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रामचरितमानस में स्त्रियों की कलंकगाथा (भाग – 1 )

 तुलसीदास रचित रामचरितमानस निस्संदेह एक प्रतिगामी चेतना का ग्रन्थ है जो एक सुनियोजित तरीके से भारतीय समाज व्यवस्था पर केवल और केवल ब्राह्मणों के एकाधिकारवादी अधिनायकत्व, प्रभुत्व और वर्चस्व की स्थापना को बनाये रखने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसलिये इस ग्रन्थ में ब्राह्मण पक्ष है और शेष समाज प्रतिपक्ष। लेकिन आश्चर्यजनक बात यह […]

 तुलसीदास रचित रामचरितमानस निस्संदेह एक प्रतिगामी चेतना का ग्रन्थ है जो एक सुनियोजित तरीके से भारतीय समाज व्यवस्था पर केवल और केवल ब्राह्मणों के एकाधिकारवादी अधिनायकत्व, प्रभुत्व और वर्चस्व की स्थापना को बनाये रखने के उद्देश्य से लिखा गया है। इसलिये इस ग्रन्थ में ब्राह्मण पक्ष है और शेष समाज प्रतिपक्ष। लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि इसमें वर्ण व्यवस्था के एक मुख्य घटक वैश्य का कोई वर्णन नहीं मिलता। प्रतिपक्ष के रूप में खड़ा शेष समाज ब्राह्मणों के सामने पंगु और अपमानित तो है ही, वह अपनी इस दुर्दशा के लिये कभी उद्वेलित होता हुआ दिखाई भी नहीं देता, ब्राह्मणों के विरुद्ध लामबंद होकर विद्रोह करना तो बहुत दूर की बात है। निश्चय ही भारतीय समाज की यह मुर्दा मनोदशा इस दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है और इसे इसी रूप में दुनिया की आश्चर्यजनक वस्तुओं और घटनाओं के साथ दर्ज होना चाहिए। इस ग्रन्थ में सबसे अधिक दुर्गति स्त्रियों, आदिवासियों और शूद्रों की हैं जिन्हें मानवेतर स्थिति से उबरने की अनुमति नहीं है, क्षत्रियों को भी कहीं का नहीं छोड़ा। इस लेख में केवल स्त्रियों के प्रसंगों पर चर्चा की जा रही है। तुलसीदास की यह प्रवृत्ति है कि वह जिसे लांछित करना चाहते हैं, उसके लिए कोई कारण नहीं तलाशते। बस लांछित करना है तो करना है। इस बात की पुष्टि लेख में दिए गये उद्धरणों से स्वतः हो जाती है।

मेरा रामचरितमानस  की स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति का सामना सुन्दरकाण्ड की निम्न बहुउद्धृत चौपाई के साथ प्रारंभ होता है जिसे मैं अक्सर लोगों के मुँह से सुना करता था :

       प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।।

       ढोल  गवाँर   सूद्र   पसु  नारी। सकल  ताड़ना के अधिकारी।।

 प्रभु ने अच्छा किया मुझे शिक्षा (दण्ड) दी; किन्तु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल,गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। ( 59/3 )1

 यहाँ पर यह बताना समीचीन होगा कि इस चौपाई की अन्तिम दो पंक्तियाँ ही अमूमन उद्धृत की जाती हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि इन्हीं पंक्तियों से वांछित उद्देश्य का सम्प्रेषण हो जाता है लेकिन प्रथम दो पंक्तियाँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि राम ने समुद्र को ऐसी कोई सीख नहीं दी थी जिससे प्रेरित होकर वह स्त्रियों समेत अन्य उद्दृत घटकों के बारे में ऐसी कोई धारणा बना सके वस्तुतः तुलसीदास ने बिलकुल असंगत बात कहलवाई है। समुद्र के मुँह से और यही उनकी विशेषता है। वह साध्य देखते हैं साधन नहीं। यहाँ उनका साध्य ढोल जैसी निर्जीव वस्तु सहित गँवारों, पशुओं और शूद्रों के साथ स्त्रियों को श्रेणीबद्ध करना है और यही उन्होंने किया भी; इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है कि इस कथन का समुद्र के साथ  कोई संगति नहीं  है। यद्यपि तुलसी के तमाम भक्त इन पंक्तियों की पैरोकारी में तरह-तरह की दलीलें देते रहते हैं। इन दलीलों में एक दलील यह भी है कि ताड़ना का मतलब प्रताड़ना से नहीं बल्कि उनको देखे जाने अर्थात विशेष देखभाल से है। अब ऐसा भी नहीं है कि उनकी बुद्धि इतनी कुंठित होगी वे यह नहीं जानते होंगे कि ढोलक की सार्थकता उसकी पिटाई में ही है। इन पंक्तियों का अर्थ दण्डित करना ही है, जैसा कि ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट है। बहरहाल अनेकानेक दृष्टान्तों को उद्धृत करके मैं अन्य तमाम लोगों के साथ ही तुलसी भक्तों का भी भ्रम दूर करने का प्रयास कर रहा हूँ।

