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ब्रह्मेश्वर, तुम्हारी हत्या की दसवीं वर्षगांठ के मौके पर (डायरी 1 जून, 2022)

 सियासत में इत्तफाक जैसा कुछ नहीं होता। मेरी मान्यता तो यही रही है। वैसे आम जीवन में इत्तफाक भी बहुत कम ही होता है। लेकिन सियासत में तो बिल्कुल भी नहीं होता। मसलन, यह इत्तफाक नहीं है कि पिछले दस सालों से सीबीआई ब्रह्मेश्वर मुखिया के हत्यारों का पता नहीं लगा सकी है और ना […]

 सियासत में इत्तफाक जैसा कुछ नहीं होता। मेरी मान्यता तो यही रही है। वैसे आम जीवन में इत्तफाक भी बहुत कम ही होता है। लेकिन सियासत में तो बिल्कुल भी नहीं होता। मसलन, यह इत्तफाक नहीं है कि पिछले दस सालों से सीबीआई ब्रह्मेश्वर मुखिया के हत्यारों का पता नहीं लगा सकी है और ना ही सुप्रीम कोर्ट के पास समय मिल सका है कि वह ब्रह्मेश्वर मुखिया के संगठन रणवीर सेना के द्वारा मचाए गए सामूहिक कत्लेआम के मामलों में सुनवाई कर सके।
हां, यह बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं है। बथानी टोला नरसंहार मामले में एक याचिकाकर्ता नईमुद्दीन मेरे संपर्क में बराबर रहते हैं। हर दूसरे या तीसरे महीने उनका फोन आता है और वे यही कहते हैं कि भाई साहब, सुप्रीम कोर्ट में कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। और हर बार मैं उन्हें एक ही उत्तर देता हूं कि कुछ लिखता हूं मैं। जबकि मैं वाकिफ हूं कि मेरे लिखने से सुप्रीम कोर्ट पर कोई असर नहीं होगा। लेकिन मैं समझता हूं कि यह मेरा लेखनकर्म है।
बताते चलें कि बथानी टोला नरसंहार को रणवीर सेना ने 11 जुलाई, 1996 को अंजाम दिया था और इस नरसंहार में कुल 21 लोगों की हत्या की गई थी। मरनेवालों में 12 महिलाएं और 8 बच्चे थे। रणवीर सेना ने इसके पहले भी अनेक नरसंहारों को अंजाम दिया था। यदि अपनी मेमोरी की परीक्षा लूं तो मुझे याद आ रहा है 29 अप्रैल, 1995 को भोजपुर के खोपिरा में रणवीर सेना द्वारा किया गया पहला कत्लेआम। यह इस सेना की पहली हैवानियत थी। उसके गुंडों ने पांच लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। फिर तो इसके बाद एक सिलसिला ही शुरू हो गया। 25 जुलाई, 1995 को सरथुआ और 5 अगस्त, 1995 को नूरपुर में रणवीर सेना ने 6-6 लोगों की हत्याएं की। इसके बाद चांदी, पतलपुरा, नोनऊर, नाढ़ी, मोरथ और इसके बाद बथानी टोला का नरसंहार। इसके बाद भी 16 जून, 2000 को मियांपुर तक तक ऊंची जाति के गुंडों की इस सेना ने कत्लेआम मचाया। एक बार में सबसे अधिक 59 लोगों की हत्या इन गुंडों ने 31 दिसंबर, 1997 को लक्ष्मणपुर-बाथे में की।

[bs-quote quote=”ब्रह्मेश्वर मुखिया को इन गुंडों का सरगना माना गया और वह खुद को भी मानता भी था। उसे राबड़ी देवी हुकूमत ने पकड़कर जेल में डाल दिया था। लेकिन नीतीश कुमार ने सत्ता में आते ही दो काम किये। पहला तो यह कि उन्होंने जस्टिस अमीरदास आयोग को उस वक्त भंग कर दिया जब आयोग अपनी रपट तैयार कर चुका था। यदि यह रपट सामने आ गयी होती तो रणवीर सेना के सारे संरक्षकों का काला चिट्ठा सबके सामने होता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

खैर, ब्रह्मेश्वर मुखिया को इन गुंडों का सरगना माना गया और वह खुद को भी मानता भी था। उसे राबड़ी देवी हुकूमत ने पकड़कर जेल में डाल दिया था। लेकिन नीतीश कुमार ने सत्ता में आते ही दो काम किये। पहला तो यह कि उन्होंने जस्टिस अमीरदास आयोग को उस वक्त भंग कर दिया जब आयोग अपनी रपट तैयार कर चुका था। यदि यह रपट सामने आ गयी होती तो रणवीर सेना के सारे संरक्षकों का काला चिट्ठा सबके सामने होता। दूसरा काम जो नीतीश कुमार ने किया, वह यह कि उन्होंने हैवान का पर्याय बन चुके ब्रह्मेश्वर मुखिया को खुला छोड़ दिया।
बहरहाल, 1 जून, 2012 को ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या सुबह चार बजे कर दी गयी, जब नवादा पुलिस थाने के अंतर्गत आने वाले कातिरा मुहल्ले में वह अपनी रोज़ाना की सैर के लिए निकला था। स्थानीय निवासियों की आपसी बातों को सुनें तो मुखिया की हत्या करने वाले चार लोग थे। उनमें से मुखिया के घर के पास एक गली के पहले मोड़ पर खड़ा होकर आने-जाने वालों पर निगाह रख रहा था। दो लोग मोटरसाइकिल पर सवार थे। जबकि एक के पास जिसने लाल टी-शर्ट पहनी हुई थी हथियार था और उसने गोलियां चलायी। एक बुज़ुर्ग महिला ने बताया कि उस वक्त वह पूजा के लिए फूल तोड़ रही थी, जब उसने मुखिया के चिल्लाने की आवाज सुनी लेकिन गोली चलने की आवाज़ नहीं आई।

