रत्नेश जी दरअसल यह मामला क्या है? सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर इतना बवाल क्यों हो रहा है?
सुप्रीम कोर्ट में इस जाति समूह के वकीलों ने ही शेड्युल कास्ट्स के वर्गीकरण की अपील की थी। जिसमें ओपी शुक्ला और रमेश भंगी जी प्रमुख थे जो खुद सफाईकर्मी जाति समूह से आते हैं। उन्होंने यह याचिका 2014 में दायर की थी। दरअसल इस पूरे मामले के पीछे दलित समुदाय की कुछ जातियों का अति पिछड़ा होना है जो आरक्षण के लाभ से काफी हद तक वंचित हैं। इनमें सफाई कामगार जाति समूह प्रमुख है। इसमें थोड़ा भी शक नहीं कि दलित समुदाय के भीतर यह जाति समूह सबसे ज्यादा पिछडा, गरीब, अशिक्षित ही नहीं बल्कि उनकी जाति तथा पेशे दोनों के निम्न होने की वजह से यह सर्वाधिक अस्पृश्यता यानी छुआछूत झेलता आ रहा है।
यदि मामला इतना स्पष्ट है जैसा आप कह रहे कि कुछ जातियां आरक्षण के लाभ से वंचित रही तो इसमें भला दिक्कत किस बात की?
दरअसल यह मामला उतना सरल नहीं जैसा दिख रहा है। सफाईकर्मी जाति समूह के बारे में लोगों में बहुत सी धारणाएं हैं, जिनका निवारण किये बिना इस मामले को कोई भी सही ढंग से नहीं समझ सकता है।
सबसे पहली बात सफाई के काम में संलग्न जाति के बारे में अधिकांश लोगों में यह धारणा है कि इसमें एक या दो जाति ही संलग्न है जो कहीं मेहतर, भंगी, वाल्मीकि आदि नाम से जानी जाती है। कुछ लोग इसमें अपने-अपने क्षेत्र की अन्य जातियां जैसे डोमार, चुहड़ा, हेला आदि जोड़ते हुए यह समझ बैठते हैं कि ये सब किसी एक सफाईकर्मी जाति की उपजातियां हैं लेकिन ऐसा नहीं है, इनमें बहुत सी स्वतंत्र जातियां हैं। जिनके बीच किसी भी किस्म का कोई आपसी सम्बंध नहीं है। ये तमाम जातियां एक-दूसरे से ठीक वैसे ही अलग हैं जैसे कि चमार, महार से अलग है या धोबी, नाई से अलग।
दूसरा तथ्य यह है कि इस काम में समय के साथ खासकर बेरोजगारी के चलते कुछ अन्य दलित जातियां भी जुड़ती गईं जैसे डोम, मुसहर, डुमार, डोमार आदि. जिनका पुश्तैनी काम सफाई का नहीं था जैसे मुसहर मूल रूप से खेतिहर मज़दूर हुआ करते थे। जिनके पास खेती की विशेष स्किल थी। बिहार में कहावत है कि मुसहर के बिना खेती नहीं हो सकती लेकिन समय बदला इन्हें खेती का काम मिलना बंद हो गया तब वे गांव को छोडकर शहरों में माइग्रेट हुए और तब इन्हे वहाँ सिर्फ सफाई का काम ही मिला नतीजतन आज की तारीख में ये पूरी जाति ही सफाई के काम से जुड़ी पाई जाती है। यही हाल डोम का हुआ जिसका पुश्तैनी काम मुर्दों को जलाना हुआ करता था लेकिन आज वे सफाई के काम में पाए जाते हैं।
इस तरह बहुत सी दलित जातियां जो एक समय किसी अच्छे कहे जाने वाले काम में जुड़ी थी धीरे-धीरे सफाई के काम से जुड़ती गई। कुछ मामलों में जैसा की हमने अभी ज़िक्र किया पूरी की पूरी जाति तो कहीं कुछ दलित जातियों के कुछ लोग इस काम को अपनाने पर मज़बूर हुए।
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यह कैसे हुआ किसी ठोस प्रमाण के आधार पर समझाइये?
