भारतीय समाज विश्व का सर्वाधिक विषमतापूर्ण समाज है, जिसके लिए जिम्मेवार रही है वर्ण व्यवस्था। धर्म के आवरण में लिपटी वर्ण व्यवस्था सदियों से ही शक्ति के स्रोतों (आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) के वितरण-व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही है। इसमें बहुत ही सुपरिकल्पित रूप से अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य-संचालन, सैन्य-वृत्ति, उद्योग- व्यापार इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्रोत ही सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित हुए। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था कहा जाता है। हिन्दू-आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत (आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित्त रहे। हिन्दू आरक्षण के कारण ही देश में सदियों पूर्व सामाजिक अन्याय की धारा प्रवाहमान हुई। इस कारण ही सवर्ण समाज जहाँ चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए। लेकिन दुनिया के दूसरे गुलामों की तुलना में भारत के गुलामों की स्थिति इसलिए बदतर हुई, क्योंकि उन्हें वर्ण व्यवस्था उर्फ़ हिन्दू आरक्षण में आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से पूरी तरह बहिष्कृत रखा गया था। ऐसा दुनिया में और कहीं नहीं। दुनिया के किसी भी देश के गुलामों को शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियन से महरूम नहीं किया गया।
आंबेडकरी आरक्षण ने दलितों के लिए प्रशस्त किया शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी का मार्ग
भारत के गुलामों में सबसे बदतर स्थिति दलितों (अस्पृश्यों) की रही। ये गुलामों के भी गुलाम रहे। भारत के अन्य गुलाम समुदायों की भांति इन्हें भी शक्ति के समस्त स्रोतों से तो बहिष्कृत किया ही गया, पर इनके साथ अस्पृश्यता जुड़ी होने के कारण उच्च वर्णों के साथ-साथ वर्ण व्यवस्था के गुलाम पिछड़े (OBC) तक इनकी मानवी सत्ता को अस्वीकृत करने के साथ इनके स्पर्श से दूरी बरतते रहे। इन्हें अच्छा नाम रखने और अपने दुःख मोचन के लिए मंदिरों में प्रवेश कर ईश्वर की कृपा लाभ तक का अधिकार नहीं था। इनके जैसे अधिकार-विहीन मानव समुदाय की विद्यमानता पूरी दुनिया के किसी भी अंचल में नहीं रही। इन अधिकारविहीन लोगों को मानवेतर में तब्दील कर दिया गया था। इन्हीं गुलामों के गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती डॉ. आंबेडकर के समक्ष आई, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया। अगर जहर की काट जहर हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट किसी वैकल्पिक आरक्षण से ही हो सकती थी, जो आंबेडकरी आरक्षण से हुई। आंबेडकर के संघर्षों से पूना पैक्ट से जो आरक्षण वजूद में आया तथा परवर्तीकाल में जिसकी भारतीय संविधान में स्थाई व्यवस्था हुई, उस आरक्षण के फलस्वरूप जिन मानवेतरों के लिए विगत साढ़े तीन हजार सालों से कल्पना करना दुष्कर था: वे झुण्ड के झुण्ड एमएलए, एमपी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, आईएएस-आईपीएस इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। आंबेडकरी आरक्षण से उनका हजारों साल से चला आ रहा शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार का दूरीकरण होने लगा।
(स्रोत: एचएल दुसाध, बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र, पृष्ठ: 19- 20 )
लेकिन आंबेडकर के प्रयासों से दलितों के जीवन में जो चमत्कारिक बदलाव आया, वह कतई मुमकिन नहीं होता, यदि आजाद भारत में कांग्रेस सरकारों ने जमींदारी उन्मूलन के साथ भूरि-भूरि स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल और सरकारी उपक्रम नहीं खड़े किये होते। इन स्कूल, कॉलेज, राष्ट्रीयकृत बैंक, कोयला खदान, बीमा क्षेत्र और नवरतन कंपनियों सहित कांग्रेस राज में स्थापित की गयी अन्य सैकड़ों सरकारी कंपनियों में जॉब पाकर ही दलित शक्ति के उन स्रोतों में हिस्सेदारी पाने लगे। जिनसे हिन्दू आरक्षण के तहत वे सदियों से बहिष्कृत रहे। दलित और आदवासी कांग्रेस राज में उपलब्ध अवसरों का सदुपयोग कर सकें, इसके लिए खुद कांग्रेस नेताओं द्वारा विशेष अभियान चलाया गया। इस मामले में काबिले मिसाल रहा इंदिरा गांधी का प्रयास। इस विषय में चर्चित दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद की टिप्पणी काबिलेगौर है।
