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आज़ाद भारत से भूमंडलीकरण तक हर बदलाव चंद्रकिशोर जायसवाल के लेखन में दिखता है-2

दूसरा और अंतिम भाग सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका पर केन्द्रित चन्द्रकिशोर जायसवाल के उपन्यास शीर्षक में भी सामाजिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों और गिरावट का यथार्थपरक अंकन किया गया है। आम नागरिक कभी नहीं चाहता है कि सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़े और दंगे हों, किन्तु समाज के कुछ स्वार्थी वर्ग ऐसे हैं जो दंगों में […]

दूसरा और अंतिम भाग

सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका पर केन्द्रित चन्द्रकिशोर जायसवाल के उपन्यास शीर्षक में भी सामाजिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों और गिरावट का यथार्थपरक अंकन किया गया है। आम नागरिक कभी नहीं चाहता है कि सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़े और दंगे हों, किन्तु समाज के कुछ स्वार्थी वर्ग ऐसे हैं जो दंगों में भी अपने स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हैं। विक्रमपुर विश्वविद्यालय का शिक्षक गोपाल प्रोफेसर रमणी बाबू के यहाँ नियमित रूप से लगने वाली महफिल में जब शहर में कभी भी दंगा भड़क उठने की संभावना व्यक्त करता है तो वहाँ उपस्थित लोग दु:खी या बेचैन होने के बजाय खुश होते हैं। ‘दंगे की इस खबर पर ढेर सारे शिक्षक चहक उठते, बाँसों उछलते। हो जाए यह दंगा ठीक धनकटनी के समय। विश्वविद्यालय बंद होगा और एक लंबी छुट्टी मिल जाएगी। तब धनकटनी में घर जाने के लिए एक दिन का भी आकस्मिक या उपार्जित अवकाश नहीं लेना पड़ेगा। ऐसी छुट्टियों का ही तो सदुपयोग हो पाता है।’16 दंगों में कितनी जानें चली जाती हैं और कितने ही घर हमेशा-हमेशा के लिए उजड़ जाते हैं, इसकी कल्पना मात्र से आम इंसान के रोंगटें खड़े हो जाते हैं किन्तु शिक्षा जैसे पवित्र समझे जाने वाले पेशे में भी ऐसे बेरहम एवं असंवेदनशील प्राध्यापक कार्यरत हैं जो दंगों को अपने लिए वरदान मानते हैं। शीर्षक उपन्यास में प्राध्यापक कुमार अंजनी, गोपाल द्वारा शहर में दंगा होने की संभावना जताने पर अपने ही लाभ की बात सोचता है। ‘यह दंगा तो कुमार अंजनी के अँधेरे में सूरज की रोशनी ला सकता है। कितना अच्छा हो कि मियाँ मोस्तकीम की मौत के लिए कुमार अंजनी कृपालु-दयालु प्रभु तक अपनी कोई प्रार्थना पहुंचाने के पाप से भी बच जाए और इस दंगे में इस मियाँ को मरवाकर प्रभु उसके लिए विभागाध्यक्ष की कुर्सी खाली करवा जाएं। अहा, कितना अच्छा हो।’17

[bs-quote quote=”साहित्यकारों से समाज को दिशा दिखाने की अपेक्षा की जाती है। किन्तु आज के कवि और लेखक आपसी प्रतिद्वंदिता, गुटबाजी एवं खेमेबाजी के शिकार होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं। विक्रमपुर में कवि रूपक भारती से वहाँ के दूसरे कवि बादल ईर्ष्या रखते हैं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए कोई मौका नहीं गँवाते हैं। परिणाम यह होता है कि दोनों कवियों के बीच दूरी बढ़ने लगती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज समाज में संकीर्णता और कट्टरता बढ़ती जा रही है और धार्मिक उन्माद को स्वार्थी तत्वों और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा बढ़ावा देकर दूसरे धर्मों के प्रति नफरत फैलाने के प्रयास किए जा रहे हैं। हिंदुओं और मुसलमानों में सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा सद्भाव और भाईचारा भी अब टूटने-दरकने लगा है। इस सामाजिक बिलगाव के कारणों की चर्चा करते हुए रूपक भारती का दोस्त सलीम कहता है, ‘तुम हमें अपने पास आने नहीं देते, सदा दुतकारते रहते हो। अगर कोई मुसलमान किसी हिन्दू के पास बैठता भी है, तो उस हिन्दू को कुछ काँटा सा चुभने लगता है, वह कुछ बदली हुई निगाह से उसे घूरता रहता है। तुम हमें अपवित्र मानते हो और कभी-कभी तो जहाँ हम बैठते हैं, उस जगह को हमारे जाते ही गंगाजल छिड़ककर पवित्र करते हो। तब हम बेचैन होते हैं, हमें गुस्सा आता है।’18

साहित्यकारों से समाज को दिशा दिखाने की अपेक्षा की जाती है। किन्तु आज के कवि और लेखक आपसी प्रतिद्वंदिता, गुटबाजी एवं खेमेबाजी के शिकार होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं। विक्रमपुर में कवि रूपक भारती से वहाँ के दूसरे कवि बादल ईर्ष्या रखते हैं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए कोई मौका नहीं गँवाते हैं। परिणाम यह होता है कि दोनों कवियों के बीच दूरी बढ़ने लगती है। ‘बीच की यह दूरी कवि बादल के कारनामों से ही पैदा हो गई थी। हालाँकि कवि-गोष्ठियों में सबसे अधिक तालियाँ भारती की कविताओं पर बजती थीं, मगर अखबारों में छपने वाली रपटों से कवि भारती का नाम गायब रहा करता था। भारती का नाम उड़वा देने का घिनौना काम कवि बादल ही किया करते थे।’19

आज के दौर में आस-पड़ोस में झगड़ा या विवाद होने पर लोग बीच-बचाव के लिए आगे आने की बजाय महज तमाशबीन बनकर अपना मनोरंजन करने की ताक में रहते हैं। दाह उपन्यास में बालो के भाइयों के परिवार के बीच अक्सर किसी न किसी बात को लेकर औरतों में कहा-सुनी होती रहती थी और आस-पड़ोस के लोग तमाशा देखने जुट जाते थे। ‘भीड़ को पता है कि जयनारायण कभी भी भड़क सकता है। जब-जब अंदर से पिपरावाली की तीखी आवाज दरवाजे पर पहुँचती है, भीड़ कनखियों से जयनारायण की ओर देखने लगती है और उसके भाला उठाते ही भागने के लिए सतर्क हो जाती है, ताकि खून होने पर थाना-कचहरी में गवाही देने से बच जाए और जबरन कुछ कहा भी जाए तो कोई भी कैसी भी किरिया खाकर कह सके, ‘हुज़ूर, खून के वक्त में मौजूद नहीं था।’20

[bs-quote quote=”‘पलटनिया’ उपन्यास में नरकटिया के डाकू मंगल को उसका चाचा माधोगंज के घूसखोर दारोगा भृगुनाथ सिंह का अनुकरण करने और लूट के धन से भव्य मंदिर बनवाने की सलाह देता है। तुम भी उसी राह को पकड़ लो, मंगल। नरकटिया में एक मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करो। लूट की पूरी कमाई इसमें डालो और अपने संगी-साथियों से भी अंशदान ग्रहण करो। इलाके के लोग भी तुम्हें इस यज्ञ में मदद करेंगे। मंदिर बन जाए, फिर देखो, लोग तुम्हें डाकू नहीं, महात्मा-धर्मात्मा मानेंगे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

‘दाह’ उपन्यास में मुख्य पात्र बालो कल्पना करता है कि उसकी दादी का देहांत हो गया है और धूमा झा उसे तमाम तरह के कर्मकांड और दान-पुण्य करने के लिए डरा-धमका रहे हैं। वह इन कर्मकांडों को निरर्थक बताता है और बारी-बारी से तथाकथित विद्वान ब्राह्मणों की धूमा झा के सामने पोल खोलने लगता है। उसे पता है कि अब लोग ईर्ष्या और द्वेष भाव के कारण इतना नीचे गिर चुके हैं कि अपने पड़ोसी के यहाँ चोरी करवा देते हैं अथवा भाई-भाई में झगड़ा लगवा देते हैं। वह लूटन मिश्र के बारे में सच्चाई बताता है, ‘वे तो चोरी और चुगलखोरी दोनों के अपराधी हैं। यह बात तो अब सारा चानपुर जानता है कि रघुनी साह के घर में जो सेंध लगी थी उसमें लूटन मिश्र का हाथ था और तेजू नायक की अपने छोटे भाई के साथ जो उठापटक हुई वह लूटन मिश्र की चुगलखोरी के कारण। अब तो चानपुर का हर आदमी उसे देखकर चौंकता है और सावधान हो जाता है।’21 माँ उपन्यास में भी लखन लाल गाँव में दरकते जा रहे सामाजिक सम्बन्धों के बारे में टिप्पणी करता है, ‘गाँवों में सिर्फ धन लूटने के लिए डकैती नहीं होती, जान लेकर जलन मिटाने के लिए भी डकैती की या करवायी जाती है।’22

