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परिवारवाद के रास्ते रोजगार का हिस्सा बनती जा रही है भारतीय राजनीति

भारतीय राजनीति में विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म यूँही नहीं हुआ, इसका कारण केवल और केवल यह है कि ब्राह्मणवाद के चलते पहले से ही वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियां अलोकतांत्रिक होती जा रही हैं। अलोकतांत्रिक होती जा रही इन वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियों के गिरते राजनीतिक आचरण के कारण विभिन्न क्षेत्रीय दलों का न केवल जन्म […]

भारतीय राजनीति में विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म यूँही नहीं हुआ, इसका कारण केवल और केवल यह है कि ब्राह्मणवाद के चलते पहले से ही वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियां अलोकतांत्रिक होती जा रही हैं। अलोकतांत्रिक होती जा रही इन वर्चस्वशाली राजनीतिक पार्टियों के गिरते राजनीतिक आचरण के कारण विभिन्न क्षेत्रीय दलों का न केवल जन्म हुआ अपितु उनमें से कई पार्टियां सत्ता तक भी पहुंचीं। विगत और वर्तमान राजनीतिक फलक इस बात का साक्षी है। आज समय है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल अपने भरोसे चुनाव लड़ने से कतरा रही है। हो ये रहा है कि छोटे-छोटे विभिन्न दलों को लेकर गठबंधन की राजनीति को बल मिल रहा है। यदि सत्ता पक्ष की बात करें तो भाजपा के एन डी ए के गठबंधन में कहने को तो लगभग 38 राजनीतिक दल शामिल हैं। उनमें ज्यादातर ऐसे दल हैं, जिनका न तो कोई विधायक और न ही सांसद है। विपक्षी राजनीतिक दलों के गठबंधन में अपना-अपना वजूद रखने वाले लगभग 26/ 27 दल शामिल हैं, किंतु इस गठबंधन के सामने जो सवाल मुंह बाए खड़ा है, वो है अपने-अपने वर्चस्व को बनाए रखने का।

किंतु पिछले छह/ सात दशक में पहली बार राजनीतिक अस्मिता खतरे से बाहर नजर नहीं आ रही। राजनीतिक अस्मिता ही नहीं, जातीय अस्मिता,  क्षेत्रीय अस्मिता, परिवार की या कोई और कुछ भी तो सुरक्षित नहीं रहा है। आज के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर न केवल अस्मिता की राजनीति को धता बता ‘आकांक्षा’ की राजनीति को खड़ा करने का सफल प्रयास किया है, अपितु राजनीतिक अस्मिता/राज-धर्म को रसातल में पहुँचा दिया है। इसका अफसोस गए समय में तो नहीं हुआ था किन्तु भाजपा का ऐसा आचरण  आज साफ तौर पर देखा जा सकता है। सत्ता पक्ष ने राजनीतिक अस्मिता/राज-धर्म को किनारे करके लोकशाही में तानाशाही में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आने वाले दिनों में मोदी के चहेतों को इस सत्य का एहसास जरूर होगा, इसमें दो राय नहीं है। 

दरअसल, पिछले वर्षों में भाजपा की प्रतिष्ठा का ग्राफ इतना गिर चुका है कि गए दिनों में भाजपा के शासन में हुए राज्यों के चुनावों में भाजपा की जो फज़ीहत हुई है, इसके चलते भाजपा और इसके समर्थक दलों और पैत्रिक संस्था आरआरएस को यह तो सोचना ही होगा कि लोकसभा के चुनावों में भाजपा के हक में हुआ बदलाव महज एक ही बार की बात है या फिर स्थाई। गौर तलब है ऐसे परिवर्तन राजनीति में ज्यादा दूर तक का सफर तय नहीं कर पाते। वही हालत आज भाजपा की है। भाजपा की पैत्रिक संस्था की असल चिंता यह है कि यदि 2024 के आम चुनावों में भाजपा सरकार नहीं बना पाती है तो उसके सामाजिक/ धार्मिक सभी एजेंडे कहीं दरक न जाएं। इसलिए आरएसएस भाजपा के समर्थन में खुलकर आगे आ गई है। और समाज के हाशियाकृत तबकों/जातियों से सीधे संपर्क साधने की भूमिका में आ गई है।            