इंदिरा एरा में विकसित होना शुरू किया दलित मध्यम वर्ग
उन्होंने लिखा है- अस्पृश्य और आदिवासियों को स्वतंत्रता पूर्व ही शिक्षा का अधिकार दे दिया गया था, लेकिन क्या दलितों को महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शिक्षक नहीं बनना चाहिए था? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का जवाब इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान दिया। उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पदों पर आरक्षण के लिए सहमति दी। इसके आगे दलित शिक्षा में गुणवत्ता के सम्बन्ध में इंदिरा ने उसी समयावधि केन्द्रीय विद्यालयों में अनुसूचित जाति/ जनजाति के बच्चों को आरक्षण देने का निर्णय लिया। आपातकाल के दौरान ही उनके लिए आईआईटी के द्वार खुले। इसी समय में ठोस दलित मध्यम वर्ग की जड़ें गहरी हुईं। अन्य मुद्दों जैसे न्यायालयों में उच्च स्तर पर अनुसूचित जाति/ जनजाति के न्यायधीशों की नियुक्ति की समस्या को इंदिरा गांधी ने ही सुलझाया। हम तब तक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक हम भारत के जटिल सामाजिक ढांचे में दलितों को उचित स्थान दिलाने वाले नेताओं के प्रयासों का सम्मान नहीं करेंगे और इस सत्य को नहीं समझेंगे। जब हम ऐसे नेताओं की चर्चा करते हैं तो इंदिरा गाँधी का नाम प्रमुखता से उभरता है। दुर्भाग्य से जब हम इंदिरा गांधी का स्मरण करते हैं तो दलितों के प्रति उनके दृष्टिकोण को भूल जाते हैं।
(स्रोत: चंद्रभान प्रसाद, भोपाल घोषणापत्र: 21 वीं सदी में दलितों के लिए नई रणनीति, पृष्ठ :7-8)
इंदिरा गांधी ही क्यों, हम दलित-आदिवासी हित में राजीव गांधी के दो अवदानों को कितना याद रखे हैं। कम्प्यूटर क्रांति के जनक राजीव गांधी के कार्यकाल में स्थापित नवोदय विद्यालयों ने जहाँ शहरों से दूर ग्रामीण इलाके के एससी-एसटी समुदाय के प्रतिभावान छात्रों को टॉप क्लास की गुणवत्ती शिक्षा मुहैया कराया, वहीं, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 हिन्दुओं के अत्याचारों मानवेतरों को बचाने में एक अभूतपूर्व ढाल बना।
कांग्रेस राज में हुआ दलित-आदिवासी लेखकों का उभार
सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि आजादी के बाद कांग्रेस राज में स्थापित सैकड़ों सरकारी कंपनियों; लाखों स्कूल-कॉलेज और अस्पतालों के साथ शासन-प्रशासन में आरक्षण पाकर दलितों में एक ऐसा मध्यम वर्ग उभरा जिसने दलित समाज की शक्ल काफी हद तक बदल कर रख दी। कांग्रेस के जमाने में उभरे इसी मध्यम वर्ग के आर्थिक सहयोग से दलितों के बसपा जैसी कई राजनीतिक पार्टियों और बामसेफ सहित हजारो संगठनों का उदय हुआ। कांग्रेस द्वारा स्थापित संस्थानों में जॉब करते हुए ही दलित लेखकों की विशाल फ़ौज वजूद में आई जो आज हजारों साल के पारम्परिक ज्ञान को चुनौती दे रही है। लेखन के लिए जैसा आर्थिक-सामाजिक परिवेश चाहिए, वह भारत में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग को तो हजारों साल से सुलभ रहा, पर दलितों को नसीब हुआ 1980 के बाद, जब इस दौर में एक मध्यम वर्ग आकार लेने लगा। तब इस वर्ग के कुछ लोग घर-गृहस्थी की बुनियादी समस्याओं से मुक्त होकर लेखन-चिन्तन की दिशा में अग्रसर हुए। 80 के बाद के दशक में यह सिलसिला बुद्ध शरण हंस, ओमप्रकाश वाल्मीकि, एसके बिस्वास, डॉ. नवल वियोगी, डॉ. यूएन बिस्वास, एके बिस्वास, कँवल भारती, कुसुम वियोगी, डॉ. जय प्रकाश कर्दम, सूरज पाल चौहान इत्यादि से जो शुरू हुआ, वह डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, सुदेश तनवर, शीलबोधि, विपिन बिहारी, ईश कुमार गंगानिया, विमल थोराट, सुशीला टाकभौरे, अनीता भारती, अजय नावरिया इत्यादि से बढ़ते हुए आज रंजू राही, डॉ. जन्मेजय कुमार, बच्चालाल उन्मेष, प्रो. रतनलाल, डॉ. कौशल पंवार इत्यादि के रूप में विस्तार पाता जा रहा है। आज सैकड़ों दलित अपने लेखन से देश और समाज को समृद्ध किये जा रहे हैं। पर, भारी विस्मय की बात है कि इनमें चंद्रभान प्रसाद, मोहनदास नैमिशराय, एचएल दुसाध को छोड़कर प्रायः सभी के सभी सरकारी जॉब करते हुए लेखक बनने लायक माहौल पाए हैं।