लखन लाल के गाँव के सुबोध भगत जब गंभीर रूप से बीमार पड़े थे तब उसे साथ लेकर पूर्णिया जाने वाला गाँव का कोई आदमी नहीं मिला था। तब लखन लाल ही सुबोध भगत को लेकर पूर्णिया गए थे और वहाँ एक पखवाड़े रहे थे उनकी देखभाल और सहायता के लिए। सुबोध भगत स्वस्थ होकर घर लौटे थे। किन्तु समय बीतने पर सुबोध भगत के बेटों के लखन लाल के इस उपकार और त्याग को भूला दिया। ‘मगर लखन लाल का यह उपकार सुबोध भगत के मरने के साथ ही मर गया। भगत के दोनों बेटों को उन दिनों की याद नहीं आती होगी, मन में यह ख्याल नहीं आता होगा कि देख लें, बूढ़ा लखन लाल बीमार तो नहीं है, देख लें, बूढ़े को इलाज के लिए कोई पूर्णिया ले जाने वाला है या नहीं।’23

चन्द्र किशोर जायसवाल के साथ गुलाब जी

चंद्रकिशोर जायसवाल के ‘पलटनिया’ उपन्यास में भी सामाजिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों की गहन पड़ताल की गई है। बघैला गाँव में तैनाती पाने वाले महामाया बाबू जब इस गाँव में बदलाव लाने की योजना बनाते हैं तो कई वास्तविकताएँ उन्हें हतोत्साहित कर देती हैं। वे पाते है कि, ‘जो गाँव कभी एक था, वही अब फूट-फटक का शिकार हो गया है। भीतर ही भीतर कोई आग सुलग रही है जो एक दिन धधक उठेगी और पूरे गाँव को जलाकर राख़ कर देगी।’24 महामाया बाबू जब साथी अध्यापक कुशेश्वर सिंह से गाँव की भलाई के बारे में विचार-विमर्श करते हैं तो वे भी उन्हें केवल अपनी नौकरी से सरोकार रखने की सलाह देते हैं और कहते है, ‘अब इस या उस गाँव की भलाई सोचने का जमाना नहीं रहा, महामाया बाबू। इस गाँव में आपको बाबू नरेश सिंह मिले, किसी और गाँव में नरेश सिंह यादव मिलेंगे और किसी तीसरे गाँव में नरेश सिंह महतो। गाँव का कल्याण तो बाद में होगा या नहीं होगा, मगर आपका कल्याण तुरंत हो जाएगा। आप गाँव के हित की बात करेंगे और गाँव वाले आपके हित का पता लगाने लगेंगे।’25

पलटनिया उपन्यास का सुखराम नाई भी गाँवों के सामाजिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों पर पैनी निगाह रखता है। वह महामाया बाबू को बताता है कि, ‘यहाँ का हर आदमी हर दूसरे आदमी की घड़ी-घड़ी की खबर रखना चाहता है और बेचैन रहता कि कब औरों के बारे में कोई बुरी खबर सुनने को मिले। बबुआनों के मचानों पर यही सब होता है न, खबरों का लेन-देन। जिसके पास कोई खबर नहीं होती, वह भी कुछ बनाता है, बाँटता है।’26

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चन्द्र किशोर जायसवाल रेणु के बाद के सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार हैं

