‘म्हारो राजस्थान मा’ दलितों को मारते भी थे रोने भी नहीं देते थे…
पहला भाग
मीमरौठ साहेब, राजस्थान में आज दलितों की स्थिति कैसी है? दलितों पर हिंसा व अत्याचार बदस्तूर जारी है, लेकिन बात अदालत तक नहीं पहुंच पाती। सामंती शक्तियां अभी भी मजबूत हैं और राजनीति पूर्णत: उनके नियंत्रण में है। ऐसा क्यों है?
राजस्थान में दलितों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। आज भी दलित अपनी गरिमा, स्वतन्त्रता व समानता के लिए छटपटा रहा है। राजस्थान में ग्रामीण क्षेत्रों में दलित सार्वजनिक मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता, सार्वजनिक नल, हैण्डपम्प से पानी नहीं ले सकता, तालाब में नहा नहीं सकता, नाई दलित के बाल नहीं काटता, दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर गांव के मुख्य मार्ग से नहीं निकल सकता। गांव में श्मशान घाट जातियों के अनुसार अलग-अलग हैं। दलितों की भूमि पर दबंग जाति के लोग कब्जा कर रहे है।
“अक्सर आरोपी के दबाव में गवाह बदल जाता है। ऐसी स्थिति में पीड़ित को न्याय मिलना दूर की कौड़ी साबित हो रही है। जहां तक मेरा मानना है कि आजादी से लेकर आज तक सत्ता बदलती रही है लेकिन व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। शासन व सत्ता में सामंतवादी व्यवस्था में विश्वास रखने वाले लोग ही बैठे हैं, जिसकी वजह से कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका पूर्ण रूप से सामंतवादियों के नियंत्रण में है। इसके चलते ही दलित आज भी सामाजिक न्याय व समानता के लिए प्रयासरत हैं।”
दलित जनप्रतिनिधि, सरपंच, प्रधान, विधायक, यहां तक कि सासंद ही क्यों न हो, उसको भी गांव में जातिगत आधार पर भेदभाव का शिकार होना पडता है। आरक्षण के कारण से दलितों को सरपंच बनाया जाता है लेकिन दबंग जाति के लोग व ग्राम पंचायत सचिव दलित सरपंच व महिला सरपंचों को सहयोग नहीं करते। कई ग्राम पंचायतों में दलित व महिला सरपंच को कुर्सी पर नहीं बैठने दिया जाता है। इसका मुख्य कारण राजस्थान सामंतवादी प्रदेश रहा है। प्रदेश के सामंत लोकतांत्रिक व्यवस्था व संविधान में विश्वास नहीं रखते। वे मनु द्वारा बनाये गये कानून व स्वंय की सत्ता में विश्वास रखते हैं, इसलिए सामंतवादी व्यवस्था शोषणकारी व्यवस्था की पक्षधर रही है। इसलिए राजस्थान के दलितों का हजारों साल से शोषण होता आया है और आज भी हो रहा है।
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उक्त समस्याओं तथा अन्य किसी भी प्रकार की हिंसा व अत्याचार उत्पीड़न व जातिगत भेदभाव के खिलाफ पीड़ित दलित शिकायत दर्ज़ कराने के लिए पहले तो पुलिस थाने में जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता है, अगर कोई पीड़ित अपनी पीड़ा को लेकर पुलिस थाने में जाता है तो वहाँ बाहर खडा संतरी ही पीड़ित को हड़का कर भगा देता है। जैसे-तैसे कर पीड़ित पुलिस थाने में चला जाता है तो कई दिनों तक मुकदमा ही दर्ज नहीं किया जाता। उल्टे पीड़ित को ही डरा-धमका कर रात या दिन में थाने में बिठाया जाता है। आरोपी को बुलाकर पीड़ित के सामने ही घटना के बारे में पूछा जाता है जिससे पीड़ित ज्यादा घबरा जाता है। कई बार मुकदमा दर्ज भी कर लिया गया तो पुलिस वाले ही आरोपी को फोन कर पीड़ित के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने की सलाह देते हैं जिसकी वजह से पीड़ित न्याय के लिए पुलिस थाने में जाता है लेकिन न्याय मिलना तो बहुत दूर उसको रिपोर्ट दर्ज करवाने में ही पसीने आ जाते है।
आखिर में दलित का मुकदमा दर्ज भी हो जाता है तो सही धाराओं में दर्ज नहीं किया जाता। घटना के बारे में सही उल्लेख नहीं किया जाता। आरोपियों के दबाव में गवाह खुलकर बोल नहीं पाते। डर के कारण गवाह बदल जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप बहुत ही कम प्रकरणों में चालान होता है। कोर्ट में प्रकरण जाने के बाद भी गवाहों द्वारा न्यायालय में जाकर मुकर जाना आम बात है। अक्सर आरोपी के दबाव में गवाह बदल जाता है। ऐसी स्थिति में पीड़ित को न्याय मिलना दूर की कौड़ी साबित हो रही है। जहां तक मेरा मानना है कि आजादी से लेकर आज तक सत्ता बदलती रही है लेकिन व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। शासन व सत्ता में सामंतवादी व्यवस्था में विश्वास रखने वाले लोग ही बैठे हैं, जिसकी वजह से कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका पूर्ण रूप से सामंतवादियों के नियंत्रण में है। इसके चलते ही दलित आज भी सामाजिक न्याय व समानता के लिए प्रयासरत हैं।
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राजस्थान में दलितों पर किस प्रकार के अत्याचार होते हैं? कानून की स्थिति कैसी है?