जी, मुझे शिमला में अपने फील्ड वर्क के दौरान सफाई कामगारों के मोहल्ले में जाना हुआ जिसका नाम कृष्णा नगर है। यह ढलान पर स्थित है। इसके सबसे निचले भाग में 10-15 चमारों के घर हैं, वे सभी सफाई के काम से जुड़े हैं। इनकी स्थिति शहर के वाल्मिकियों से भी बदतर है क्योंकि इनमें से किसी को भी सरकारी विभाग में सफाईकर्मी की नौकरी नहीं मिल पाई है और ये सब ठेके पर सफाई का काम करने के लिये मज़बूर हैं। आज से करीब पंद्रह साल पहले इनकी संख्या और भी अधिक थी लेकिन एक लेंडस्लाइड में बहुत से घर उजाड़ दिए नतीजतन उन्हें यह स्थान छोड़ना पड़ा और अब इनके सिर्फ 10-15 घर ही बचे हैं। जो लोग यह स्थान छोड़कर गये, वे भी अलग-अलग जगहों पर सफाई का ही काम कर रहे हैं।
ठीक ऐसा अन्य राज्यों में देखने मिला बिहार में कुछ दुसाध, मध्यप्रदेश के सागर में कुछ चमार, महाराष्ट्र में कुछ महार, छत्तीसगढ़ में कुछ सतनामी भी सफाई के काम में सन्लग्न पाए गये हैं। साथ ही जाति व्यवस्था से बाहर कहलाने वाले कुछ आदिवासी जैसे मध्यप्रदेश में गोंड, झारखंड में खडिया भी सफाई के काम को अपनाने के लिये मज़बूर हुए हैं। कुल मिलाकर आज शायद ही कोई दलित जाति होगी जिसकी हल्की उपस्थिति सफाई के काम में न हो। यही हाल आदिवासियों का भी है अपनी जमीन से बेदखल होने के बाद वे शहरों में सफाई के काम को अपनाने के लिये मज़बूर हुए क्योंकि गंदा कहलाने की वजह से यह हर नये व्यक्ति या जाति समूह के लिये सहज उपलब्ध रहता है।
इन तमाम सफाई कर्मियों के बीच जाति के आधार पर कैसा रिश्ता है?
देखिये जाति की यह विशेषता है कि कोई भी दो जाति कभी भी एक पायदान पर नहीं हो सकती। एक जाति दूसरी जाति से या तो उपर होगी या नीचे। इस स्थापित सत्य को बाबासाहेब ने ग्रेडेड इनेक़्वलिटी यानी वर्गीकृत असमानता नाम दिया था। तो भला सफाईकर्मी जातियां इस सिद्धांत से कैसे मुक्त हो सकती। इनके बीच भी ठीक वैसा ही भेदभाव और अंतर पाया जाता है जैसे अन्य जातियों के बीच।
और विस्तार से बताइये?
यह अंतर दोनों मामलों में होता है। सबसे पहले हम पारम्परिक सफाईकर्मी जातियों को देखते हैं। इसके लिये मैं जमीनी सच्चाई को ही उदधृत करना चाहता हूँ। सबसे पहले भगवान दास को रिफर करना चाहता हूँ जो प्रख्यात अम्बेडकराइटर व चिंतक थे और खुद हिमाचल की एक सफाई कामगार जाति खाकरोब से आते थे। उन्होंने अपने एक लेख में ज़िक्र किया था कि छुआछूत के मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार के वाल्मिकी कोई कम नहीं, वे हेला, धानुक, रावत और हंस को अपने से नीचा समझते हैं और उनके साथ ठीक वैसे ही छुआछूत अपनाते जैसे सवर्ण दलितों के साथ।
बिल्कुल यही रिवाज़ सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता धम्मदर्शन निगम ने बयान दिया। वे एक बार मध्यप्रदेश के सांची में सफाईकर्मियों की एक बैठक ले रहे थे। इसके लिये उन्होंने तमाम सफाईकर्मी जातिसमूहों को एक मोहल्ले में इकट्ठा किया लेकिन नोटिस किया कि कुछ महिलाएं चटाई पर नहीं बैठ रही हैं। पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘ये बसोड़ हमसे नीच हैं इसलिये हम इनकी चौखट पर नहीं बैठते।’
मध्य प्रदेश के सागर में फील्ड वर्क के दौरान जब मेरा एक लालबेगी के घर जाना हुआ तो बातचीत में वह डोमारों को लालबेगियों से नीच, अनैतिक और क्या-क्या नहीं कहने लगा।
एक वरिष्ठ आम्बेडकरवादी एक्टिविस्ट विद्याभूषण रावत ने तो बाकायदा वाराणसी के एक सफाईकर्मी मोहल्ले का वीडियो भी बनाया कि कैसे वहां के मुसहर अपने मोहल्ले से दस फीट दूर रहने वाले बांसफोड जाति के लोगों को अपने मोहल्ले के हैण्ड पम्प से पानी नहीं लेने देते क्योंकि मुसहरों की नज़र में वे अछूत हैं।
इन तथ्यों से आप समझ सकते हैं कि सफाई के काम में पुश्तों से लगी जातियों के बीच छुआछूत ठीक उसी स्तर तक है जैसे कि एक सवर्ण और दलित के बीच या चमार और मेहतर के बीच।
इसलिये सफाई के काम से जुडी जातियों को होमोजीनस यानी एक स्तर पर या एक रूप में देखना हमारी भारी भूल और अज्ञानता है।