पूरे रामचरितमानस  में स्त्रियों को लांछित करने वाले प्रसंगों की भरमार है। वास्तविकता यह है कि प्राकृत जन की उपस्थिति तुलसी के लिए अत्यंत पीड़ादायक है। प्राकृत जन अर्थात भारत के मूल निवासी। भारत के मूल निवासी अर्थात शूद्र, आदिवासी और अन्त्यज। और स्त्रियाँ तो भारतीय वैचारिकी में किसी लायक ही नहीं है। इसलिए इस वैचारिक परंपरा का कुशलतापूर्वक निर्वहन करते हुए उन्होंने अपनी इस पीड़ा की अभिव्यक्ति पूरे मानस में जगह-जगह की है। इसका प्रारंभ उन्होंने बालकाण्ड से ही कर दिया है। प्रस्तुत हैं निम्न पंक्तियाँ:

          कीन्हें प्राकृत जन गुनगाना। सिर धुन गिरा लगत पछिताना।।

     अर्थात, जन साधारण संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर धुनकर पछताने लगती हैं।

[bs-quote quote=”तुलसीदास ने सीता के स्वतन्त्र व्यक्तित्व का गला घोंटकर उसे पति की दासी के शास्त्रसम्मत स्थान पर बैठा दिया। तुलसी के भक्त उन्हें प्रगतिशील और जनवादी कवि कहकर गाल बजाते रहते हैं और वह हैं कि पत्नी को पति की सहगामिनी भी मानने को तैयार नहीं हैं। सीता होंगी तो हों अपने ढंग की इकलौती शख्सियत, हैं तो स्त्री ही न। यहाँ तुलसी की एक और ढिठाई या विशेषाधिकार की बानगी देखिये। उन्होंने कौशल्या के मुँह से अपने नाम का भी उच्चारण करवा लिया। कहाँ तो कवि की तमाम सीमाओं का बखान कर रहे थे और कहाँ खुद ही कवि होने का पूरा लाभ ले लिया। गोया उन्होंने रामचरितमानस की रचना पहले कर दी थी और सीता का विवाह बाद में हुआ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 इस कथन को रामचरितमानस  का सूक्त वाक्य कहा जा सकता है क्योंकि प्राकृत जन में ही शूद्र, आदिवासी, असुर, राक्षस समेत सभी मूल निवासी आते हैं। तुलसीदास की इन समूहों के प्रति घृणा का कोई आदि-अंत नहीं है। उनको सामाजिक संतुलन की अपरिहार्यता से कोई मतलब नहीं है। शायद उनका सामाजिक बोध इसकी आवश्यकता से भिज्ञ ही नहीं है और वह किसी प्रकार के सामाजिक असंतुलन की परवाह किये बिना इन समूहों का विनाश चाहते हैं। तुलसीदास की इसी मानसिकता की उपज है रामचरितमानस और इसी मानसिकता से प्रेरित होकर उन्होंने प्रसंगों का जमकर विरूपण भी किया है। बहरहाल मूल मुद्दे की ओर वापस लौटते हैं। प्राकृत जन के प्रति अपनी घृणा के कारण उन्होंने स्त्रियों की भर्त्सना करने में लक्ष्मी समेत किसी को भी नहीं बख्शा। प्रसंग है सीता की सुन्दरता के वर्णन का। यह निम्नवत उद्धृत है :

            सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।

            उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।

अर्थात, रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकी जी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे [काव्य की] सभी उपमाएँ तुच्छ लगती हैं; क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात वे जगत की स्त्रियों के अंगों को दी जाती हैं) [काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गयी हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपाशक्ति श्रीजानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है]।

          सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।

          जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग अस जुबति कहाँ कमनीया।।

अर्थात, सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाये और अपयश का भागी बने (अर्थात सीताजी के लिये उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाये तो जगत में ऐसी सुन्दर स्त्री है ही कहाँ [जिसकी उपमा उन्हें दी जाये]।

         गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनुपति जानी।।

        बिष बारुनी  बंधु  प्रिय  जेही। कहिअ  रमासम  किमि   बैदेही।।

अर्थात, [पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाये जो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं तो, उनमें]  सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं; पार्वती अर्द्धांगिनी हैं (अर्थात, अर्द्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजी का है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुखी रहती है और जिनके विष और मद्य – जैसे [समुद्र से उत्पन्न होने के नाते] प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाये।

[bs-quote quote=”भारतीय समाज में लड़कियों का पैदा होना क्यों अपराध समझा जाता है। यह एक राजा का अपराधबोध बोल रहा है जो अकूत धन-संपत्ति का दहेज़ देकर अपनी बेटियों का विवाह करता है और फिर भी दासी के रूप में उन्हें स्वीकार किये जाने की प्रार्थना करता है। इससे बेटियों को लेकर सामान्य जनों की पीड़ा और मनोभावना का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

          जौं छबि सुधा पयोनिधि होई।परम  रूपमय कच्छपु सोई।

          सोभा  रजु  मंदरु  सिंगारू।मथै पानि पंकज निज मारू।।

अर्थात, [जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गयी है वे निकलीं थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिये भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनायी गयी महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मन्दराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुन्दरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुन्दर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्रीजानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं। हाँ, इसके विपरीत] यदि छबिरूपी अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभारूप रस्सी हो, श्रृंगार [रस] पर्वत हो और [उस छबि के समुद्र को] स्वयं कामदेव अपने करकमल से मथे।

          दोहा – एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।

               तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।

अर्थात, इस प्रकार [का संयोग होने से] जब सुन्दरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे [बहुत] संकोच के साथ सीताजी के समान कहेंगे।

लेकिन मामला यहीं पर नहीं रुका। व्याख्याकार को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उसे लगा कि अभी प्राकृत शब्द का समुचित विश्लेषण नहीं हुआ है। इसलिये उसने अलग से एक लम्बी व्याख्या इस प्रकार की है…[जिस सुन्दरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुन्दरता भी प्राकृत,लौकिक सुन्दरता ही होगी; क्योंकि कामदेव स्वयं ही त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुन्दरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिये बड़े संकोच की बात होगी। जिस सुन्दरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है वह सुन्दरता उपर्युक्त सुन्दरता से भिन्न अप्राकृत है…वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं, और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिये किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत-तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्तशिरोमणि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है]

[bs-quote quote=”ढोल जैसी निर्जीव वस्तु सहित गँवारों, पशुओं और शूद्रों के साथ स्त्रियों को श्रेणीबद्ध करना है और यही उन्होंने किया भी; इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है कि इस कथन का समुद्र के साथ  कोई संगति नहीं  है। यद्यपि तुलसी के तमाम भक्त इन पंक्तियों की पैरोकारी में तरह-तरह की दलीलें देते रहते हैं। इन दलीलों में एक दलील यह भी है कि ताड़ना का मतलब प्रताड़ना से नहीं बल्कि उनको देखे जाने अर्थात विशेष देखभाल से है। अब ऐसा भी नहीं है कि उनकी बुद्धि इतनी कुंठित होगी वे यह नहीं जानते होंगे कि ढोलक की सार्थकता उसकी पिटाई में ही है। इन पंक्तियों का अर्थ दण्डित करना ही है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 वाह, दिव्यातिदिव्य परम दिव्य! क्या शब्देतर शब्द गढ़ा है! सचमुच यही है तुलसीदास और उनके व्याख्याकार के शब्दों का मायाजाल। पता नहीं किस शब्द की तलाश थी रचनाकार और उसके व्याख्याकार को जो अंततः नही ही मिला और प्राकृत की ऐसी की तैसी तथा सुन्दरता का महिमामंडन करने में स्वयं अपनी बुद्धि की ही ऐसी की तैसी करा बैठे। बहरहाल सीता की इस शब्देतर सुन्दरता की औकात स्वयं तुलसीदास ही बता देते हैं। पहला प्रसंग राम के साथ सीता के विवाह के उपरांत विदाई का है। यह इस प्रकार है :

