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मेरी नजर में राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवार (डायरी 22 जून, 2022)

ख्वाहिशों और ख्वाबों में फर्क होते ही हैं। हालांकि इन दोनों शब्दों का उपयोग लगभग समान तरह के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता है। लेकिन मैंने अपनी ख्वाहिशों और ख्वाबों को अलग-अलग रखा है। इस क्रम में मैं कभी-कभार अंतर्द्वंद्व का शिकार भी होता हूं और फिर खुद से बहस करता हूं। […]

ख्वाहिशों और ख्वाबों में फर्क होते ही हैं। हालांकि इन दोनों शब्दों का उपयोग लगभग समान तरह के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता है। लेकिन मैंने अपनी ख्वाहिशों और ख्वाबों को अलग-अलग रखा है। इस क्रम में मैं कभी-कभार अंतर्द्वंद्व का शिकार भी होता हूं और फिर खुद से बहस करता हूं। मैं खुद को गालिब का उदाहरण देता हूं कि अपनी रचना में गालिब ने हजार ख्वाहिशें ही क्यों कही। उनकी रचना है– हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले…।
तो मुझे लगता है कि गालिब ने ख्वाहिशों की बात कही है, जिसे वे इसी रचना की अगली पंक्ति में ‘अरमान’ की संज्ञा देते हैं। सनद रहे कि उन्होंने ‘ख्वाब’ शब्द का उपयोग नहीं किया है और ना ही असीमित अथवा अनंत या फिर लाखों-करोड़ों शब्द का। मिर्जा गालिब के लिहाज से सोचें तो वह शासक वर्ग से आते थे। खानदानी संपत्ति भी थी और तत्कालीन शासकों का सहयोग भी। हालांकि इसके बावजूद गालिब ‘फक्कड़’ वाली जिंदगी जीते रहे। दिल्ली में उनकी हवेली पर गया हूं दो-तीन बार और हर बार मैंने यही महसूस किया गालिब ने वही लिखा जो वह थे। अतिरेक से बचते रहे। वे सच जानते थे और स्वीकारते भी थे।
अपनी बात कहूं तो मेरे पास भी ख्वाहिशें और ख्वाब हैं। आज के हिसाब से मेरे ख्वाब मेरी फैंटेसी हैं। कई बार ख्वाब में आसमान, समंदर, पहाड़, रेगिस्तान, खंडहर, ऊंची इमारतें दिख जाती हैं। इसके अलावा कई बार एक खास छाया भी मेरे साथ रहती है। ख्वाहिशें ऐसी नहीं हैं। मेरी ख्वाहिशों में यथार्थ होता है। मैं ऐसी ख्वाहिशें नहीं करता, जिन्हें हासिल न किया जा सके। वैसे मैं यह मानता हूं कि ख्वाहिशें हमेशा समप और समाज के अनुरूप ही होती हैं।

[bs-quote quote=”मैं सोच रहा हूं द्रौपदी मूर्मू के बारे में, जिन्हें राजग की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है। जबकि विपक्ष ने पूर्व केंद्रीय मंत्री व पूर्व नौकरशाह यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाया है। दोनों के पक्ष में तमाम तरह की बातें कही-सुनी जा रही हैं। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि जिस दौर में यह मुल्क है, उसे एक मजबूत राष्ट्रपति चाहिए। एक ऐसा राष्ट्रपति जो केवल कहने को राष्ट्र का प्रमुख ना हो। वह कठपुतली या फिर रोबोट ना हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

आज ख्वाहिशों की चर्चा दो कारणों से है। एक तो यह कि देश में राष्ट्रपति पद के लिए दो उम्मीदवारों के नाम सामने आ चुके हैं और दूसरा कारण व्यक्तिगत है तथा दुखद है।
पहले दूसरे कारण को दर्ज करता हूं। कल पटना से फिर एक दुखद खबर आयी। हाल ही में मेरी एकमात्र फुआ, जिनका नाम तेतरी देवी था, उनका निधन हो गया था। कल उनके बड़े बेटे का निधन हो गया। उनका नाम अशोक यादव था। उम्र में वह मुझसे करीब 17 साल बड़े थे। हालांकि जाने की उम्र नहीं थी उनकी। लेकिन उन्हें कैंसर हो गया था। और कैंसर की वजह यह कि वे गुटखा बहुत खाते थे। उनका अपना पूरा जीवन विसंगतियों से भरा था। हालांकि वे बहुत महत्वाकांक्षी थे। उनकी पहली पत्नी का मायका पटना के कंकड़बाग इलाके के चांगर नामक गांव में था। मेरी मौसी का घर भी इसी गांव में था। अब तो यह पूर्ण रूप से शहर है। शादी के करीब दो साल बाद ही अशोक भैया का जीवन तबाह होने लगा। तब खबर यह सामने आयी कि उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार हैं। अशोक भैया ने संभालने की बहुत कोशिशें की। जितना संभव हो सका, इलाज कराया। लेकिन अंतत: वे विफल हो गए और उनकी पत्नी ने दम तोड़ दिया। फिर बाद में यह जानकारी आयी कि उन्होंने दूसरी शादी की और वह शादी भी विफल रही। मैंने उनकी दूसरी पत्नी को नहीं देखा। बाद में यह खबर भी मिली कि उन्होंने तीसरी शादी भी की और वह भी अपने बड़े बेटे की शादी करने के बाद।
अशोक भैया समाज की परवाह करते थे, लेकिन वे अपनी ख्वाहिशों को जिंदा रखते थे।
वह जीना चाहते थे एक बेहतर जीवन, जिसके वे हकदार थे। तीसरी पत्नी के बारे में भी मैंने केवल सुना है। मैं तो 2008 के बाद से ही अपने रिश्तेदारों से भौतिक रूप से दूर हो गया हूं।
खैर, अपनी ख्वाहिशों को लेकर अशोक भैया चले गए। अब मैं सोच रहा हूं इस परिवार के बारे में, जिसके आर्थिक हालात पहले से बहुत विषम हैं, वह अब दो-दो ब्रहमभोज का आयोजन करेगा।
जाहिर तौर पर दोनों आयोजनों में खर्च बहुत अधिक होगा। नहीं भी तो कम से कम तीन लाख रुपए से कम में तो मुमकिन ही नहीं।

