माटी और मानुष के बीच एक गहरा रिश्ता है। जितनी सर्जना माटी में है उतनी ही मनुष्य में है। दोनों की सर्जनात्मकता ने एक दूसरे को गढ़ा। माटी मनुष्य के हर गीत का हिस्सा बना। मनुष्य ने मिट्टी को ही देह माना। इस मिट्टी से बने घट को ही शरीर माना। उससे आती आवाज को ब्रम्ह का नाद माना। इसने खुद को नश्वर माना और माटी में ही अपना अंत देखा। मनुष्य ने माटी में मिलते जाने का गीत गाया।
माटी अगले जन्म की उम्मीद बनी। उसे लगा कि प्रजापति ही है जो घट गढ़ता है। वही है जो एक बार इस माटी से एक नया जीवन दे देगा। माटी जीवन और सर्जना का प्रतीक बन गया। घूमता हुआ चाक ब्रम्हांड बनकर मूर्त हो गया। उस चाक पर माटी के लोंदे से आकार गढ़ता हुआ प्रजापति सर्जक हुआ, जो गढ़ता है और आग पर पकाकर उस गढ़े हुए को जीवन देता है।
मनुष्य की सभ्यता का इतिहास इसी माटी से बने बर्तनों के टुकड़ों के परीक्षण से आगे बढ़ता है। यह मनुष्य की सभ्यता में एक छलांग का सूचक है। ये माटी के बर्तन किस रंग के हैं, कितना पके हैं, उन पर उकेरी गई आकृतियां कैसी और किस रंग की हैं, आदि आदि। पाषाणकाल के दूसरे दौर में जब मनुष्य ने आग के अविष्कार से आगे बढ़कर जंगली अनाजों को इकठ्ठा करना शुरू किया तब उसने खाने से बच गये अन्न को रखने के बारे में सोचना शुरू किया। यदि वह जमीन में गाड़ता तो वे उग जाते। यदि खुले में रखता तब उनके बचे रहने की संभावन कम रहती।
इसलिए उसे अब बर्तन की जरूरत थी जो सूखा हो और इतना कड़ा हो कि बारिश में बिखर न जाए। भारत के मेहरगढ़ में न सिर्फ खेती के स्पष्ट साक्ष्य मिले, बल्कि यही वह जगह भी थी जहां मिट्टी के पके हुए बर्तनों के टुकड़े भी मिले। इसी के आस-पास जोरबा संस्कृति के नक्काशीदार बर्तन मिलते हैं।
हड़प्पा-मोहनजोदड़ो एक पूरी नगर व्यवस्था ही थी, जहां लाल और भूरे रंग के पके हुए साबूत बर्तन मिले जिस पर ज्यामीतिय आकृतियां बनी हुई थीं। गुजरात के लोथल में तो इस संस्कृति का और भी विकसित रूप दिखने को मिलता है। इसके बाद काले-लाल रंग के बर्तनों का अस्तित्व आता है। यह ऊंचे तामपान पर पका हुआ बर्तन था। इस क्रम में पालिशदार भूरे रंग के बर्तनों, जो मोटाई में कम लेकिन काफी मजबूत होते थे, ने बर्तन निर्माण ने उस रास्ते को खोल दिया जिससे काला पालिशदार बर्तन अस्तित्व में आया।
यह जनपदों का उच्चतर दौर था और मौर्य साम्राज्य अस्तित्व में आ रहा था। काले रंग का यह पॉलिशदार बर्तन तेजी से लोकप्रिय हुआ और यह संपन्नता का प्रतीक बन गया। बुद्ध के हाथों में जिस बर्तन को कलाकारों ने प्रदर्शित किया यह वही काला पॉलिशदार मिट्टी का बना कटोरा था।
जीवन के रोजमर्रा के जीवन में मिट्टी के बर्तनों की भूमिका अहम थी। इन बर्तनों की जरूरत पूजा-पाठ से लेकर जीवन के अंतिम संस्कारों तक में थी। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले लोगों को प्रजापति कहा गया। लेकिन भारतीय समाज जिस कदर शुचिता और कर्मकांड से बंधा हुआ है, उसमें सर्जकों को लगातार हाशिये पर फेंका गया। लोहा, लकड़ी, चमड़ा, मिट्टी, धागा आदि पर काम करने वाले लोगों को जाति संरचना में नीचे की ओर ठेला गया। उत्पादक और कलाकार समूहों को दोयम दर्जे की जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया गया। जजमानी प्रथा में जमींदार, ब्राम्हण से लेकर राजा और पुरोहित तक सर्वोच्च शिखर पर बैठा दिया गया जबकि सर्जक समूहों को नीचे की ओर ठेल दिया गया।
आज कुम्हार, प्रजापति लोगों की स्थिति भारतीय समाज और उसकी अर्थव्यवस्था में दोहरे स्तर पर पिस रही है। एक तरफ जमीनों का मालिकाना उच्च जातियों और वर्गों के हाथ में बना रहा और ये सर्जक समूह निरंतर भूमिहीन अवस्था में बने रहे, वहीं दूसरी ओर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था टिन, अल्मुनियम, स्टील और लोहा, प्लास्टिक के बर्तन और औजारों से उन्हें बाजार से बाहर ठेलती रही।