       छंद – करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।

            बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।

            परिवार  पुरजन  मोहि  राजहि  प्रानप्रिय  सिय जानिबी।

            तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज  किंकरी  करि  मानिबी।।

अर्थात, विनती करके उन्होंने (कौशल्या) सीताजी को श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा- हे तात ! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सब गति (हाल) मालूम है। परिवार को, पुरवासियों को, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसी के स्वामी! इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा।

 देखा, अवसर पाते ही तुलसीदास ने सीता के स्वतन्त्र व्यक्तित्व का गला घोंटकर उसे पति की दासी के शास्त्रसम्मत स्थान पर बैठा दिया। तुलसी के भक्त उन्हें प्रगतिशील और जनवादी कवि कहकर गाल बजाते रहते हैं और वह हैं कि पत्नी को पति की सहगामिनी भी मानने को तैयार नहीं हैं। सीता होंगी तो हों अपने ढंग की इकलौती शख्सियत, हैं तो स्त्री ही न। यहाँ तुलसी की एक और ढिठाई या विशेषाधिकार की बानगी देखिये। उन्होंने कौशल्या के मुँह से अपने नाम का भी उच्चारण करवा लिया। कहाँ तो कवि की तमाम सीमाओं का बखान कर रहे थे और कहाँ खुद ही कवि होने का पूरा लाभ ले लिया। गोया उन्होंने रामचरितमानस की रचना पहले कर दी थी और सीता का विवाह बाद में हुआ।

आगे बढ़ने से पहले यहाँ मैं एक दृष्टान्त और उद्धृत करना चाहूँगा। यह भी विदाई के अवसर का है। पुत्रियों को विदा करते समय राजा जनक दशरथ से कहते हैं :

    छंद –ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।

           अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई ।।

           पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।

           कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।

अर्थात, इन लड़कियों को टहिलिनी मानकर, नयी-नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान दिया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गये)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं।

मैं इस प्रसंग को उद्धृत करने का एक आशय यह भी है कि जनक की दीनता देखकर इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि भारतीय समाज में लड़कियों का पैदा होना क्यों अपराध समझा जाता है। यह एक राजा का अपराधबोध बोल रहा है जो अकूत धन-संपत्ति का दहेज़ देकर अपनी बेटियों का विवाह करता है और फिर भी दासी के रूप में उन्हें स्वीकार किये जाने की प्रार्थना करता है। इससे बेटियों को लेकर सामान्य जनों की पीड़ा और मनोभावना का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

वनगमन (साभार -मधुबनी फोक आर्ट )

अब सीता प्रसंग की ओर लौटते हैं। उनके बारे में दूसरा प्रसंग वन गमन के समय का है। कौशल्या नहीं चाहतीं कि सीता राम के साथ वन में जाये। राम भी अपनी माँ का पक्ष लेते हैं। सीता और राम में एक लम्बा संवाद होता है। इस संवाद का केवल एक दृष्टान्त यहाँ उद्धृत किया जा रहा है :

           आपन मोर नीक जौं चहहू। बचन  हमार  मानि  गृह रहहू।।

           आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।

अर्थात, जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है।

[bs-quote quote=”माँ ने दासी के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना करते हुए सीता को राम के हवाले किया था और यहाँ खुद सीता बड़े गर्व के साथ स्वयं को राम की दासी घोषित कर रही हैं। अब इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता कि सीता की उत्पत्ति प्राकृत है अथवा अप्राकृत। फर्क पड़ता है तो बस स्त्री होने से। स्त्री है तो उसकी अपनी कोई औकात नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस चौपाई की विशेषता यह है कि राम सीता को आज्ञा देते हैं लेकिन सीता उनकी आज्ञा का पालन नहीं करतीं। राम के साथ वन जाने के अनेक तर्कों में वह निम्न तर्क भी देती हैं :

