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कर्मकांड के लोटे से बंधा संस्कार और बच्चों के जलते हुए पाँव

8 मई की दोपहर शुरू होने में अभी दो घंटे बाकी हैं लेकिन वातावरण में गर्मी काफी भर चुकी है। घाटों पर दिखनेवाले अधिकांश लोग अपने सिर पर गमछा रखे चल रहे हैं और कई बच्चे गंगा में उत्साह से डुबकियाँ लगा रहे हैं। मुझे नहीं मालूम कि घाट का फर्श कितना गर्म है क्योंकि […]

8 मई की दोपहर शुरू होने में अभी दो घंटे बाकी हैं लेकिन वातावरण में गर्मी काफी भर चुकी है। घाटों पर दिखनेवाले अधिकांश लोग अपने सिर पर गमछा रखे चल रहे हैं और कई बच्चे गंगा में उत्साह से डुबकियाँ लगा रहे हैं। मुझे नहीं मालूम कि घाट का फर्श कितना गर्म है क्योंकि मैंने चप्पल पहनी हुई है लेकिन मेरे सामने दर्जनों स्कूली बच्चे हैं स्कूल यूनिफॉर्म पहने हुए, नंगे पाँव हाथ में प्लास्टिक का लोटा लिए सूर्य को अर्घ्य देने के लिए निर्देश के इंतज़ार में हैं। एक बच्ची बारी-बारी अपने पाँव उठा लेती जिससे मुझे लगने लगा कि असल में उसके पाँव जलने लगे हैं। मैंने अन्य बच्चों के पाँवों की तरफ देखा तो वे भी कुछ बेचैनी महसूस करने लगे थे।

शिवाला घाट पर इन बच्चों के अलावा पीली धोती-कुर्ता पहने हुए कुछ पुरुष और पीली साड़ी पहने हुए कुछ महिलाएं भी थीं, जो उन बच्चियों को बराबर यह निर्देश देते  हुए दिख रहे थे कि –‘आप लोग अपनी-अपनी जगह पर खड़े रहें, जब आपको कहा जाये तब आप लोटे का जल सूर्य भगवान को चढ़ाएँ।’ स्कूल यूनिफॉर्म पहने माथे पर रोली और हल्दी का टीका लगाए हुए, जो पसीने से फैल चुका था और बहुत ही अजीब दिख रहा था, बच्चियों ने अपनी जगह पर खड़े रहते हुए हामी भरी।

बच्चियाँ गर्मी से बेहाल हो रही थीं, मैंने उनसे पूछा कि क्या अभी स्कूल चल रहे हैं? तब उनमें से एक ने कहा – ‘नहीं, अभी छुट्टियाँ चल रही हैं लेकिन टीचर ने खबर भिजवाई कि 8 मई को स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर और एक-एक लोटा लेकर शिवाला घाट पर सुबह 7.30 बजे तक पहुँच जाना।  यह भी कहा कि घर से और कोई भी आ सकता है तो साथ लेते आना और हम यहाँ आ गए।’

अकेले आ नहीं सकते थे इसलिए किसी के साथ मम्मी, तो किसी के साथ दीदी और किसी के साथ दादी या चाची आई हुई थीं। ‘यहाँ क्यों आए? पूछने पर सभी ने यहाँ आने के कारण पर अनभिज्ञता जताई। वैसे छोटे स्कूल में पढ़ने वाले मिडिल क्लास परिवारों के बच्चे अपने अध्यापकों से सवाल पूछने से बचते हैं।

मैंने उन बच्चों से उनकी पढ़ाई-लिखाई को लेकर कई सवाल किए ताकि वे बच्चे मुझसे सहज हो सकें। बहुत सी बच्चियों से पूछा कि आगे चलकर क्या बनोगी? लेकिन कई बार पूछने पर भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उन लोगों ने अभी भविष्य का सपना देखना शुरू ही नहीं किया था । वे बस मुस्कुराकर इस सवाल के जवाब से बचती हुई दिखाई दीं। कुछ बच्चियों ने कहा कि वे डॉक्टर बनेंगी। कुछ ने अध्यापिका बनने की मंशा ज़ाहिर की। कुछ ने मेरे द्वारा दिये गए अनेक विकल्पों में से एक जवाब दिया।

दरअसल ये बच्चे निम्नवर्गीय बस्तियों में रहनेवाले बच्चे थे जिनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा ऐसे संस्थानों ने उठाई है जिनके अपने नियम-कायदे और धार्मिक क्रियाकलाप हैं। बच्चों को जितनी तेजी से इनमें पारंगत बना दिया जाता है उसी तेजी से उनमें तर्कशीलता और वैज्ञानिक चेतना विकसित नहीं होने पाती। अगर सर्वे किया जाय तो यह तथ्य आसानी से समझ में आ सकता है कि उनकी ज़ेहनी स्वतन्त्रता को कई स्तरों पर कंडीशंड किया जा रहा है। वे एक ऐसे भारत के नागरिक बनाए जा रहे हैं जिसमें सबकुछ एकांगी और अधकचरा है।