इस दोहरी मार के बावजूद ऐतिहासिक परम्परा के वाहक इन सर्जक समूहों ने अपनी कला और उसके उत्पादन को बनाये रखा। भारत के कोने-कोने में कुम्हार समूहों ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को न सिर्फ सुरक्षित रखा, बल्कि उसे नई तकनीक से सजाने का भी काम किया। उन्होंने अपनी मिट्टी और अपने जीवन के रिश्ते को खत्म होने से बचा लिया।
निजामाबाद का काला मृदभांड कुम्हारों द्वारा सृजित एक अप्रतिम कला है। आज इस कला को दुनिया भर में जाना जाता है। काले रंग के चमकदार बर्तन बरबस ही आपको अपनी ओर खींचते हैं, लेकिन खुद कुम्हारों की जिंदगी उतनी चमकदार नहीं है। उनके हिस्से में अब भी जीवन का जद्दोजहद ही बना हुआ है। इस जुलाई के तीसरे हफ्ते में एक बार फिर मैं निजामाबाद गया। कुम्हारों की इस दुनिया को थोड़ा और जाना।
सीमित जगह पर एक बड़ी कला का सृजन
मैं कुम्हारों की उस बस्ती में गया जहां लगभग 200 परिवार बर्तन बनाने का कार्य करते हैं। यह क्षेत्र सरकार द्वारा बर्तन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए आबंटित किया गया है। सीधी और एक दूसरे को काटती हुई गली और सड़क के किनारों पर इन उद्यमियों के ‘घर’ हैं जिसमें पूरा परिवार मिट्टी के बर्तनों को बनाने में लगा रहता है। घरों के बाहर की चौखट पर बर्तनों की नुमाइश रहती है, जहां से बर्तन खरीदे जा सकते हैं। एक उद्यमी ‘घर’ में आमतौर पर दो पीढ़ियाँ एक साथ दिखती हैं।
बर्तनों के उत्पादन में बच्चों की उपस्थिति उन्हें सीखने की ओर ले जाती है। बच्चे पास के ही प्राथमिक स्कूलों में पढ़ते हैं और पढ़ाई के साथ दिन भर और देर रात तक चल रहे उत्पादनों के बीच चल रही जिंदगी में बने रहते हैं। देखना और सीखना उनकी जिंदगी का एक हिस्सा बन जाता है।
मैं रामजतन प्रजापति के घर पहुंचता हूं। कुछ साल पहले भी मैं उनके यहां जा चुका था। यह वह घर है जिसके प्रयासों से यहां की कला और कुम्हारों के सामने खड़ी समस्याओं को कुछ हद तक हल करने की ओर ले जाया गया। रामजतन प्रजापति के पिता राजेंद्र प्रसाद प्रजापति और माँ कालपा देवी ने 1987 में कला का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। राजेंद्र प्रसाद प्रजापति को 1979 में राष्ट्रीय दक्षता और 1978 में राज पुरस्कार से नवाजा गया था। इसके बाद रामजतन प्रजापति ने अपने मां और पिता की परंपरा को कायम रखा। 1987 में उन्हें उत्तर प्रदेश का राष्ट्रीय दक्षता पुरस्कार, 1993-94 में राज पुरस्कार, 2004 में राष्ट्रीय पुरस्कार और 2009 में कलाश्री पुरस्कार मिला।
पुरस्कारों को उन्होंने सहेजकर रखा हुआ है। मां और पिता के चित्र बर्तनों की प्रदर्शनी वाले कमरे में बर्तनों के पीछे ही रखा हुआ है। रामजतन प्रजापति अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए बताते हैं कि उन्हीं की बदौलत यहां की कला इस प्रसिद्धि तक आ सकी। वह बताते हैं कि हम सभी भाई इस काम में नहीं हैं।
उनके एक भाई बैंक में नौकरी हासिल किये और अब वह उसी में समय देते हैं। उन्हें थोड़ी बहुत जानकारी तो हैं, लेकिन अब उनके बच्चों की दुनिया इससे अलग हो गई है। अब वे पढ़ाई और नौकरी की तैयारी में लगे हुए हैं। वह खुद इस काम में लगे और उनके बच्चे भी इसी काम को आगे ले जाने की ओर हैं। उनके परिवार का एक सदस्य मिट्टी के सुक्ष्म काम करने में माहिर हो चुका है और उसने इस दिशा में काफी नाम भी कमाया।