मुखिया की हत्या के संबंध में मैंने एक आलेख फारवर्ड प्रेस के लिए लिखा था – ‘किसकी जादुई गोलियों ने ली बिहार के कसाई की जान?’

अपने इस आलेख में मैंने सभी उपलब्ध तथ्यों को सामने रखा था। इसमें दो अहम बातें थीं। एक तो यह कि जब ब्रह्मेश्वर मुखिया के शव का अंत्यपरीक्षण किया जा रहा था तब कक्ष में शाहाबाद रेंज के तत्कालीन डीआईजी अजिताभ कुमार उपस्थित रहे थे। दूसरी बात जो उस वक्त ब्रह्मेश्वर मुखिया की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कही गयी थी। रिपोर्ट के मुताबिक मुखिया की हत्या जिन गोलियों के कारण हुई, उनका साइज 7.36 बोर था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि मुखिया के शरीर से कोई गोली नहीं मिली। गोलियां उस जगह पर भी नहीं मिलीं, जहां मुखिया की हत्या हुई। अजीब बात यह है कि पुलिस दावा कर रही है कि गोली के तीन खोखे अवश्य मिले हैं। लेकिन उसका बोर साइज 6.75 बताया गया है न कि 7.36 बोर। इसके अलावा, एक स्वचलित गन की पूरी मैगज़ीन घटनास्थल पर कथित तौर से बरामद हुई है।

[bs-quote quote=”अगर इस बात को सच मान भी लिया जाय तो सवाल यही उठता है कि आखिर गोलियां गई कहां? जो गोलियाँ शरीर के अंदर से होकर बाहर जाती हैं, उनमें कोई गति नहीं रहती और वे आमतौर पर घटनास्थल पर ही मिल जाती हैं। क्या जिन गोलियों ने मुखिया की जान ली, वे ‘जादुर्ई’ गोलियां थीं, जो बंदूक से निकलने के बाद मुखिया कि हत्या करने के बाद गायब हो गईं?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

उस समय अजिताभ कुमार के नेतृत्व में ही बिहार सरकार ने एसआईटी का गठन किया था। तब दूरभाष पर पूछे गए एक सवाल में अजिताभ कुमार ने इस बात की पुष्टि की थी कि मुखिया के शरीर में गोली के प्रविष्ट होने के 6 सुराख और बाहर निकलने के 6 सुराख थे। इसका मतलब यह हुआ कि मुखिया को 6 गोलियां लगी और सभी उसके शरीर को पार कर बाहर निकल गईं।
अगर इस बात को सच मान भी लिया जाय तो सवाल यही उठता है कि आखिर गोलियां गई कहां? जो गोलियाँ शरीर के अंदर से होकर बाहर जाती हैं, उनमें कोई गति नहीं रहती और वे आमतौर पर घटनास्थल पर ही मिल जाती हैं। क्या जिन गोलियों ने मुखिया की जान ली, वे ‘जादुर्ई’ गोलियां थीं, जो बंदूक से निकलने के बाद मुखिया कि हत्या करने के बाद गायब हो गईं?
खैर, बाद में यह मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। दिलचस्प यह कि तथाकथित तौर पर उच्च कोटि जांच एजेंसी यह पता लगाने में आजतक तो नाकाम ही रही है कि गोलियां कहां गईं और वे किसकी बंदूक से निकली थीं?
मैं एक बार फिर कहता हूं कि यह इत्तफाक नहीं है। सीबीआई, सरकार और अदालत सब जानते हैं कि उन्हें करना क्या है और वे इसी के आधार पर व्यवहार करते हैं। मैं तो बथानी टोला के एक याचिकाकर्ता किशुन ठाकुर (राजपूत नहीं, नाई जाति के) को याद कर रहा हूं, जिन्होंने नरसंहार में अपनों को खोया और फिर सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ की आस में करीब 3 साल पहले आखिरकार दम तोड़ दिया।
बहरहाल,  एक पंक्ति सूझ रही है–
सब जानते हैं कि कातिल कौन हैं “नवल”
बस सच कहने से डरते हैं सब काफिर।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

खबरों में शीर्षकों का खेल कितना समझते हैं आप? (डायरी 16 मई, 2022) 

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