अच्छे शासक की परिभाषा क्या हो सकती है? यही सोच रहा हूं बीते दो दिनों से। ऐसा सोचने के पीछे की वजह यह कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस में लीलाएं कर रहे हैं। ऐसी लीलाएं, जो न तो प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल है और ना ही एक इंसान होने के नाते। लेकिन वे कर रहे हैं और उन्हें रोका नहीं जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानून के हिसाब से वे जो कर रहे हैं, अपराध नहीं है। खैर, वे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति कर रहे हैं और देश को एक और विभाजन की तरफ धकेल रहे हैं। मैं तो उनके होने का असर हरियाणा में देख रहा हूं जहां की प्रांतीय हुकूमत ने एक अधिसूचना जारी कर दी है कि नमाज खुले में नहीं पढ़े जा सकेंगे। अब मैं यह सोच रहा हूं कि हिंदू धर्म के जो उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाए जाते हैं, क्या उनके ऊपर भी खट्टर हुकूमत रोक लगाएगी? जबकि मैं यह जानता हूं कि वह ऐसा बिल्कुल नहीं करेगी।
मैं कल ही पटना से दिल्ली वापस आया। पटना एयरपोर्ट आने के क्रम में सरदार पटेल चौक के पास एक मंदिर पर नजर गयी। यह मंदिर बहुत पुरानी नहीं है। इसका निर्माण तब हुआ था जब मैं दारोगा प्रसाद राय हाईस्कूल, चितकोहरा का छात्र था। उन दिनों यहां एक छोटा-सा शिवलिंग किसी एक ब्राहमण ने रख दिया था। वह रोज वहां आकर पूजा करता था। अब तो वहां करीब डेढ़ कट्ठा में मंदिर बन गया है। और तो और, वहां एक होर्डिंग भी लगा है कि यह मंदिर एक प्राचीन मंदिर है। गनीमत है कि लिखनेवालों ने प्राचीन के साथ समय का उल्लेख नहीं किया। हालांकि केवल प्राचीन लिखने से उन्होंने अपने लिए एक विकल्प शेष रखा है कि वे इसे वैदिक काल का मंदिर भी घोषित कर सकते हैं।
[bs-quote quote=”सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उल्लेखनीय बात कही है। महाराष्ट्र स्थानीय निकायों में ओबीसी को आरक्षण दिए जाने के मामले में सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि 2011 में किया गया एसईएसएस सर्वे ओबीसी सर्वे नहीं था। यह त्रुटिपूर्ण था और इसके आंकड़े विश्वसनीय नहीं था। इसलिए इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो कहने का मतलब यह है कि कोई भी ब्राह्मण केवल एक शिवलिंग अथवा कोई दूसरी मूर्ति रखकर कहीं भी जमीन कब्जा सकता है और अपने तथा अपने परिजनों के लिए रोजी-रोटी का इंतजाम कर सकता है। रही बात सरकार की तो सरकार की नजर में ऐसा करना कोई अपराध नहीं है। यहां तक कि समाज के लिहाज से भी यह पुण्य का काम है। दो दिन पहले की ही बात है। मेरे घर में भोज का आयोजन था। मौका था मेरे भतीजे रौशन के मंड़वा का। यह एक आदिवासी रस्म है जिसकी पृष्ठभूमि कृषक समाज की होती है। इसमें आंगन में (अब घर में आंगन नहीं है तो छत पर) बांस के सहारे एक अस्थायी झोपड़ी बनायी जाती है। उसमें हल वगैरह प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। इसके अलावा लड़का-लड़की को हल्दी व तेल लगाया जाता है। इस मौके पर गांव के लोग जुटते हैं और सामूहिक भोज भी करते हैं। भोज कच्ची होती है। कच्ची मतलब दाल-भात-सब्जी व अन्य खाद्य सामग्रियां। हमारे यहां पूड़ी, पुलाव आदि को पक्की भोज कहा जाता है।