जिस तरह सरकारी जॉब करते हुए दलितों में ढेरों लोग लेखन लायक माहौल पाकर दलित साहित्य को समृद्ध किये, वैसा ही सुखद संयोग आदिवासी साहित्य के साथ हुआ। कांग्रेस राज में आदिवासियों में भी भूरि-भूरि लोग सांसद-विधायक, आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर बने तो इस समुदाय से लेखक भी कम नहीं निकले। दलित लेखकों की भांति आदिवासी लेखकों की लम्बी फेहरिस्त है, जो अनुकूल आर्थिक परिवेश पाकर लेखन के जरिये अपने समाज की शोषण-वंचना और आकांक्षा को शब्द दिए। एलिस इक्का, हरिराम मीणा, राम दयाल मुंडा, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, बाबूराव मंडावी, महादेव टोप्पो इत्यादि ने आदिवासी साहित्य में अपनी जबरदस्त उपस्थिति से पूरे देश को विस्मित किया। आज इनसे प्रेरणा लेकर आदिवासी साहित्य को समृद्ध करने में नीतिशा खालको, गंगा सहाय मीणा, सुनील कुमार ‘सुमन’, अनुज लुगुन, जनार्दन गोंड़, केदार प्रसाद मीणा इत्यादि जैसे युवा आदिवासी लेखक उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। तो आदिवासी समाज के अतीत और वर्तमान के लेखकों के उभार के पृष्ठ में क्रियाशील कारकों की तह में जायेंगे तो उसमे भी किसी न किसी रूप से कांग्रेस की भूमिका जरुर नजर आएगी।
भूमंडलीकरण के दौर में सृजित अवसरों में जिन दलित आदिवासी युवाओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल रहा है, वे मुख्यतः दलितों के उसी मध्यम वर्ग की संताने हैं, जिनका निर्माण कांग्रेस काल में हुआ। लेकिन 20वीं सदी में कांग्रेस सृजित अवसरों से अगर दलित, आदिवासी सर्वाधिक लाभान्वित हुए तो 21सवीं सदी में वह सोनिया एरा में थोड़ा और आगे बढ़ा है। सोनिया एरा में 2002 में ऐतिहासिक भोपाल सम्मलेन से निकली डाइवर्सिटी की आइडिया दलित-आदिवासी समाज में चमत्कार घटित करने जा रही है। भोपाल सम्मलेन से पूर्व के आंदोलनों से दलितों में शासक बनने तथा ब्राह्मणवाद से लड़ने की चाहत तो पनपी, पर दिग्विजय सिंह द्वारा जारी भोपाल घोषणा पत्र के बाद दलित-आदिवासियों में सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म-मीडिया, पार्किंग-परिवहन, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि समस्त क्षेत्रों में भागीदारी की चाह पनपी। इसके फलस्वरूप आज कुछ दलित चिंतक दलित कैपिटलिज्म को आगे बढ़ा रहे तो कुछ दलित बैंक इत्यादि खड़ा करने की मुहीम चला रहे हैं। भोपाल सम्मलेन के बाद दलितों में पनपी आर्थिक आकांक्षा की चाह का अनुमान लगाकर आज सरकारें आरक्षण का दायरा बढ़ा रही हैं। नौकरी से इतर अर्थोपार्जन की अन्यान्य गतिविधियों में आरक्षण दे रही है। 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार ने एससी का आरक्षण 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 13 और ओबीसी का 14 से 27 प्रतिशत कर दिया। इस तरह वहां आरक्षण 50 से बढ़कर 72 प्रतिशत तक पहुंच गया। बघेल सरकार के नक्शे कदम का अनुसरण करते हुए आंध्र प्रदेश की जगनमोहन रेड्डी सरकार ने बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टी में एससी, एसटी और ओबीसी को 50 प्रतिशत दे दिया। यही नहीं रेड्डी सरकर ने स्थानीय लोगों को निजी क्षेत्र में आरक्षण के साथ निगमों, बोर्डों, सोसाइटियों और बाजार कार्यस्थलों में ओबीसी, एससी, एसटी को 50 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दिया।
(स्रोत: एचएल दुसाध द्वारा सम्पादित, डाइवर्सिटी इयर बुक: 2020,पृष्ठ : 40)