राजस्थान का दलित आज भी अपनी गरिमा व सम्मान के लिए प्रयास कर रहा है लेकिन इनको दिलाने में राज्य सरकार हमेशा असफल रही है। दलित आज भी जीवन जीने के मूलभूत अधिकार से वंचित हैं – जैसे स्वच्छ पीने का पानी, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, राशन आदि से वंचित हैं। अत्याचारों की बात करें तो दलित कब, कैसे व किस प्रकार के अत्याचार का शिकार हो जाए इसका कोई ठिकाना नहीं। दलितों के घरों में आग लगा देना, भूमि पर कब्जा करना, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करना, दलित महिला सरपंच व अन्य दलित जन प्रतिनिधियों को अपमानित करना, शमशान में दलितों को दफनाने नहीं देना आदि अनेक प्रकार की समस्याएं हैं। यह तो एक बानगी है।
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आपने कुम्हेर और चकवाड़ा कांड में बहुत कार्य किया। कुम्हेर तो ऐसी घटना थी जिसने सभी को सोचने पर मजबूर किया लेकिन एक लम्बी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकी। आज कुम्हेर के मुकदमे का क्या हाल है? क्या आप कुम्हेर और चकवाड़ा के घटनाक्रम को विस्तारपूर्वक समझायेंगे?
वर्ष (1998-2001) तक राजस्थान में लगातार चार साल से अकाल पड़ने के कारण ग्राम चकवाड़ा तहसील, फागी, जिला जयपुर के सार्वजनिक तालाबों में पानी की कमी आने के कारण चकवाड़ा गांव के उच्च जाति के लोगों द्वारा चिन्हित किए गये घाटों की तुलना में बैरवाओं (दलितों) के घाट पर पानी सूख गया था, क्योंकि बैरवाओं के घाट ऊंचाई पर थे। सवर्ण जातियों के घाट पर जहाँ पानी ज्यादा रहता है, जिसके कारण उस जगह पर नहाया नहीं जा सकता था।
“प्रशासन को कहने पर भी वह अपनी जिम्मेदारी से कार्य नहीं करता था। सवर्ण जाति के लोग प्रशासन के सामने ही बैरवाओं को अपशब्द कहते व उनसे अभद्र व्यवहार करते थे लेकिन थाना प्रभारी व स्थानीय प्रशासन ने इसके बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाया।”
दिनांक 14 दिसम्बर 2001 को सुबह करीब 9.00 बजे बाबूलाल बैरवा पुत्र जमनालाल बैरवा, उम्र 45 वर्ष और राधेश्याम बैरवा पुत्र हरिशंकर बैरवा उम्र 22 वर्ष के चकवाड़ा के सार्वजनिक तालाब (गणेश घाट) पर नहाने पर गांव के लोगो में तत्काल कानाफूसी शुरू हो गई व पूरे गांव में बिजली की तरह सभी लोगों में यह बात फैल गई कि बैरवाओं ने सवर्ण जाति का घाट ( गणेश घाट) को अपवित्र कर दिया है। इससे पहले घाट पर बैरवा समुदाय के किसी भी व्यक्ति ने प्रवेश नहीं किया था। इसलिए गांव के लोगों के लिए यह एक नई बात थी। घटना के उसी दिन शाम को तालाब पर प्रभावशाली सवर्ण जाति के लोगो ने खाप पंचायत का आयोजन किया जिसमें बैरवाओं के विरुद्व नारेबाजी की, उनके घरों पर पत्थर फेंके, जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया जिससे बैरवा समुदाय के लोग आतंकित व भयभीत हो गए। रात को बैरवाओं द्वारा फागी थाने पर फोन कर घटना से अवगत करवाया गया। पुलिस थाना फागी के तत्कालिन थानाधिकारी महेश शर्मा ने फोन पर ही बैरवाओं को घरों में चुपचाप दुबक जाने की सलाह दी और कहा कि सुबह थाने पर पहुँचकर रिपोर्ट लिखवा देना।