अब हम बिहार के मुसहरों को देखते हैं जो तुलनात्मक रूप से बाद में सफाई के काम में जुडे मैंने जैसा कहा कि वे पहले खेतिहर मज़दूर हुआ करते थे। आज इनकी हालत सबसे दयनीय है हर रूप में। ये रोटी, कपड़ा, मकान जैसी आधारभूत ज़रुरतों के लिये तरस रहे हैं। इनकी शैक्षणिक स्थिति तो सबसे नीचे है। लेकिन इस जाति का दूसरा पक्ष यह है कि मुसहर अपने आप को जाति क्रम में धोबी से कहीं उंचा मानते हैं, इसलिये वे धोबी का छुआ नहीं खा सकते। जाहिर है उनके इस नियम से यह तो सिद्ध होता है कि एक समय में आर्थिक रूप से धोबी जाति से ज्यादा अच्छे रहे होंगे। आखिर तभी तो वे धोबी के साथ नीचता का व्यवहार पालन कर पाते होंगे। निश्चित ही यह तब की बात होगी जब मुसहर सफाई के काम में नहीं बल्कि कृषि मज़दूर हुआ करते होंगे। लेकिन समय बदला आज बिहार के धोबी शिक्षा और अन्य सभी मामलों में मुसहरों से कहीं आगे निकल चुके हैं किंतु जाति के नियम भला इससे थोड़ी मिट सकते आज भी गरीब से गरीब मुसहरों के लिये धोबी का छुआ खाना वर्जित है। इस मामले मे मुझे पटना के मुसहर ने शेयर किया कि उनके बचपन में वे देखते थे कि कुछ भिखारी घर-घर जाकर भीख मांगा करते थे। उनके पास कपड़े की एक बड़ी थैली होती थी, जिसमें 3-4 जेब होते थे जिसमें वे गेंहू, मक्का आदि का आटा अलग-अलग रखते जाते थे जो लोग उन्हें भीख में देते थे। अकसर ये आटा इतना अधिक हो जाता था कि ये भिखारी इसे गरीब लोगों को बेच दिया करते थे या फिर इसे सीधे दुकानदारों को बेचते थे। चूँकि मुसहर गरीब थे ही इसलिये ये इन भिखारियों से सस्ते दाम में आटा खरीद कर अपना गुजारा चला लिया करते थे लेकिन मामला तब बिगड़ जाता था, जब वे पाते थे कि भिखारी धोबी जाति का है। ऐसे में वह उस भिखारी से आटा नहीं खरीदते थे लेकिन वही भिखारी जब अपना आटा दुकानदार को बेच देता था तब उस दुकानदार के पास से अधिक पैसे देकर इस आटे को बेहिचक खरीद लाते थे क्योंकि ऐसा करने से भले ही उनके पैसे ज्यादा खर्च होते थे लेकिन उन्हें मनोवैज्ञानिक राहत मिलती थी कि हमने धोबी का आटा सीधे नहीं खरीद कर अपने को छूत से बचा लिया! यह है जाति की मानसिकता।
अब दूसरे नम्बर पर हम उन जातियों के हाल देखते हैं जो पहले सफाई के काम में नहीं थे लेकिन अब नए-नए आए हैं, जैसे शिमला के चमार या बिहार के मुसहर आदि। सच कहे तो इनका हाल शहर के सफाईकर्मियों में सबसे बुरा होता है। इनका जीवन मुख्यधारा के सफाईकर्मियों के रहमों करम पर होता है। ये चाह कर भी सरकारी दफ्तरों में सफाईकर्मी की सरकारी नौकरी नहीं हासिल कर सकते। क्योंकि उस पर क्षेत्रीय वाल्मिकियों का कब्जा होता है। ये सिर्फ किसी ठेकेदार के अधीन कच्ची नौकरी जैसे कूड़ा इकट्ठा करना ही कर सकते हैं, जिसमें इन्हें नियमित वेतन और कोई सुविधा नसीब नहीं हो सकती। कोई भी सफाई यूनियन भले ही वह सफाई ठेका कर्मचारियों की ही क्यों न हो उसमें ये सिर्फ उपस्थिति भर दर्ज करा पाते हैं लेकिन न कोई बात रख सकते न कभी किसी पद की उम्मीद रख सकते। वे सफाईकर्मियों में सबसे कमज़ोर यानी एक्स्ट्रीमली मार्ज़ल्लाइज़्ड होते हैं। बात सिर्फ शिमला के चमारों की ही नहीं है बल्कि जहां भी कोई आदिवासी या अन्य दलित इस काम में अपने छोटे से जाति समूह के साथ आता है उसका हाल यही होता है। यहाँ वह चाहकर भी अपनी जाति की धौंस और ग्रेडेड इनेक़्वालिटी के सिद्धांत में प्रदत्त उसके अधिकार के प्रयोग की नहीं सोच सकता। यानी इस मामले में जाति की उच्चता फेल हो जाती है।
तीसरा मामला है किसी इक्के-दुक्के दलित जैसे दुसाध, चमार, सतनामी, महार आदि का सफाई के काम को अपनाना। इस व्यक्ति का हाल तो सबसे बुरा होता है। ऐसा सफाईकर्मी उसकी अपनी जाति से पूरी तरह बहिष्कृत ही हो जाता है क्योंकि उसके इस नये काम को उसकी जाति घृणित नज़र से देखती वहीं वह सफाई कामगार जाति के बीच भी अकेला पड़ जाता है। सफाई काम से जुड़े उसके दोस्त उसे काफी हद तक अपना लेते लेकिन उसका परिवार सफाईकर्मियों के मोहल्ले में अकेलेपन और भेदभाव का शिकार होता है।
कुल मिलाकर जो नए व्यक्ति या जाति सफाई के काम में जुड़ती जाती है, उनका हाल पहले से इस काम में लगे लोगों से बहुत निम्न और दयनीय होता है।
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लेकिन जैसा आपने भी कहा कि सफाईकर्मी जातियों की हालत अन्य दलितों से बदतर हैं। कुछ लोग इन्हें दलितों में दलित भी कहते हैं। तब सुप्रीम कोर्ट का हाल का शेड्युल्ड कास्ट्स और ट्राइब्स के वर्गीकरण का निर्णय पहली नज़र में बिल्कुल सही प्रतीत होता है। इसके बारे में आपके क्या विचार हैं?
