वाराणसी। ‘यहाँ रहते हुए मुझे 45-50 साल तो हो ही चुके हैं। हमारे घर के बुजुर्गों को भी याद नहीं कब से रह रहे हैं। हमार शादी-ब्याह यहीं हुआ और उसके बाद बाल-बच्चे हुए और अब नाती-पोते भी। लेकिन बात आकर वहीं अटक गई कि एक घर हो जाता या सरकार से जमीन का छोटा-मोटा टुकड़ा ही मिल जाता, कम से कम जीवन में कुछ स्थिरता तो रहती। हम लोगों का भी कोई इज्जत-सम्मान रहता। यहाँ सड़क किनारे सरकारी जमीन पर रहते हैं।’ ये बातें साची ने हमसे कही। साची की उम्र लगभग 45 के आस-पास होगी। साची बसोर जाति की महिला हैं और शिवपुर, वाराणसी में शिवपुर स्टेशन के पूरब की तरफ रेलवे की एक लम्बी सी दीवार के बगल अपने समाज के लोगों के साथ डेरा डाल कर रहती हैं। जिस जगह पर वे लोग रहते हैं, वह जगह प्लास्टिक से बनी हुई झोपड़ी है और जिसे वहाँ से आने-जाने वाले उनका घर समझते हैं। वास्तव में वह उनका घर नहीं बल्कि सर छुपाने और रात गुजारने का एक ठिकाना मात्र है। इस बस्ती में घर नहीं बने हैं। घर के नाम पर बांस की कुछ खपच्चियों को अर्द्धगोलाकार घुमा कर उस पर काली पन्नियाँ फैला दी गई हैं।
साची आगे कहती हैं कि, ‘अब देखिए, यह जो सामने सफेद बिल्डिंग दिख रही है, इसके मालिक ने हमें यहाँ एक नई झोपड़ी बनाने के लिए गड्ढा खोदने पर नाराज होकर गाली दी और झोपड़ी बनाने से एकदम मना कर दिया। जबकि सड़क के दूसरी तरफ उसका काम है। अगर जमीन का एक टुकड़ा मिल जाता तो गाली देने वालों की बात तो नहीं सुननी पड़ती।’
‘आप तो सरकारी जमीन पर हैं, कौन भगाता है?’ इस प्रश्न पर सामने सफेद बिल्डिंग की तरफ उंगली उठाते हुए साची कहती है- ‘वहां के मालिक। कल ही जब हम नई झोपड़ी बनाने के लिए गड्ढा खोद रहे थे, तो किसी को भेजकर काम बंद करने के लिए कहा।’ हमने उनसे कहा कि यह जमीन तो उनकी नहीं है? इस पर अजय बताने लगा कि जमीन तो रेलवे की है, रेलवे वाले कुछ नहीं कहते हैं, पर सामने जिनका गोदाम है वह लोग नहीं चाहते हैं कि हम लोग यहाँ अपनी और झोपड़ी फैलायें। हम लोग तो उनका विरोध कर नहीं सकते हैं।’ घर की बात हो ही रही थी कि एक दूसरी महिला दूर से ही चिल्लाते हुए कहती है कि, ‘ई मोदी-योगी इहाँ आये रहीन त एक बार इहाँ आके हम गरीबन को देख जाते, हमको कुछ सुविधा दे देते।’
बरसात एक बार हो चुकी है। यहाँ कुछ परिवार अभी तक पन्नियाँ नहीं डाल सके थे और वे इसी काम में लगे हुए थे। हम जब उनकी बस्ती में पहुंचे तब दिन के करीब तीन बजे थे। जून माह की धूप और उमस तेज थी और परेशान कर रही थी। इसलिए इन ‘घरों’ में कोई नहीं था। घर के सभी आदमी, औरतें, बच्चे और बुजुर्ग सड़क की दूसरी तरफ एक बहते हुए खुले नाले के किनारे चारपाई डालकर या जमीन पर चटाई फैलाकर बैठे हुए थे। इस तपती धूप में बस इतनी-सी राहत थी कि बगल में कुछ पेड़ लगे थे। ऐसे लग रहा था जैसे दोनों एक-दूसरे से जीवन का सुख-दुःख बांटते हुए बतिया रहे हों। शायद यहाँ के लोगों के साथ इन पेड़ों का पुराना अपनापा था, जिसकी वजह से इस कठिन धूप के खिलाफ, इनके लिए ढाल बने खड़े थे।