दिनांक 15 दिसम्बर 2001 को सुबह करीब 10 बजे तत्कालिन थानाधिकारी महेश शर्मा व तहसीलदार भागीरथ साख ने बैरवाओं को तालाब के पाल पर बुलाया और धमकाकर कहा कि “तुमने गाँव की परम्परा तोड़ी है। परम्परा तोडकर विवाद बढ़ाते हो।’ बैरवा डरकर घरों में घुस गये। थोड़ी देर बाद अपर जिला कलक्टर लक्ष्मण कुड़ी और पुलिस उप अधीक्षक नरेन्द्र ओला ने बैरवाओं को घरों में से बुलवाया और सामुदायिक भवन में ले गए। गांव के सवर्ण लोगों को भी वहाँ बुलवाया गया था। इन दोनों अधिकारियों ने भी बैरवाओं को ‘गांव की परम्परा न तोड़ने और सुलह करने की सलाह’ दी। बैरवा समुदाय के लोग पुलिस प्रशासन द्वारा सकारात्मक कार्रवाई न किए जाने के कारण से फिर से अपने घरों में दुबक गए। बैरवा समुदाय में आतंक का माहौल कायम रहा।
16 दिसम्बर 2001 को गांव के सवर्ण व दबंग जातियों ने मीटिंग कर बैरवाओं को बुलाया। गांव के पंच पटेलों ने निणर्य किया कि बैरवा समाज के सभी लोग इन शर्तों पर हस्ताक्षर करेंगे कि ‘बैरवा जाति के लोग भविष्य में सवर्ण जाति के घाट पर नहीं नहाएंगे। उन्होंने गणेश घाट पर नहाकर गौहत्या करने जैसा पाप किया है इसलिए उन्हें 51 हजार रुपये का जुर्माना देना पडेगा। जुर्माना नहीं देने की स्थिति में पंचों का फरमान मान्य होगा।’
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इन शर्तों पर बैरवा समाज के लोगों ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। गांव वालों ने कहा कि बैरवाओं ने गांव की परम्परा तोड़ी है और पुलिस को बुलाया है जिसकी वजह से पुलिस प्रशासन के लोग परेशान हुये हैं। इसलिए पांच दिन में हस्ताक्षर नहीं किए गए तो उनके खिलाफ दंड-जुर्माने की कार्यवाही की जाएगी। जुर्माना नही देने पर बैरवा समाज का सामाजिक बहिष्कार किया गया व 21 दिसम्बर 2001 को बैरवा समुदाय के लोगों पर निम्न प्रतिबन्ध लगाये गये:
चाय की दुकान वाला चाय नहीं देगा।
साइकिल व ट्रैक्टर ठीक करने वाला बैरवा समुदाय के लोगों की साइकिल व ट्रैक्टर आदि वाहन ठीक नहीं करेगा।
डॉक्टर दवाई नहीं देगा।
सब्जी बेचने वाला सब्जी नहीं देगा।
सवर्ण जाति का आदमी, जिसके पास ट्रैक्टर या यातायात का कोई भी अन्य साधन है वह बैरवाओं के खेत जोतने व सामान लाने-ले जाने का कार्य नहीं करेगा।
राशन की दुकान वाला दैनिक जीवन में काम आने वाली सामग्री उपलब्ध नहीं करायेगा।
बैरवा समुदाय के लोगों को सर्वण जाति का आदमी न तो मजदूरी करने ले जायेगा तथा न कोई बैरवा ही मजदूरी करने जायेगा।
उक्त नियमों का उल्लंघन अगर कोई सवर्ण जाति का आदमी करता है तो उसको पाँच हजार रुपये का दण्ड देना होगा। इसलिए कुछ मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले गैर दलित समुदाय के लोग सहानुभूति रखते हुए भी आर्थिक दण्ड के कारण खुलकर सामने नहीं आये। वे चाहते हुए भी सवर्ण जाति का विरोध नही कर सके।