देखिये सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के पीछे एक ही मान्यता काम कर रही है कि सफाईकर्मी और कुछ अन्य जातियों का हिस्सा कुछ दलित जातियों जैसे जाटव, महार , दुसाध, चमार या आदिवासियों में ग़ोंड, खड़िया आदि ने ले लिया है। इस मामले में हम दूसरी नम्बर की मान्यता से शुरुआत करेंगे। सुप्रीम कोर्ट इस बात से भी पूरी तरह अनजान है कि सफाईकर्मी जातियों का अलग वर्गीकरण किये जाने से भी उनके एक बहुत बड़े तबके का रत्ती भर भी फायदा नहीं होने वाला।
ऐसा क्यों?
इसका कारण है कि सफाई कर्मी जाति का बहुत बडे पैमाने पर अपने मूल राज्य से अन्य राज्यों में माइग्रेशन। मैं अपने अध्ययन के आधार पर दो राज्यों की जातियों का उल्लेख करना चाहूँगा। एक हैं उत्तर प्रदेश की डोमार जाति जो कि भारत के अनेक राज्यों में सफाई के काम में लगी हुई है। अपने अध्ययन में मुझे यह जाति बहुतायत में छ्त्तीसगढ़ में मिली। पूछने पर पता चला कि कुछ दशक ही नहीं और भी पहले से वे सब उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से माइग्रेट होकर छत्तीसगढ़ आए और उनके बहुत से नातेदार महाराष्ट्र खासकर मुम्बई और देश के कोने-कोने में सफाई कामगार हैं। ठीक ऐसा ही मामला जबलपुर में देखने मिला यहाँ सफाई के काम में लगी एक बड़ी आबादी आज़ादी के करीब आंध्र प्रदेश से माइग्रेट होकर बस गई। ये दोनों ही मामले इसलिये दिलचस्प हैं क्योंकि ये दोनों ही जातियां सफाईकर्मी जाति होने के बावज़ूद आज शेड्युल्ड कास्ट्स की लिस्ट में शामिल नहीं हैं, बल्कि जनरल केटेगरी में गिनी जाती है कारण साफ है कि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार कोई भी पूर्ववर्ती अछूत जाति केवल अपने मूल राज्य में ही अनुसूचित जाति कहलाती है। जिस क्षण उस जाति के व्यक्ति अपना राज्य छोड़कर अन्य राज्य में माइग्रेट होते हैं, वे उस नये राज्य में अनुसूचित जाति में शामिल नहीं हो सकते बल्कि उन्हें जनरल वर्ग का ही माना जाता है।
यहाँ इन दो मामलों से हमें यह समझना होगा कि पूरे देश में सफाईकर्मी जातियों ने अपने मूल प्रदेश से बहुत ज्यादा तादाद में माइग्रेट किया है इसलिये ऐसे में ये सारी की सारी सफाईकर्मी जातियां किसी भी सूरत में अनुसूचित जाति का लाभ नहीं ले सकती है। ये जातियां नये प्रदेश में नौकरी में आरक्षण तो छोड़िए स्कूलों में स्कालरशिप तक नहीं ले सकती है क्योंकि वे ऑन रिकॉर्ड अनुसूचित जाति नहीं है। इसलिये मज़बूरी में इनके बच्चे स्कूली पढ़ाई तक पूरी नहीं कर पाते हैं। यह एक बेहद गम्भीर समस्या है जिससे माननीय सुप्रीम कोर्ट और योगेंद्र यादव सरीखे विद्वान अनजान हैं पर वे बात करते हैं अंतिम व्यक्ति तक न्याय पहुंचाने की! यह बिल्कुल मज़ाक लगता है। सुप्रीम कोर्ट के जज से हम अपेक्षा रखते हैं कि वे लोवर कोर्ट के जजों जैसे बेवकूफी नहीं करेंगे लेकिन उनसे ऐसी उम्मीद रखना बेकार है।
आप योगेंद्र यादव की विद्वता पर क्यों शक कर रहे हैं?