इनके अतिरिक्त झारखण्ड में भी आरक्षण का दायरा बढ़ाने साथ वहां 25 करोड़ तक के सरकारी ठेकों में आरक्षण लागू हो चुका है। तमिलनाडु के 36, 000 मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण मिलने की घटना से तो सभी वाकिफ है। पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण लागू करने का काम इस वर्ष राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने भी अंजाम दिया है। इन पंक्तियों को लिखे जाने के दौरान बिहार विधानसभा में एससी, एसटी, ईबीसी, ओबीसी के आरक्षण का दायरा 50 से 65 प्रतिशत कर दिया गया है। इससे ईडब्ल्यूएस का 10 प्रतिशत मिलाकर बिहार में आरक्षण का दायरा 75 प्रतिशत छूने जा रहा है। अब वहां एससी का आरक्षण 16 से 20, ईबीसी का 18 से 43 और ओबीसी का आरक्षण 12 से बढाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया।
(स्रोत: जनसत्ता, 10 नवम्बर, 2023)
भोपाल घोषणा-पत्र से नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग, व्यापार, पौरोहित्य इत्यादि अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों में हिस्सेदारी की जो चाह पनपी है, उससे लगता है आने वाले वर्षों में भारत में क्रान्तिकारी आर्थिक परिवर्तन होकर रहेगा। क्रांतिकारी भोपाल घोषणा के अतिरिक्त सोनिया युग में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में ढेरों ऐसे कार्य हुए जो दलित एवं सामाजिक न्याय की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहे। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए विशेष प्रयास; जातिवार जनगण का निर्णय; राजीव गांधी राष्ट्रीय फेलोशिप; एससी-एसटी को एमएसएमइ के प्रोडक्ट के सप्लाई में आरक्षण; 23 पीएसयू की स्थापना और महज 3 का निजीकरण; भारी मात्रा में केन्द्रीय विद्यालय और आईआईटी के निर्माण से ज्यादा लाभान्वित एससी/ एसटी वर्ग ही हुआ। उसमें हाल के दिनों में पुरानी पेंशन व्यवस्था की बहाली को जोड़ दिया जाय तो साफ़ नजर आएगा कि सोनिया युग में भी सर्वाधिक लाभान्वित होने वाला तबका दलित और आदिवासी वर्ग ही है।
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कांग्रेस राज में दलितोत्थान होते देख आरक्षण के खात्मे की परिकल्पना में जुटे हिंदुत्ववादी
बहरहाल कांग्रेस राज में सृजित अवसरों से दलित, आदिवासी समाजों से जब भूरि-भूरि लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर्स, प्रोफ़ेसर इत्यादि निकलने लगे तो यह हिंदुत्ववादी भाजपा को रास नहीं आया। क्योंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में जिन दलितों के लिए लोहे के गहनों, जूठे भोजन, दूसरों के छोड़े फटे-पुराने वस्त्रों पर जीवनयापन करना ही धर्म बताया गया है, जिनके लिए मंदिरों में प्रवेश व हथियार स्पर्श के साथ शिक्षा-ग्रहण दंडनीय अपराध व अधर्म घोषित किया गया, वैसे समाज के लोग जब आजादी के बाद कांग्रेस-राज में आंबेडकरी आरक्षण के जरिये एमएलए-एमपी, डॉक्टर प्रोफ़ेसर, इंजीनियर, आईएएस-पीसीएस, लेखक इत्यादि बनने लगे, तब हिंदुत्ववादी संघ और जनसंघ से भाजपा बना उसका राजनीतिक संगठन ‘आरक्षण’ को हिन्दू धर्म पर हमले के रूप में लेने लगे।
आरक्षण से हिन्दू धर्म की ऐसी हानि होते देख हिंदुत्ववादी मन ही मन घुटते तथा सही मौके की तलाश में लगे रहे और 7 अगस्त, 1990 को अंततः मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद उन्हें उस आरक्षण के खात्मे का अवसर मिल गया, जिस आरक्षण से दलित अपना उत्त्थान कर हिन्दू धर्म-शास्त्र और भगवानों को भ्रांत प्रमाणित करने लगे थे। बहरहाल, आरक्षण के खात्मे के प्रयोजन से शुरू किये गए राम मंदिर आन्दोलन जरिये सत्ता में आकर वाजपेयी आरक्षण के खात्मे के जुनून में देश बेचने लगे और आज आरक्षण के खात्मे के मामले में प्रधानमंत्री मोदी अटल बिहारी वाजपेयी को भी बौना बना दिए हैं।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए व्यर्थ किया जा रहा है आंबेडकर का संविधान
