भारतीय लोकतंत्र की परिस्थितियां यूरोपीय देशों की तुलना में भिन्न भी थीं और जटिल भी। यूरोप में राजनीतिक क्रांति से पूर्व आर्थिक क्रांति हो चुकी थी। इन देशों में आर्थिक समृद्धि आ चुकी थी। यही कारण था कि लोकतंत्र को स्थायित्व देना सरल था। भारत में गरीबी थी, असाधारण धार्मिक-सामाजिक बहुलता थी। ऐसे उलझे हुए हालात में हम नेहरू को पहले तीन आम चुनावों में लोकतंत्र के कुछ बुनियादी सवालों, विचारों और मूल्यों पर सर्वसहमति बनाने की पुरजोर कोशिश करते देखते हैं।
लगभग अट्ठावन मिनट के भाषण का एक चौथाई हिस्सा साम्प्रदायिकता और उसके खतरों से जनता को परिचित कराने पर केंद्रित है। नेहरू कहते हैं- 'हमारे देश में ऐसी संस्थाएं शुरू हुईं जो कि फिरकापरस्त थीं, जो कि जातिवादी थीं।---आपको याद होगा कि कितनी हानि उन्होंने देश को की, कितना नुकसान किया। एक विष था, एक जहर था जो फैलाया। ---सबसे पहले यह मुस्लिम लीग ने किया जो थोड़े मुसलमानों की जमात थी। काफी अरसे जहर फूट का फैलाया देश में और इतना फैला वो कि आखिर में देश का टुकड़ा अलग होकर पाकिस्तान बन गया। हमने उसको स्वीकार कर लिया क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि यह विष देश में फैलता जाए और आपस में झगड़े हों।
राजनीतिक दलों और नेताओं की चुनावों में मर्यादा कायम रखने में विफलता से पीड़ित नेहरू 1951 में कहते हैं कि सारे राजनीतिक दल बस झूठ और धोखा बांटने में लगे हैं; 1957 में वे चिंतित होकर प्रतिक्रिया देते हैं कि चुनावों में बुनियादी मुद्दों का उल्लेख शायद ही कोई करता है और 1962 में वे चुनावों की तुलना किसी विश्वविद्यालय से करते हैं जो 37 करोड़ भारतवासियों को लोकतंत्र की शिक्षा प्रदान करने का माध्यम है। नेहरू चुनाव प्रचार में जिस गरिमा की अपेक्षा करते थे दुर्भाग्यवश हमारे चुनाव उससे रहित ही रहे।
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