Thursday, November 21, 2024
Thursday, November 21, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमअर्थव्यवस्थाअच्छी नौकरी बनाम अच्छा वेतन : कॉर्पोरेट जितना खून चूसता है, उतना...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

अच्छी नौकरी बनाम अच्छा वेतन : कॉर्पोरेट जितना खून चूसता है, उतना पौष्टिक भोजन खरीदने के पैसे नहीं देता

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का समझौता कॉर्पोरेट से होता रहता है लेकिन उस मजबूत हुई अर्थव्यवस्था का असर आम जनता के जीवन की जरूरतों पर दिखाई नहीं देता बल्कि पूँजीपतियों का दुनिया के रईसों की सूची में आए हुए उनके नाम से सामने आता है। आर्थिक आंकड़ें और सामाजिक सूचकांकों में हुई प्रगति का विश्लेषण करने पर यह भले अन्य देशों से बेहतर दिखाई देगा लेकिन जमीनी हकीकत बद से बदतर है।

‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ बीते दिनों सोशल मीडिया पर टेक्नोक्रेट मानी जाने वाले युवाओं के वेतनमान को लेकर पोस्ट शेयर की थी। जिसमें उनकी कहानी थी, उस कहानी में साफ-सुथरी चमकती खूबसूरत बिल्डिंगों में युवा लड़के-लड़कियों द्वारा काम करने के बदले मिलने वाले  वेतन और उनके खर्च के बीच आए अंतर को दिखाया गया था। जिसमें खर्च को भरना बोझ बनता जा रहा है।

यह लेख लिखने का कारण,  शशांक रस्तोगी है, जो टाटा कंसलटेंसी सर्विस में काम करते हैं, द्वारा एक्स पर डाले गये पोस्ट है- ‘मेरी टीसीएस का वेतन 21 हजार है और मेरा खर्च 30 हजार है। यह स्थिति वर्ष 2019 की है। सबसे बुरा है कि वे अब भी यही भुगतान का वादा कर रहे हैं।‘ इस पोस्ट के बाद और भी कई लोगों ने इसी तरह की बातें एक्स पर लिखीं।

टीसीएस में ही काम कर रहे जतिन ने लिखा कि ‘वर्ष 2013 में टीसीएस कैंपस में 21 हाजर रूपये का प्रस्ताव दिया लेकिन आज भी वही वेतन चल रहा है एक अन्य इसी 21 हजार वेतनमान को 2011 के समय नियुक्ति के हवाले से बताया।

यहां बता दें कि इस संदर्भ में शशांक रस्तोगी जिसने 29 जुलाई, 2024 को पहली पोस्ट डाली थी। पोस्ट में आई तिथि और जारी किये गये वेतनमान को एक साथ रखने पर टीसीएस में 13 साल से वेतनमान की यह स्थिरता’, मोदी के स्थिर सरकार के साथ काफी समानता रखती हुई प्रतीत होती है।

हालांकि इस साल अप्रैल के महीने में शानदार प्रदर्शन करने वालों के वेतन में 12-15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की खबरें भी छपी हैं। इसकी वार्षिक मुनाफे की दर 9 प्रतिशत बताई गई और इस साल के पहले दौर में यह 12,040 करोड़ रूपये बताई गई। वार्षिक दर पर यह 46,585 करोड़ रूपये था। इन खबरों को मीडिया के आर्थिक खबरों में आसानी से देखा जा सकता है।

इस खबर के बाद दूसरे क्षेत्र की आईटी सेक्टर में काम कर रहे युवाओं ने अपने अनुभव साझा किए। द इकोनॉमिक टाइम्स के इस खबर में आईबीएम में 2013 से काम करने वाले ने पोस्ट किया कि ‘वह यहां तब से 21,000 रूपये पर ही काम कर रहा है। एक युवा ने लिखा, ‘मैंने महिंद्रा टेक 2006 में नौकरी शुरू की। उस समय 3 लाख रूपये प्रतिवर्ष वेतनमान था। मैं इस बात से हैरान हूं कि पिछले 18 सालों से बमुश्किल इससे आगे की बढ़ोत्तरी हुई है।’

यह भी पढ़ें – बजट 2024 : बेरोजगारी और लघु उद्योगों की बरबादी के साये में चल रही मोदी की तीसरी सरकार के बजट में मेहनतकशों के हिस्से नियमित आय की कोई गारंटी नहीं

इस खबर को पढ़ते हुए मुझे इंफोसिस के नारायणमूर्ति का युवाओं से काम करने का एक आह्वान याद आता है, जिसमें वह विकसित भारत के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करने के लिए कह रहे थे। जबकि पिछले दो सालों में आईटी सेक्टर में वेतनमान की घोषित वृद्धि दर (सिंगल डीजिट) एकल अंक में आ गई। इस क्षेत्र में नुकसान होने का दावा किया जा रहा है इसलिए वेतन के संदर्भ में हमें ज्यादा बात नहीं करनी चाहिए। यह बात सोशल मीडिया पर आई पोस्ट के संदर्भ में भी कही गई।

‘साइलेंट लेऑफ’ छंटनी नहीं, पर छंटनी का अच्छा विकल्प 

इसी साल के जून में ‘इंडिया टुडे’ में छपी दिव्या भाटी की रिपोर्ट के अनुसार आईटी सेक्टर में 2024 के पहले आधे दौर में 337 टेक कंपनियों में 98,834 लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया। दरअसल ये स्थिति 2022 से ही चल रही है। 2023 में ही ढाई लाख से अधिक नौकरियां इस क्षेत्र से चली गई थीं। इन कंपनियों में काम से बाहर करने के लिए बहुत से नायाब तरीके अपनाते हैं। जिस डेस्क पर छंटनी करनी होती है उन पर काम कर रही ‘अतिरिक्त’ श्रमिकों को नये काम के साथ एडजस्ट करने के लिए कहा जाता है। इसके लिए 15 दिन से लेकर 45 दिन दिया जाता है। इसके बाद ‘असंतोषजन प्रगति’ के आधार पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इसे ‘साइलेंट लेऑफ’ कहा जाता है।