बैरवा समुदाय पर बढ़ते आतंक को देखते हुये दिनांक 22 दिसम्बर 2001 को बाबूलाल बैरवा और हरि शंकर बैरवा द्वारा फागी पुलिस थाने में 17 लोगों के खिलाफ नामजद एफ.आई.आर दर्ज कराई गई लेकिन कोई पुलिस कार्यवाही नहीं हुई। बल्कि गुस्सा होकर सवर्ण समुदाय के लोगों ने बैरवाओं को जान से मारने और अंग-भंग करने की धमकी देना शुरू किया। गाली-गलौच करने लगे और विरोध करने पर मार-पीट करने पर उतारू हो जाते थे। प्रशासन को कहने पर भी वह अपनी जिम्मेदारी से कार्य नहीं करता था। सवर्ण जाति के लोग प्रशासन के सामने ही बैरवाओं को अपशब्द कहते व उनसे अभद्र व्यवहार करते थे लेकिन थाना प्रभारी व स्थानीय प्रशासन ने इसके बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाया। सवर्ण दबंग प्रशासन के सामने राजीनामा करने के लिए खुलेआम धमकी देते थे कि ‘राजीनामा कर लो वरना तुम्हारा जीना हराम हो जाएगा। हम तुमको चैन की सांस नहीं लेने देंगे।’
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बैरवाओं को भय से त्रस्त होकर और पुलिस-प्रशासन की लापरवाही को देखते हुए गांव वालों के दबाव में आकर दिनांक 06 जनवरी 2002 को राजीनामा करना पड़ा, जिसमें लिखा गया कि बैरवा समुदाय के लोगों को सार्वजनिक घाट पर पहले भी नहाने के लिए कोई मनाही नहीं थी और न ही अब है। अर्थात सवर्ण जाति के लोगों को सार्वजनिक घाट पर बैरवा समुदाय के लोगों द्वारा नहाने से कोई आपति नहीं है। यह निर्णय भी गांव वालों ने अपना बचाव करने के लिए लिखवाया ताकि प्रशासन को यह निर्णय दिखाकर कानून के शिंकजे से बच जाएं। इस निर्णय की पोल दूसरे दिन ही खुल गई जब बैरवा समुदाय के लोग गणेश घाट पर नहाने गये तो सवर्ण जाति के लोग उन्हें कुल्हाडी, फरसे, लाठियाँ लेकर मारने के लिए आ गये। बैरवाओं को न्याय नहीं मिलता देखकर जून 2002 में अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग नई दिल्ली के अध्यक्ष को अवगत करवाया गया। इस बीच मैंने व सिकोईडिकोन के सचिव शरद जोशी तथा अन्य मानवाधिकार संगठनों ने अलग-अलग चार बार मुख्यमंत्री से मिलकर चकवाड़ा के दलितों की सुरक्षा की माँग की जिसके फलस्वरूप चकवाड़ा में पुलिस का जप्ता लगाया गया और स्थायी पुलिस चौकी की स्थापना की गई ।
“प्रशासन ने बंदूकों के बीच यात्रा के चकवाड़ा पहुँचने का विश्वास दिलाया। इस पर यात्रा दल ने वहीं आम सभा कर बातचीत की और तय किया कि बन्दूकों के बीच यात्रा जाने से सद्भावना बिगड सकती है। अतः आयोजकों ने परिस्थिति को मद्देनजर रखते हुये यात्रा को माधोराजपुरा में ही स्थगित कर दिया।”
मैंने इस प्रकरण को दिनांक 5-12 अगस्त 2002 को जेनेवा में सम्पन्न हुये अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ की कमेटी ऑन एलीमिनेशन ऑॅफ रेसियल डिस्क्रिमिनेशन (सर्ड) में यह मामला उठाया जिसकी चर्चा देश-विदेश में भी छाई रही व मीडिया ने काफी प्रभावी ढंग से प्रकाशित किया। देश के प्रतिष्ठत समाचार पत्रों में भी समाचार प्रकाशित हुआ। मेरे द्वारा किये गये हस्तक्षेप से केन्द्र और राज्य सरकार पर दबाव पड़ा। दिनांक 7 व 9 सितम्बर 2002 को दलित मानवाधिकार केन्द्र में चकवाड़ा के दोनों पक्ष से लोग आए। गांव वाले चाहते थे कि चकवाड़ा में किसी प्रकार की रैली नहीं आये। केन्द्र की मध्यस्थता से उन में आपस में बातचीत कराई गई जो अंतिम निर्णय पर नहीं पहुँची लेकिन दोनों पक्षों ने सद्भावना यात्रा का स्वागत करने का निर्णय लिया।
