देश की जनता को अगर आप ध्यान से देखें तो इस वक़्त आप इन्हें चार भागों में बाँट सकते हैं। एक वो लोग जो लगातार शासक वर्ग के तमाम जनविरोधी कामों का विरोध कर रहे हैं और शासक वर्ग भी इनके प्रति पूरी सख्ती बरत रहा है, पिछले कुछ सालों में लगातार ऐसे लोगों पर शासक वर्ग के ज़ुल्म को हम देख रहे हैं। दूसरा वर्ग वो है जो शासक वर्ग के हर काम का आँख मूँद कर समर्थन कर रहा है। ये वर्ग मुसलमानों और शासक वर्ग के विरोध में लिखने-बोलने वालों से नफ़रत करता है। एक वर्ग वो है जो शासक वर्ग से नाराज़ है लेकिन अपना विरोध दर्ज़ नहीं करता और एक वर्ग वो है जिसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उसके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है।
पहला वर्ग जो शासक वर्ग से जनता का वकील बनकर सवाल कर रहा है, जनविरोधी कामों की आलोचना कर रहा है और इसके लिए मुश्किलें उठा रहा है, यही देश में बदलाव का वाहक बनेगा। दुनिया का इतिहास हमें बताता है कि इसी वर्ग के लोगों ने इतिहास निर्मित किया है। भारत के सन्दर्भ में, एक नागरिक के रूप में हमें शासक वर्ग और जनता के इन मित्रों के सम्बंधों को समझने की ज़रुरत है। आखिर क्यों देश के कुछ पढ़े-लिखे लोग जो किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर बनकर या सरकारी अधिकारी बनकर ‘अच्छी ज़िन्दगी’ जी सकते थे वो आदिवासियों के लिए, मजदूरों के लिए या किसानों के लिए अपने ही देश की हुकूमत से लड़ रहे हैं और जब देश के ये बेहतरीन लोग शासक वर्ग के खिलाफ़ लड़ रहे हैं तब शासक वर्ग किसके लिए काम कर रहा है जिसके लिए उन्हें अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करनी पड़ रही है या उन्हें जेलों में ठूसना पड़ रहा है?
इन दो सवालों पर हम विचार कर लें तो बहुत-सी बातें स्पष्ट हो जाएँगी। पिछले दिनों तीस्ता सीतलवाड़, मोहम्मद ज़ुबैर और हिमांशु कुमार पर कार्यवाही हुई है। ये तीनों तीन ऐसे एरियाज़ में काम करते हैं, जिनके विश्लेषण से हम उन तमाम लोगों को भी समझ सकेंगे जो शसक वर्ग के कार्यों का विरोध करने की वजह से अलग-अलग आरोपों में जेलों में बंद हैं।
मोहम्मद ज़ुबैर पिछले कुछ सालों से एक फैक्ट चेकिंग वेबसाइट चला रहे हैं। वो मीडिया या सोशल मीडिया में प्रसारित की जी रही उन ख़बरों की सत्यता जाँचते हैं जो होती तो ग़लत हैं लेकिन सत्य ख़बर के तौर पर प्रसारित की जाती हैं। अभी फ़िलहाल उन्हें जिन आरोपों में अरेस्ट किया गया है उस पर कानूनी और प्रशासनिक आधार पर बहुत से सवाल किये जा रहे हैं, उनके विस्तार में यहाँ जाने की ज़रुरत नहीं है, वो सब आप जानते हैं। सोचने की ज़रुरत है कि झूठी ख़बरें प्रसारित करना किसकी ज़रुरत है? जो लोग झूठी ख़बरें या कोई झूठा तथ्य प्रसारित करते हैं वो कौन लोग हैं, उन पर कोई कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं होती जबकि इसके खिलाफ़ कानून भी मौजूद है और सबसे बड़ा सवाल कि इन झूठी ख़बरों से किस तरह के लोगों को लाभ पहुँचता है, लाभ उठाने वाले ये लोग कौन हैं, इनकी हैसियत क्या है और लगातार झूठ बोलने और झूठ प्रसारित करने के बावजूद भी कानून, प्रशासन और समाज इनके प्रति सख्त क्यों नहीं होता? दूसरी तरफ, झूठ का पर्दाफाश करना अपराध कैसे हो गया वो भी इतना बड़ा अपराध कि उस पर कानूनी कार्यवाही करनी पड़े! इस पर सोचते हुए आप उन तथ्यों और मंतव्यों को जान पाएंगे, जिनके जानने पर आपके भविष्य की बेहतरी निर्भर है।
