Saturday, July 27, 2024
होमविचारदलित, OBC, आदिवासी और मुसलमान इस देश के आर्मी चीफ क्यों नहीं...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

दलित, OBC, आदिवासी और मुसलमान इस देश के आर्मी चीफ क्यों नहीं बनाए जाते हैं? (डायरी : 19 अप्रैल, 2022)

बुद्ध और कबीर दोनों कमाल के योद्धा थे। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि दोनों ने लड़ाइयां लड़ी और दोनों ने दूरगामी जीत हासिल की। बुद्ध ने जो जीत हासिल की, उसका आलम तो यह है कि आज बुद्ध भले ही भारत के ब्राह्मण वर्गों के वर्चस्ववादी चरित्र के कारण कम महत्व रखते […]

बुद्ध और कबीर दोनों कमाल के योद्धा थे। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि दोनों ने लड़ाइयां लड़ी और दोनों ने दूरगामी जीत हासिल की। बुद्ध ने जो जीत हासिल की, उसका आलम तो यह है कि आज बुद्ध भले ही भारत के ब्राह्मण वर्गों के वर्चस्ववादी चरित्र के कारण कम महत्व रखते हों, लेकिन विश्व के कई देशों में उनके बताए धर्म का सिक्का चलता है। यदि इसे विश्व के दो सबसे बड़े धर्मों यानी ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म के लिहाज से देखें तो बौद्ध धर्म के लिए अत्यंत ही मानीखेज है। ऐसे ही कबीर रहे। भारत के ब्राह्मण वर्गों ने उन्हें भक्ति काल का भक्त कवि साबित करने के लिए बहुत कुछ किया है। उनकी कोशिश रही कि कबीर का अंत हो, लेकिन कबीर हैं कि अजर-अमर हैं।

कल ही पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन द्वारा गाए गए कबीर के दोहों को सुन रहा था। एक दोहे ने मुझे रोक लिया– जात न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान, माेल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। एक और दोहे ने भी सोचने पर मजबूर किया– जब हम जग में पग धरौ, सब हंसे हम रोय, कबीरा कुछ कर चलो, पाछे हंसी ना होय।

यह भी पढ़ें…

भारतीय सामाजिक क्रान्ति के सूर्य ज्योतिबा फुले

तो पहले दोहे पर विचार करते हैं। दूसरे दोहे के बारे में कल लिखने का प्रयास करूंगा। पहला दोहा इसलिए कि कल भारत सरकार की ओर घोषणा की गई है कि मनोज पांडे देश के नये थल सेना अध्यक्ष होंगे।

दोहे में कबीर ने जिस बिंब का उपयोग किया है, वह लाजवाब है। हालांकि भारत के द्विज साहित्यकारों ने इस दोहे को समरसता के संदर्भ में व्याख्यायित किया है। उनके मुताबिक तो जाति कुछ है ही नहीं। असल चीज तो ज्ञान है। लेकिन आप देखिए कि कबीर का लहजा क्या है। क्या वह यह कहना चाहते हैं कि जाति का कोई महत्व नहीं है और खुद को द्विजवत समझते हैं?

यह भी पढ़ें…

लोग अपने बच्चों को बताते कि दलित उनके खेतों व घरों में नौकर थे और नीच हैं!

जवाब है नहीं। गालिब की एक रचना है– हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है। जिस तरह का आक्रोश गालिब की इस रचना में है, इससे हजार गुणा आक्रोश कबीर के इस दोहे में है कि “जात न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान, माेल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। मेरे हिसाब से वह किसी ऐसे ब्राह्मण भक्त को चुनौती दे रहे हैं जो उन्हें जुलाहा होने की वजह से अपमानित कर रहा है। वह गुस्से में कह रहे हैं– जात न पूछो साधु की, पूछ लिजियो ज्ञान, माेल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। वह चुनौती दे रहे हैं कि तुम जो खुद को साधु कहते फिरते हो, जरा अपना ज्ञान बताओ। और जब वह तलवार का बिंब इस्तेमाल करते हैं तब तो उनका आक्रोश सारी सीमाएं पार कर जाता है। यह तलवार ज्ञान का सूचक है और म्यान देह, जिसकी जाति जन्मने के साथ ही तय कर दी गई है। जाति व्यवस्था व वर्ण व्यवस्था को चुनौती देनेवाली इतनी तीखी कविता शायद ही किसी कवि ने लिखी हो। कम से कम मैंने आजतक नहीं पढ़ी।

करीब तीन साल पहले मैंने एक बार लिखा– जात पूछो हर साधु की। तब मेरा आशय भारतीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार विजेताओं से था कि आखिर क्या सर्वश्रेष्ठता केवल द्विजों की बपौती है?

आज फिर यही सवाल दोहरा रहा हूं। दोहराने की वजह यह है कि एक ब्राह्मण नरवणे के बाद दूसरा ब्राह्मण मनोज पांडे देश के थल सेना का चीफ बनेंगे। 15 अगस्त, 1947 के बाद भारत के थल सेना अध्यक्षों की सूची पर निगाह डालिए तो आप समझ सकेंगे कि माजरा क्या है। इस सूची में आपको अंग्रेज मिल जाएंगे, भारतीय ईसाई मिल जाएंगे, राजपूत मिल जाएंगे, एक-दो जाट मिल जाएंगे, सिख मिल जाएंगे, ब्राह्मण मिल जाएंगे। लेकिन नहीं मिलेंगे तो दलित, ओबीसी, आदिवासी और मुसलमान।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

आखिर क्यों? क्या दलित, ओबीसी, आदिवासी और मुसलमान इस देश के नागरिक नहीं हैं? या फिर उनके मन में देश के प्रति मान नहीं है? मुसलमानों की बात करें तो संभवत: उन्हें आर्मी चीफ नहीं बनाने के पीछे भारत के हुक्मरानों की सोच यह रहती हो कि वे भारत से अधिक पाकिस्तान के प्रति वफादार हो जाएंगे। यदि ऐसा नहीं है तो और कोई वजह मुझे समझ में नहीं आता है कि आजतक कोई मुसलमान भारतीय थल सेना का अध्यक्ष क्यों नहीं बना। दलित, आदिवासी और ओबीसी को लेकर तो मामला ही दूसरा है। भारतीय हुक्मरान को बहुजन समाज के युवा चाहिए अपनी फौज में लेकिन नेतृत्व देने का खतरा वे नहीं ले सकते।

बहरहाल, यह मांग उठनी ही चाहिए कि भारतीय सेना का लोकतंत्रीकरण हो। इससे भारतीय सेना मजबूत ही होगी।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें