मेरी बेटी अब बड़ी हो रही है। जैसे-जैसे वह बड़ी हो रही है, उसके सवाल भी बढ़ रहे हैं। आज ही उसने सुबह-सुबह फोन पर गांधी जयंती की शुभकामना दी। इसके बाद उसका सवाल सामने आया। सवाल की वजह यह रही कि उसके द्वारा दी गयी शुभकामना के आलोक में मेरा जवाब बेहद सामान्य था। संभवत: वह समझ गयी कि मैं प्रसन्न नहीं हुआ उसके द्वारा दी गयी शुभकामना से। उसने सवाल पूछा कि क्या आप गांधी जी को आइकॉन नहीं मानते हैं?
अब मेरे पास दो रास्ते थे। एक तो यह कि उसे यह बता दूं कि मुझे गांधी में बहुत अधिक दिलचस्पी नहीं है और इसके पीछे अनेकानेक कारण हैं। दूसरा यह कि मैं उसके सवाल को अभी टाल दूं और उस समय का इंतजार करूं जब मेरी बेटी अपना ग्रेजुएशन पूरा कर ले। लेकिन दूसरा रास्ता अच्छा नहीं है। बच्चों के पूछे गए सवालों के जवाब मिलने चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनके पास ऐसी सूचनाएं होंगी कि उनके सोचने-समझने का नजरिया ही बदल जाएगा। और एक सजग पिता होने के नाते मैं यह नहीं कर सकता।
खैर, मैंने अपनी बेटी से कहा कि आइकॉन यानी आदर्श की परिभाषा एक नहीं होती है। कई बार हम जिसे अपना आइकॉन मानते हैं, वह उस योग्य नहीं होता है। वहीं कई बार जिसे आइकॉन नहीं मानते, समय के साथ वही आइकॉन के रूप में सामने आता है। तो यह सब अध्ययन करने से ही हासिल होता है। बच्चों के पास जो सूचनाएं होती हैं, उनमें 80 फीसदी तो पाठ्यक्रम में शामिल किताबों की होती हैं। बीस फीसदी सूचनाएं समाज में उपलब्ध अन्य स्रोतों यथा अखबारों, न्यूज चैनलों और लोगों से मौखिक रूप में।
एक समय था जब मैं भी गांधी को अपना आदर्श मानता था। मेरे पास इसकी वजह भी थी। तब जाति का सवाल मेरे संज्ञान में नहीं आया था। तब यह देश अपना देश लगता था। महसूस होता था कि मैं भी इस देश का उतना ही नागरिक हूं जितना कि अन्य जातियों के लोग। फिर चाहे वह अमीर हों या गरीब। वे मेरे पत्रकारिता के प्रारंभिक दिन हुआ करते थे। संपादक दीपक पांडे द्वारा जो जिम्मेदारियां दी जातीं, उनमें एक आयोजनों की रिपोर्टिंग करने की जिम्मेदारी भी शामिल रहती थी। अधिकांश राजनीतिक और सामाजिक आयोजन पटना के गांधी संग्रहालय के सभागार में होता था। यह संग्रहालय मेरा दूसरा घर हो गया था। सप्ताह में पांच दिन तो वहां जाना होता ही था। वहां माली का काम करनेवाले मुंद्रिका जी (संभवत: यही नाम है) और दरबानी का काम करनेवाला एक नौजवान (नाम याद नहीं है) सहित लगभग सभी कर्मचारियों से अनूठा रिश्ता बन गया था। सबसे खास थे संग्रहालय के निदेशक डॉ. रजी अहमद। उन्होंने राजनीति को समझने में मेरी बड़ी मदद की। वे गांधीवादी हैं।
[bs-quote quote=”अतिरिक्त पुरुष (विधुर) को उसकी मृत पत्नी के साथ जला देने की परियोजना दो कारणों से खतरनाक है। पहली बात तो यह है कि ऐसा किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि वह पुरुष है। दूसरे, यदि ऐसा किया जाये तो जाति एक बलिष्ठ व्यक्ति को खो देगी। अत: उससे आसानी से निपटने के लिए दो ही विकल्प रह जाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
गांधी के बारे में पढ़ने का मौका वहीं मिला। कुछ सवाल मन में आते तो जवाब के लिए डॉ. अहमद हमेशा तैयार रहते। मैं अपने प्रश्नों को लिख लेता था। कई बार तो यह सोचता था कि कहीं मेरे सवाल एकदम से अगंभीर न रहें, इसलिए अपने ही सवालों को बार-बार पढ़ता और जवाब तलाशने की कोशिशें करता। अंतिम विकल्प के रूप में डॉ. रजी अहमद तो थे ही।