पेड़ के नीचे बांस से पंखा बना रहे एक युवक ने हमसे बात करती महिलाओं को देखकर जोर से कहा- ‘आप लोग फोटो लेने आये हैं, ऐसे सैकड़ों लोग आते हैं और बात करते हैं फोटो खींचकर ले जाते हैं, लेकिन हमारी बात सरकार तक नहीं पहुँचती है। साल भर एक प्लास्टिक की छत के नीचे जीवन गुजार देते हैं। मत खींचिए हमारी फोटो। न हमारे बच्चों के लिए स्कूल है, न अस्पताल और न ही कोई सरकारी सुविधा। आधार कार्ड तक नहीं, जिससे हमारी पहचान हो सके।’ उसकी नाराजगी सरकार से कम हमारी तरह वहाँ आने वाले लोगों से ज्यादा थी।
वहीं पास में दो बच्चों की माँ सोनी खड़ी थी। अभी वह 8 माह की गर्भवती है। उसने बताया कि ‘आज खाना ही नहीं बना।’ क्यों? पूछने पर कहा कि ‘काम-धंधा ही नहीं चल रहा तो क्या करेंगे? बरसात में काम वैसे भी बंद हो जाता है। शादी-ब्याह का सीजन रहने पर बेना, डोलची, टोकरी, झाबा बनाते हैं और बाजार में बेच आते हैं।’
यह सबकुछ स्वाभाविक रूप से यह बताने के लिए काफी था कि यहाँ एक कठिन जिंदगी दर्द से करवट बदल रही है। खुले में बने मिट्टी के चूल्हे में अब आग नहीं थी, पर राख अब भी मौजूद थी। साथ में कुछ जस्ते के बर्तन इधर-उधर पड़े हुए थे, जिनमें जूठन अब तक लगा था और मक्खियों का झुण्ड कभी जूठे बर्तनों पर तो कभी आस-पास खेल रहे बस्ती के बच्चों पर मंडरा रहा था। बच्चे उन मक्खियों से परेशान नहीं थे, बल्कि ऐसे लग रहा था जैसे जैविक ऊर्जा चक्र में एक-दूसरे के पूरक बने हुए एक साझा जीवन विकसित करने में लगे हए हों। बंसोर समाज के लोगों की इस अजब जिंदगी में दुखों की तमाम परते हैं। अनुसूचित जाति के रूप में दर्ज यह समाज मुख्य रूप से बांस से सामान बनाता है और उन्हीं सामानों को बेंचकर जीवन-यापन करता है। इनके जीवन की जो स्थितियां देखने को मिलीं, वह महज दर्द और वंचना का आख्यान नहीं हैं, बल्कि देश की कार्य-प्रणाली पर गंभीर सवाल भी हैं। यह बात तब और गंभीर हो जाती है, जब हम देखते हैं कि यह उस शहर का हाल है, जिसके संसदीय प्रतिनिधि इसे देश के प्रधानमंत्री हैं।
बस्ती में हमारी मुलाक़ात गुड्डू से हुई। वह अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ मिलकर अपना झोंपड़ा ठीक कर रहा है। यही झोंपड़ा उसका घर है, पर इसे घर भी भला कैसे कहा जा सकता है? बस पन्नियों का एक पर्दा भर है, इंसानों से भी और आसमान से भी। पन्नियों को ही पर्दे सा घेर लिया गया है और फिलहाल यही इनका घर है। जिसे बनाते हुए वह बताते हैं कि, ‘अब बरसात आ रहल बा, ई बनावल न जाई त कईसे रहल जाई, कहाँ रहल जाई, एतना दिन से हई। 30-35 बरस से, लेकिन केहू सुने वाला ही नाही बा। न बड़का साहेब न छोटका साहेब। देखा साहेब हमार छोट-छोट लरिका हएन, बाकी न रहै क ठेकान बा न खाए क। शादी-ब्याह के सीजन में ता काम रहेला पर बाकी समय ऐसे ही कटेला। हम लोगन के कउनो सरकारी सुविधा ना मिल सकेला।’
यहाँ एक व्यक्ति को छोड़कर किसी के पास आधार कार्ड नहीं है