यथोक्त के आलोक में यह स्मरण रखने की जरूरत है कि आजकल भाजपा के अनेक नेता कोविंद जी के आवास पर निरंतर दौरा करने पर लगे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार तीन जून को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पैतृक गांव कानपुर देहात के परौंख गांव पहुंचे। इस मौक़े पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद थे। पहली बार अपने पैतृक गाँव पहुँचे पीएम मोदी का स्वागत करने के लिए राष्ट्रपति कोविंद प्रोटोकॉल तोड़ते हुए ख़ुद हेलीपैड तक पहुंच गए। प्रधानमंत्री ने बाद में कहा कि राष्ट्रपति कोविंद की इस गर्मजोशी ने उन्हें ‘हैरान’ कर दिया और वो ‘शर्मिंदगी’ महसूस कर रहे हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मोदी जी ने राम कोविंद जी के राष्ट्रपति रहते हुए कभी भी वो सम्मान नहीं दिया जो सम्मान राम कोविंद जी ने मोदी जी को दिया। इस प्रकार मोदीजी द्वारा कोविंद जी की प्रशंसा करना महज एक राजनीतिक कारण है, मनोभाव का नहीं। प्रधानमंत्री ने परौंख की एक सभा में कहा, ‘ये कहना कि परौंख की मिट्टी से राष्ट्रपति जी को जो संस्कार मिले हैं, उसकी साक्षी आज दुनिया बन रही है और मैं आज देख रहा था कि एक ओर संविधान और दूसरी तरफ़ संस्कार और आज गांव में राष्ट्रपति जी ने पद के द्वारा बनी हुई सारी मर्यादाओं से बाहर निकलकर के मुझे आज हैरान कर दिया। वे स्वयं हेलीपैड पर मुझे रिसीव करने आए। मैं बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था कि उनके मार्गदर्शन में हम काम कर रहे हैं। उनके पद की एक गरिमा है, एक वरिष्ठता है।’ मोदी जी के इस कथन का क्या आशय है। क्या इस कथन में किसी जमीनी सोच का प्रमाण मिलता है। शायद नहीं, क्योंकि यह कथन केवल और केवल एक राजनीतिक कथन है। यह एक औपचारिकता भर है। पीएम की इस दौरे का मकसद केवल और केवल कोली समाज के मत बैंक पर सेंध लगाना है। 

प्रधानमंत्री ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से भेंट कर उन्हें सपरिवार दीपावली की शुभकामनाएं दीं। मोदीजी के इस दौरे पर एक इंटरव्यु में लखनऊ के ख्याति प्राप्त प्रोफेसर ने साफ-साफ कहा कि मोदी का कोविंद के यहाँ दौरे का मकसद महज कोंविंद जी की उपयोगिता का लाभ उठाने का है। वे आगे कहते हैं कि मुझे इस अवसर पर हर्ष तो इसलिए हो रहा है कि मैं भी उसी कोली समाज से आता हूँ जिससे कोविंद जी आते है और विषाद इसलिए है कि कोविंद जी ने कभी भी अपने समाज के हित में कोई भी काम नहीं किया। कोविंद जी ने राष्ट्रपति रहते सवर्ण समाज के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10% आरक्षण पर बिना कोई टिप्पणी किए चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए। आपको यह जानकर अफसोस होगा कि नए संसद भवन के भूमि-पूजन के समय कोविंद को निमंत्रण तक नहीं दिया गया। एक दलित राष्ट्रपति का इतना अपमान कोविंदजी चुपचाप सहकर रह गए। यही हाल वर्तमान जनजाति वर्ग के राष्ट्रपति माननीय द्रोपदी मूर्मू का भी है, उन्हें भी नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में भी नहीं बुलाया गया। लगता तो ये है कि किसी भी दलित को राष्ट्रपति बनाने के पीछे मोदी जी का महज एक ही मकसद रहा कि कोई भी दलित राष्ट्रपति मोदी जी के किसी सही/ गलत काम पर आवाज न उठा सके। यही हालत भाजपा के बैनर के तले चुने गए दलित/ओबीसी के सांसदों की है, वह मुँह न खोलने के लिए मजबूर है।

