मन का बहकना भी वाजिब है। आप इसे आवारा होना भी कह सकते हैं। मन को आवारा होना ही चाहिए। आवारा होने का मतलब यह कतई नहीं है कि बहकने का कोई आयाम न हो। मेरे हिसाब से आवारापन एक प्रकार का विद्रोह है सड़ी-गली परंपराओं और मान्यताओं के खिलाफ। इस विद्रोह की अपनी शर्तें होती हैं और चुनौतियां भी। हर कोई आवारा न तो हो सकता है और न ही विद्रोही। जो रूढियों में बंधे हैं, वे कभी आवारा नहीं हो सकते। आवारा होने के लिए दूसरों की स्वतंत्रता और अपनी स्वतंत्रता का सम्मान करना जरूरी है। ऐसा नहीं हो सकता है कि आप स्वयं आवारा हों और दूसरों की आवारगी पर सवाल उठाएं। आवारा होना एक नेमत है जो आप खुद को दे सकते हैं। साहित्यिक रचनाएं आपको आवारा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। आवारा बनने के कई लाभ हैं। पहला लाभ तो यही कि आप किसी बंदिश में नहीं रहते। आसमान में उड़ते बादलों के जैसे आप विचरण करते हैं। कोई एक मान्यता आपको जकड़ नहीं सकती।
साहित्यिक रचनाओं की ही बात करें तो हमें कोई भी साहित्य पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नहीं पढ़ना चाहिए। मेरे अपने जीवन में पढ़ना एक अहम काम भी है और मैंने अपने लिए कुछ निर्णय भी निर्धारित कर रखा है। मसलन, एक दिन में मैं बीस हजार शब्द से अधिक नहीं पढ़ूंगा। हालांकि यह भी दुरूह और बेहद थका देनेवाला लक्ष्य होता है। लेकिन चूंकि यह मेरा पेशा है तो कोई विकल्प भी नहीं। लिखने के संबंध में भी मैंने खुद को एक दिन में पांच हजार शब्द से अधिक लिखने से रोक रखा है।
कभी-कभार लगता है कि लिखना पढ़ने से अधिक आसान है। ऐसा तब होता है जब पढ़ने के लिए प्रस्तुत सामग्री रूचिकर ना हो या फिर जिसके विषय में पहले से ही जानकारी हो। कभी-कभी शैली व भाषिक सौंदर्य भी रूचि के निर्धारण में अहम होते हैं। अब कल की ही बात है। हिंदी नवजागरण काल की एक प्रमुख पत्रिका “चांद” के कुछ पन्ने हाथ लगे। अब इतनी महत्वपूर्ण सामग्री हाथ में हो तो मुझ जैसा व्यक्ति पढ़ने में भला देर क्यों करे। दफ्तर से अपने अस्थायी आवास में आने के बाद पढ़ने बैठ गया। हालांकि मैं यह जानता जरूर था कि “चांद” में ऐसा कुछ नहीं मिलनेवाला है, जिससे मेरा उत्साह बढ़े। दरअसल, नवजागरण काल के रचनाकारों ने मुझे निराश ही किया है। फिर चाहे वह महावीर प्रसाद द्विवेदी ही क्यों न हों। भारतेंदू हरिश्चंद्र का लेखन अनेक मामलों में प्रभावित करता है। लेकिन इतना भी नहीं कि मैं उनका मुरीद हो जाऊं।
[bs-quote quote=”जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर और पेरियार के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का परिणाम था और सबसे बढ़कर अंग्रेजी हुक्मरानों की दूरदर्शिता जिसके कारण भारत के बहुसंख्यक, जो सदियों से द्विजों के गुलाम थे, जागरूक होने लगे थे। ऐसे में द्विजों को अपने पूर्व के जागरण पर विचार करना पड़ा और इसे ही उन्होंने नवजागरण कहा। यह बहुसंख्यक वर्ग को भ्रम में रखने की साजिश भी थी। नहीं तो और क्या वजह हो सकती है कि नवजागरण काल के जो विद्वान महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में लंबी-लंबी डींगें हांकते थे, वे ही एक महिला के गंगा में नहाने और कपड़े बदलने पर उंगली उठा रहे थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
“चांद” के बेतरतीब पन्नों को पलटते हुए एक चित्र पर नजर पड़ी। यह चित्र नदी किनारे किसी तीर्थ स्थल का है। शायद प्रयागराज की हो। लोग नदी में नहा रहे हैं। लोगों में महिलएं भी हैं। एक ब्राह्मण ध्यान की मुद्रा में है और एक महिला अपने कपड़े बदल रही है। चित्र के नीचे कैप्शन है– “मात गंगे! हर! हर! हर! हर!!! … कोई कुछ भी कहे न लख कर, विषय विधाता की यह चाल/घर के भीतर का वह पर्दा, घर के बाहर का यह हाल”
जाहिर तौर पर चित्र और चित्र के नीचे कैप्शन के केंद्र में महिला है। लेकिन महिला निशाने पर क्यों है? क्या महिलाओं को गंगा में स्नान करने का अधिकार भी नहीं? और यदि अधिकार है तो उसने कपड़े बदलकर कौन सा अपराध कर दिया? इन सबसे बढ़कर भी एक सवाल यह है कि महिलाओं पर सवाल उठा कौन रहा है और इसके पीछे की विचारधारा क्या है? दरअसल नवजागरण काल द्विजों के लिए नवजागरण का काल रहा। हालांकि इसे नवजागरण कहना भी सही नहीं है। यह तो जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर और पेरियार के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का परिणाम था और सबसे बढ़कर अंग्रेजी हुक्मरानों की दूरदर्शिता जिसके कारण भारत के बहुसंख्यक, जो सदियों से द्विजों के गुलाम थे, जागरूक होने लगे थे। ऐसे में द्विजों को अपने पूर्व के जागरण पर विचार करना पड़ा और इसे ही उन्होंने नवजागरण कहा। यह बहुसंख्यक वर्ग को भ्रम में रखने की साजिश भी थी। नहीं तो और क्या वजह हो सकती है कि नवजागरण काल के जो विद्वान महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में लंबी-लंबी डींगें हांकते थे, वे ही एक महिला के गंगा में नहाने और कपड़े बदलने पर उंगली उठा रहे थे।