वाजपेयी के बाद मोदी जिस संघ से प्रशिक्षित होकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे, उस संघ का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना रहा है, यह राजनीति में रूचि रखने वाला एक बच्चा तक जानता है। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मतलब एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें देश आंबेडकर के बनाये संविधान से नहीं, उन हिन्दू धार्मिक कानूनों द्वारा देश चलेगा, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े अधिकारविहीन नर-पशु एवं शक्ति के समस्त स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे। संघ के एकनिष्ठ सेवक होने के नाते मोदी हिन्दू राष्ट्र से अपना ध्यान एक पल के लिए भी नहीं हटाये और 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही अपनी समस्त गतिविधियां इस के निर्माण पर केन्द्रित रखे। सत्ता में आने के बाद मोदी जिस हिन्दू राष्ट्र को आकार देने में निमंग्न हुए, उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रहा संविधान! संविधान इसलिए बाधा रहा, क्योंकि यह शुद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/ कर्मों में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराता है, जो पेशे/ कर्म हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से उत्पन्न लोगों (ब्राहमण-क्षत्रिय-वैश्यों) के लिए आरक्षित रहे। संविधान के रहते सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर वैसा एकाधिकार कभी नहीं हो सकता, जो अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा उन्हें दिया गया था। किन्तु संविधान के रहते हुए भी हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार हो सकता है, यदि इन्हें निजी क्षेत्र में शिफ्ट करा दिया जाय। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी जिस दिन से सत्ता में आए, उपरी तौर पर संविधान के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित करते हुए भी, लगातार इसे व्यर्थ करने में जुटे रहे। इस बात को ध्यान में रखते हुए वह लाभजनक सरकारी उपक्रमों तक को औने-पौने दामों में बेचते हुए निजी क्षेत्र में देने में इस कदर मुस्तैद हुए कि वाजपेयी भी इनके सामने बौने बन गए।
(स्रोत : एचएल दुसाध, मिशन डाइवर्सिटी 2022, पृष्ठ:8-9)
संविधान को व्यर्थ करने के लिए ही मोदी तमाम सरकारी कम्पनियां निजी क्षेत्र में देने के लिए जिस हद तक मुस्तैद हुए, उससे खुद भाजपा के आरक्षित वर्गों के सांसद तक खौफजदा होकर दबी जबान में निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठाने लगे हैं। ऐसी हिमाकत 2021 में राजस्थान के भाजपा सांसद फगन सिंह कुलस्ते ने की थी। बहरहाल मोदी सरकार देश को पूरी तरह निजीकरण के सैलाब में डुबोने के लिए किस हद तक आमादा है, इसका अनुमान खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस घोषणा से लगाया जा सकता है। उन्होंने संसद में उठाये गए एक सवाल के जवाब में दिसंबर, 2021 में बताया था कि ये 36 सरकारी कम्पनियां निजीकरण के लिए चुन ली गयी हैं- 1- प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड; 2- इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट (इंडिया) लिमिटेड; 3- ब्रिज और रूफ कंपनी इंडिया लिमिटेड; 4- सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (CEL) ;- 5- बीईएमएल लिमिटेड; 6- फेरो स्क्रैप निगम लिमिटेड (सब्सिडियरी); 7- नगरनार स्टील प्लांट ऑफ एनएमडीसी लिमिटेड; 8- स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया की यूनिट्स (एलॉय स्टील प्लांट, दुर्गापुर स्टील प्लांट, सालेम स्टील प्लांट, भद्रावती स्टील प्लांट); 9- पवन हंस लिमिटेड; 10- एयर इंडिया और इसकी 5 सब्सिडियरी कंपनियां; 11- एचएलएल लाइफकेयर लिमिटेड; 12- इंडियन मेडिसिन्स फार्मास्युटिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड; 13- भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड; 14- द शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 15- कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 16- नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड; 17- राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड 18- आईडीबीआई बैंक