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असल में सबसे बड़ी बात ये है  कि पिछ्ले कुछ दशकों से भारतीय राजनीति एक रोजगार/व्यवसाय का हिस्सा बनती जा रही है। इसका जीता जागता प्रमाण है भारतीय राजनीति में जड़ जमाता/जन्मता परिवारवाद/वंशवाद। दरअसल वंशवाद अथवा परिवारवाद शासन की वह प्रणाली है जिसमें एक ही परिवार, वंश या समूह से एक के बाद एक कई शासक बनते चले जाते हैं। यह भाई-भतीजावाद  की परिपाटी लोकतंत्र के लिए खतरनाक तो है ही, यह अधिनायकवाद को जन्म देने वाली भी हो सकती है। आदर्श तो ये है कि लोकतंत्र  में वंशवाद के लिये कोई स्थान नहीं है किन्तु भारत में लोकतंत्र की शुरुआत से ही परिवारवाद की राजनीति हावी रही। प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो वंशवाद/परिवारवाद निम्न स्तर का असंवैधानिक आरक्षण है। इसे राजतंत्र/ एकतंत्र  का एक सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है। वंशवाद, आधुनिक राजनैतिक सिद्धान्तों एवं प्रगतिशीलता के विरुद्ध है। पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि लोकतंत्र पूंजीवाद हावी हो गया है। सरकार को विपक्षियों की सही/गलत कमजोरियां तों दिखती हैं, अपने दल के नेताओं की नहीं। यहाँ तक कि विपक्षी राजनैतिक दलों का कथित भ्रष्टाचारी यदि भाजपा में शामिल हो जाता है तो वो भाजपा की वाशिंग मशीन में साफ-सुथरा करके उपमुख्य मंत्री अथवा अन्य  किसी  लाभकारी पद पर आसीन कर दिया जाता है।

जातीय/ क्षेत्रीय अस्मिता, दोनों ही भावनात्मक छोर की ओर ले जाती हैं। यद्यपि अस्मिता की राजनीति लोगों को ज्यादा गुणकारी लगती है, तथापि भारत में जातिवाद और क्षेत्रवाद के भाव लोगों को लामबन्द कर देते हैं और वोटिंग के समय मतदाता देश तो क्या, यहाँ  तक कि अपने निजी और सामाजिक हितों को भी ताक पर उठाकर रख देते हैं।  राज्य से निकलकर क्षेत्रीय दल राजनीतिक गठबन्धन के चलते केंद्र की सत्ता में तक पहुंच गए। इस प्रकार कई जातीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का सशक्तीकरण हुआ। यह कोई बुरी बात भी नहीं है क्योंकि यह राजनीतिक बदलाव समाज के निचले तबके को रास आने लगा। किंतु दुख की बात तो ये है कि समाज के निचले वर्ग की समस्याएं जहाँ की तहाँ हैं। क्योंकि क्षेत्रीय दलों की यह नाकामी रही कि वे क्षेत्र और जाति की अस्मिता को उचित प्रतिनिधित्व देने में सफल न हो सके और राष्ट्रीय पटल पर अपना कोई वर्चस्व कायम न कर सके। दलित और पिछड़े वर्ग से आए नेता अपने ऐशो-आराम की जिन्दगी जीने के जुगाड़ में  मशगूल हो गए। कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय और जातीय दलों के उभार का सामाजिक स्तर पर इतना तो फायदा हुआ कि अब निचली माने वाली जातियां बिना राजनीतिक संरक्षण के भी सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए लामबन्द होने लगी हैं। लेकिन शासन के स्तर पर इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निचली माने वाली जातियों के राजनेता सत्ता के विर्मश और सामाजिक विकास से जैसे बाहर हो गए।।।कारण कि वे अपने वर्चस्वशाली राजनीतिक आकाओं के सामने मुंह न खोलने को बाध्य हैं। उसकी कीमत पूरे दलित और पिछड़े समाज को चुकानी पड़ रही है। यहाँ तक कि उन लोगों को भी जिनके भले के लिए इस राजनीति का दावा किया जा रहा था।

