Friday, April 26, 2024
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यह गंदगी तुम्हीं लोगों ने किया अब चाहे इसका पानी पियो चाहे कमाओ…

‘नदी में ई गंदगी तोही लोगन त कइला, नदी त तहू लोगन क हौ अब वही के पीया चाहे एसे कमा… गंदा तो होते हौ।’ ये आलोचना भरे शब्द उस सत्तर वर्षीय महिला के हैं जो हमें नदी यात्रा के दौरान मिली थीं, नाम है जगपत्ति। सिकुड़ी लाल साड़ी, शरीर पर उम्र और तजुर्बे की […]

‘नदी में ई गंदगी तोही लोगन त कइला, नदी त तहू लोगन क हौ अब वही के पीया चाहे एसे कमा… गंदा तो होते हौ।’ ये आलोचना भरे शब्द उस सत्तर वर्षीय महिला के हैं जो हमें नदी यात्रा के दौरान मिली थीं, नाम है जगपत्ति। सिकुड़ी लाल साड़ी, शरीर पर उम्र और तजुर्बे की झुरियाँ, मिट्टी में सने पाँव-हाथ एवं चेहरे पर हँसी लिए उस वृद्धा के मुँह से यह आलोचना सुनकर सभी लोगों के पाँव यकायक रुक गए। यह आलोचना उन सभी मानवनिर्मित मशीनरियों और कारगुजारियों के लिए थी जो आज नदी और पर्यावरण को सिर्फ पूँजीवाद के लिए प्रयोग कर रही हैं।

गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा के चौथे क्रम में हम रविवार को पिसौर पुल स्थित उसी शिवाश्रम पर पहुँच गए थे जहाँ पिछली बार समापन और संगोष्ठी का आयोजन हुआ था। यात्रा दानियालपुर घाट तक जानी थी। हाथ में लिए बैनर को देख ग्रामीण एक बार जरूर रुक जा रहे थे। एक-दो लोग आपस में बोल रहे थे- ‘पिछले अतवार के भी यही लोगन आए रहलन न?’ इस बार की यात्रा काफी रोचक है क्योंकि रास्ते में कई शख्स ऐसे मिले जिन्होंने वरुणा नदी को लेकर हमें कई मजेदार और गम्भीर तथ्य बताए। रिपोर्ट थोड़ी बड़ी हो जाएगी क्योंकि इस बार की यात्रा भी काफी लम्बी थी।

खेतों में काम करते लोग

खैर, इसके पहले किसान नेता रामजनमजी के साथ मैं शिवपुर रेलवे फाटक पर पहुँचा। युवा कवि दीपक शर्मा रामजी भैया और अपर्णा मैम का इंतजार कर रहे थे। मैं उन्हें देखकर रूक गया।

‘का हो, यहाँ का हौत हौ?’

‘सर और मैम का इंतजार कर रहे हैं।’

‘वे लोग कुछ देर पहले ही निकल गए हैं, कार्यक्रम स्थल पर पहुँच भी गए होंगे।’

हम चले तो दीपक भी मेरी दुपहिया के पीछे हो लिए।

शिवाश्रम पहुँचा तो यहाँ रामजी भैया, अपर्णा मैम, सामाजिक कार्यकर्ता नंदलाल मास्टर और मनोज के साथ सतीश भी थे। कुछ ही देर में गले में लाल गमछा लपेटे और कान में ईयरफोन लगाए अपनी धुकधुकी यानी बुलेट से गोकुल दलित भी पहुँच गए। अपर्णा मैम और मैंने फोटो लेना शुरू कर दिया। तत्पश्चात रामजी भैया ने सभी लोगों से यात्रा के शुरुआत की अपील की। चलना किधर से है? पूछने पर एक युवक ने हमें सड़क की दायीं तरफ नीचे उतरकर जाने का सुझाव दिया।

नीचे उतरते ही मनोज ने पूछा– ‘कितनी दूर जाएगी यह यात्रा?’