जब हमने उनसे पूछा कि अंत्योदय योजना का अनाज मिलता है या नहीं? इस बात पर समूह में खड़े कई स्त्री-पुरुषों ने जवाब दिया कि आधार कार्ड ही नहीं है तो राशन कार्ड कैसे बनेगा? यहाँ एक व्यक्ति को छोड़कर किसी के पास आधार कार्ड नहीं है। इस वजह से अंत्योदय राशन कार्ड, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन के अलावा बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।
यह पूछने पर कि आप लोगों ने बनवाया क्यों नहीं? सोनी ने इसका जवाब देते हुए कहा कि ‘कई बार हम लोग शिवपुर के एक स्कूल में आधार कार्ड बनवाने गए तो वहाँ बैठे एक सर ने मना कर दिया और कहा कि अपने प्रधान से लिखवाकर लाइये। अब यहाँ का प्रधान कौन है, हम लोगन को मालूम ही नहीं है। बोलते हैं कि अपने घर का पता लिखवा लाइये। अब बताइए घर ही नहीं है तो पता कहाँ से होगा।’
क्या आप लोगों के पास वोटर आईडी है? कभी वोट नहीं दिया चुनाव में? इतना सुनने के बाद कुछ लोगों ने कहा ‘एक बार दिया था, जब हमारा वोटर आईडी बना था। तब मालूम हुआ कि आठ लोगों का वोटर आईडी बना है, कितने साल पहले? इसका जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि यहाँ साची के दामाद अमर के अलावा एक भी व्यक्ति या बच्चा आज तक स्कूल नहीं गया। कुछ लोगों ने वोटर आईडी लाकर दिखाया। उस पर उनका नाम, फोटो और पीछे पता लिखा हुआ था। मैंने उनसे कहाँ इस पर तो पता लिखा है। लेकिन पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि किसी ने वोट लेने के लिए किसी के घर का फर्जी पता लिखकर इनका वोटर कार्ड बनवा दिया है और यही वजह है कि यह वोटर आईडी, आधार कार्ड बनाने के लिए सही नहीं पाई गई। यह बात उनकी समझ में अब तक नहीं आई थी। इस बावत बस्ती की सबसे बुजुर्ग पन्ना भी बताते हैं कि, ‘कई बार कोशिश की पर जब सेंटर पर जाते हैं तो भगा दिए जाते हैं, कहते हैं कि जाइए परधान से लिखवा के लाइए। कई बार कोशिश किये कि आधार बन जाए, राशन कार्ड बन जाए तो कम से कम मुफ्त वाला राशन हम लोगन को भी मिल जाए, पर जहाँ भी जाते हैं सुनवाई ही नहीं होती।’
पन्ना की उम्र 50 के पार होगी सिर्फ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। किसी दस्तावेज के आधार पर उसकी तस्दीक नहीं की जा सकती है। वह बताते हैं कोई चालीस बरस पहिले अपने बाप-दादा के साथ आए थे। बाप-दादा यह सोच कर मऊ जिले से बनारस (वाराणसी) आये थे कि बड़ा शहर है, जमकर मेहनत करेंगे तो अच्छी कमाई हो जायेगी, पर चालीस साल हो गए आज तक कुछ नहीं बदला, बल्कि मंहगाई बढ़ने के साथ-साथ सस्ते प्लास्टिक के सामान बाजार में आ जाने से जीवन और भी कठिन हो गया है। शादी-ब्याह के सीजन में ही थोड़ा-बहुत काम मिलता है बाकी उसी के भरोसे जीवन गुजारना पड़ता है।
बारिश में ये लोग कैसे रहते हैं
कुछ लोगों ने बताया कि जब रात में तेज बारिश होती है तो बैठकर जागते हुए रात गुजारना पड़ता हैं या फिर बाल-बच्चों को लेकर बाजार की तरफ बंद दुकानों के आगे चले जाते हैं।