[bs-quote quote=”अभी हाल ही में 16-18 जून को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव मनाया गया। आयोजक अघोषित रूप से आरएसएस था। इसमें दलित-बहुजनों ने भी भाग लिया। इनमें से कुछ को तो मैं जानता ही हूं। मैं तो दलित-बहुजनों के उपर फुले-बिरसा-आंबेडकर के घटते प्रभाव को देख रहा हूं और मैं चिंतित भी हूं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

यह दुखद है कि भारतीय समाज के बहुसंख्यकों ने इस तरह के पाखंड को अपनी ख्वाहिशों में शुमार कर लिया है और उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर ब्राह्मण वर्ग ने किया है। ब्राहमणों ने बहुसंख्यकों के दिलो-दिमाग में यह बात बिठा दी है कि कोई भगवान है और उसका एक राज्य है, जहां की नागरिकता केवल उसी को मिलेगी, जो अपने पूरे जीवन ब्राह्मणों को भीख देता रहेगा और उसके मरने के बाद उसके परिजन ब्राह्मण के मानसिक गुलाम बने रहेंगे।
वैसे यह मामला केवल मेरे परिजनों तक सीमित नहीं है। अभी हाल ही में 16-18 जून को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव मनाया गया। आयोजक अघोषित रूप से आरएसएस था। इसमें दलित-बहुजनों ने भी भाग लिया। इनमें से कुछ को तो मैं जानता ही हूं। मैं तो दलित-बहुजनों के उपर फुले-बिरसा-आंबेडकर के घटते प्रभाव को देख रहा हूं और मैं चिंतित भी हूं।
खैर, मैं सोच रहा हूं द्रौपदी मूर्मू के बारे में, जिन्हें राजग की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है। जबकि विपक्ष ने पूर्व केंद्रीय मंत्री व पूर्व नौकरशाह यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाया है। दोनों के पक्ष में तमाम तरह की बातें कही-सुनी जा रही हैं। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि जिस दौर में यह मुल्क है, उसे एक मजबूत राष्ट्रपति चाहिए। एक ऐसा राष्ट्रपति जो केवल कहने को राष्ट्र का प्रमुख ना हो। वह कठपुतली या फिर रोबोट ना हो।
हालांकि फिर यह मेरी ख्वाहिश ही है। मेरी अपनी ख्वाहिश। मैं वाकिफ हूं कि द्रौपदी मूर्मू के कंधे पर बंदूक रखकर पहले भी भाजपा ने झारखंड में आदिवासियों को गोलियां मारी हैं। आदिवासियों के जंगल और जमीन पर कब्जा किया है। और अब वे यही देश भर में करेंगे।
यशवंत सिन्हा को लेकर मेरे मन में केवल इतना ही है कि ये नवउदारवादी चिंतक हैं और एक तरह से मध्यमार्गी हैं। लेकिन सबसे खास बात यह कि ये बेजुबान नहीं हैं। यदि ये राष्ट्रपति बन पाये तो आनेवाले पांच साल एक मिसाल की तरह होंगे। क्योंकि यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति के अधिकार और कर्तव्यों को अच्छे से समझते हैं और चूंकि पूर्व भाजपाई हैं तो भाजपा के सारे पैंतरे भी।

Eknath Shinde, 26 Maharashtra MLAs camp at resort, Sena says BJP trying to topple govt | Top points - India News
एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे

लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है? सोचना तो इस देश के उन जनप्रतिनिधियों को है, जो इस चुनाव में हिस्सा लेंगे। हालांकि उनका अपना चरित्र भी विश्वसनीय नहीं है। कल महराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री एकनाथ शिंदे अपने 14-15 विधायकों को लेकर गुजरात के सूरत शहर में जुटे हैं। जाहिर तौर पर यह सीधे तौर पर खरीद-फरोख्त का मामला है। तो जब जनप्रतिनिधि खुद बिकने को तैयार हैं तो ऐसे में द्रौपदी मूर्मू को राष्ट्रपति बनाकर इस देश के करोड़ों आदिवासियों के ऊपर जुल्म करने का लाइसेंस पाने के लिए भाजपा सरकार क्या कुछ नहीं करेगी।
बहरहाल, मेरी ख्वाहिशें बिल्कुल मेरे जैसी हैं। एकदम खुरदुरी और यथार्थपरक। अलबत्ता ख्वाब अलग हैं।
गाँव के लोग
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5 COMMENTS
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