इस धरती पर सभ्यता-संस्कृति की शुरुआत से ही महिलाओं ने परंपराओं एवं रीतियों को सहेजने-संवारने का काम किया है। फिर चाहे वो घर-परिवार, देश या समाज की परंपरा हो अथवा कार्य एवं रोजगार की परंपरा। खेती-किसानी की परंपरा में हमेशा से ही महिलाओं की अहम भूमिका रही है। शारीरिक रूप से सबल होने के कारण पुरुष जहां कृषि कार्य में प्रत्यक्ष भूमिका (जोताई, बुआई, मंड़ाई, फसल कटाई, आदि) निभाते थे, वहीं अप्रत्यक्ष श्रम योगदान (रोपाई, गुड़ाई, ढुलाई, दौनी, उसौनी, आदि) की संपूर्ण जिम्मेदारी महिलाओं की होती थी।
हालांकि इसे बिडंवना ही कहा जा सकता है कि देश के सकल घरेलू उत्पादन प्रक्रिया में पुरुषों की भागीदारी की गणना तो होती रही, लेकिन महिलाओं के श्रम योगदान की गणना करना तो दूर, सदियों से इसके बारे में चर्चा करना भी किसी ने मुनासिब नहीं समझा, लेकिन वो कहते हैं कि वक्त बदलते देर नहीं लगती। आज के दौर में कई ऐसी महिला किसान हैं, जो न केवल कृषि कार्य में प्राथमिक भूमिकाएं निभा रही हैं, बल्कि वे प्राकृतिक कृषि की पारंपरिक पद्धति को अपना कर अपने परिवार तथा समाज के स्वस्थ्य पोषण भी महत्वूपर्ण योगदान दे रही हैं।
जमीन से जुड़े रह कर जमीनी स्तर पर काम करने का है जुनून
मूल रूप से गांव-दुरडीह, जिला- लक्खीसराय, बिहार की रहनेवाली स्वाति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मास्टर्स करने के बाद पिछले चार वर्षों से खेती से जुड़ कर किसानों को कृषि वानिकी के लिए जागरूक और प्रशिक्षित कर रही हैं।
वह बताती हैं कि उनके परिवार में भी खेती-बाड़ी की परंपरा रही है। ऐसे में इस क्षेत्र के प्रति उनका रुझान स्वाभाविक था। वर्तमान में अपने भाई के साथ मिल कर किसानों को प्रशिक्षित, जागरूक तथा आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने का कार्य कर रही हैं। स्वाति का मुख्य फोकस किसानों को कृषि-वानिकी के लिए प्रोत्साहित करने का है। उल्लेखनीय है कि फसलों के साथ-साथ पेड़ों एवं झाड़ियों को समुचित प्रकार से लगाकर दोनों के लाभ प्राप्त करने को कृषि वानिकी कहा जाता है।
इसमें जैविक विधि के जरिये कृषि और वानिकी की तकनीकों का मिश्रण करके विविधतापूर्ण, लाभप्रद, स्वस्थ एवं टिकाऊ भूमि-उपयोग सुनिश्चित किया जाता है। स्वाति की मानें, तो उन्होंने अब तक करीब एक हजार छोटे-बड़े किसानों को इस कृषि परंपरा से जोड़ने में सफलता प्राप्त की है, जिनमें महिलाओं की संख्या अधिक है। फिलहाल स्वाति अपने टीम के सदस्यों के साथ मिल कर महिला उद्यमिता एवं लैंगिक प्रशिक्षण के क्षेत्र में भी काम कर रही हैं। उनका मानना है कि किसी भी समाज की आर्थिक समृद्धि के लिए उसमें लैंगिक समानता का होना जरूरी है। भविष्य में स्वाति का सपना अधिक से अधिक लोगों को जैविक कृषि विधि तथा कृषि वानिकी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने का है।
पोषणयुक्त बनाने के लिए शुरू किया ‘वाइल्ड फूड’
हमेशा से ही प्रकृति और पर्यावरण से प्रेम करनेवाली जमुई जिला निवासी शिवानी कुमारी को भले ही अपने राज्य में अभी बहुत कम लोग पहचानते हों लेकिन उनके बनाये मिलेट उत्पादों के स्वाद का जादू राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोर चुका है। मूल रूप से बोकारो, झारखंड में पैदाइश शिवानी ने जमशेदपुर, एनआईटी से वर्ष 2018 में इंजीनियरिंग की डिग्री ली, लेकिन इंजीनियर वाली मशीनी ज़िंदगी चुनने के बजाय गांव में रह कर अपनी ज़मीन से जुड़ी आजिविका को अपनाने का निर्णय लिया।
शिवानी कहती हैं, ‘शहरों में तो काम करने के अनेकों मौके हैं और करिअर ग्रोथ भी काफी अच्छा है, पर अगर हर कोई यही सोच कर शहर का रुख करने लगे, तब तो गाँव खाली हो जायेंगे। फिर गांव का विकास कैसे होगा?’