योगेंद्र यादव को मैं अपने कालेज के दिनों से दूरदर्शन पर देखा सुना करता था। उनके बोलने के अंदाज़ से मुझे लम्बे समय तक भ्रम रहा कि वे बहुत समझदार हैं। लेकिन जैसे जैसे मेरा अध्ययन और अनुभव बढ़ता गया मुझे अहसास हुआ कि मेरा आकलन बिल्कुल गलत था। मैंने उन्हें खुद जंतर-मंतर पर अन्ना आंदोलन के समय निहायती बेवकूफी भरा भाषण करते सुना है। इस दक्षिणपंथी आंदोलन में उनकी भागीदारी उनके मानसिक स्तर की पुष्टि करती है। अब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के मामले में भी वे एक बार फिर वही गलती दोहरा गये। उन्होंने कहा कि सफाईकर्मी जातियां दलितों में इतनी अधिक उपेक्षित है कि उनमें हर कोई सफाई के काम में लगा है और उनमें कोई भी बुद्धिजीवी नहीं हुआ है जो अपने समुदाय की बात रख सके! वे बेचारे यह नहीं जानते कि सफाईकर्मी समुदाय में एक से एक बुद्धिजीवी, अधिकारी, व्यवसायी और विदेशों तक में बसने वाले व्यक्ति भी हैं, जैसा कि अन्य दलित जातियों चमार, महार आदि में हैं। बाबासाहब के सहयोगी एडवोकेट भगवान दास शिमला की सफाईकर्मी जाति से थे। इस जाति समूह के एक प्रसिद्ध रिटायर्ड आईपीएस एनडीटीवी की डिबेट तक में आते हैं। इस जाति समूह के व्यक्ति सेंट्र्ल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ही नहीं बल्कि प्रो. श्याम लाल तो यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर तक हुए हैं। राजनीति की बात की जाए तो दलित समुदाय में सबसे ज्यादा मज़बूत नेता बूटा सिंह खुद इसी जाति समूह से थे। उन्हें मैं सबसे मज़बूत इसलिये कह रहा हूं कि रामविलास पासवान, मायावती, कांशीराम की तुलना में कहीं अधिक पावरफुल थे। वे लम्बे समय तक केंद्रीय मंत्री रहे और देश की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काफी करीबी थे। जिन्होंने उन्हें कोई छोटा-मोटा मंत्रालय नहीं संभाला बल्कि गृहमंत्री तक की जिम्मेदारी दी गई थी। इससे आप उनकी ताकत का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
एनआरआई की बात करें तो यहाँ भी सफाईकर्मी जाति की उपस्थिति अच्छी है। फिल्म और सेलिब्रेटिस के तौर पर भी इस जाति समुदाय के कुछ लोग हैं। यानी सुप्रीम कोर्ट की भाषा में सफाईकर्मी समुदाय में भी खासी क्रीमी लेयर है।
ये उदाहरण योगेंद्र यादव के बयान को तथ्यात्मक रूप से गलत ठहराते हैं। रही बात बाकी सफाई कामगार जाति की तो इसमें थोड़ा भी शक नहीं कि उनके हालत मोटे तौर पर बाकी कुछ अनुसूचित जाति से ज्यादा दयनीय है। इस सच्चाई को कोई नहीं नकार सकता लेकिन यहाँ हमें इस बात का होश रखना होगा कि हर दलित जाति में एकदम कमज़ोर, लाचार, वंचित लोग आज भी हैं, ये बात और है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट को सूट बूट वाले दलित तो आसानी से दिख जाते हैं लेकिन सफाई के काम में लगे चमार, महार, दुसाध, गोंड, खड़िया दिखाई ही नहीं देते! दूर की बात छोड़िए, दिल्ली के मेरे अपने ऑफिस में एक दुसाध और एक आदिवासी महिला सफाई कर्मी थीं।
सुप्रीम कोर्ट के इस वर्गीकरण की वकालत में ये गरीब, उपेक्षित, वंचित चमार, महार, दुसाध, गोंड, खड़िया क्या केवल अपनी जाति के आधार पर वंचित कर दिये जाएंगे? क्या यह इनके साथ घोर अन्याय नहीं होगा? इसका जवाब माननीय सर्वोच्च न्यायालय और योगेंद्र यादव को ज़रूर देना चाहिये।
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अगर ऐसा है तो फिर क्रीमी लेयर लागू करना कैसे असंगत हुआ, इससे न सिर्फ अगड़े दलित बल्कि सफाईकर्मी जाति समूह के अगड़े लोग भी तो आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे। ऐसे में इसका लाभ अंतिम व्यक्ति तक आसानी से पहुंच जाएगा।