वहीं, बगल में गुड्डी बैठ कर बांस की खपच्चियों से पंखा बना रही हैं। हाथ भरसक तेज चलाने की कोशिश कर रही हैं। उसकी पूरी कोशिश है कि किसी भी तरह पांच पंखा पूरा करके दुकान पर दे आएँ तो शायद 100 रुपये मिल जाए। 100 रुपये उसकी आज की दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत हैं। यह 100 रुपये हाथ में आ जाएंगे तो चावल खरीदेगी, ताकि रात में चूल्हा जल सके। एक तरफ चूल्हे पर चढ़ाने के लिए चावल नहीं है, तो दूसरी ओर, आसमान में घिरते हुए बादल मन को कंपा रहे हैं। गुड्डी कहती है कि, ‘अगर पानी बरसने लगा तो चूल्हा जलाना मुश्किल हो जाएगा। जलावन तो है गुड्डी के पास, पर चूल्हा खुले में है, इसलिए बारिश होने पर खाना बनाना मुश्किल हो जाएगा।’ इन तमाम मुश्किलों के बारे में बताते हुए उसकी आँखे भरी हुई हैं और आवाज भी गले में लरजती महसूस हो रही है।
गुड्डी से बात करते समय ही एक नवयुवक, जिसकी उम्र 20-22 के आस-पास होगी, वह पास आकर खड़ा हो जाता है और कुछ देर चुप-चाप बात सुनता रहता है। गुड्डी की दुखी आवाज सुनकर उसे शायद तकलीफ होती है। वह बोलता है, ‘अरे पहिले भी कई लोग आय रहे पर केहू कुछ करे वाला नाही है।’ उसके मन में व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा और दुःख भरा हुआ है। वह चाहता था कि उसके भाई-बहन कुछ पढ़-लिख जाते, उन्हें लेकर स्कूल भी गया था, पर आधार कार्ड नहीं था, इसलिए नाम नहीं लिखा गया।
इस युवक का नाम अजय है। थोड़ी देर बात करने पर वह इत्मीनान से बात करने लगता है। अजय कहता है कि, ‘हम भी इसी देश के लोग हैं पर हमारी कहीं कोई गिनती ही नहीं है। परिवार बड़ा है और रहने की जगह नहीं है।’ इतना कहते हुए वह हमें एक झोंपड़े की ओर ले जाता है और कहता है कि ‘अब आप ही देख लीजिये कि हम कैसे रहते हैं?’ उसकी माँ जमीन पर मिट्टी डालकर उसे ऊंचा करने में लगी हुयी हैं। बस्ती के लोगों के लिए अभी भूख और बरसात दोनों ही सबसे बड़े दुश्मन की तरह दिख रहे हैं। सब अपनी तरफ से हर वह जरूरी इंतजाम कर लेना चाहते हैं जिससे बरसात में जीने भर का उपाय हो जाए। एक अन्य युवक अमर बताता है कि ‘बरसात में यह बस कहने भर का घर रह जाएगा। दिन में तो इसी में किसी तरह रहना पड़ेगा, पर रात में हम लोग जाकर बंद हो चुकी दुकानों के बरामदे में ही सोएंगे।
पन्ना से ही एक बार फिर हम यह पूछते हैं कि ‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं करते हैं?’ तो वह कहते हैं कि, ‘आदमी तो अपने हुनर का ही करेगा और खायेगा, पर अब नए लड़के दूसरा काम भी सीख रहे हैं। हम लेबरई या मिट्टी धोने का काम नहीं कर सकते। यह हमारा काम नहीं है। हमारा काम बांस के सामान बनाने का है। कुछ लोग दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, पर उससे हमारा काम नहीं चलेगा, क्योंकि इस काम को पूरा परिवार मिलकर करता है, तो कमाई में भी सबका हिस्सा होता है, पर दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए सिर्फ घर के मर्द ही जा सकते हैं और मर्द के बिना यहाँ औरतें काम भी नहीं कर पाएंगी।’
पन्ना सारी बात विस्तार से समझाते हुए बताते हैं कि ‘बांस फाड़ने में ज्यादा ताकत लगती है, इसलिए बांस छीलने और उसे फाड़ने का ज्यादातर काम मर्द ही करते हैं, जबकि बिनाई के काम में औरतें जल्दी हाथ चलाती हैं।’ तभी अजय कहता है कि, ‘यहाँ जितने भी लोग हैं, उसमें से तीन लोग जिसमें मैं खुद, मेरे पिताजी और एक व्यक्ति ही बाहर काम कर हैं। मैं एक होटल में काम करता हूँ ताकि बच्चे और परिवार का पेट भर सकूँ।’