वर्ष 2018 में शिवानी अपने सपनों को पूरा करने के लिए ग्रामीण कृषि क्षेत्र में कार्यरत संस्था के साथ बतौर डेवलपमेंटल अप्रेंटिस जुड़ीं। इससे उन्हें कई सारी ग्रामीण समस्याओं को जानने और समझने का मौका मिला। शिवानी बताती हैं कि काम करने के दौरान मैंने जाना कि ग्रामीणों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले अन्न की दैनिक थाली में पोषण की भारी कमी होती है। ज्यादातर ग्रामीण अपने खेतों में सीमित उत्पादन करते हैं। बारिश की अनिश्चितता के कारण एक ही फसल उगा पाते हैं। ज्यादातर कृषि प्रशिक्षु एजेंसियां उन्हें केमिकल फार्मिंग सिखाने पर जोर देती हैं। यह सब देखने-समझने के बाद शिवानी ने खुद इन समस्याओं को अपने स्तर से सुलझाने का प्रयास करने का निर्णय लिया।
एक साल तक सेल्फ-एक्स्प्लोरेसन करने, कृषि यात्राएं करने और कई सारे के बाद 2020 में एक कृषि संस्था जॉइन किया और दो-तीन महीने वहाँ रह कर सेवा दी। उसी दौरान शिवानी ने सुभाष पार्कर की ‘ज़ीरो बजट पद्धति के बारे पढ़ कर और उससे प्रभावित होकर अपने घर की छत पर ही कई सारी फल-सब्ज़ियां उगायीं। केरल जाकर वहाँ की एक संस्था में आठ माह का कोर्स किया। उसके बाद अपने गांव सिमुलतला, जमुई में जाकर एक संस्था का पंजीयन करवाया और उसके तहत अपना स्टार्टअप शुरू किया।
शिवानी ने बहुत कम समय में ही कई सारे माइलस्टोन तय किये हैं। वो G-20 समिट में बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। उनके द्वारा बनाये व्यंजनों रागी गुझिया, लड्डू, शकरपारे, चकली, महुआ लड्डू, ज्वार लड्डू, चिप्स आदि ने देशी विदेशी लोगों का दिल जीत लिया। चूंकि UN ने भी वर्ष 2023 को मिलेट ईयर घोषित कर रखा है, तो शिवानी के इन प्रयासों को काफी सराहना मिली। इसके अलावा, उन्होंने जलकुंभी वीड पर सब्जियां उगाकर अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से पहला पुरस्कार प्राप्त किया है।
अप्रैल 2023 में मुंबई की एक संस्था द्वारा आयोजित ‘मेरी पौष्टिक रसोई’ प्रतियोगिता में उन्होंने ऑल इंडिया सेकंड रैंक हासिल करने के साथ ही 25 हज़ार रुपये भी जीते। गांव में कुछ महीनों तक एक मिलेट कैफे शुरू करने के साथ ही इससे सम्बन्धित जागरूकता कार्यक्रम और कार्यशालाओं का भी आयोजन किया। विगत एक वर्ष में शिवानी इस बिजनेस में किये गये अपने निवेश से दोगुना कमा चुकी हैं और मुनाफा अलग! फिलहाल 59 गांवों में शिवानी के साथ जुड़े हैं। टीम में कुल पांच महिलाएं शामिल हैं। सब मिलकर उत्पाद बनाती हैं और फिर मिलकर ही उसका लाभ भी कमाती हैं।
रसायनों के इस्तेमाल का टूटा भ्रम, दवाओं का खर्च हुआ कम
बिहार के समस्तीपुर जिला के दलसिंहसराय प्रखंड की निवासी अंजू देवी भी अन्य किसानों की तरह पहले अपनी खेती-बाड़ी में रासायनिक खाद का उपयोग किया करती थीं। वर्ष 2019 में उन्होंने रासायनिक खेती के नुकसान तथा प्राकृतिक खेती के लाभों के बारे में जाना। बिहार के विभिन्न गांवों में ग्रामीण संगठन बनवा कर लोगों को प्राकृतिक तथा जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