वहाँ मौजूद अभिभावकों से मैंने इसकी जानकारी ली कि उनके बच्चों की पढ़ाई कैसी हो रही है तो उन्होंने छूटते ही जवाब दिया कि पढ़ाई कहाँ अच्छी हो रही है। बस जाना और आना होता है। न सरकारी स्कूल में पढ़ाई हो रही है और न यहाँ। लेकिन अब यहाँ न भेजें तो कहाँ भेजें।

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तभी आयोजकों में से एक, पीली धोती और कुर्ता एक सज्जन से बात हुई। उन्होंने  बताया कि विश्व शांति और सद्भाव के लिए सामहिक सूर्य अर्ध्य देने  का कार्यक्रम आयोजित किया गया है। एक समय में एक साथ अर्ध्य देने पर उसका एक विशेष महत्त्व होता है। उन्होंने बताया कि बनारस के सभी  84 घाटों पर इस तरह से लोग शामिल हुए हैं और एक साथ माइक पर मंत्रोचार करते ही सभी लोग एक साथ सूर्य अर्ध्य देंगे। इससे क्या होगा? इस बात पर उन्होने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि दुनिया में फैली हुई अशांति दूर होगी।

इस बीच वह बच्चों को निर्देश दे रहे थे कि मंत्रोच्चार की आवाज़ सुनते ही आप लोग काम शुरू कर देंगे। साढ़े दस और ग्यारह बजे के बीच किसी ने उन सज्जन को आकर बताया कि मंत्रोच्चार शुरू हो गया है। हालांकि घाट पर बच्चों और पर्यटकों की भीड़ के चलते मंत्रोच्चार की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी लेकिन उन्हें जैसे ही पता लगा मंत्रोच्चार शुरू हो चुका है, वैसे ही वहाँ उपस्थित 8-10 लोगों ने अपना मंत्रोच्चार शुरू कर दिया जो बहुत ही बेसुरा लग रहा था क्योंकि सारी आवाजें खुले में  फैल जा रही थीं, लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं था। आयोजकों में से लोग दौड़-दौड़ कर उन बच्चियों को अर्घ्य देने का निर्देश दे रहे थे और बच्चियाँ उनके दिये निर्देश का पालन कर रही थीं।

शुरू होने से पहले कुछ बच्चियों के साथ आईं माताओं और अन्य लोगों से मैंने बात की। उनमें से धूप से परेशान एक माँ ने कहा कि ‘छुट्टियों में भी चैन नहीं, घर भेजकर बुलवा लिया। पढ़ाई-वढ़ाई  करवाना नहीं बस पूजा-पाठ करवाना। इससे क्या होगा?’ सवाल तो उनका वाजिब था लेकिन ऐसा कहने वाली वह एकमात्र थीं।

दूसरी तरफ बच्चियों के साथ आए घरवालों के साथ उनके कुछ पड़ोसी भी चले आए थे। अधिकतर भारतीय पुण्य कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। चाहे वह गणेश को दूध पिलाने का मामला हो या साईं बाबा की फोटो से शहद टपकने वाला मामला हो। उन्हें लगता है कि उनके जीवन की परेशानियों का हल उनके भगवान निकाल सकते हैं। उनमें से अनेक ने कहा कि बच्चों को अच्छे  संस्कार  देना जरूरी है। हम खुश हैं कि स्कूल में पढ़ाई के साथ बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में भी जान रहे हैं।

बीच-बीच में दूसरे आयोजक आकर कार्यक्रम संबंधी जानकारी उन्हें दे रहे थे। मैंने वहाँ मौजूद एक दूसरे सज्जन से पूछा कि ‘क्या बच्चों में केवल धर्म के रास्ते ही संस्कार दिये जा सकते हैं? उनकी संवेदनाओं और समझ को मानवीय बनाने का और कोई तरीका नहीं है?’

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पहले तो उन्होंने मुझे कुछ देर घूरकर देखा, फिर बोले – ‘मैडम बुरा क्या है। सारी दुनिया हमारे देश में आकार धर्म-कर्म सीख रही है। आखिर शांति भी तो कोई चीज है। उसे पाने के लिए सारे विदेशी बनारस का रुख करते हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक तक भारत से धर्म सीख रहे हैं। कहिए जनाब। है कि नहीं ?’ उन्होंने पास ही खड़े एक दूसरे व्यक्ति से समर्थन की उम्मीद में कहा।

दूसरे सज्जन भी इस मसले पर साफ नहीं थे। वे अपनी समझ से कुछ चिंतन करते रहे फिर बोले – ‘धर्म है तो संस्कार हैं। संस्कार है तो दुनिया है। संस्कार न होंगे तो दुनिया में आग लग जाएगी।’

फिलहाल दुनिया जले न जले लेकिन बच्चों के नंगे पाँव जलना शुरू हो चुके थे।

अपर्णा गाँव के लोग डॉट कॉम की कार्यकारी संपादक हैं।

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