इस क्षेत्र में काम करने वाली ‘नेशेंट इफॉरमेशन टेकनोलॉजी इम्पलाइज सीनेट’ के अनुसार टॉप कंपनियों ने 2024 के पहले पांच महीनों में 2 से 3 हजार लोगों को ‘साइलेंट लेऑफ’ किया है। इसे आम छंटनी की गिनती से बाहर ही रखा जाता है।

पिछले दो सालों से आईटी सेक्टर के शेयर बाजार में प्रति शेयर मूल्यों की गिरावट पूरी दुनिया में सामने आई है। भारत की सर्वोच्च मानी जाने वाली आईटी कंपनियों के शेयर गिरावट का औसत इस समय 3 प्रतिशत के आसपास है। भारत में रोजगार की स्थिति बदतर हो चुकी है। जहां 2011-2022 के बीच काम करने वालों में 64 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं इसी अवधि में काम करने के कुल योग का 37 प्रतिशत हिस्सा ही आर्थिक तौर पर सक्रिय हुआ है।

मोदी के पाँच लाख ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा खोखला 

पिछले दो सालों में स्थिति सुधरने की बजाए और भी बदतर होने की ओर है। हाल ही में जारी किये गये बजट में बेरोजगारी के आलम की सीमित स्वीकृति तो देखी गई है लेकिन इसे दूर कैसे किया जाय,  इस संदर्भ में बजट का खांचा व्याख्यायित नहीं किया गया है। रोजगार देने के लिए कंपनियों के खर्च में हिस्सेदारी, प्रशिक्षु रखने के लिए प्रोत्साहन राशि आदि देने जैसी योजनाएं किसी भी नजरिये से न तो रोजगार सृजन के अनुरूप है और न ही रोजगार की परिभाषा का हिस्सा है।

वर्ष 2009-11 के बीच दुनिया की अर्थव्यवस्था में पतन का जो दौर शुरू हुआ, उसमें खुद चीन ने अपनी औद्योगिक नीति में बदलाव लाया। उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था पर काम करने वालों ने जिन दो सुझावों का प्रस्ताव दिया था, उसमें प्रथम था सार्वजनिक क्षेत्र में खर्च को बढ़ाना और दूसरा था प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र का दोहन को बढ़ाना, साथ ही इसमें बाधा बन रहे नियमों को हटाना। जिसमें पर्यावरण और जमीन मालिकाना मुख्य था। इस मसले पर खुद कांग्रेस सरकार संसद में विभाजित हो गई थी। युवा रोजगार मांग रहे थे और रोजगार करने वाले वेतन में वृद्धि की मांग कर रहे थे। इसी पृष्ठिभूमि में मोदी का आगमन हुआ। इन दो क्षेत्रों में चीन को पीछे छोड़ देने वाली विदेशी पूंजी का आगमन नदारद ही रहा। भूमि और संसाधनों पर कब्जा के लिए आक्रामक रुख अपनाया गया। प्रतिरोध से हिंसक तरीके से निपटा गया।

भारत की संपदा का दोहन अडानी और अंबानी जैसे समूहों के हाथ में संकेंद्रित होती गई। वित्तीय नियंत्रण के लिए नोटबंदी और जीएसटी जैसे उपाय अपनाए गये, जिससे जनता का जमा खर्च और तीसरे स्तर पर काम कर रही औद्योगिक गतिविधियां ठप्प पड़ गईं। इसका सीधा असर खेती और छोटे नगरों की कुल आय पर पड़ा। रहा-सहा काम कोविड महामारी के दौरान मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन की घोषणा ने कर दिया। भारत के एक छोर पर संपत्ति और संसाधन के उद्यमी और व्यवसायी समूहों द्वारा लूट और अधिग्रहण का अभियान चल रहा है, वहीं दूसरी ओर आय के साधन लगातार छीज रहे रहे हैं।

यह भी पढ़ें –वाराणसी की जुलाहा स्त्रियाँ : मेहनत का इतना दयनीय मूल्य और कहीं नहीं

आज भी विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी और तबाही का दौर जारी है। यूरोप और अमेरीका में दक्षिणपंथी नेताओं का उभार साफ दिख रहा है। वहां हिंसा की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। पड़ोस में बांगलादेश में युवाओं और छात्रों ने अपने लोकप्रिय आंदोलन से वहां एक नई राजनीतिक उम्मीदें पैदा की हैं और एक लंबी अवधि तक प्रधानमंत्री बने रहने वाली शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए देश छोड़कर भागना पड़ा।

आर्थिक आंकड़ों और सामाजिक सूचकांकों में प्रगति की दर की तुलना भारत से करने पर यह देश पिछले 15 सालों में बेहतर दिखता है। लेकिन, जमीनी सच्चाई आंकड़ों के औसत के नीचे है। भारत में आंकड़े और जमीनी सच्चाई दोनों की स्थिति बद से बदतर होने की ओर है। ऐसे में, राजनीतिक सतर्कता की मांग आज सबसे अधिक है।

अंजनी कुमार
अंजनी कुमार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here