अंदाजन मैंने बोल दिया- ‘यही करीब दो किलोमीटर।’

पिसौर पुल के नीचे काफी गंदगी थी, जो दूर से ही हमें दिख रही थी। खेत में अपनी पत्नी के साथ काम कर रहे बब्लू प्रसाद से मेरी मुलाकात पहले  हुई जो अरुई और भिंडी की तोड़ाई कर रहे थे। खेत किनारे ही थोड़ी-सी अरुई और भिंडी रखी हुई थी।

गाँव के बब्लू बोले, पुल के पाँवे के पास काफी गंदगी है

उत्सुकतावश उन्होंने ही मुझसे पूछा- ‘सड़क बनेगा क्या सर?’

‘नहीं, यह नदी और पर्यावरण के प्रति आप लोगों को जागरूक करने की यात्रा है।’

बब्लू से आगे बात करने पर उन्होंने बताया कि पहले जब यहाँ पुल नहीं बना था तो पानी काफी साफ था। पुल के पाँवे के पास काफी गंदगी है। पहले हम लोग इसका पानी पीते थे। यहाँ कई पेड़ भी थे। जब खेतों में काम करते हुए हम थक जाते थे तो उसी के नीचे सो जाया करते थे। दुपहरिया वहीं कट जाती थी।

बब्लू को नमस्कार कर मैं आगे बढ़ गया। पुल के पास की गंदगी को मोबाइल कैमरे में उतारने लगा। यहाँ मोटे-मोटे पत्थर रखे हुए थे। नदी में काई और जलकुम्भी भारी मात्रा में थी। नदी से पानी खींचकर खेती करने के लिए दो मशीनें भी रखी हुई थीं जिसे किराए पर चलवाया जाता है। नाव पर रखकर ही इस मशीन को एक खेत से दूसरे खेत तक पहुँचाया जाता है। नदी में एक नाव, जो काफी पुरानी लग रही थी, उस पर भी पेड़-पालो जम गए थे, जो सड़कर पानी में ही आधी समा गई थी। एक-दो दिन पूर्व हुई बारिश से खेतों की हरीयाली लुभा रही थी। कहीं-कहीं सोनहट वाली सुगंध भी थी। लेकिन इस माहौल को बिगाड़ रहे थे गड्ढों व घास के झुंड के बीच छिपाए हुए कचरे और कूड़े।

पिसौर पुल के नीचे गंदगी का आलम

टीम धीरे-धीरे चल रही थी इसलिए ज़्यादा दूर नहीं पहुँची थी। पास गया तो देखा सामाजिक कार्यकर्ता मनोज फेसबुक से लाइव हो चुके थे और अपर्णा मैम उस पर बोल रही थीं। बारी-बारी से लगभग सभी लोग अपना-अपना वक्तव्य दे रहे थे।

सबसे पहले ट्रस्ट के संस्थापक रामजी यादव ने मौजूद सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं का परिचय दिया। इसके बाद नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा की भूमिका पर विस्तार से चर्चा करते हुए बताया कि ‘वरुणा नदी अब विलोपन की स्थिति में पहुँच चुकी है, इसमें पानी की कमी है। शहर के सीवेज सिस्टम को वरुणा से जोड़ दिए जाने के कारण इसका पानी अब ग्रामीणों के दैनिक जरूरतों के लायक नहीं रह गया है। यही कारण है कि ग्रामीण भी अब नदी से दूरी बना रहे हैं। आगे की यात्रा के दौरान हम इस नदी के पानी की लैब जाँच भी करवाएँगे जिससे पता चलेगा आसपास के जो लोग हैंडपम्प या अन्य साधनों से पानी का उपयोग कर रहे हैं उसकी क्या स्थिति है। इस पानी को पीने से ग्रामीणों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है। ऐसी समस्याओं के प्रति सचेत करना ही इस यात्रा का उद्देश्य है।’

