दूर है। पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने इस बीच कई प्रयोग किए, जैसे 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन और 2019 लोकसभा चुनावों में मायावती की बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिलाना। लेकिन इसका कोई ख़ास लाभ उनको नहीं मिला। हालांकि, 2022 विधानसभा चुनावों में सपा ने कई जाति आधारित पार्टियों से हाथ मिलाया और उसके पक्ष में माहौल भी बना, लेकिन बीजेपी की भगवा राजनीति के सामने वह टिक नहीं सकी और उसको केवल 111 सीटें हासिल हुईं। हालांकि, इस चुनाव में सपा के वोट शेयर में बड़ा उछाल आया। वह 2017 के 21.82 प्रतिशत के मुकाबले 2022 में 32.06  प्रतिशत तक पहुँच गई।

दरअसल, क़रीब तीन दशकों से अधिक समय से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर रहने के कारण कांग्रेस, केंद्र और राज्य, दोनों की राजनीति में कमज़ोर हुई है। प्रदेश में उसका संगठन न सिर्फ़ कमज़ोर हुआ है, बल्कि ख़त्म हो गया है। कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में खुद को फिर से स्थापित करने का प्रयास कर रही है, जिसके लिए उसको अपने पुराने वोट बैंक को संगठित करना होगा।

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यूपी में एक दशक पहले कांग्रेस के तीन मुख्य वोट बैंक- ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित हुआ करते थे। अयोध्या आंदोलन के ‘ब्राह्मण’ बीजेपी के साथ चले गए और बहुजन आंदोलन के चलते दलित बीएसपी में शिफ्ट हो गए। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुस्लिम सपा के समर्थक हो गए।

अब कांग्रेस प्रयास कर रही है कि मुसलमानों को कांग्रेस में वापस लाया जाए, क्योंकि 19-20 प्रतिशत मुस्लिम प्रदेश की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। माना जा रहा है कि इस समय मुस्लिम सपा से नाराज़ हैं, जिसके कई कारण हैं, जैसे नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध हुए प्रदर्शनों में सपा प्रमुख अखिलेश यादव का खुलकर सड़क पर नहीं आना और आज़म के समर्थन में कोई आंदोलन नहीं करना आदि।

कांग्रेस इस नाराज़गी का फ़ायदा उठाना चाहती है। उसका प्लान यह है कि अगर सपा से नाराज़ मुस्लिम और मायावती की निष्क्रियता से नाराज़ ‘जाटव’ दलित उसके साथ आ जाए तो प्रदेश में उसकी ताक़त कुछ बढ़ेगी। वह फ़िर गठबंधन में सीटों की सौदेबाज़ी में अधिक सीटों पर दावा कर सकेगी।

ऐसा देखा गया है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद से मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ हुआ है। नगर निकाय चुनावों में मुरादाबाद जैसी मुस्लिम बाहुल्य वाली सीट पर कांग्रेस को अच्छा-खासा वोट मिला है, जो सपा के लिए चिंता का विषय है। इसके अलावा सपा रामपुर और आज़मगढ़ जैसी मुस्लिम बाहुल्य वाली सीटों पर उप-चुनावों में हार गई।

बता दें, प्रदेश में 21-22 प्रतिशत दलित आबादी है, जिसमें मायावती के पास अब केवल क़रीब 12 प्रतिशत ‘जाटव’ वोट बैंक रह गया है। बाकी क़रीब 10 प्रतिशत ‘ग़ैर-जाटव’ का एक बड़ा हिस्सा 2014 में नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश के साथ बीजेपी में चला गया और एक छोटा हिस्सा अखिलेश की पार्टी में चला गया।

कांग्रेस दलित और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि अगर 80 के दशक की तरह यह दोनों समुदाय वापस उसके साथ आ जाएँ तो बीजेपी पहले की तरह मात्र 2 लोकसभा सीटों पर सीमित हो जायेगी। पार्टी के नेताओं का मानना है दलित-मुस्लिम वोट के बंटवारे से साम्प्रदायिकता को बल मिला है।

यही कारण है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस, दोनों के इंडिया गठबंधन में होने के बावजूद उनमें अच्छे संबंध नहीं हैं। अखिलेश को इस बात का भय है कि अगर मुस्लिम वोट सपा से निकल जाता है, तो उनकी पार्टी का अस्तित्व ख़त्म हो सकता है, क्योंकि, मुस्लिम सपा के आधार वोट हैं और उनके निकलने से सपा के पास सिर्फ़ यादव बचते हैं, जो अकेले चुनाव नहीं जिता सकते हैं।

लेकिन माना जा रहा है कि पाँच राज्यों के चुनावों के नतीजों के बाद हालात बदले हैं। कांग्रेस और सपा के बीच कोई समझौता हो सकता है। क्योंकि कहा जा रहा कि अगर यह दोनों पार्टियाँ चुनाव मैदान में अलग-अलग उतरी हैं तो मुस्लिम वोट बंट जायेगा, जिसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को होगा।

हालांकि, चर्चा इस बात पर भी है कि कांग्रेस, बीएसपी को गठबंधन में लाना चाहती है, जिससे देश में यह संदेश जाए कि दलित कांग्रेस के साथ हैं। जबकि मायावती अभी तक अकेले ही चुनाव लड़ने की बात कर रही हैं।

इस बात पर चर्चा तेज़ हुई है कि इन चुनावों के नतीजों से कांग्रेस की सौदेबाज़ी की ताक़त बढ़ी या कम हुई है, क्योंकि कांग्रेस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हारी है, तो तेलंगाना में जीती भी है।