एक समय था जब मंदिर जैसे निर्माण कार्य के लिए ईमानदारी और परिश्रम से कमाये गये धन को ही स्वीकार किया जाता था। किन्तु अब बड़े-बड़े अपराधी, गिरोहबाज और घूसखोर नेता और सरकारी अफसर अनुचित और अनैतिक तरीके से कमाये और जुटाये गये धन से मंदिर आदि बनवाकर धर्मात्मा की उपाधि पा रहे हैं और पुण्यार्जन कर रहे हैं। ‘पलटनिया’ उपन्यास में नरकटिया के डाकू मंगल को उसका चाचा माधोगंज के घूसखोर दारोगा भृगुनाथ सिंह का अनुकरण करने और लूट के धन से भव्य मंदिर बनवाने की सलाह देता है। ‘तुम भी उसी राह को पकड़ लो, मंगल। नरकटिया में एक मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करो। लूट की पूरी कमाई इसमें डालो और अपने संगी-साथियों से भी अंशदान ग्रहण करो। इलाके के लोग भी तुम्हें इस यज्ञ में मदद करेंगे। मंदिर बन जाए, फिर देखो, लोग तुम्हें डाकू नहीं, महात्मा-धर्मात्मा मानेंगे।’27

ज्यादा अरसा नहीं हुआ है जब ग्रामीण समाज में अंतरजातीय विवाह, विशेष रूप से सवर्ण जाति के युवक/युवती का दलित समुदाय की युवती/युवक से विवाह बिलकुल अस्वीकार्य माना जाता था। किंतु अब जमाना बादल गया है। ‘पलटनिया’ में राजपूत कार्तिक सिंह द्वारा अपनी बेटी मालती का विवाह तेली मिसरी साह के बेटे गोपी से कराने के निर्णय पर यशवंत सिंह आगबबूला हो उठता है और अपने चाचा नरेश सिंह से कार्तिक सिंह की बेटी की हत्या कराने की योजना में सहयोग मांगता है। नरेश सिंह सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलावों से वाकिफ हैं। वे यशवंत सिंह को समझाते हैं, ‘बीवीगंज से राजधानी तक निगाह दौड़ाओ, तो तुम्हारी आँखें खुल जाएँगी। दलित और पिछड़े पदाधिकारियों में तो होड़ लगी हुई है सवर्णों की बेटियों से ब्याह करने की। नामी-गिरामी राजनेता, प्रसिद्ध और पूजनीय, अपनी पुरानी बीवियों को गाँवों में गोबर पाथने के लिए छोड़कर राजधानी के नए आवास में अपने लिए सवर्ण दुलहिनें ले आ रहे हैं। सवर्ण कुमारियाँ कतार में खड़ी हैं पाणिग्रहण के लिए। कहीं कोई हत्या नहीं हो रही है।’28

सात फेरे उपन्यास का बैजनाथ मंडल जब तीन पत्नियों की असमय मृत्यु हो जाने के बाद चौथी बीवी की तलाश के अभियान पर निकलने का संकल्प करता है और कल्पना लोक में अपने ब्रह्म से विचार-विमर्श कर अपने साथ किसी भरोसेमंद बटाईदार को लेकर जाने की बात कहता है तो ब्रह्म उसे किसी पर विश्वास न करने की नसीहत देता है। ‘गाँव में अब किसका किस पर विश्वास। गाँव का नजारा नहीं देखते हो क्या? तुम अकेले खड़े हो और तुम्हारे विरुद्ध पूरा गाँव। सब विश्वासघात का सुख भोगने के लिए तरस रहे होंगे। जिसे चुप रहने को कहोगे, वही हर किसी के कान में फुसफुसाता फिरेगा। अब किसी के दुख से किसी दूसरे के मन में दया ऐसे भी नहीं उपजती है। एक के दुखी होने पर हर दूसरे के मन में सुख का संचार होता है। देखते नहीं, गाँव के मचानों पर कैसी बातें होती हैं आजकल? एक जाति दूसरी जाति की खिल्ली उड़ाती है, एक टोला दूसरे टोला पर ठहाके मारता है। अब गाँव वाले भी पूरे शहरी हो गये हैं। वे भी अब थाना-कचहरी में गीता-रामायण पर हाथ रखकर झूठा बोल सकते हैं, दुर्गाथान- चंडीथान में झूठी कसमें खा सकते हैं।’29