पिसौर पुल के नीचे यह है हाल

सामाजिक कार्यकर्ता सतीश सिंह ने कहा कि ‘रामजी के नेतृत्व में हम इस नदी यात्रा में शामिल हुए हैं। यात्रा के दौरान मैंने देखा कि कई जगह इसमें नाले गिराए जा रहे हैं जो चिंताजनक है। जीवनदायिनी नदियों का पानी ही विभिन्न माध्यमों से पीते हैं लेकिन इसकी सुरक्षा और संरक्षा पर कोई विशेष ध्यान नहीं है। इस यात्रा के माध्यम से हम लोगों को बता रहे हैं कि नदियाँ सुरक्षित रहेंगी तभी हम भी सुरक्षित रहेंगे।’

अपर्णा मैम ने कहा कि ‘यात्रा से पहले हम जब भी वरुणा नदी के किनारे गुजरते थे तो ऐसा लगता था कि असि नदी की तरह भी इसकी हालत भी बिगड़ने लगी है। इस समस्या पर अभी से ही ध्यान नहीं दिया गया तो असि और वरुणा में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। अपने चारों नदी यात्राओं में हमने यही देखा कि वरुणा नदी में नालों के गंदे पानी का समावेश तेजी से हो रहा है। प्रधानमंत्री के खुले में शौचालय मुक्त भारत की बात भी झूठी साबित हो रही है। नदी किनारे व्याप्त गंदगी और अन्य समस्याओं को देखकर ही हमने नदी यात्रा की शुरुआत की। काम तो बहुत बड़ा है लेकिन धीरे-धीरे लोग हमसे जुड़ रहे हैं। आगे चलकर यह कारवाँ बड़ा हो जाएगा।’

वरुणा नदी में गिरता सीवर

सामाजिक कार्यकर्ता नंदलाल मास्टर ने कहा कि ‘वाराणसी को नाम देने वाली वरुणा और असि नदी ही है लेकिन हम लोगों की लापरवाही और सरकारों की उदासीनता के कारण आज असि नदी नाले में परिवर्तित हो गई है। कहीं वरुणा नदी की हालत भी न खराब हो जाए इसलिए हम यह नदी यात्रा निकाल रहे हैं ताकि वरुणा का नाम और पहचान बनी रहे। हालांकि इसकी स्थिति भी भयावह ही दिख रही है। हम अभी से ही जागरूक नहीं हुए तो मात्र दस से पंद्रह वर्षों में यह नदी भी विलुप्त हो जाएगी। जैसे अभी कुछ वर्षों पहले सरकार ने कहा कि गंगा राष्ट्रीय नदी है, एनजीटी ने भी उपनदियों को लेकर एक गाइडलाइन जारी की है। सरकार करोड़ों रुपये इन नदियों पर खर्च भी कर रही है, उसका भी कोई सकारात्मक परिणाम नज़र नहीं आ रहा है।  गंगा की सहायक नदियाँ ज़्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं। गंगा को बचाने के लिए उपनदियों को बचाना होगा जिसमें वरुणा नदी का नाम भी आता है। हमारी सभ्यताओं और संस्कृतियों की पोषक नदियों को आज नहीं सहेजा गया तो भविष्य ‘बिन पानी’ हो जाएगा।’

किसान नेता रामजनम ने कहा कि ‘मनुष्य को जीवन देने वाले पर्यावरण और नदियों की हालत दयनीय हो चली है। बनारस की धरती का जो ऊपरी जल है जैसे तालाब, पोखरे या नदियाँ, इसका पानी लोग पीते थे, इसी से खाना बनता था लेकिन अब यह पानी हाथ लगाने लायक भी नहीं रह गया है। भारत जैसे देश में पर्यावरण, गाँव और किसान नहीं बचेगा तो हमारी सभ्यताएँ भी खत्म हो जाएँगी। जैसे किसानी बचाने के लिए किसान खड़े हो रहे हैं, जंगल बचाने के लिए आदिवासी खड़े हो रहे हैं, नौकरी बचाने के लिए नौजवान खड़ा हो रहा है उसी तरह दूषित पर्यावरण भी समस्या बनती जा रही है और इससे बचाने के लिए समाज के हर वर्ग को आगे आना होगा। क्योंकि प्रकृति और पर्यावरण पर सभी का मूल अधिकार है। हम लोगों सरकार और नेताओं से पर्यावरण को बचाने के सम्बंध में कोई आशा नहीं है, इसलिए हम यह नदी यात्रा निकाल रहे हैं, लोगों को जागरूक कर रहे हैं, लोगों को एकजुट कर रहे हैं।