एक संस्था से अंजु जुड़ गईं, तब उन्हें पता चला कि क्यूं साल-दर-साल उन्हें खेती के लिए प्रयुक्त किये जानेवाले रासायनिक खाद की मात्रा बढ़ानी पड़ रही है। दरअसल, कृत्रिम रासायनों के उपयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है। नतीजा, हर नयी फसल से पहले पूर्व की तुलना में अधिक मात्रा में रासायन और पानी की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही, साल-दर-साल रसायान के उपयोग की वजह से मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी कमजोर होती जाती है। इसके विपरीत प्राकृतिक खेती में मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए जीवा अमृत घोल, वर्मी कंपोस्ट आदि का उपयोग किया जाता है। इससे मिट्टी के लिए लाभदायक जीवाणुओं में वृद्धि होती है।
गृह विज्ञान में स्नातकोत्तर वर्तमान में अंजू ने प्राकृतिक कृषि विधि का उपयोग करके ही अपने 2.5 कट्ठा जमीन में पांच प्रकार के मोटे अनाजों सहित सामा चावल, मूंग, दालें आदि उगाती हैं. साथ ही, वह देशी बीजों का संरक्षण, विपणन एवं वितरण भी करती हैं। उन्होंने अपने घर के आगे की जमीन में एक प्यारा-सा किचन गार्डेन में कई तरह की सब्जियां, मसाले (हल्दी, धनिया, मेथी, मिर्च, जीरा, सरसों आदि) और फल आदि भी उगा रही हैं, जिसे उन्होंने ‘पोषण वाटिका’ नाम दिया है।
इसके अलावा, उन्होंने वर्ष 2022 में पूसा विश्वविद्यालय, समस्तीपुर से मशरुम उत्पादन का प्रशिक्षण भी लिया था। अंजू बताती हैं, ‘वर्तमान में केवल मशरूम उत्पादन से मैं प्रतिमाह 15-20 हजार रुपये कमा लेती हूं, जबकि इसमें मेरी लागत पांच-छह हजार रुपये ही है। आवश्यकता से अधिक अनाज और मसालों को बेच कर भी सालाना 10-12 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है। अब तक अंजू पटना, रांची, उड़ीसा, मैसूर, दिल्ली, असोम तथा काठमांडू में आयोजित कृषि मेले में भागीदारी निभा चुकी हैं, जहां वह मेले में आनेवाले लोगों को प्राकृतिक कृषि उत्पादों के स्वाद से परिचित करवाने के अलावा उन्हें इसके फायदों के बारे में जागरूक भी करती हैं। इस काम में अंजू को अपने पति और दोनों बेटों का भी भरपूर सहयोग मिलता है। अंजू की मानें, तो पहले हमारे परिवार में दवाओं पर अधिक खर्च होता था, अब यह खर्च बहुत कम हो गया है।
इनके परिवारवालों की सेहतपूर्ण लंबी उम्र का राज है प्राकृतिक खेती
वर्ष 2005 में जब श्यामली सैनी की शादी पश्चिमी बंगाल के बांकुड़ज्ञ प्रखंड स्थित पंचाल गांव निवासी भैरव लाल सैनी से हुई, तब उन्हें कहां पता था कि आनेवाले समय में उनके सफलता की कहानियां लिखीं जायेंगी। दरअसल, श्यामली के पति भैरव सैनी वर्ष 1993 से ही खेती कर रहे थे, लेकिन उस वक्त वह अपने खेत में अन्न उगाने के लिए रासायनिक खाद का उपयोग किया करते थे। वह प्रसिद्ध वैज्ञानिक, जैवविविधता संरक्षक तथा पारिस्थिति विज्ञानी डॉ. दवल देव से काफी प्रभावित हैं। बता दें कि डॉ दवल देव वर्ष 1996 से पूर्वी भारत क्षेत्र खेती-किसानी की पारंपरिक पद्धतियों को सहेजने तथा विलुप्त होती भारत की पारंपरिक खाद्य प्रणाली बचाये रखने की दिशा में गंभीरतापूर्वक प्रयासरत हैं।
भैरव सैनी ने भी डॉ. दवल देव का अनुसरण करते हुए वर्ष-2004 में प्राकृतिक कृषि विधि को अपनाने का मन बना लिया। हालांकि उन्हें अपने घरवालों का काफी समय तक विरोध भी सहना पड़ा। बावजूद इसके उन्होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राकृतिक खेती के जरिये अपनी आजीविका अर्जित करने की जिद ठानी। वर्ष 2005 में भैरव का विवाह श्यामली से हुआ। श्यामली ने भी अपने पति के निर्णय में उनका साथ देते हुए न सिर्फ प्राकृतिक खेती को अपनाया, बल्कि एक कदम आगे बढ़ कर बीज संरक्षण भी करना शुरू किया, जिसके लिए उन्हें वेस्ट बंगाल बायो-डाइवर्सिटी बोर्ड तथा उड़ीसा के एक कृषि संगठन से सम्मानित भी किया जा चुका है।