रामजतन प्रजापति बताते हैं कि नाम तो हो गया, लेकिन जीवन की स्थितियां जितनी बेहतर होनी चाहिए थीं, उतनी नहीं हुईं। लगभग 16 सदस्यों वाले इस परिवार की आय के बारे में जब मैंने पूछा, तब वह बेहद संकोच के साथ बताते हैं कि ‘साल भर में लगभग 6 लाख रुपये आ जाते हैं।’ फिर वह तुरंत ही सफाई देते हैं कि यह कोई निश्चित आय नहीं है।
राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस परिवार की आय इसी से थोड़ा ऊपर और नीचे होगी। लेकिन, यदि हम वहां रह रहे अन्य कुम्हार परिवारों की आय देखें, तब निश्चित ही इस आय से नीचे होगी। मैं रामजतन प्रजापति के साथ ही अधिक समय बिता सका इसीलिए अन्य कुम्हारों के बारे अधिक जानकारी नहीं ले सका। हां, कुछ परिवारों से जरूर मिला। आय के बारे में पूछने के लिए जितना समय उस परिवार के साथ बिताने की जरूरत होती है, वह समय न होने से इस बारे में सिर्फ अनुमान लगाना ही संभव था। मैंने इस संदर्भ में स्रोत का जरिया रामजतन प्रजापति को ही रखा।
रामजतन प्रजापति बताते हैं कि ‘यहां कुम्हारों की स्थिति पिछले 20 सालों में ज्यादा बदतर हुई। इसे लेकर हम सांसदों और सरकार के नुमाइंदों से मिले। हमने आजमगढ़ के जिलाधिकारी से मिलकर अपनी समस्याएं रखीं। इसका कुछ फायदा तो मिला। मिट्टी की समस्या तो पट्टा मिलने के साथ हल होने लगी। जगह की जरूरत थी, तब सरकार ने यह जगह मुहैया करा दी। बैंकों से ऋण की व्यवस्था तो है लेकिन सीधी सहायता की सुविधा नहीं मिली। यहां सरकार ने कॉमन फेसिलिटी सेंटर का निर्माण किया है। कुछ नई मशीनें लगाई गईं जहां पर बर्तन बनाया जा सकता है और भुगतान के आधार पर इलेक्ट्रिक भट्टी का इस्तेमाल कर बर्तन पकाया जा सकता है। यहां रोजमर्रा की जरूरत के बर्तन, खासकर कुल्हड़ बनाना अधिक आसान है। लेकिन, सजावटी और कला से जुड़े बर्तनों के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं है। यहां बर्तनों के सांचे भी उपलब्ध है और साथ पैकेजिंग की सुविधा भी दी गई है।’
रामजतन प्रजापति बताते हैं कि ‘यहां कुछ एनजीओ हैं जिन्हें सरकार से मदद मिलती है। वे ही हमारे बर्तनों की नुमाइश, प्रचार और बिक्री की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। कुछ अन्य प्रकार के सहयोग भी करते हैं।’ यह पूछने पर कि ‘सरकार आपको सीधे मदद क्यों नहीं करती?’ वह हंसते हैं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बताते हैं कि ‘यह बात तो वही जानें। ज्यादातर योजनाएं एनजीओ के माध्यम से ही आती हैं।’
नाबार्ड के सहयोग से कला प्रदर्शनी और बिक्री केंद्र ‘निजामाबाद रूरल मार्ट’ के नाम से काम करता है। यह कला और विक्रय दोनों के प्रोत्साहन के लिए बनाया गया है। इसका संचालन भी एनजीओ जैसी संस्था के हाथ में है। यहां के कुम्हारों ने अपना भी उद्यम वाले ‘घरों’ को एक मार्ट की तरह चला रहे हैं। कई मकानों के सामने मिट्टी के बर्तनों की बजाय अन्य उद्यमों के बोर्ड भी दिखे।
रामजतन प्रजापति पूछने पर बताते हैं कि ‘वैसे तो यह क्षेत्र मिट्टी के बर्तनों के लिए दिये गये। लेकिन, कई लोगों के लिए इस पर जीवन चलाना मुश्किल हो गया।’ वह बताते हैं कि ‘छठ पूजा के दौरान मिट्टी के बर्तनों की मांग, खासकर निजामाबाद के बर्तनों की मांग, ने कई कुम्हार परिवारों को बचा लिया और वे इस काम में बने रह गये।’
वह बताते हैं कि ‘कुछ मांग कांवड़ यात्रा और सावन के महीने में हो जाती है। बीच में कुल्हड़ की मांग बढ़ी थी, लेकिन यह भी पहले की तरह नहीं रहा।’ वह मिट्टी के बर्तनों के कारोबार के बारे में बात करते हुए थोड़े निराश होते हैं। वह बताते हैं कि ‘कोई स्थिर मांग नहीं है। कई बार आर्डर आ जाता है तो काम बन जाता है। शहरों में संपर्क से कई बार बात बन जाती है और कई बार इंतजार करना पड़ता है।’
(यह रिपोर्ट दो हिस्सों में है। अगला हिस्सा कल प्रकाशित किया जाएगा।)