साबुन से कपड़े की धुलाई आज भी जारी है

आगे बढ़ने पर देखा गया कि नदी में कई जगह कपड़े धोए जा रहे थे। कास्टिक युक्त साबुन के झाग और गंदगी उसी नदी में गिर रहे थे। कई जगह लोगों ने अपने-अपने खेतों को लोहे या कपड़े जाली या बाँस की दीवाल बनाकर सुरक्षित कर रखा था लेकिन नदी की सुध किसी को नहीं थी। सब इसके जीवनदायी जल का बेकदरी से दोहन किए जा रहे हैं। ऐसे लोग शायद नहीं जानते कि प्रकृति पर हर मनुष्य और जीव का समान अधिकार है। लेकिन कब्जा और पूँजी की कहानी चल रही है। जितना अधिक कब्जा उनकी अधिक पूँजी।

यात्रा में नदी और पर्यावरण विषय पर हम सभी एक-दूसरे से चर्चा करते चल रहे थे। तभी हरीयाली के बीच लाल टीशर्ट और नीली लुँगी लपेटे झुरु लाल पटेल मेरे बगल में आ गए। मैं नदी की फोटो खींच रहा था।

गाँव के झुरू प्रसाद के साथ गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की टीम

‘चिनहानी हो रहा है क्या सर’

‘चिनहानी मतलब?’

‘मतलब पुल-उल बनेगा का?’

‘नहीं, यह यात्रा लोगों को नदी और पर्यावरण के लिए जागरूक करने को निकाली जा रही है।’

‘अच्छा’

‘आप कितने बरस से यहाँ रह रहे हैं।’

‘पैदाइश यहीं हुआ है, अगवे हमारा घर है।’

‘नदी आपके समय में कैसी थी?’

‘अबके समय से तो बढ़िया रही।’

‘एकदम सीसा के तरह पानी चमक मारता था। हम लोग चिक्का पानी के उप्पर तेजी से फेंकते थे तो 10-12 बार पनिए में दौड़ती हुई डूब जाती थी। फिर जे ओके खोज के लियावे त ओके दू पक्कल आम आउर तीन रोटी मिले। हमहने बाजी लगाई न…।’

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‘मतलब वो चिक्का उपर से दिख जाता था।’

‘हाँ।’

‘और अब?’

‘अब त बल्टिए में ना दिखात।’

‘तो इ कइसे हो गएल?’

मैंने भी भोजपुरी का सहारा ले लिया था।

‘सर, आगे अउर उधर पूरब के तरफ काफी गंदगी है, उ सब यही नदिए में आता है। धीरे-धीरे पानी गंदा हो गयल साहब।’

‘ठीक है झुरुजी… चलता हूँ.. जानकारी के लिए धन्यवाद।’

‘ठीक है सर नमस्ते।’

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झुरु ने विशालकाय नदी की गंदगी का विश्लेषण एक बाल्टी में ही समेटकरकर दिया था। ग्रामीण जनता की अभिव्यक्ति की ऐसी ही ताकत होती है। गाँव के लोगों से अगर बतकुच्चन शुरू हो जाती हैं तो ऐसी कई कहानियाँ और तथ्य मिल ही जाते हैं जो आधुनिक युग के विज्ञान पर भी भरी पड़ जायें। इस बार की यात्रा भी पिछली बार की तरह ही उबड़-खाबड़ रास्तों पर चल रही थी। रास्ते में कई ऐसे मनोरम इलाके मिल रहे थे जहाँ कदमों के साथ निगाहें भी ठहर जा रही थीं। प्रकृति खुद का शृंगार करती है…।

आगे बढ़ने पर पान घुलाए एक ग्रामीण से मनोज की बातचीत हो गई।

‘नदी को लेकर क्या समस्याएँ हैं?’