अगर हम जस्टिस गवई की बात माने कि कुछ दलित जिन्होंने 70 साल में आरक्षण का लाभ ले लिया है और बड़े-बड़े अधिकारी बन चुके हैं उनके बच्चे भी अगर आरक्षण का लाभ लेते हैं तो वे एक गरीब और ज़रुरतमंद दलित का हक छीन रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह बात सरसरी तौर पर न्यायसंगत लगती है। लेकिन इसका विश्लेषण बेहद ज़रूरी है। इसे समझने के लिये हम खुद जस्टिस गवई पर ही नज़र डालते हैं। वे आज सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हैं, उनका एक भाई दीक्षाभूमी का सेक्रेटरी है और एक प्राइवेट कॉलेज चला रहा है और वह राजनीति में भी प्रभावी हैं। इनके पिताजी भी राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे और वे राज्यपाल तक रह चुके थे। जाहिर इस तरह जस्टिस गवई एक क्रीमीलेयर के हुए। यहाँ सवाल है कि खुद जस्टिस गवई और उनके भाई ने क्या आरक्षण लेकर किसी गरीब दलित का हक मारा? बिल्कुल नहीं कारण कि वे उस बाप के बेटे थे, जिसके लिये क्लर्क, टीचर जैसी नौकरी के लिये आवेदन करना उनकी तौहीन होता। इसलिये उन्होंने और उनके भाई ने रिजर्वेशन का फायदा लेने के बजाय अपना-अपना करियर बिना रिजर्वेशन के बनाया और सफल हुए।
वे कोई अपवाद नहीं है। हर वह अनुसूचित जाति या जनजाति का क्लास 1 अधिकारी या मंत्री जिसे हम क्रीमी कह सकते हैं का बेटा-बेटी हो वह किसी भी कीमत पर चपरासी के लिये आवेदन भर के किसी गरीब, वंचित दलित-आदिवासी का हक तो नहीं मारेगा। वह क्लास 3 कहलाने वाली नौकरी जैसे क्लर्क आदि का भी आवेदन भर अपने पिता की तौहीन नहीं करेगा। हां वह क्लास 2 और क्लास 1 के लिये जरूर आवेदन करेगा जहां सामान्य परिस्थिति में उसका मुकाबला एक ठीक-ठाक पृष्ठभूमि वाले अनुसूचित जाति/ जनजाति के केंडीडेट से होगा न कि किसी बेहद गरीब और लाचार दलित से।
दूसरी बात कि आज ऐसे कई कोर्सेस हैं जिनकी फीस और माहौल इतना महंगा है कि उसे केवल पैसे वाला ही करने की सोच सकता है। जैसे आईआईएम, बिट्स पिलानी, जैसे मैनेजमेंट और प्रोफेशनल कोर्स जिनकी न सिर्फ लाखों की फीस होती है बल्कि वहाँ के स्टडेंट्स की जीवनशैली एकदम एलीट होती है। इस कोर्स में एडमिशन लेने का कोई गरीब दलित आदिवासी सोच भी नहीं सकता है और अगर उसका प्रवेश हो भी जाए तो यहाँ के मंहगे माहौल से तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण उसका ड्रापऑउट होना तय होता है। ये सब ऐसे संस्थान हैं जो उच्चतम स्तर के प्रोफेशनल तैयार करते हैं और जहां से सीधे तौर पर बडी मैनेजेरियल और पॉलिसी मेकिंग की पोज़िशन पर जाते हैं। इन संस्थानों में एक गरीब दलित-आदिवासी का प्रवेश हर तरह से असम्भव ही है। ऐसे संस्थानों में दलित-आदिवासी के कथित क्रीमीलेयर के बच्चे ही जा सकते हैं और यहाँ से पास आउट होकर वे ऊंचे ओहदे पर पहुंचकर अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं लेकिन अगर इन्हें क्रीमीलेयर कहकर रिजर्वेशन से वंचित कर दिया गया तो ऐसे उच्चसंस्थानों में दलित-आदिवासी रिप्रसेंटेशन शून्य हो जाएगा। जो कि व्यापक रूप से दलित और आदिवासी समुदाय के लिये बेहद घातक होगा क्योंकि ऐसे में उच्च मैनेजेरियल स्तर और प्लानिंग में उनका शून्य प्रतिनिधित्व रीप्रसेंटेशन हो जाएगा। यानी देश में खुलकर ब्राह्मणवाद स्थापित हो जाएगा। क्या यह सही होगा? यह है दलित और आदिवासी की कथित क्रीमी लेयर को बाहर करने का नुकसान।