मेरे द्वारा तथा साथी संगठनों के साथ मिलकर दिनांक 20-21 सितम्बर 2002 को सद्भावना यात्रा (रैली) चाकसू से चकवाड़ा तक निकालने की सूचना पूर्व में ही दी गई। 20 सितम्बर 2002 को चाकसू में फागी मोड़ से चकवाड़ा के लिए सद्भावना यात्रा की शुरुवात हुई, जिसका चाकसू से माधोराजपुरा के बीच सभी गाँवों में स्वागत हुआ। आम सभाएं हुईं, माधोराजपुरा में यात्रियों ने रात्रि विश्राम किया। 21 सितम्बर 2002 को ग्राम पंचायत माधोराजपुरा में सरपंच, उपसंरपच व अन्य गणमान्य लोगों द्वारा सद्भावना यात्रा के स्वागत में आम सभा हुई। फिर यात्रा रवाना हुई जिसे लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद प्रशासन ने रोक दिया। घंटे भर बाद यात्रा फिर रवाना हुई जिसे प्रशासन ने फिर फागी में रास्ता साफ कराने के नाम पर रोका। थोड़ी देर बाद बताया गया कि फागी में तनाव बढ़ गया है। प्रशासन ने बंदूकों के बीच यात्रा के चकवाड़ा पहुँचने का विश्वास दिलाया। इस पर यात्रा दल ने वहीं आम सभा कर बातचीत की और तय किया कि बन्दूकों के बीच यात्रा जाने से सद्भावना बिगड सकती है। अतः आयोजकों ने परिस्थिति को मद्देनजर रखते हुये यात्रा को माधोराजपुरा में ही स्थगित कर दिया।
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दलित मानवाधिकार केन्द्र समिति के एक प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालिन मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को उनके बंगले पर जाकर सारे घटनाक्रम से अवगत कराया और चकवाड़ा के दलितों की सुरक्षा की मांग की। 23 सितम्बर 2002 को सिकोईडिकोन और दलित मानवाधिकार केन्द्र के प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री से मिलकर सारी वास्तविक स्थिति बताई तथा चकवाड़ा के दलितों व सीकोईडिकोन के केन्द्रों व कार्यकताओं की सुरक्षा की माँग की तथा राजनीति में लगे लोगों की लिप्तता की जानकारी दी। सरकार द्वारा बाबूलाल बैरवा को सुरक्षा के लिए एक सशस्त्र पहरी 24 घण्टे के लिए उपल्बध करवाया गया।
ग्राम चकवाड़ा के सार्वजनिक तालाब के घाटों पर बैरवा समुदाय के लोग नहा रहे हैं लेकिन सवर्ण जाति के कुछ लोगों ने नहाना बन्द कर रखा है। इससे साफ जाहिर होता है कि सवर्ण जाति के लोगों की मानसिकता में अभी तक किसी प्रकार का कोई सुधार नही आया है। मुल्जिमों को सजा दिलाने में आज तक प्रशासन नाकाम रहा जबकि उपरोक्त सभी मुल्जिमानों के खिलाफ अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम मुकदमा संख्या 436/01 दिनांक 22 फरवरी, 2001 को दर्ज है।