श्यामली बताती हैं, ‘प्राकृतिक कृषि विधि अपनाने से उनके धान की फसल में साल-दर-साल अच्छी वृद्धि हुई है. साथ ही, फसल की क्वालिटी भी रासायनयुक्त खाद्यान्न से काफी बेहतर है।’ वर्तमान में दोनों पति-पत्नी मिल कर अपने खेतों मे दाल, सरसों, मोटे अनाज, मिर्च, गेहूं, सरसों, धान तथा कपास का उत्पादन करते हैं। आवश्यकता से अधिक उत्पादित होने पर उसे बाजार में बेच देते हैं। बंगाल से बाहर दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, उदयपुर, कोयंबटूर आदि शहरों में उनके द्वारा निर्मित चूड़ा, फरही, चावल भूंजा आदि की सप्लाई होती है।
श्यामली कहती हैं, ’प्राकृतिक खेती के क्या फायदे हैं, इसे समझाने के लिए मैं बस यही कहूंगी कि हमारे घर में दवा का उपयोग नहीं होता। कारण, कभी कोई लंबा बीमार ही नहीं पड़ा। मेरी सास फिलहाल 90 वर्ष की हैं, जबकि ससुर का देहांत भी 101 वर्ष की उम्र में हुआ था।’
महिलाओं के स्वास्थ्य तथा आर्थिक समृद्धि हेतु हैं प्रतिबद्ध
उम्र के 56वें वर्ष में प्रवेश कर चुकीं सुप्रीति मूर्म झारखंड का एक चिर-परिचित नाम हैं। झारखंड आंदोलन में अपने पति (दिवंगत) बबलू मूर्मू के साथ उन्होंने कंधे-से-कंधा मिला कर आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभायी। फिर झारखंड राज्य के निर्माण से लेकर अब तक वह महिलाओं, बच्चों एवं गरीब तथा वंचित तबकों के शिक्षा तथा स्वास्थ्य अधिकारों व सुविधाओं के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
सुप्रीति मूल रुप से बंगाल की रहनेवाली हैं। झारखंड आंदोलन के दौरान युवावस्था में वह पहली बार यहां के पूर्वी सिंहभूम इलाके के घाटशिला प्रखंड में आयीं और फिर यहीं की होकर रह गयीं। सुप्रीति कहती हैं कि ‘झारखंड में आकर मैंने महसूस किया कि हमारे पास संसाधन बहुत है, लेकिन हम उसका सही तरह से उपयोग नहीं करते हैं। इसी वजह से मैंने यहीं रह कर खेती-बाड़ी के जरिये किसानों को आत्मनिर्भर बनाने और उन्हें एक बाजार मुहैया करवाने की कोशिश की।’
सुप्रीति हमेशा से ही प्राकृतिक कृषि पद्धति की प्रबल समर्थक रही हैं। उन्होंने कभी भी रासायनिक खाद के उपयोग का समर्थन नहीं किया। वह कहती हैं, ’रासायनिक खाद हमारी मिट्टी की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर देते है। साल-दर-साल इनकी जरूरत बढ़ती जाती है और ये काफी मंहगे भी हैं, जिसके चलते अक्सर किसानों को कर्ज लेने की नौबत आ जाती है। इसके विपरीत प्राकृतिक खेती काफी सस्ता और भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में भी मददगार है।’
सुप्रीति विभिन्न कृषि संगठनों के माध्यम से किसानों को प्रशिक्षित करती हैं। साथ ही, उन्हें बीज खरीदने के लिए धन मुहैया करवाने में भी मदद करती हैं। उनके इलाके में किसानों द्वारा बासमती चावल, सीम बासमती, तुलसी धान, मुकुंद धान, भुटकी धान, गेंहू, सरसों, आम, जामुन, कटहल आदि की खेती की जाती है। सुप्रीति के प्रयासों के लिए उन्हें वर्ष 1999 में National Network of Woman की ओर से सम्मानित किया जा चुका है। बता दें कि सुप्रीति महिला किसानों द्वारा किये गये कृषि श्रम के पैसे उन्हें ही देती हैं, क्योंकि उनका मानना है कि महिलाएं अगर आर्थिक रूप से सबल होंगी, तो पूरे परिवार की स्थिति बेहतर होगी।