एक अन्य बात यह है कि क्रीम तो छोड़िए एक मामूली सरकारी कर्मचारी के बच्चे को भी उसकी पारिवारिक आय के आधार पर स्कालरशिप की पात्रता नहीं होती। इसलिये एक बडे अनुसूचित जाति/ जनजाति के अधिकारी का बच्चा सामान्य रूप से एक वंचित दलित-आदिवासी के लिये कहीं भी चुनौती नहीं बनता है। हॉं, अगर कोई मज़दूर का बच्चा आईएएस की परीक्षा को पास करने की स्थिति तक पहुंचता है तो यहां उसका सामना ज़रूर एक अधिकारी के बच्चे से हो सकता है लेकिन ऐसे मामले तो बेहद ही कम होते हैं। वैसे भी आज की तारीख में बडे दलित-आदिवासी अधिकारियों के बच्चे प्राइवेट सेक्टर ही नहीं विदेशों में भी करियर बना रहे हैं इसलिये उनका मुकाबला तो एक गरीब दलित बच्चे से होता ही नहीं है इसलिये तार्किक आधार पर भी दलित-आदिवासी वर्ग में क्रीमी लेयर की सिफारिश करना असंगत है। उल्टा इस सिफारिश से कई सफाईकर्मी जो सरकारी नौकरी में पर्मानेंट पद पर हैं के बच्चों को उनकी पारिवारिक आय का वास्ता देकर क्रीमी घोषित किये जाने की पक्की संभावना है। राज्य दलितों के मामले में ईडब्ल्यूएस की तरह उदारता नहीं दिखाने वाला बल्कि वह खोज-खोज कर अधिक से अधिक दलित-आदिवासियों को क्रीमी दिखाने की साज़िश रचेगा।
दरअसल अनुसूचित जाति और जनजाति के मामले में क्रीमी शब्द न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि अतार्किक भी है। असंवैधानिक इसलिये कि हमारे संविधान ने कुछ जातियों को अनुसूचित जाति में इसलिये शामिल किया था क्योंकि वे छुआछूत की शिकार थी न कि वे आर्थिक रूप से कमज़ोर भर थी। संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के मामले में क्रीमी लेयर के प्रावधान का सवाल ही नहीं उठ सकता ऐसा करना संविधान के विरुद्ध है। दरअसल यह शब्द सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग के मामले में ओबीसी के लिये किया था। चूँकि ओबीसी शेड्युल में नहीं हैं इसलिये उस मामले में क्रीमी लेयर की बात करना कानून संगत था लेकिन उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने अकारण अपनी टिप्पणी में अनुसूचित जाति के मामले में भी इसका ज़िक्र किया था और अब इस नये निर्णय में तो सीधे आदेश ही जारी कर दिया। चूँकि ये शेडयूल अस्पृश्य जाति के लिये था इसलिये इसमें क्रीमी लेयर की बात करना या वर्गीकरण की बात करना असंवैधानिक है। इसमें थोड़ा भी शक नहीं होना चाहिये।
लेकिन रिजर्वेशन पर पहला हक तो सबसे वंचित का होना ही चाहिए?
देखिये सफाईकर्मी और अन्य वंचित दलित-आदिवासी जाति और जनजातियों को शत–प्रतिशत रिजर्वेशन दिये जाने पर भी इसका लाभ निचले स्तर पर नहीं पहुंच सकता क्योंकि रिज़र्वेशन सिर्फ कुछ पद को आरक्षित करने की बात करता है, लेकिन इसके लिये निर्धारित योग्यता में कोई बड़ी छूट नहीं देता। हां, कभी उम्र तो कभी परेसेंट में कुछ छूट जरूर देता है लेकिन यहाँ समझना होगा कि चाहे आप किसी कालेज में एडमिशन की बात करे या नौकरी की दोनों ही जगह न सिर्फ कुछ शर्तें जैसे ग्रेजुएट न्यूनतम 50 प्रतिशत और एंट्रेंस एग्जाम में पासिंग मार्क्स लाना तो जरूरी ही होता है। हमारे समाज में ऐसे कई समुदाय हैं जो इतने गरीब, वंचित और लाचार हैं कि उनमें कालेज की पढ़ाई करे हुए युवा ढूंढे नहीं मिलते। अगर कोई मिल भी जाए तो वह सुविधा के अभाव में इतना सक्षम नहीं होता कि वह एंट्रेंस एग्जाम में पासिंग मार्क हासिल कर सके, ऐसे में वह आरक्षण के बावज़ूद भी नौकरी हासिल नहीं कर सकते। ऐसे में सरकार तमाम मिडिल क्लास दलित-आदिवासी को क्रीमी घोषित कर सिर्फ गरीब और वंचित दलित-आदिवासी के लिये एससी/एसटी कोटा शत प्रतिशत रिज़र्व भी कर दे तो इसका लाभ उन वंचितों को नहीं मिल सकता। ये सारे पद एनएफएस यानी नॉट फाउंड सुटेबल घोषित होकर सीधे द्विज जातियों के हिस्से में चले जाएंगे जो कि जाति और वर्ग से परे तमाम दलित-आदिवासियों के लिये घातक होगा।
लेकिन इस विषय पर योगेंद्र यादव कहते हैं कि इस दशा में यह पोस्ट फिर दूसरी केटेगरी के अनुसूचित जाति/जनजाति को मिलना चाहिये न कि सीधे सवर्ण तबके को?