[bs-quote quote=”इसी उपन्यास में शंकरपुर से एक चिट्ठी पलटू झा के नाम आती है जिसमें किसी सोहराब मियाँ के मरने की सूचना के साथ यह लिखा होता है कि सोराब मियाँ के लिए भी पीर अली बाबा की दरगाह में जाकर दुआएँ माँग लीजिएगा ताकि उन्हें भी जन्नत नसीब हो जाए। यह पढ़कर पलटू झा के पिता रामभद्र झा को यकीन हो जाता है कि पलटू अब हिंदू धर्म को छोड़कर मुसलमान बन गया है। शोक में डूबे पिता को पलटू समझाने का प्रयत्न करता है कि अब जमाना बदल गया है और अपने लाभ के लिए बहुत से समझौते करने पड़ते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

‘सात फेरे’ उपन्यास में फुलकाहा के अशोक झा के यहाँ मधुबनी से उनके मामा प्रेम नारायण झा आते हैं और चर्चा में इस इलाके के ब्राह्मण समाज के पतन पर चिंता प्रकट करते हुए अशोक से ब्राह्मणों की एक गुप्त सभा बुलाने के लिए कहते हैं। वे प्रारम्भिक बातचीत के लिए नरेश झा के दालान में फुलकाहा के ब्राह्मणों को इकट्ठा करते हैं। सभी इस बात से दुःखी हैं कि गाँव में अब ब्राह्मण की इज्जत घट गई है क्योंकि उनमें एकता और सामंजस्य नहीं है। सुधी झा ब्राह्मणों के घटते सम्मान पर दुःखी होकर कहते हैं, ‘इज्जत तो इतनी घट गई है कि जहाँ हम पहले ‘ब्राह्मण देवता’ कहलाते थे, वहीं अब हमें ‘बभना’ कहा जाता है। इसी गाँव में हमारे बाप-दादे किसी गली-सड़क या खेत-बहियार से गुजरते थे तो प्रणाम की झड़ी लग जाती थी। आज कोई टोकता तक नहीं, और जो टोकता है, वह तू-तुकार के साथ बातें करता है।’30

इसी उपन्यास में शंकरपुर से एक चिट्ठी पलटू झा के नाम आती है जिसमें किसी सोहराब मियाँ के मरने की सूचना के साथ यह लिखा होता है कि सोराब मियाँ के लिए भी पीर अली बाबा की दरगाह में जाकर दुआएँ माँग लीजिएगा ताकि उन्हें भी जन्नत नसीब हो जाए। यह पढ़कर पलटू झा के पिता रामभद्र झा को यकीन हो जाता है कि पलटू अब हिंदू धर्म को छोड़कर मुसलमान बन गया है। शोक में डूबे पिता को पलटू समझाने का प्रयत्न करता है कि अब जमाना बदल गया है और अपने लाभ के लिए बहुत से समझौते करने पड़ते हैं। वह अपने पिता से कहता है, ‘बाबू, अब आप वाला वह जमाना नहीं रहा कि एक रूप लेकर आदमी पूरी जिंदगी काट ले। अब दुनिया के इस हाट-बाजार में एक आदमी को कई-कई रूप भरने पड़ते हैं। अब मैं भी बहुरूपिया हो गया हूँ।’31

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि चंद्रकिशोर जायसवाल के उपन्यासों में हमारे भारतीय समाज में सामाजिक मूल्यों में आ रहे परिवर्तनों का विशद और गहन चित्रांकन हुआ है। स्वातंत्र्योत्तर काल में बढ़ते औद्योगीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में हमारे देश के सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों में जो परिवर्तन हुए हैं श्री जायसवाल के उपन्यासों में उनका यथार्थपरक और सूक्ष्म चित्रण किया गया है।

संदर्भ : 

  1. शीर्षक- चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 6
  2. शीर्षक- चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 184
  3. शीर्षक- चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 198
  4. दाह – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 36
  5. दाह – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 110
  6. माँ – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 8
  7. माँ – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 43
  8. पलटनिया – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 40
  9. पलटनिया – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 41
  10. पलटनिया – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 43
  11. पलटनिया – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 95
  12. पलटनिया – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 455
  13. सात फेरे – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 19
  14. सात फेरे – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 324
  15. सात फेरे – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 533

गुलाबचंद यादव बैंक में सेवारत हैं और फिलहाल मुंबई में रहते हैं ।

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