सवाल है कि मातृत्व लाभ मानदेय के लिए आधार कार्ड और बैंक एकाउंट कहाँ से लाएँ
तभी दो नंग-धड़ंग बच्चे दौड़ते हुए हमारे करीब आ जाते हैं। दोनों तीन-चार वर्ष के आस-पास होंगे। गर्मी की वजह से शरीर पर घमौरियाँ हो गई हैं, शायद उन घमौरियों में चुनचुनाहट हो रही है, इसलिए चिड़चिड़ा रहे हैं। तभी पीछे से माँ सोनी भी आती है। सोनी गर्भवती होने की वजह से बहुत धीमे-धीमे चल पा रही है। सोनी बच्चों को एक-एक बिस्किट देती है, दोनों बच्चे खुश होकर भाग जाते हैं। पर सोनी थोड़ी देर रुककर मेरे पास खड़ीं पत्रकार अपर्णा के पास जाती हैं और आत्मीयता के साथ कहती हैं कि, ‘दीदी हम लोगन के लिए केहू कुछ नाही करत।’
डिलेवरी के लिए किस अस्पताल में जाओगी? पूछने पर सोनी बताती हैं कि ‘हरहुआ में एक सरकारी अस्पताल है, वहाँ जाते हैं।’
यह भी पढ़ें –
गरीबों और पटरी व्यवसायियों की अर्थव्यवस्था को आधार देता भदोही का मेला
सरकारी अस्पताल में तो बिना पैसे के सभी काम हो जाते हैं? यह पूछने पर वहाँ खड़ी अन्य महिलाओं ने कहा, ‘कहाँ? एक हजार रुपये तो लग ही जाते हैं।’
क्यों? वहाँ तो मुफ़्त में हो जाता है? तब उन लोगों ने बताया कि दवा और इलाज का तो कोई पैसा नही लगता, लेकिन बाकी साफ-सफाई के लिए और मिठाई के लिए वे लोग एक हजार रुपये तो लेते ही हैं। साफ-सफाई का काम कैसे कोई बिना पैसे का करेगा? अब अगले महीने मुझे जाना होगा और एक हजार की व्यवस्था करनी पड़ेगी। कैसे होगा? पता नहीं।
“पिछले चालीस सालों में देश-प्रदेश की कितनी हुकूमतें बदलीं, कितने निजाम बदले, पर अगर कुछ नहीं बदला तो वह वाराणसी के इस बासफोर समाज की जिंदगी। जिन्हें मौक़ा मिला होता तो अपने हुनर के बल पर किसी कलाकार की तरह अपनी कला की प्रदर्शनी लगा रहे होते या दुनिया के सामने अपने हाथ से निर्मित बांस के सामानों की कलाकृतियों का बाजार खड़ा कर चुके होते।”
यह पूछने पर की मातृत्व लाभ के रूप में कोई मानदेय मिलता है? तो वह बताती हैं कि, ‘कारड बनाने के लिए आधार बनाने वाले कागज़ मांगते हैं और कहते हैं कि बैंक का कागज भी जमा करो। अब भला हम लोग कौन से बैंक का कागज जमा करें?’ इतना कहते हुए सोनी दूर आसमान की ओर देखने लगती हैं, जैसे इस पूरी दुनिया में अपने हिस्से की जमीन और आसमान की पैमाइश कर रही हों। इस बार उसकी डिलेवरी इसी बरसात के समय में होगी, तब वह अपने बच्चे को किस छत के नीचे पालेगी, इसको लेकर उसके मन में एक डर भरा हुआ है। अब तक जैसे सांकेतिक भाषा में बात कर रही सोनी की एक और साथी पूजा भी जब उसके बगल आकर खड़ी हो जाती है, तब जैसे उसके अन्दर का आत्मविश्वास एकाएक बढ़ जाता है। सोनी, पूजा से कहती हैं कि ‘का बहिनी हियाँ योगी-मोदी त कहेलन कि सबके रासन मिली पर बतावा भला कि हम लोगन के भी कबहुं कौनौ रासन मिलल। बहिनी भला कउनो जमीनी के एकाद टुकड़ा हम लोगन का भी मिल जात त काहे हम लोग दर-दर भटकित।’