यह योगेंद्र यादव की निजी मंशा है न कि सुप्रीम कोर्ट की रुलिंग। कानून के मामले में यादव जी की निजी मंशा की कोई कीमत नहीं वह तो अपनी मर्जी से ही चलेगा न। जाहिर है कोर्ट में और सत्ता में द्विज जातियों के प्रभुत्व से वह इन सभी पोस्ट्स को जनरल में ही कन्वर्ट करना चाहेगा। हम बहुत से केसेस में देख चुके हैं कि कैसे सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य तर्क और तथ्यों की धज्जियां उड़ाते हुए मनमाने फैसले सुनाए हैं। ईडब्ल्यूएस इनमें एक है। अगर इसको गरीबों को सुविधा देने के नाम पर लागू किया तो इसे जाति बंधन से परे सिर्फ बीपीएल तबके को शामिल किया जाना था। लेकिन इसका लाभ खुल के द्विज जाति की क्रीमी लेयर के लोग उठा रहे हैं लेकिन यहाँ सुप्रीम कोर्ट भी मौन है और योगेंद्र यादव भी। उन्हे द्विजों की क्रीमी लेयर दिखाई नहीं देती जो गरीब और वंचितों का हक खा रहे हैं उन्हे बस दलित-आदिवासी की उन्नति चुभती है।
फिर दलितों और आदिवासियों की कुछ जाति तबको का जिम्मेदार कौन है?
सीधे तौर पर इसकी जिम्मेदार सरकार है। यदि आज़ादी के सत्तर साल से अधिक बीत जाने पर भी वह कुछ बड़े-बड़े समुदाय तक शिक्षा नहीं पहुंची है तो इसकी सीधी जिम्मेदारी सरकार की है। देश के हर बच्चे को क्वालिटी शिक्षा मिले यह सरकार को तय करना चाहिये। जब तक एक-एक नागरिक तक क्वालिटी शिक्षा पहुंचेगी नहीं, तब तक वह आगे नहीं बढ़ सकता। बिना सही शिक्षा के रिजर्वेशन दंतहीन साँप से अलग नहीं होगा।
क्या दलित वर्ग को भी कुछ करना होगा?
निश्चित ही। वह काम जो सरकार नहीं कर सकती वह तो दलितों को ही करना होगा। वर्गीकरण की बात का जन्म इसी सच्चाई से तो हुआ कि अनुसूचित जाति एक होमोजिनस समूह नहीं है। उसके बीच में भी जातिवाद और छुआछूत है। यह कोई झूठा इल्ज़ाम नहीं है बल्कि एक सच्चाई है, जिसे हर आम्बेडकरवादी को गम्भीरता से स्वीकार करना होगा और इसे खत्म कर एक जाति मुक्त आम्बेडकरी समुदाय बनाने की पहल करनी चाहिये। यह कम लोग जानते हैं कि खुद बाबासाहेब ने महाराष्ट्र में भिन्न-भिन्न दलित जातियों के बीच सहभोज करवाया करते थे ताकि उनके बीच आपसी द्वेष और छुआछूत खतम हो सके। लेकिन आज के आम्बेडकवादियों ने अपने हर बुद्ध विहार और संस्थाओं में सिर्फ एक अपनी जाति तक ही सीमित कर दिया है। उनमें समावेशी भावना नाममात्र की भी नहीं दिखाई देती। अनुसूचित जाति में शामिल सभी जातियों को आपस में मिलाने के लिये डॉ. आम्बेडकर के प्रयासों को दोहराने की ज़रुरत है। यह मुश्किल हो सकता है किंतु असंभव नहीं। सुप्रीम कोर्ट का हमें इस मायने में धन्यवाद अदा करना चाहिये कि उसने हमारी कमियों और गलतियों को उजागर किया है अगर हम अलग-अलग अनुसूचित जातियां फिज़ूल की ब्राह्मणी मान्यताओं को त्यागकर आम्बेडकर के दर्शन को वास्तव में अपना लें और भिन्न-भिन्न दलित जातियों के बीच न सिर्फ खान-पान बल्कि शादी-ब्याह के भी रिश्ते होने लगे तो भला किसी की क्या मज़ाल कि वह रिजर्वेशन जैसे संविधान प्रदत्त अधिकार को छेड सकेगा।
साथ ही सफाई जैसे काम को अपना पुश्तैनी काम मानने वाली जातियों को भी इसे छोड़कर नये पेशे अपनाने के लिये अपना मन बनाना होगा। जिस तरह बाबासाहब ने तमाम दलित जातियों खासकर चमार और महारों से अपील की थी कि वे अपना पुश्तैनी काम छोड़कर नये काम अपनाए। यह सीख सफाईकर्मी जाति को भी अपनानी होगी। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती इसलिये अगड़ी कही जाने वाले दलित और वंचित दलित दोनों को ही अपने-अपने स्तर पर प्रयास करना होगा और समाज के अन्य पिछड़े तबकों को भी अपने साथ मिलाने के लिये खुला रखना होगा। इस एक प्रयास से न सिर्फ सामाजिक न्याय स्थापित हो सकता है बल्कि सामाजिक क्रांति का भी आगाज़ होगा।