कांग्रेस के इस प्रदर्शन के दो अर्थ देखे जा रहे हैं। पहला यह कि कांग्रेस तीन राज्यों में हार गई, जिसके कारण अब उसकी स्थिति क्षेत्रीय दलों के सामने सीट बंटवारे की सौदेबाज़ी कमज़ोर पड़ेगी, लेकिन इसको इस तरह भी देखा जा रहा है कि कांग्रेस तीन राज्यों में किसी क्षेत्रीय पार्टी से नहीं बल्कि बीजेपी से हारी है।

लेकिन उसने तेलंगाना और कर्नाटक में क्रमश: भारतीय राष्ट्रीय समिति और जनता दल (सेक्युलर) जैसे क्षेत्रीय दलों को कमज़ोर कर दिया है। इस रुझान से वह सपा जैसे क्षेत्रीय दलों पर दबाव बना सकती है।

हालांकि, सवाल यह उठ रहे हैं कि कांग्रेस की अगली रणनीति क्या होगी? यह इंडिया गठबंधन की होने वाली बैठकों के बाद तय होगा। देखना यह होगा कि इन नतीजों के बाद कितने दल कांग्रेस के साथ रहना चाहते हैं और कितने इंडिया गठबंधन से बाहर निकलते हैं, जिसका अंदाजा गठबंधन की अगली बैठक में क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति से होगा।

द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पूर्व संपादक अतुल चंद्रा कहते हैं कि ‘इंडिया की गठबंधन में शामिल पार्टियों, विशेषकर सपा और कांग्रेस में मधुर सम्बंध नहीं है। तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद इस बात पर असमंजस है कि क्षेत्रीय दल कांग्रेस को इंडिया गठबंधन का मुखिया मानेंगे या नहीं?’ चंद्रा कहते हैं, ‘अब नेशनल पार्टी होते हुए भी कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों को पहले से अधिक महत्व देना होगा।’

वह आगे कहते हैं कि ‘इस चुनाव में कांग्रेस का ‘सामाजिक न्याय’ और ‘जातिगत जनगणना’ का मुद्दा असर नहीं दिखा सका है। कांग्रेस और विपक्ष को केवल ‘जातिगत जनगणना’ पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। दूसरे बुनयादी मुद्दों को भी राजनीति के केंद्र में लाना होगा।’

अतुल चंद्रा कहते हैं कि ‘कांग्रेस का दक्षिण भारत में फिर से उदय हुआ है, लेकिन सचाई यह है कि उत्तर भारत के अन्य राज्यों पर पकड़ बनाए बिना केंद्र के राजनीति में वापसी नहीं हो सकती है।’

उत्तर प्रदेश की बात करते हुए अतुल चंद्रा कहते हैं कि ‘यहाँ फ़िलहाल विपक्षी पार्टियों में सबसे मज़बूत हालत में सपा है। इसलिए बीजेपी को चुनौती देने के लिए इन दोनों दलों (कांग्रेस-सपा) को समन्वय बनाकर चलना होगा। अगर इन विधानसभा चुनावों जैसे हालात लोकसभा में भी रहे तो पहले से ही मज़बूत बीजेपी को रोकना असंभव होगा, जिसका खामियाज़ा दोनों पार्टियों को उठाना पड़ेगा। इस नुकसान का असर 2027 के विधानसभा चुनावों में भी होगा।

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राजनीतिक विश्लेषक सुनील कश्यप मानते हैं कि ‘कांग्रेस को लेकर सपा में गुस्सा है। इसी वजह से सपा ने मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ा।हालांकि, सपा को कुछ हासिल भी नहीं हुआ। लेकिन अब इन दोनों पार्टियों को मिलकर जल्दी ही लोकसभा के लिए एजेंडा तैयार करना चाहिए है, वरना नतीजे बीजेपी के पक्ष में होंगे।’

हालांकि, कश्यप यह मानते हैं कि ‘सपा के ख़िलाफ़ नाराज़गी कांग्रेस को भी है और उसकी ज़्यादा दिलचस्पी बीएसपी से गठबंधन करने में है। क्योंकि, कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन का संदेश सारे देश में जाएगा जिससे दलितों का झुकाव अन्य प्रदेशों में भी कांग्रेस की तरफ़ बढ़ेगा।’ उन्होंने कहा कि ‘उत्तर प्रदेश में सपा से मुस्लिम नाराज़गी का फ़ायदा कांगेस को मिल सकता है, लेकिन जब तक कांग्रेस के साथ कोई दूसरा ‘सामजिक समूह’ नहीं जुड़ेगा, यह फ़ायदा जीत में नहीं बदलेगा।’

राजनीतिक समीक्षक पंकज चौरसिया कहते हैं कि ‘सपा ने अपनी ग़लतियों से कुछ नहीं सीखा है।’ पंकज सवाल करते हैं कि ‘2019 लोकसभा चुनावों की हार के बाद राहुल गांधी ने इतनी बड़ी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली और बीजेपी को दक्षिण भारत से लगभग साफ़ कर दिया, लेकिन 2022 चुनावों में हार के बाद सपा प्रमुख अखिलेश ने क्या किया?’

वह कहते हैं ‘ओपीएस सरकारी कर्मचारियों का मुद्दा है और बेरोज़गारी पढ़े-लिखे नौजवानों का। दोनों वर्गों की संख्या बहुत कम है। केवल इन मुद्दों से चुनाव नहीं जीता जा सकता है। मुफ्त अनाज या विश्वकर्मा योजना जैसे मुद्दे ज़मीन पर ज़्यादा असरदार हैं। हिंदुत्व के साथ इन योजनाओं का असर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिलेगा। विपक्ष को भी ऐसे ही मुद्दों के आधार बनाकर 2024 के चुनाव मैदान में उतारना चाहिए।’

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