तीस्ता सीतलवाड़ 2002 में गुजरात में हुए दंगों में मारे गये मुसलमानों के परिजनों और दूसरे पीड़ितों को कानूनी सहायता देने वालों में शामिल हैं। जहाँ उनके इस काम को देश और दुनिया में सराहा जा रहा है वहीं शासक वर्ग उनसे नाराज़ है। यहाँ एक और बात पर सोचना ज़रूरी है कि तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार न्याय के लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने वालों में शामिल हैं और इसे ही उनका अपराध मान लिया गया है। हालांकि तकनीकी आधार पर ऐसा नहीं कहा जा सकता। पिछले दिनों देश के कई इलाकों में लोगों के घर बुलडोज़र से गिरा दिए गये, लेकिन जिन कारणों से इनके घर गिराए गए उन्हें तकनीकी आधार नहीं बनाया गया। लेकिन देश जानता है कि उन्हें सत्ता से सवाल करने की सज़ा मिली है।
हिमांशु कुमार दो दशक से भी ज़्यादा समय से आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं, पांच सौ से ज़्यादा मामले वो कोर्ट लेकर गये जिनमें सुरक्षाबलों ने आदिवासियों पर ज़ुल्म किया था, कई मामलों में जिम्मेदारों को सज़ाएँ भी मिलीं लेकिन हिमांशु कुमार हमेशा ही सत्ता के निशाने पर रहे। इस मुद्दे पर भी मैं आपके लिए कुछ सवाल छोड़ता हूँ और चाहता हूँ कि आप इन पर सोचें, ज़रुरत समझें तो इन सवालों पर अपनी समझ बनाने के लिए पढ़ें और अपने तौर पर जाँच पड़ताल करें!
हिमांशु कुमार पर नक्सली होने, उनका हमदर्द होने, आतंकवादी होने या किसी और तरह का अपराधी होने का कोई मामला आज तक साबित नहीं हुआ है। बावजूद इसके आदिवासियों का ये दोस्त सत्ता के निशाने पर क्यों है, ये अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। दूसरा सवाल, आदिवासियों के 600 से ज़्यादा गाँव जलाने वाले कौन थे, क्यों उनके गाँव जलाए गए? उनके गाँवों को जलाने से लाभ किसको है? आदिवासियों के लिए जिस सरकार को हमदर्द होना चाहिए था, उसी सरकार को आदिवासी अपना दुश्मन क्यों समझते हैं? इन इलाकों में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और समाज सेवियों पर प्रशासन सख्त क्यों है? कहा जा रहा है कि आदिवासी इलाकों में सुरक्षाबल नक्सलियों से उनकी रक्षा के लिए हैं। क्या ये सोचने का सवाल नहीं है कि आदिवासी अपने ही रक्षकों से डरे हुए क्यों हैं, क्यों आदिवासी इन रक्षकों के विरुद्ध कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं? अब या तो ये रक्षक, रक्षक नहीं हैं या फिर ये वहां आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि किन्हीं और लोगों के लिए गये हैं। इन सवालों पर आप सोचेंगे तो समझेंगे कि शासक वर्ग किसके के लिए काम कर रहा है और हिमांशु कुमार जैसे लोग जिन्हें आदिवासी अपना दोस्त, अपना हमदर्द समझते हैं उन्हें शासक वर्ग खतरनाक क्यों मानता है।
ऊपर तीन जनमित्रों के सम्बन्ध में जो सवाल आपके सामने रखे गये हैं, इन पर अगर विस्तार से बात की जाये तो पूरी क़िताब लिखी जा सकती है, लेकिन ये देखना भी ज़रूरी है कि ऐसा कैसे हुआ कि देश का शासक वर्ग जनता का दुश्मन होता चला गया!