‘समस्याएँ वहीं हैं गंदगी अउर नाला।’

‘नदी को लेकर आप सरकार से क्या माँग रखना चाहते हैं?’

‘यही कि सरकार वरुणा नदी की थोड़ा सफाई-वफाई करवा दे। नाले-वाले बंद करवा दे।’

ग्रामीण की बात खत्म होते ही किसान नेता रामजनम ने कहा ‘देखिए अब सरकार से मत कहिए, कुछ जिम्मेदारियाँ हमारी भी हैं। इसी नदी में आप नहाते हैं, इसका उपयोग आप ही लोग करते हैं तो सरकार थोड़े न सफाई करेगी…।’ मुसकुराते ग्रामीण हमारे साथ चलने लगा।

खेतों की सुरक्षा के साथ नदी की संरक्षा भी ज़रूरी है

पानी की एक-दो बोतल, एक पेन और कॉपी रखे झोले को अपने कंधे पर टाँगे मैं टीम से थोड़ा आगे चल रहा था। खेत में काम करते हुए एक किसान रमेश कुमार मिल गए। अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ खेत में काम कर रहे थे। छह-सात वर्ष के बच्चों से लेकर 70 साल की महिला भी खेत में तन्मयता से काम कर रही थी। यात्रा टीम को देखकर सभी की तन्यमता भंग हो गई और एक-एक कर हमारे आसपास इकट्ठा होने लगे।

सिकुड़ी लाल साड़ी, शरीर पर उम्र और तजुर्बे की झुरियाँ, मिट्टी सने हाथ में ढरकव्वा पहने रमेश की 70 वर्षीय माँ जगपत्ति देवी खेत में काम कर रही थीं। मनोज ने उनसे पूछा-

‘ए दादी, पहिले आप लोगन के जमाने में नदी अइसने रहल की कुछ आउर रहल?’

‘पानी पियत रहली, यही से खनवो बने।’

‘आज एतना खराब कइसे हो गयल तब?’

ग्रामीणों ने लोहता नाले की शिकायत की थी

‘नदी में इ गंदगी तोही लोगन त कइला, नदी त तहू लोगन क हौ अब वही के पीया चाहे एसे कमा… गंदा तो होते हौ।’

‘हम लोग त हमेशा सोचत हई ई शुद्ध हो। फसल नोसकान हो जात हौ। अब त तू लोग माला फेंक देत बाय… पैखाना निकाल देत हय… गंदगीयों फेंक देत बाय…। वही के पीया चाहे कमा।’

‘हम्म, बात त सही कहत हऊ।’

इसी कड़ी में रमेश ने बताया कि ‘हमहन लोग के बचपन में नदी बहुत साफ था। खेत में खेलकर आवे तो यही नदी का पानी पीते थे। पहिले नदी में सेवार होता था अब वहू नहीं होता है। पानी में गंदगी के कारण अब किनारे जल्दी कोई नहीं आता है।’

लाइव रहते हुए मनोज रमेश के परिवार के अन्य सदस्यों के पास पहुँचने वाले थे तभी दो बच्चे मिल गए। उनसे नाम वगैरह पूछने पर वे सिर्फ छोटे-छोटे दाँत दिखाकर भाग गए। बच्चों की माँ से जब मनोज ने बताया हम लोग नदी यात्रा निकाल रहे हैं आप कुछ कहना चाहेंगी तो महिला हँसकर बोली- ‘हमरे अम्मा से पूछा…।’

बच्चों से भी मनोज ने पूछा- ‘आप लोग नदी के बारे में पढ़ती होंगी, कुछ बताइए। आप लोग फेसबुक पर लाइव हैं…।’