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जब कि प्रशासनिक अधिकारियों का यह दायित्व बनता है कि पीड़ित पक्ष को जल्द से जल्द न्याय मिले एवं शान्ति स्थापित हो सके, लेकिन इस प्रकरण में तत्कालीन अपर जिला कलेक्टर जिला जयपुर लक्ष्मण कुड़ी, थानाधिकारी फागी महेश शर्मा, पुलिस उप अधीक्षक वृत्त दूदू नरेन्द्र ओला, तहसीलदार फागी भागीरथ साख आदि चारों अधिकारियों ने लोकसेवक की श्रेणी में रहते हुए अनुसूचित जाति के लोगों की भावना व अधिकारों की अनसुनी और उपेक्षा जैसा जघन्य अपराध किया। तत्कालिन थानाधिकारी महेश शर्मा ने तो यहां तक कहां कि गांव की परम्परा को क्यों तोड़ा । ऐसे अधिकारियों से किसी ठोस न्यायिक कार्यवाही करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे अधिकारी से न्याय की उम्मीद का परिणाम है कि चकवाड़ा प्रकरण के अधिकांश आरोपियों को न्यायालय द्वारा बरी कर दिया। जो शेष आरोपी बचे हैं उनके बारे में भी यह कहना मुश्किल है कि उनको सजा मिल पायेगी या नहीं। लेकिन जिस उद्देष्य को प्राप्त करने के लिए चकवाड़ा के दलितों ने जंग छेड़ी थी उसमें आखिर दलित मानवाधिकार केन्द्र के प्रयासों से सफल हो गये । जिस घाट पर नहाने को लेकर विवाद हुआ था आज उसी घाट पर चकवाड़ा के दलित नहाते देखे जा सकते है यही दलितों की सबसे बडी सफलता है।
आखिर चकवाड़ा के दलितों को मिला अधिकार:
केन्द्र के प्रयासों से चकवाड़ा के दलित सदियों वर्ष पुरानी परम्परा को तोड कर गणेश घाट, महादेव घाट, जोरावर घाट आदि किसी भी घाट पर नहाने के लिए स्वतन्त्र हैं।
चकवाड़ा प्रकरण के पीड़ित बाबूलाल बैरवा को राज्य सरकार द्वारा निःशुल्क सुरक्षा पहरी दिया गया, जो लगभग 3 वर्ष तक रहा और बाबूलाल बैरवा के कहने पर ही उसको हटाया गया।
राज्य मानवाधिकार के आदेश से चकवाड़ा के दलितों की सुरक्षा के लिए स्थायी पुलिस चौकी की स्थापना की गई।
केन्द्र के सतत प्रयास से चकवाड़ा में शांति व्यवस्था स्थापित की गई।
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अभिशाप नहीं हैं स्त्रियों में समानता के हक पर दावा करना,डायरी (20 अप्रैल, 2022)
आज भी गांवों में विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रवादी, हिन्दू धर्म एवं राष्ट्रीय हितैषी संगठनों में से प्रमुख माना जाता है परन्तु दलितों को गरिमा व मानवीय मूल्य दिलाने तथा ग्रामीण क्षत्रों में अस्पृष्यता उन्मूलन की दिशा में इन धार्मिक और राजनैतिक संगठनों का कोई ठोस सकारात्मक पक्ष दिखाई नही पड़ता। चकवाड़ा परम्परा के नाम पर में अस्पृष्यता को बनाये रखने व बैरवाओं के खिलाफ चलाये जा रहे सामाजिक बहिष्कार आन्दोलन का नेतृत्व विश्व हिन्दू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ताओं द्वारा ही किया जा रहा था। हिन्दू धर्म के ठेकेदार व प्रवक्ता इस बात का दावा करते हैं कि हिन्दू धर्म में छुआछूत के लिए कोई स्थान नही है लेकिन देखा जाये तो छुआछूत का सबसे बड़ा गढ़ ही हिन्दू धर्म है जिसमें सबसे ज्यादा शोषण के शिकार दलित व महिलाऐं होती हैं। हालांकि चकवाड़ा के दलित सार्वजनिक तालाब के सभी घाट पर नहाने लगे हैं। लेकिन इसका दूसरा परिणाम सामने आया है, वह यह है कि प्रभावशाली वर्ग के सभी लोगों ने तालाब में नहाना बन्द कर दिया है। इससे साफ पता चलता है कि अभी भी उनकी मानसिकता में खोट है।
इस तरह की बहसी परम्पराएं और मानसिकता मे कब तक बदलाव आएगा सारी शिक्षा व्यर्थ है ऐसी सोच के आगे।
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