          पाय  पखारि  बैठ  तरु  छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं।।

          श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें।।

अर्थात, आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर-प्राणपति के दर्शन करते हुए दुख के लिये मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा।

          सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निशि दासी।।

         बार बार मृदु मूरत जोही । लागिहि तात बयार न मोही।।

अर्थात, समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछा कर यह दासी रात भर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी नहीं लगेगी।

माँ ने दासी के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना करते हुए सीता को राम के हवाले किया था और यहाँ खुद सीता बड़े गर्व के साथ स्वयं को राम की दासी घोषित कर रही हैं। अब इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता कि सीता की उत्पत्ति प्राकृत है अथवा अप्राकृत। फर्क पड़ता है तो बस स्त्री होने से। स्त्री है तो उसकी अपनी कोई औकात नहीं है। अरण्यकाण्ड में सीता और अनसूया के बीच एक लम्बा संवाद पढ़ने को मिलता है जो यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा  है :

      मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद  सब  सुनु  राजकुमारी।।

      अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही।।

अर्थात, हे राजकुमारी ! सुनिये, माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परंतु ये सब एक सीमा तक ही [सुख] देने वाले हैं। पति तो [मोक्षरूप] असीम [सुख] देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती।

       धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परखिये चारी।।

      बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।

अर्थात, धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यंत ही दीन।

       ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

       एकइ  धर्म  एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।

 अर्थात, ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिये, बस, यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है। 15

        जग पतिब्रता चार बिधि अहहीं। वेद  पुरान  संत सब कहहीं।।

        उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं।।

अर्थात, जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण  और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में [मेरे पति को छोडकर] दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है।

          मध्यम परपति  देखइ  कैसें। भ्राता  पिता  पुत्र  निज  जैसें।।

         धर्म बिचरि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।।

अर्थात, मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराये पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है) जो धर्म को विचार कर और अपने कुल की मर्यादा समझ कर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं।

          बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।

          पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई।।

अर्थात, और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराये पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है।

क्रमशः 

     सन्दर्भ
  1. तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस, गीता प्रेस गोरखपुर, एक सौ छठा संस्करण, सुन्दरकाण्ड 59/3
  2. — तदैव — बालकाण्ड 11/3
     3.से 7.– तदैव –बालकाण्ड 247/1 से 4 और 247
  1. —तदैव  —- बालकाण्ड 336 से पूर्व
  2. —तदैव  —बालकाण्ड 326/3
  3. —तदैव  —अयोध्याकाण्ड 61/2
  4. और 12. –तदैव –अयोध्याकाण्ड 67/2 और
  5. 13.से 22.   —तदैव –अरण्यकाण्ड 5/3 से 10 और 5क व 5 ख
  1. –तदैव –किष्किन्धाकाण्ड 15/4
  2. — तदैव –बालकाण्ड 101
    25.से 27 —तदैव —बालकाण्ड 102/ 1 से 3
  1. — तदैव — बालकाण्ड 334/4
  2. —तदैव —बालकाण्ड 108/1
  3. –तदैव —बालकाण्ड 109
  4. —तदैव —बालकाण्ड 112/2
  5. –तदैव –बालकाण्ड 120/2
  6. —तदैव — बालकाण्ड 210/4
  7. —तदैव — बालकाण्ड 210
35.से 38. — तदैव –बालकाण्ड 211/1 से 4
  1. — तदैव –बालकाण्ड 211
  2. से 43 —- तदैव –अयोध्याकाण्ड 161/1 से

मूलचन्द सोनकर हिन्दी के महत्वपूर्ण दलित कवि-गजलकार और आलोचक थे। विभिन्न विधाओं में उनकी तेरह प्रकाशित पुस्तकें हैं 19 मार्च 2019 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।

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