14 जुलाई, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने हिमांशु कुमार द्वारा दायर याचिका पर फैसला सुनाया। उनके द्वारा दिए तथ्यों और प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा देखे हत्याकांड यानी पुलिस द्वारा 17 आदिवासियों की हत्या के आरोप को झूठा बतला कर खारिज कर दिया।
और तो और हिमांशु कुमार पर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया कि उन्होंने अदालत का समय बर्बाद किया। सोचने की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के लिए नागरिकों की हत्या की जांच ज्यादा महत्वपूर्ण है या अदालत का समय?
किसी के पब्लिक पेटिशन के सबूत न मिलने पर मुकदमा करने वाले को सज़ा नहीं दी जाती। दिए गए सबूतों को दरकिनार करके, माननीय न्यायाधीश किसी नतीजे पर पहुंचे, यह उनका पेशा है।
जैसे आरोप ग़लत बतलाया जा सकता है, न्यायालय का फैसला भी ग़लत हो सकता है। इतिहास गवाह हैं कि सैकड़ों मामलों में कई-कई साल बाद सच का पता चला है । और न्यायालय ने अपनी भूल स्वीकार की है। उससे ग़लत सज़ा भुगत चुके का कुछ लाभ नहीं हुआ, अलबत्ता न्याय पर कुछ आस्था दुबारा कायम हो गई।
तर्कसंगत ही है कि आज के गांधी हिमांशु कुमार ने भी जुर्माना भरने से इंकार कर दिया है। अनेक लोगों का कहना है कि वे आपस में चंदा करके जुर्माना भर देंगे पर हिमांशुजी जेल न जा कर, आदिवासी क्षेत्र में काम करते रहें। उन जैसा जीवट वाला आदमी दूसरा नहीं है।
अफ़रा-तफ़री में 5 लाख का जुर्माना लगाकर, न दे पाने की स्थिति में, याचिका दायर करने वाले को जेल भेजने की धमकी के लिए, बिना अदालत की अवमानना किए, आप किस शब्द का प्रयोग करेंगे?
भाषाविद और कानून के ज्ञाता कृपया बतलाने का कष्ट करें। तब तक आप इस पर सोचें…
मैं आपको बरसों पहले, 1917 के चंपारण सत्याग्रह के दौरान दिए गांधीजी के वक्तव्य की याद दिलवाना चाहती हूँ।
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इतना जोड़ दूँ कि सरकार पर गांधीजी ने आरोप नहीं लगाया था, उनके कानून न मानने पर सरकार ने मुकदमा दायर किया था। इसलिए कि उन्होंने नील पर टैक्स न देने के लिए किसानों को प्रेरित किया था। नतीजतन किसानों ने आंदोलन कर दिया, जिसके मद्देनज़र टैक्स देना बंद कर दिया। तब सरकार ने गांधीजी और कानून तोड़ने के अपराध में मुकदमा चलाया।
गांधीजी ने कहा, हाँ मैंने कानून तोड़ा है। देश का कानून तोड़ना अपराध है। मैं मानता हूँ। पर मैं खुद को अपराधी नहीं मानता। देश के ऊपर भी आत्मा का कानून होता है। उसकी जिरह सुनकर ही मैंने एक ग़लत कानून तोड़ा।
जज को उनकी बात में सच्चाई सुनाई दी। उसने उन पर मात्र एक रुपए का जुर्माना लगाया कि वे एक रुपया दे दें और बरी हो जाएं। गांधीजी ने देने से मना कर दिया। कहा, जुर्माना देने का अर्थ होगा अपराध स्वीकार करना। पर मैं खुद को अपराधी मानता ही नहीं। जो काम मैंने शुरू किया है, नील से टैक्स हटवाने का, उसे मैं भविष्य में भी करता रहूँगा। ऐसे में जुर्माना भरना अदालत की अवमानना होगी ।
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जज ने हर तरह समझाया पर गांधीजी अत्यंत शालीन शब्दों में उनकी बात मानने से इंकार करते रहे। आखिरकार जज ने अपनी जेब एक रुपया सरकार को पकड़ाया और गांधीजी को बाइज़्ज़त बरी कर दिया। वह विदेशी सरकार और विदेशी अदालत थी। फिर भी न्याय को नकारा नहीं गया। आज हमारी अपनी अदालत है।
फिर क्यों यह अदालत, सरकारी कर्मियों द्वारा किए कृत्य के लिए, सरकार पर मुकदमा करने पर, वकील पर या याचिका दायर करने वाले पर सच-झूठ की जांच करवाए बगैर, 5 लाख रुपये का जुर्माना लगा देती है? हिमांशु कुमार क्या अंबानी या टाटा हैं कि 5 लाख जेब में लिए घूमते हैं। और जो घूमता है, उस माल्या पर तो मात्र 2 हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
दुनिया के किसी देश में वकील को गिरफ्तार नहीं किया जाता और न उस पर जुर्माना लगाया जाता है। चाहे वह कितने भी नाकारा इंसान की पैरवी क्यों न कर रहा हो। और खुद कितना भी नाकारा क्यों न हो। वकालत उनका पेशा है। वैसे ही जैसे न्यायाधीश का मुकदमा सुनना, उसकी जांच करना और तब अपना फैसला सुनाना।
नाथूराम गोडसे के वकील पर कोई आक्षेप नहीं लगा था, क्योंकि कानून इसकी इजाज़त नहीं देता। क्या स्वाधीन भारत में न्याय करने में कानून अमान्य होता है?
कृपया बार-बार गांधीजी को याद करते रहें। तर्कसंगत ही है कि आज के गांधी हिमांशु कुमार ने भी जुर्माना भरने से इंकार कर दिया है। अनेक लोगों का कहना है कि वे आपस में चंदा करके जुर्माना भर देंगे पर हिमांशुजी जेल न जा कर, आदिवासी क्षेत्र में काम करते रहें। उन जैसा जीवट वाला आदमी दूसरा नहीं है। सच है। पर क्या आपको इसमें खुद को बचाए रखने की बू नहीं आती?
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मुझे तो आती है। मैं अदना इंसान हूँ। अदना होने पर लज्जित भी हूँ। पर एक शूरवीर को अकेले मैदान में डटे रहने का सुझाव देने से पहले मेरा सिर शर्म से कुछ और झुक जाता है। और क्या कहूँ। बस गांधीजी को स्मरण करते रहिए। आप भी। मैं भी।
हो सकता है, एक दिन हममें से कोई अदना इंसान ख़ास बन जाए।
मृदुला गर्ग हिंदी की सुप्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार हैं।