इनके लिए स्कूल और पढ़ाई अभी दूर का सपना है
इस बस्ती में रहने वालों की कुल संख्या पचास के लगभग है, जिनमें 10 बच्चे ऐसे हैं, जिनकी उम्र 5 से 15 के बीच है। वह कभी स्कूल नहीं गए। उन्हीं में से एक लगभग 11 साल की लड़की, जिसका नाम पूजा है, कहती है कि, ‘एक बार एक आशा दीदी आती थीं। वह पढ़ाती थीं। बोरा बिछाकर 10-15 दिन पढ़ाकर वह भी चली गईं। हमको उनसे पढ़ने में अच्छा लगता था, पर अब ऊ आती ही नहीं त हम लोग कहाँ पढ़ें। जब अउर लड़कियन के स्कूल जात देखीला त हमार मन भी स्कूल जाय क करेला, पर भइया कहेला कि हमार लोगन के खातिर स्कूल ना होला।’ वहीं, उसका एक भाई भी बैठा हुआ है, जिसका नाम शम्भू है पर सब उसे करिया कहके बुलाते हैं। वह पढ़ने के सवाल पर सवाल करता है कि ‘हम लोगन का के पढ़ाई-लिखाई? अउर अब पढ़के भी भला हमार का हो सकी?’
करिया की उम्र यही कोई 13-14 साल के आस-पास होगी। इस कम उम्र में वह बहुत बड़ा हो चुका है। घर के आर्थिक संचालन में अब वह बच्चा नहीं रहा। सिर्फ करिया ही नहीं बल्कि इस तरह के हालात, जहाँ आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा, दोनों में जिन परिवारों के पास कोई सुरक्षित जगह नहीं होती, उनके बच्चे समय से पहले अपना बचपना खो देते हैं और अक्सर एक ऐसी निराशा से भविष्य के सफ़र पर आगे बढ़ते हैं, जिसमें न बेहतर नागरिक बनने की सोच होती है न सामाजिक गुंजाइश।
यह यकीन करना मुश्किल लगता है कि कोई कैसे गड्ढे में बरसाती पन्नियों का घर बनाकर पूरी जिन्दगी गुजार सकता है। इन घरों से लगी हुई एक सड़क जाती है जिसके बगल में एक खुला हुआ नाला बह रहा है। उसी नाले के बगल में लगे पेड़ों के नीचे दो-तीन परिवार बैठे हुए हैं। नाले से उठती दुर्गंध हमें परेशान कर रही है, पर इनके बच्चे वहीं खेल रहे हैं, कुछ खा भी रहे हैं। महिला और पुरुष भी वहीं आराम कर रहे हैं। उन्हें हमसे बात करने में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं है, बल्कि वह हमसे पीठ फेर लेना चाहते हैं। उन्हीं में से एक आदमी जो नाले के बगल की थोड़ी नम मिटटी पर चटाई बिछाकर लेटा हुआ है, करवट बदलता है। एक नज़र हमारी तरफ देखता है, वापस पहले की तरह लेट जाता है और अपने एक दूसरे साथी से कहता है, ‘75 लोग आवेले पर केहूँ कुछ करइ वाला नाही है। अब एन्हउ के देख लिहा कि ई हम लोगन के खातिर कौन जमीन क पट्टा करवा देवलन।” इतना कहते हुए वह अपनी लुंगी को ठीक करते हुए वापस पहले की तरह से लेट जाता है।
वंचना का खुला आसमान और एक समोसे में चार लोगों की पार्टी कर लेने का जज़्बा
वंचना की यह तस्वीर कितनी भयावह है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। यहाँ जिंदगी का मतलब बस ‘एक दिन और आज का’ से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। आँखें देखती अब भी हैं, पर सपने ख़त्म हो गए हैं। अब उनमें भविष्य की दृष्टि का कोई सरोकार नहीं बचा है। दुनिया के सामने हम जाने किस राष्ट्रवाद की मुनादी करके खुश हैं, जबकि इस देश के कितने ही नागरिक अपनी नागरिकता के पक्ष में एक परिचय पत्र भी नहीं पा सके हैं। जातीय तौर पर बांसफोर या बसोर समाज अनुसूचित जाति में शामिल हैं। अनुसूचित जाति के लिए लागू आरक्षण का लाभ इन्हें भी मिल सकता है, पर अफसोस कि यह किसी समाज का हिस्सा तब हो पायेंगे, जब नागरिक क़ानून के दायरे तक पहुँच सकें। यहाँ बातों में दर्द है, जिंदगी में दर्द है पर इन तमाम दर्दों के खिलाफ जरूरत पड़ने पर जोर से हंस लेने भर का दुस्साहस भी है। खुली खाट पर नंग-धड़ंग बच्चों के साथ एक समोसे में चार लोगों की पार्टी हो जाने का जज्बा भी है।
इस खुले आसमान के नीचे सड़क के किनारे हर घर का चूल्हा बना दिख रहा है, जिसे बारिश से बचाने के लिए बोरे और पॉलीथिन से ढँक दिया गया है। तीन झोंपड़ियों की मरम्मत का काम बहुत तेजी से चल रहा है, क्योंकि उनका सारा सामान और गृहस्थी बाहर रखी हुई है। बारिश के आसार भी साफ दिखाई दे रहे हैं। जहां झोंपड़ी बनाई जा रही थी, उस घर में लकड़ी का डेढ़ा (डबल और सिंगल के बीच वाला) बेड रखा हुआ है और उसके पीछे एक कलर टीवी भी रखा है, जो इनके मनोरंजन का एकमात्र साधन है। टीवी और टेबल पंखा ही घर में दिखाई दे रहा है। कुछ बच्चियाँ, जिनमें कुछ किशोरी और कुछ छोटी उम्र की, बगल के कूड़े के ढेर से मिट्टी खोदकर झौवा, बाल्टी और थाली में लाकर रहने वाली जगह पर डालकर पाट रही हैं, ताकि बारिश का पानी उस जगह पर रुके नहीं। हम उन बच्चियों के पास गए। बच्चियां अच्छी तरह से आज के फैशन के हिसाब से नाक व कान में पहने हुए थीं। अपर्णा उनसे पूछती हैं कि ‘ऐसा फैशन कहाँ से लाती हो?’ तब उनके पिताजी कहते हैं कि ‘टीवी पर फिल्में और गाने देखकर।’ इतना सुन वे हंसने लगीं। बात आगे बढ़ाने के लिहाज से पूछा कि स्कूल जाने का मन नहीं होता? तब खुशी ने कहा, ‘होता है, लेकिन नाम ही नहीं लिखा गया हम लोगों का और अब तो बड़े हो गए अब कैसे पढ़ेंगे?’ लेकिन दूसरी ने कहा मुझे सिलाई सीखने का मन है।
हमारे देश में हर किसी की नागरिकता और पहचान के लिए आधार कार्ड होना जरूरी है, लेकिन धरकार या बसोर समुदाय के इन 50 लोगों में, एक को छोड़ किसी के पास आधार कार्ड नहीं है। आधार कार्ड एक ऐसा पहचान पत्र है जिसके माध्यम से सरकारी सुविधाओं जैसे राशन कार्ड, आयुष्मान कार्ड का फायदा लिया जा सकता है। इसके साथ ही बाकी सुविधाएँ पाने और सरकारी सुविधाओं में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए भी यह एक जरूरी माध्यम है। इन लोगों ने अपनी बात में सबसे पहले यही बताया कि हमारा आधार कार्ड नहीं है। क्यों नहीं बनवाए अब तक? यह पूछने पर साची ने कहा कि, ‘जिनसे उम्र पूछने पर वे कहती हैं। क्या मालूम? यहाँ रहते हुए मुझे 35 वर्ष तो हो ही चुका है, जब हमार बुढ़ऊ (घरवाला) छोटे थे, तब से यहाँ रह रहे हैं। हमारी शादी-ब्याह यहीं हुआ और बाल-बच्चे और नाती-पोते भी यहीं हैं। लेकिन आज तक घर का मुंह नहीं देखा।’
यह भी पढ़ें-
कैसे दूर होगी एशिया की सबसे बड़ी कोयला मंडी के मजदूरों की ज़िंदगी से ‘कालिख’