तो उन दिनों गांधीवाद अच्छा लगता था। गांधी एक ऐसे महानायक के रूप में सामने थे, जिन्होंने अपनी अहिंसक राजनीति के जरिए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन मैं इतना जरूर समझ गया था कि यह केवल वाक्य मात्र है और इसमें अनेक तहें हैं। फिर गोलमेज सम्मेलन में गांधी के भाषणों को पढ़ने लगा। तहें खुलने लगीं। अतीत में झांकने के दौरान जो कुछ सामने आया, वह उस समय धुंधला ही था, लेकिन इतना जरूर था कि उसमें बहुत तेज सड़ांध थी।
[bs-quote quote=”पने भाषण में डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म को डायनामाइट से उड़ा देने की बात कही थी। उन्होंने वर्णाश्रम की मान्यताओं को खारिज किया था। उनका यह भाषण तब जात-पांत तोड़क मंडल के कुछ सदस्यों को पसंद नहीं आया और परिणाम यह हुआ कि अधिवेशन को ही स्थगित कर दिया गया। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मेरी जेहन में तब कई प्रश्न आए थे। कुछ प्रश्नों को डॉ. अहमद के समक्ष रख सका तो अनेक प्रश्न मेरे नोटबुक के पन्नों में ही रह गए। तब जाति का सवाल महत्वपूर्ण होने लगा। इसके पीछे भी कारण रही पटना में विभिन्न दलों के कार्यक्रमों व राजनीतिक घटनाओं की रिपोर्टिंग। हर दल का अपना जातिगत तानाबाना है।
इस तानेबाने को यहीं छोड़ता हूं। गांधी से जुड़ा मेरी बेटी का सवाल मेरे सामने है। वर्ष 2018 में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। राजकिशोर जी द्वारा अनूदित जाति का विनाश पर काम कर रहा था। मूल रूप से यह किताब 1936 की है। यह डॉ. आंबेडकर का भाषण है, जिसे उन्होंने जात-पांत तोड़क मंडल, लाहौर के वार्षिक अधिवेशल अध्यक्षता के लिए तैयार किया था। अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म को डायनामाइट से उड़ा देने की बात कही थी। उन्होंने वर्णाश्रम की मान्यताओं को खारिज किया था। उनका यह भाषण तब जात-पांत तोड़क मंडल के कुछ सदस्यों को पसंद नहीं आया और परिणाम यह हुआ कि अधिवेशन को ही स्थगित कर दिया गया।
खैर, इससे पहले 1932 के कम्यूनल अवाॅर्ड के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर के साथ तीखे संघर्षों और पूना पैक्ट पर समझौते के बाद गांधी ने 1932 में हरिजन सेवक संघ और 1933 में अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र हरिजन की शुरुआत की। इसी पत्र में गांधी ने आंबेडकर द्वारा जाति का विनाश में हिंदू धर्म और धर्म शास्त्रों पर लगाये गये आरोपों का जवाब दिया। साथ ही वर्ण-व्यवस्था की सकारात्मकता और उपयोगिता के पक्ष में तर्क दिया और वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आंबेडकर के तर्कों और आपत्तियों का जवाब देने की कोशिश की। गांधी का यह जवाब हरिजन में दो अंकों में प्रकाशित हुआ था। डॉ. आंबेडकर ने गांधी की आपत्तियों और तर्कों का जवाब दिया और गांधी के दोनों लेखों के साथ अपने जवाब को भी एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के 1937 के संशोधित संस्करण में समाहित किया।
मेरे सामने यह किताब है। इसके पृष्ठ संख्या 165 पर गांधी लिखते हैं – ‘उसे (विधवा को) उसके मृत पति के साथ जला दिया जाये और उससे मुक्ति पा ली जाये। यह स्त्री-पुरुष अनुपात को घटाने का एक अव्यावहारिक तरीका है। कुछ मामलों में यह काम कर सकता है, कुछ में नहीं। अत: प्रत्येक स्त्री को ठिकाने नहीं लगाया जा सकता। वैसे यह एक आसान तरीका है, लेकिन इसे अपनाना मुश्किल है। और इस तरह विधवा यदि ठिकाने नहीं लगायी जा सके और जाति में ही बनी रहे, तो उसके अस्तित्व से दोहरा खतरा बना रहता है। वह जाति से बाहर जाकर विवाह कर लेगी और सजातीय विवाह के सिद्धांत को तिलांजलि दे देगी या वह अपनी ही जाति में विवाह कर लेगी और प्रतिद्वंद्विता के द्वारा अपनी जाति की उन स्त्रियों का हक़ मार लेगी, जो विवाह योग्य हैं। इस तरह वह दोनों ही मामलों में एक खतरा है। यदि उसे उसके मृत पति के साथ जलाया न जा सके, तो उसका कुछ और इंतज़ाम करना होगा।’