लेकिन सभी शर्माकर नीचे सिर झुकाकर हँसते हुए अपने-अपने काम में मशगूल थे। उन्हें फेसबुक लाइव से मतलब भी नहीं था और मनोज उन्हें थैंक्यू कहकर आगे बढ़ गए। मनोज ने उन लोगों को काम करते देख ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं किया।

तभी लेखक संतोष कुमार भी आ गए। नमस्कार और हालचाल के बाद वे भी हमारे साथ कदमताल करने लगे।

ग्रामीणों के साथ गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की टीम

मैं और रामजी भैया टीम से थोड़ी दूर चल रहे थे। सामने एक मंदिर दिख रहा था और उससे भी पहले भयावह मिट्टी कटान। जमीन पर उगी हुई छोटी-छोटी हरी घास उस पूरे इलाके को आकर्षक बना रही थी। तभी कुछ जगहों पर कटे हुए पेड़ों की जड़ें रामजी भैया को दिख गईं। नज़र तो मेरी भी इन पर थी लेकिन सबसे पहले रामजी भैया ने कह दिया- ‘इसका भी फोटो खींच लो अमन।’

अंधाधुंध हुई पेड़ों की कटाई

मंदिर के पास लाठी के सहारे खड़े एक अधेड़ टीम के लोगों को देख रहे थे। युवा कवि दीपक मेरे साथ थे। उस मनोरम इलाके में फोटो खिंचवाने के बाद अधेड़ व्यक्ति से मैंने पूछा- ‘का च्चा?’

‘बोला भइया?’

‘मंदिर क पूजारी हउआ का?’

‘नाही, तोही लोगन के देखत हइ… का होत हौ इ?’

‘इ पर्यावरण को संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए यात्रा निकाली जा रही है, आप लोगन के जागरूक करे बदे। अच्छा ई बतावा, ई जमीन एतना उबड़-खाबड़ हौ, बाढ़ से कि खन्नल गयल हौ?’

‘वही, उधरिया पन्नीजी लोग बहुत पहीले क खनाइ कइले हउवन। ट्रके से मट्टी बेच देत रहलन, खूब कमइलन।’

‘अब्बो होला?’

‘नाहीं, अब पुलिस-वुलिस चक्कर मारत रहेलन न।’

मिट्टी कटान के बावजूद प्रकृति ने खुद को संवारे रखा

इनको भी नमस्कार कर मैं और दीपक मंदिर के निचले रास्तों से यात्रा करने करने लगे। नदी के उस पार दो नाले दिखे जिसमें से गंदा पानी धीरे-धीरे वरुणा में गिर रहा था। इस रास्ते पर मैंने गौर किया कि किनारे-किनारे अधिकतर पेड़ काटे गए थे, जमीन से थोड़ी ऊपर निकली जड़ें इसकी गवाही दे रही थीं। आगे बढ़ें तो देखा बाँस और अन्य पेड़ों का संगम। इसके नीचे जो ठंडी छाँव मिलती है उसका मजा ‘एसी’ भी नहीं दे सकती। इसके नीचे होते हुए हम आगे बढ़कर गाँव में आ गए। यहाँ एक ग्रामीण से पूछने पर पता चला कि हम अभी भी दानियालपुर में ही है। ग्रामीण के अनुसार इसका क्षेत्रफल काफी बड़ा है। थोड़ी देर में हम गाँव की सड़क पर आ गए क्योंकि किनारे का रास्ता बंद था। गाँव में पहुँचते ही आबादी वाले इलाके के लोग हमें घूरने लगे। हरा-भरा नजारा, सड़क किनारे लगे सागौन के पेड़, चांपाकल से पानी निकालकर नहाते लोग, घरों में बँधी गाय-बकरियां, खेतों में काम करतीं महिलाएं-पुरुष-बच्चियाँ, चारों तरफ जाली लगाकर मैदान में वॉलीबॉल करते बच्चे व नौजवान, क्या मनोरम नज़ारा था। मुझे कहीं भी स्वच्छता अभियान का नारा या कचरे का डिब्बा नहीं दिखा लेकिन फिर भी चारों तरफ सफाई थी। हाँ, एक जगह ‘आबंटित सरकारी शौचालय’ ज़रूर दिखा जिसके दरवाजे टूटकर अंदर गिर गए थे, टीनशेड ऊपर से टूट चुका था, अंदर पेड़-पालों का पहरा था। बातचीत में पता चला आगे चलकर बइठउकी होने वाली है। अपर्णा मैम और दीपक पीछे रूककर बिस्किट वगैरह खरीदने लगे थे।