सोचिये कि आपके शहर में आपके समानांतर एक ऐसा समाज रह रहा है, जिसके पास अपनी नागरिकता का कायदे का कोई सबूत ही नहीं है। यह बेहद भयावह और शर्मनाक है कि पिछले चालीस साल से ये लोग इसी जगह पर डेरा डाल कर रह रहे हैं, पर आज तक न इनके नाम जमीन का कहीं कोई टुकड़ा है, न ही राशन कार्ड, न आधार कार्ड। कुछ लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड जरूर है, पर उस पर लिखा हुआ पता उनका नहीं है। कभी किसी राजनीतिक कार्यकर्त्ता ने अपनी पार्टी के पक्ष में वोट डलवाने के लिए इनका नाम वोटर लिस्ट में डलवा दिया था और वोटर कार्ड भी बनकर मिल गया था। बावजूद, इनका आधार कार्ड नहीं बन सका।
इनके श्रम का दायरा भले ही सीमित हो, पर कार्य विभाजन में योग्यता और कुशलता का सम्यक विभाजन दिखता है। यहाँ पितृसत्ता का वैसा दबाव नहीं दिखता है, जैसा शेष समाज में देखने को मिलता है। प्रेम करने का मामला हो या परिवार के आर्थिक संचालन का, दोनों में स्त्रियों की सम्मानजनक भागीदारी की परंपरा देखने को मिलती है।
पिछले चालीस सालों में देश-प्रदेश की कितनी हुकूमतें बदलीं, कितने निजाम बदले, पर अगर कुछ नहीं बदला तो वह वाराणसी के इस बासफोर समाज की जिंदगी। जिन्हें मौक़ा मिला होता तो अपने हुनर के बल पर किसी कलाकार की तरह अपनी कला की प्रदर्शनी लगा रहे होते या दुनिया के सामने अपने हाथ से निर्मित बांस के सामानों की कलाकृतियों का बाजार खड़ा कर चुके होते। पर अभी जब एक माँ कह रही है कि अब जात जाअ तू लोग, बरसे लगीयन त खाना ना मिली, लरिकन उही तरह उपासन सुत रहियें। बरसे पर कुल पानी लगि जाई, डेरा मा भी कुल पानी भरि जाला, अब खटिया के नीचे ईंट लगाय के ऊंच कर लिहे अही, पर वहाँ पर बस समान ही रखल जा सकेला, सोये के लिए सड़क के दुकान बंद होय का इंतजार करे के होला।
वाराणसी की तेज गर्मी थमी है, उससे मुक्ति पाने की ख़ुशी है और बरसात भर नींद और सुकून को टुकड़ों में तलाशने का दर्द भी अभी से पेशानी पर सलवटें पैदा कर रहा है। उज्ज्वला का सिलेंडर अभी इनके हिस्से नहीं आया है, न ही सरकार का हर तरफ से बंटता हुआ राशन इन्हें मय्यसर हुआ है। सरकारी कागजों में भले ही वाराणसी का यह क्षेत्र खुले में शौच मुक्त (ODF) घोषित किया जा चुका है, पर सच्चाई यही है कि पचास लोगों की इस बस्ती के पास कोई सुलभ शौचालय भी नहीं है। अभी भी शौच के लिए ये खुले में ही जाते हैं। बहुत हद तक रेलवे की खाली जमीनों पर इसीलिए यह समाज अपना डेरा डालता है कि लैम्प पोस्ट की रोशनी, पीने के लिए पानी और शौच के लिए खुली जगह मिल जाए। वाराणसी शहर में दर्जनों जगहों पर इस समाज के लोग इसी तरह डेरा डालकर रहते हैं। शासन-प्रशासन से किसी तरह की उम्मीद भी लगभग मुरझा चुकी है। बस हम जैसा कोई कभी आ जाता है तो बुझे हुए मन से जिंदगी की थोड़ी-सी शिकायत कर लेते हैं। बाकी तो रुदाली सी जिंदगी और घन घबराता हुआ-सा मन हर रोज हूम-हूम करता ही है।
(उनकी बोली की अपनी एक टोन है, जिसे उनके शब्दों में यथावत लिख पाना आसान नहीं था पर बोली का अर्थ यथावत ही है।)
मार्मिक रपट।
हाशिए पर पडे़ लोगों की खोज खबर लेती सार्थक रिपोर्ट
[…] […]