खैर उक्त भोज के लिए हमारे यहां दो हलवाई काम कर रहे थे और मैं उनके सहायक की भूमिका में था। बातचीत के दौरान एक हलवाई ने कहा कि उसने अपनी जमीन का एक टुकड़ा मंदिर के लिए दान में दिया है और अब वहां एक भव्य मंदिर गांव के लोगों ने बना दिया है। लोग अब वहां देर रात तक जुटते हैं, कीर्तन करते हैं। मैंने पूछा कि वहां पूजा कौन कराता है? उसने कहा कि बगल के गांव का एक पंडित है। वह वहां रहता भी है। वहीं अब देख-रेख भी करता है।
[bs-quote quote=”सरकारें ओबीसी के आंकड़े से डर रही हैं। वे यह जानती हैं कि यदि ये आंकड़े एक बार सामने आ गए तो सुप्रीम कोर्ट और देश की अन्य अदालतों में वे ओबीसी के हितों का विरोध नहीं कर सकेंगे क्योंकि तब उनके पास ओबीसी का क्वांटिफिडेबुल डाटा मौजूद होगा, जिसके नहीं रहने के कारण आज ओबीसी के हितों को खारिज कर दिया जा रहा है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो यह है भारत का समाज और ऐसे समाज में यदि कोई नरेंद्र मोदी जैसा बददिमाग राज कर रहा है, तो इसे कोई अप्राकृतिक घटना नहीं कही जानी चाहिए। वजह यह कि इस देश का बहुसंख्यक वर्ग (मैं तो ओबीसी को खास तौर पर उद्धृत करना चाहता हूं) जब गुलाम बने रहना चाहता है तो कोई क्या कर सकता है। इस वर्ग के लोगों को तो इस बात की भी जानकारी नहीं है कि सरकार किस कारण से ओबीसी की जनगणना नहीं करना चाहती है। इस वर्ग के लोगों को इससे कोई मतलब भी नहीं है। सबके सब खुद को ब्राह्मण की नजर में श्रेष्ठ बनना चाहते हैं। ब्राह्मण की सोच ही उनकी कसौटी है।
खैर, कल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने उल्लेखनीय बात कही है। महाराष्ट्र स्थानीय निकायों में ओबीसी को आरक्षण दिए जाने के मामले में सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि 2011 में किया गया एसईएसएस सर्वे ओबीसी सर्वे नहीं था। यह त्रुटिपूर्ण था और इसके आंकड़े विश्वसनीय नहीं था। इसलिए इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
अब मैं यह सोच रहा हूं कि यदि 2011 में किया गया सर्वे ओबीसी सर्वे नहीं था और यह त्रुटिपूर्ण था तो क्या इस त्रुटिपूर्ण कार्य के लिए जो करीब 12000 करोड़ रुपए व्यय किए गए, उनकी रिकवरी क्यों नहीं की गयी? क्या बारह हजार करोड़ रुपए पानी में बहा दिए गए थे?
जाहिर तौर पर केंद्र सरकार झूठ बोल रही है। कोई भी सरकारी सर्वे शत-प्रतिशत त्रुटि रहित नहीं होता। उसे त्रुटिपूर्ण मानना या नहीं मानना सरकारों पर निर्भर करता है। फिलहाल इस देश में ओबीसी को अपना नहीं माननेवालों की सरकार है, इसलिए वह कह रही है कि आंकड़े त्रुटिपूर्ण थे। इसके पहले की सरकार यानी कांग्रेसी हुकूमत भी ओबीसी की विरोधी हुकूमत थी। यदि उसकी आंख में भी पानी होता तो निश्चित तौर पर उसने आंकड़े सार्वजनिक कर दिए होते।
तो असल मामला यही है। सरकारें ओबीसी के आंकड़े से डर रही हैं। वे यह जानती हैं कि यदि ये आंकड़े एक बार सामने आ गए तो सुप्रीम कोर्ट और देश की अन्य अदालतों में वे ओबीसी के हितों का विरोध नहीं कर सकेंगे क्योंकि तब उनके पास ओबीसी का क्वांटिफिडेबुल डाटा मौजूद होगा, जिसके नहीं रहने के कारण आज ओबीसी के हितों को खारिज कर दिया जा रहा है।
बहरहाल, इसके लिए यह ओबीसी समाज भी खूब जिम्मेदार है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।