गांधी इसके आगे लिखते हैं – ‘दूसरा समाधान यह है कि उसे शेष जीवन के लिए विधवा ही रहने दिया जाये। जहां तक वस्तुपरक परिणामों का संबंध हैं, उसे जला देना सदा विधवा बनाये रखने से बेहतर है। जला देने से वे तीनों आशंकाएं, जिनका संबंध एक अतिरिक्त स्त्री से है, नष्ट हो जाती हैं। मर जाने और अनस्तित्व में विलीन हो जाने से वह कोई समस्या पैदा नहीं करती, क्योंकि वह न जाति से बाहर पुनर्विवाह करेगी और न अपनी जाति के भीतर। परंतु उसे अनिवार्य रूप से विधवा रूप में जीवित रहने देना जलाने से अच्छा है, क्योंकि यह ज्यादा व्यावहारिक है। जहां यह अपेक्षाकृत मानवीय प्रथा है, वहीं इससे पुनर्विवाह की आशंका भी टलती है, जैसा कि जला देने के मामले में होता है। परंतु इससे उस समूह की नैतिकता की सुरक्षा नहीं की जा सकती। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनिवार्य वैधव्य की स्थिति में स्त्री जिंदा बच जाती है और चूंकि भविष्य में उसे किसी की वैध पत्नी बनने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, इससे अनैतिकता को प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन इस समस्या से निपटना कोई दु:साध्य कार्य नहीं है। उसकी हालत इतनी खराब कर दी जा सकती है कि उसमें लेश मात्र भी आकर्षण न बचे।’
[bs-quote quote=”गांधी इसके आगे लिखते हैं – ‘दूसरा समाधान यह है कि उसे शेष जीवन के लिए विधवा ही रहने दिया जाये। जहां तक वस्तुपरक परिणामों का संबंध हैं, उसे जला देना सदा विधवा बनाये रखने से बेहतर है। जला देने से वे तीनों आशंकाएं, जिनका संबंध एक अतिरिक्त स्त्री से है, नष्ट हो जाती हैं। मर जाने और अनस्तित्व में विलीन हो जाने से वह कोई समस्या पैदा नहीं करती, क्योंकि वह न जाति से बाहर पुनर्विवाह करेगी और न अपनी जाति के भीतर। परंतु उसे अनिवार्य रूप से विधवा रूप में जीवित रहने देना जलाने से अच्छा है, क्योंकि यह ज्यादा व्यावहारिक है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
वहीं पुरुषों के लिए गांधी का विचार है – ‘अतिरिक्त पुरुष (विधुर) को उसकी मृत पत्नी के साथ जला देने की परियोजना दो कारणों से खतरनाक है। पहली बात तो यह है कि ऐसा किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि वह पुरुष है। दूसरे, यदि ऐसा किया जाये तो जाति एक बलिष्ठ व्यक्ति को खो देगी। अत: उससे आसानी से निपटने के लिए दो ही विकल्प रह जाते हैं। मैं ‘आसानी से’ इसलिए कहता हूं, क्योंकि वह समुदाय के लिए संपत्ति है।”
मुझे लगता है कि गांधी जैसे अधकचरा दिमाग वाले व्यक्ति को खारिज ही किया जाना चाहिए। जिसके विचार इतने घिनौने हों, वह आइकॉन कैसे हो सकता है?
एक कविता जेहन में कल शाम को आई।
एक पूर्णविराम आवश्यक होता है
किसी भी कहे को पूर्ण करने के लिए
और बिना पूर्णविराम लगाए
कोई नई बात नहीं कही जा सकती।
लेकिन पूर्णविराम केवल डंडा नहीं है कि
किसी वाक्य के आखिर में खड़ा कर दिया जाय।
पूर्णविराम के लिए आवश्यक होता है
वाक्य में शामिल हर शब्द की समुचित हिस्सेदारी
और सम्मान अनिवार्य तत्व है
और यदि ऐसा नहीं है तो
यह माना जाना चाहिए कि
संघर्ष जारी है और
पूर्णविराम की घोषणा नहीं की जा सकती।
-नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में सम्पादक हैं ।
बेहतरीन।