गुजरात दंगों के सम्बंध में कई लोगों के कबूलनामे मन्ज़रेआम पर हैं लेकिन उन पर कानूनी कार्यवाही नहीं हुई, जिन पर कानूनी कार्यवाही हुई उन्हें भी कई तरह से राहत दी गयी। मानवता के विरुद्ध किये गये अपराध के सम्बंध में अपराधियों के प्रति शासन, प्रशासन और कोर्ट की नरमी का कारण क्या है? इस पर सोचते हुए ये भी सोचिये कि इस तरह की राहत एक खास सियासी समूह से जुड़े हुए लोगों को ही क्यों हासिल होती है? इन सवालों में भी बहुत से राज़ छुपे हुए हैं।
थोड़ा पीछे जाएँ तो भारत और दुनिया के दूसरे बहुत से देशों में 1970 के बाद सरकारों द्वारा जनकल्याण के कामों में लगातार कटौती हुई है। हालांकि किसी भी हुकूमत की ये मिनिमम जिम्मेदारी है कि वो देश के लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाए और देश व दुनिया में इंतनी सम्पदा और संसाधन हैं कि ये बुनियादी काम कोई भी हुकूमत कर सकती है। लेकिन जैसे-जैसे अमीरों के मुनाफ़े के लिए सम्पदा और संसाधन का उपयोग बढ़ता जाता है वैसे-वैसे जनता को मिलने वाली सुविधाएँ घटने लगती हैं। आप देखें कि इसी दौर में दुनिया में अलग-अलग रंग के आतंकवादी संगठन अस्तित्व में आते हैं, इसी दौर में धार्मिक कट्टरता की राजनीति परवान चढ़ती है। यही नहीं लोगों को बाँटने की सियासत उसी क्रम में बढ़ती है जिस क्रम में सरकारों द्वारा जनकल्याण के कामों में कटौती होती है
जिस वक़्त अडानी दुनिया के चौथे सबसे बड़े अमीर भारतीय के तौर पर सामने आये हैं उसी दौरान लगभग 30 करोड़ लोग देश में गरीबी रेखा से नीचे चले गये हैं जबकि ऐसे लोगों की एक बड़ी सख्या गिनती से अभी बाहर है। इसी दौरान गरीबी और बेरोज़गारी से तंग आकर कई लोग आत्महत्या कर चुके हैं, सालों से जारी किसानों की आत्महत्या अब तो मीडिया के लिए कोई खबर भी नहीं रही। कॉर्पोरेट घरानों को दिया गया 11 लाख करोड़ से ऊपर क़र्ज़ NPA यानि जिसके मिलने की अब कोई उम्मीद नहीं रही, हो चुका है। इसके बावजूद बैंकों द्वारा पूँजीपतियों को क़र्ज़ देना जारी है, सरकारी उपक्रमों का बेचा जाना जारी है। कमाल देखिये पूँजीपति सरकारी बैंकों से क़र्ज़ लेकर सरकारी उपक्रम खरीदते हैं। देश को लगने वाला लाखों करोड़ का ये चूना जनता का खून निचोड़ कर ही पूरा किया जाना है, इसके लिए ज़रूरी है कि जनता ज़्यादा से ज़्यादा टैक्स दे। अभी GST का जो दायरा बढ़ाया गया है, उसका कारण यही है। यहाँ एक और बात पर आपका ध्यान जाना चाहिए वो ये कि GST का जो दायरा अभी बढ़ाया गया है इस पर सभी राजनितिक दलों की सहमति है।
जनता या नागरिक के रूप में दो बातें आपको समझ लेनी हैं, प्रथम, पूँजीपतियों के हितों के लिए उठाये गये हर कदम पर सभी संसदीय दलों की सहमति होती है, दूसरा, इसलिए इस लूटतंत्र के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालों के साथ जो भी कार्यवाही होती है उस पर भी सभी संसदीय दलों की सहमति होगी ही। अब आपको सोचना है कि आपके साथ कौन है, जिन राजनीतिक दलों के लिए आप अपने पड़ोसी तक से लड़ जाते हैं वो आपके साथ हैं या मुट्ठीभर पूँजीपतियों के साथ।
ये लूटतंत्र बचा रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि आप धर्म और जाति के नाम पर लड़ते रहें और कभी न जान पायें कि बढ़ते टैक्स और लगातार बढ़ती महंगाई का असली जिम्मेदार कौन है और इसका लाभार्थी कौन है। आपकी ये लड़ाई जारी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि टीवी रात-दिन आपको बताये कि आपका पड़ोसी मुसलमान जो आपकी ही तरह मुश्किल ज़िन्दगी जी रहा है, उससे आपको खतरा है। फिर भी अगर कोई ज़ुबैर कोई तीस्ता सीतलवाड़, कोई हिमांशु कुमार या कोई सुधा भरद्वाज आपकी आँखों से पट्टी खोलने की कोशिश करे तो उसे शासक वर्ग भरपूर सबक सिखाता है। आपको तय करना है कि धर्म के नाम पर लड़ना है या वर्तमान और भविष्य को बचाने के लिए जुबैर, तीस्ता, हिमांशु, खालिद सैफी या सुधा भरद्वाज बनना है! सोचिये, सोचने से रास्ता निकलेगा।