एडमिनिस्ट्रेटिव मंत्रालयों ने इन कंपनियों के लिए निजीकरण के ट्रांजेक्शन को कर दिया प्रोसेस 19- इंडिया टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन लिमिटेड की तमाम यूनिट; 20- हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड; 21- बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड याचिकाओं के चलते रुका हुआ है इन कंपनियों के निजीकरण का ट्रांजेक्शन 22- हिंदुस्तान न्यूजप्रिंट लिमिटेड (सब्सिडियरी); 23- कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड; 24- हिंदुस्तान फ्लोरोकार्बन्स लिमिटेड (सब्सिडियरी); 25- स्कूटर्स इंडिया लिमिटेड; 26- हिंदुस्तान प्रीफैब लिमिटेड; 27- सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड की यूनिट्स।
इन कंपनियों के निजीकरण का ट्रांजेक्शन हो गया है पूरा
28- हिंदुस्तान पेट्रोलियन कॉरपोरेशन लिमिटेड; 29- रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉरपोरेशन लिमिटेड; 30- एचएससीसी (इंडिया) लिमिटेड; 31- नेशनल प्रोजेक्ट्स कंसट्रक्शन कॉरपोरेशन लिमिटेड; 32- ड्रेजिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड; 33- टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड; 34- नॉर्थ ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड; 35- कमरजार पोर्ट लिमिटेड- (स्रोत :नवभारत टाइम्स,21 दिसंबर,2021)।
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संविधान को पूरी तरह ध्वस्त करने का मन बना चुकी है मोदी सरकार
बहरहाल मोदी सरकार देश को निजीकरण के सैलाब डुबोने पर इस तरह आमादा है कि 1969 में जिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इंदिरा गांधी ने देश की अर्थव्यवस्था सुरक्षित करने के साथ लाखों लोगों को रोजगार का सम्मानजनक अवसर सुलभ कराया, उनका भी निजीकरण करने का मन बना लिया है। इसका संकेत वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 2021 का बजट पेश करने के दौरान दो बैंकों के निजीकरण के एलान के जरिये दे दिया था। वित्त मंत्री की घोषणा के बाद इसके लिए मोदी सरकर को बाकायदे नीति आयोग के तरफ से 15 जुलाई, 2022 को सुझाव भी दे दिया गया, जिसमे कहा गया था कि सरकार स्टेट बैंक को छोड़कर बाकी बैंक बेच दे। ये तथ्य बतलाते हैं कि मोदी सरकार संविधान को पूरी तरह ध्वस्त करने का मन बना चुकी और अगर वह दुबारा सत्ता में आती है तो संविधान पूरी तरह व्यर्थ हो जायेगा। ऐसे में संविधान बचाने के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में आरक्षित वर्गों को मोदी सरकार को रोकने में सर्वशक्ति लगानी होगी। भारी राहत की बात है, मोदी सरकार को रोकने लिए वजूद में आया इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस) जाति जनगणना कराकर ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का नारा बुलंद कर दिया है। इस दिशा में बिहार में प्रकाशित जाति जनगणना और आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट ने उम्मीद की एक नई रोशनी बिखेरा है। अगर बहुसंख्य वंचित वर्ग मोदी सरकार को हटाकर इंडिया को सत्ता में लाने में कामयाब हो जाता है तब तो उम्मीद की जा सकती है कि भारतीय संविधान भारत के लोगों को नए सिरे से इसकी उद्देश्यिका में उल्लिखित तीन न्याय- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक- सुलभ कराने में समर्थ हो उठेगा तथा देश में जिसकी जितनी सख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी का कांशीराम का सपना भी पूरा हो जायेगा। अगर हिन्दुत्ववादी सरकार फिर सत्ता में आती है, तो संविधान का जनाजा निकलने के साथ दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मान्तरित तबकों का विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुंचना तय सा हो जायेगा।
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।