बांस की पुलिया के चारों तरफ गंदगी

टीम के साथ बतियाते हुए आगे बढ़ रहे थे। अपर्णा मैम और दीपक रास्ता न भटक जाए, इसलिए मैं वहीं रुक गया। तभी दुपहिया पर सवार मनोज कुमार साहनी मेरे पास आए और पूछा-

‘सर, पुल बनेगा क्या?’

‘नहीं… यह पर्यावरण को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए यात्रा निकाली जा रही है।’

‘पुलवा बन जाता तो बढ़िया हो जाता। बड़ा कष्ट होता है ओ परवा जाए में।’

‘हाँ, तो आइए आगे गोष्ठी होने वाली है उसमें अपनी बात रखिए।’

‘ठीक है सर, गाड़ी रखके आता हूँ।’

स्वच्छता अभियान को मुँह चिढ़ाता सीवर और शौचालय

यहाँ से कुछ ही दूरी पर एक नाला दिखा जिसमें से गंदे पानी की धार वरुणा में गिर रही थी। उस इलाके में बदबू भी थी जिसका कारण था- लोहता नाला। इस नाले की शिकायत यात्रा के दौरान कई ग्रामीणों ने की। उन्होंने बताया था कि इसी नाले के कारण वरुणा नदी का पूरा पानी दूषित हो रहा है। नाले से लगभग दो सौ मीटर मैं दूर था। जिस हिसाब से नाले की दुर्गंध थी उससे यही लग रहा था कि ग्रामीणों की बात में सच्चाई है। आगे जाकर देखा तो वरुणा का पानी एकदम काला है। बाँस का पुल, जिस पर लोग इस पार से उस पार हो रहे थे। पुल के आसपास जलकुम्भी, जगह-जगह बने गड्ढों में वर्षों से जमा पानी जिस पर मल और काई जमी हुई थी। उसी गंदगी में एक ग्रामीण ने अपनी भैंसों को घुसा दिया। पुल के आसपास व्याप्त गंदगी की भयावहता गजब थी। चारों तरह गंदगी-बदबू और उसके बीच हम।

कब्रिस्तान में ही घरौंदा

फोटो खींचते हुए मैं टीम के साथ उस पार हो गया। रास्ते कच्चे थे। बारिश नहीं हुई थी, नहीं तो शायद ही उस पार जा पाते। सड़क किनारे एक कब्रिस्तान था। कुछ कब्रों पर सूखने के लिए कपड़े फैलाए गए थे। एक पर छोटा बच्चा इत्मीनान से बैठा हुआ था। सड़क पर पहुँचने पर गंदगी का नज़ारा और विशाल हो गया। सड़क के दोनों ओर काला पानी, कूड़ा-करकट फैला हुआ था। बड़े नाले से गंदगी गिर रही थी। इस इलाके को ‘स्वच्छता अभियान’ की चादर नहीं ओढ़ाई गई थी।

ग्रामीणों ने लोहता नाले की शिकायत की थी

हम सड़क पर आ गए। सभी लोग पसीने से तर-ब-तर हो गए थे। मैं तो गमछे से पसीना पोछे जा रहा था। अंदर से बनियान भी भींग गई थी। सड़क पर गर्मी की डिग्री बढ़ गई थी। खैर, एक पतले रास्ते से फिर वरुणा किनारे जाने का प्लान बन गया। दीपक और नंदलाल मास्टर एक दुकान पर छनती हुई पकौड़ी देखकर रुक गए थे। थोड़ी देर बाद दोनों जन हाथ में बड़ी-सी थैली हाथ में लटकाए हमारे पास आ गए। एक-एक कर सभी लोग नीचे उतरे। एक शांत इलाके में प्रवेश किए, वहाँ एक मंदिर, उसमें बैठे तीन लोग हमें टुकुर-टुकुर देखने लगे। यहाँ थोड़ी राहत महसूस हुई।

गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की टीम

अपर्णा मैम और दीपक को छोड़कर बाँस के विशालकाय पेड़ के पास टीम के अन्य सदस्य रुक गए। बाँस इतने बड़े-बड़े थे कि ऊपर से घुमावदार होकर लटक रहे थे। रामजी भैया के कहने पर यहाँ भी फोटो खींचा गया और बँसवाड़ी पर चर्चा। अब नदी के दूसरी तरफ चलने लगे। अपर्णा मैम और दीपक मंदिर के लोगों को यात्रा की जानकारी दे रहे थे। मेरे बुलाने पर वे लोग बँसवाड़ी के पास पहुँचे। अपर्णा मैम ने बताया कि रायगढ़ में बाँस जब छोटे-छोटे होते हैं तो इसकी सब्जी और अचार भी बनता है,जिसे करील कहते हैं और इसे तोड़ना और बेचना दंडनीय अपराध है,लेकिन सीजन में बाज़ार में अता है और तीन सौ-चार सौ रूपये तक बिकता है। करील बहुत स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है। सुनकर ताज्जुब हुआ.. बाँस की सब्जी! नदी के इस पार भी व्याप्त शांत वातावरण को पर्यावरण विषय पर हमारी बतकही भंग कर रही थी। चिड़ियों की चहचहाट के साथ पक्षियों का राजा मोर भी हमें दिखाई दिया। हमें देखकर ही शायद मोर ने इस पार से उस पार की उड़ान भर दी। इस पार भी बैंगन, अरुई, भिंडी के खेत दिखे। अपर्णा मैम उसकी खूबसूरती को कैमरे में कैद करने लगीं।

आगे पहुँचने पर एक किनारे सामाजिक कार्यकर्ता जागृति राही और अनूप श्रमिक ने रामजी भैया और टीम को नमस्कार किया। उन्होंने बताया कि हम पहले उस पार गए थे जानकारी होने पर इस पार आ गए। यहाँ कई ग्रामीणों को श्यामजी भैया के परिचित ने इकट्ठा किया- ‘ए चाची, ए अम्मा, ए बिटिया, आवा सब लोगन, इधर आ जा।’

कटने के बाद भी बरकरार है बँसवाड़ी की सुंदरता

कुछ महिलाओं और युवतियों ने नदी यात्रा की जानकारी लेने के साथ ही जोश के साथ यात्रा में अपनी सहभागिता दिखाई। इन लोगों ने बताया कि 20-25 वर्षों में नदी काफी गंदी हो गई है। नहाने के साथ खाने-पीने के कामों में पानी का उपयोग किया जा सकता था। महिलाओं ने सरकार से इस ओर ध्यान देकर वरुणा नदी को बचाने की बात कही।  एक ग्रामीण ने युवतियों को डाँटकर नदी के बारे में कुछ भी बोलने के लिए कहा- ‘पढ़े-लिखे जालू…बोले के चाही न…।’ काफी हिचकते हुए उन्होंने सिर्फ इतना कहा- ‘नदियाँ गंदी हो गई हैं इसको साफ होना चाहिए।’

स्वच्छता अभियान को मुँह चिढ़ाता भारी मात्रा में फैला कचरा

इस पार की यात्रा समाप्ति की ओर थी। बतकही के साथ गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की टीम सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ गोष्ठी स्थल पर पहुँच गई। मुझे अपने गाँव जाना था, इसलिए गोष्ठी से पहले निकल आया। सभी का साथ छूटते ही पैरों में थकान लग रही थी, लेकिन अपनी दुपहिया पर बैठते ही थकान और दर्द उड़न-छू हो गया।

 

अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग के सहायक संपादक हैं।

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