फासिस्ट और बुलडोजरवादी सरकार में दलित की जान की कीमत
मैं तो आज भी देखता हूं कि हिंदू धर्म की महिलाएं गंगा में स्नान करती हैं और कपड़े बदलती हैं। मैं जिस राज्य से आता हूं, वहां छठ नामक लोक पर्व मनाया जाता है। छठ की परंपरा के अनुसार महिला हों या पुरुष, दोनों को एक ही वस्त्र में सूर्य को अर्घ्य देना पड़ता है। अब पुरुष के लिए एक वस्त्र धारण करने में कोई परेशानी नहीं है। वजह यह कि शरीर का सार्वजनिक प्रदर्शन का अधिकार पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन महिलाओं के लिए तमाम तरह की पाबंदियां हैं। छठ के दौरान महिलाओं को एक कपड़े में अर्घ्य देने में जो परेशानी होती है, वह तो छठ करनेवाली महिलाएं ही जानती होंगी।
[bs-quote quote=”गालिब की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि वह दार्शनिक न होकर भी बड़े दार्शनिक थे। वह सूफी मत से प्रभावित जरूर लगते हैं, लेकिन हैं नहीं। वह आम आदमी की तरह घटनाओं को देखते हैं और आम आदमी की तरह ही लिखते हैं। लेखक और आदमी के बीच कोई पर्दा नहीं है और ना कोई नकाब।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, मैंने पहले भी कहा कि साहित्य को पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर नहीं पढ़ना चाहिए। अलबत्ता पढ़ने के बाद यदि नकारात्मकता मिले तो उसे वहीं छोड़ देना चाहिए। तो मैंने भी कल यही किया। “चांद” के पन्नों को पढ़ने के बाद छोड़ दिया। मेरे काम की चीज उसमें नहीं थी। हालांकि शैली और भाषिक प्रयोगों को देखना जरूर अच्छा लगा।
बहरहाल, रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। आंखों ने इशारा किया लेकिन मन इस नकारात्मकता के साथ दिन को खत्म नहीं करना चाहता था कि जो पढ़ा वह काम का नहीं था। सो मिर्जा गालिब का दीवान पढ़ने लगा। गालिब की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि वह दार्शनिक न होकर भी बड़े दार्शनिक थे। वह सूफी मत से प्रभावित जरूर लगते हैं, लेकिन हैं नहीं। वह आम आदमी की तरह घटनाओं को देखते हैं और आम आदमी की तरह ही लिखते हैं। लेखक और आदमी के बीच कोई पर्दा नहीं है और ना कोई नकाब। उनके भाषिक प्रयोगों की बात करूं तो उन्होंने फारसी के शब्दों का खूब उपयोग किया है। कई जगहों पर तो उन्हेंने पूरी पंक्ति ही फारसी में लिख दी। लेकिन देखिए कि तब भी उन्हें पढ़नेवालों ने दिल से सराहा। हिंदी साहित्य में इस तरह का प्रयोग नहीं के बराबर मिलता है। हिंदी वाले तो हिंदी को बपौती मानकर जीते हैं। इससे नुकसान हिंदी का ही होता है। गालिब की कारीगरी का एक नमूना देखिए–
इश्क मुझको नहीं, वहशत ही सही,
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही।
इन दो पंक्तियों को समझने की कोशिश करें। वहशत शब्द का मतलब है– उन्माद। और अब देखिए गालिब का कमाल। और समझिए उनकी शानदार आवारगी। एक आम आदमी के रूप में उनका स्वाभिमान सर चढ़कर बोलता है। यह भी देखिए–
अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो
आगही गर नहीं गफ़लत ही सही।
यहां आगही का अर्थ है– चेतना।
बहरहाल, नींद का इंतजार रहा। और वह आयी भी। लेकिन सपने को आने से भला मैं कैसे रोक सकता था–
फिर आया एक सपना,
कल अंतिम पहर सजनी रे।
फिर वही पहाड़ थे,
खूब ऊंचे देवदार थे,
जैसे रोज-रोज के हमारे
जीत और हार थे।
सपने में फिर वही रोटी थी,
आंखों में चिर परिचित नमी सी थी,
चूल्हे पर खौलता अदहन था,
सब था फिर भी कुछ कमी सी थी।
सपने में एक चातक था,
बादलों का बड़ा शोर था,
सामने नाच रहे थे मोर,
पलकों पर रूका लोर था।
एक गांव था ठहरा हुआ,
शहर भी बिल्कुल बेजुबान था,
राजा का एक सिंहासन था,
किले पर लिखा बेईमान था।
एक ईश्वर था हद के उस पार,
अनहद में आपातकाल था,
कुछ था कबीर के जैसा मेरे आगे,
मन ने कहा वह भूतकाल था।
हां, फिर आया एक सपना
कल अंतिम पहर सजनी रे।
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नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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