हैरत की बात है कि आजकल मतदाता भी पूरी तरह से भ्रमित है। इसलिए वह किसी व्यक्ति के गुण-दोष देखकर वोट नहीं करता अपितु सबके अपने-अपने राजनितिक दल हैं फलत: वो प्रत्याशी को नहीं, राजनीतिक दल विशेष को वोट करता है। यह भी कि यदि लोकतंत्र में किसी भी राजा की व्यक्ति पूजा आरम्भ हो जाती है तो राजा तानाशाही प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है। ऐसे में माननीय काशीराम का ये कहना कतई  भी भ्रामक नहीं है कि लोकतंत्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं अपितु कमजोर सरकार की जरूरत है। इसका मुख्य कारण ये है कि पूर्ण बहुमत की सरकार न केवल समाज के हाशियाकृत समाज की उपेक्षा करने लगती है अपितु देश के पूंजीपतियों की गिरफ्त में आकर केवल और केवल पूंजिपतियों के काम करती है। कारण कि पूंजीपति ही राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन की आपूर्ति करते हैं। यही सब आज के भारत में हो भी रहा है।

ज्ञात हो कि पूर्ण बहुमत की सरकारें धर्म और असामाजिक गतिविधियों से जुड़े एजेंडे को साधने के लिए सामाजिक हितों को सूली पर चढ़ा देते हैं। आज आम मतदाता केवल इस बात से संतुष्ट होने को तैयार नहीं है कि वोट मांगने वाला उसकी जाति, धर्म या क्षेत्र का है। लेकिन राजनीतिक गुंडातत्व जाति, धर्म या क्षेत्र को ज्यादा महत्त्व देता है। आम मतदाता को लगता है कि अस्मिता की राजनीति भूमिगत हो गई है।मतदाता अस्मिता की राजनीति की अपील करता है। वह परिवर्तन के लिए प्रयोग करने को तैयार है। शायद इसलिए कि अस्मिता की राजनीति दिन प्रति दिन खत्म होती जा रही है। आज ये कहना गलत नहीं होगा कि अस्मिता की राजनीति खतरे में है।

इन हालातों में यदि गहनता से विचार करें तो आम मतदाता की कोशिश यह होनी चाहिए कि देश किसी एक दल को सत्तारूढ़ न कर गठबंधन की सरकार बनाने पर जोर देना चाहिए ताकि सरकारें सत्ता में बने रहने के लिए मतदाताओं के हितों के लिए काम करें। पूर्ण बहुमत की सरकार ने जनता के हितों की अनदेखी करके एक राजनीतिक कारोबार का रूप ले लिया है। पीएम का ये कहना कि देश के लगभग 81 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का वितरण किया जाता है, यह इस बात का प्रमाण है कि राजनीति के गलियारों में परिवारवाद के खिलाफ कितनी भी हायतौबा की जाती हो लेकिन भारतीय राजनीति के व्यवहार/आचरण से परिवारवाद दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। परिवारवाद की राजनीति से कोई भी राजनीतिक दल अछूता हो, ऐसा नहीं है। तमाम राजनीतिक दल परिवारवाद की राजनीति का खुला खेल रहे हैं। अब चुनाव लोकसभा के हों अथवा राज्यों की विधान सभाओं के, धरती-पकड़ नेता अपने परिवार के किसी न किसी सदस्य को आगे लाने में लगे रहते हैं।

एक समय हुआ करता था कि जब देश की लोकसभा में 75% सांसद ब्राह्मण और बनिया वर्ग के हुआ करते थे, आज 67% सांसद अनुसूचित जाति / जन-जाति और पिछड़े वर्ग से चुनकर लोकसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। किंतु सांसद या मंत्री बनते ही वो ये भूल जाते हैं कि भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग के लिए उनका कोई दायित्व भी है। भारतीय समाज के दलित/दमित वर्ग की कमोवेश आज भी वो ही हालत है जो विगत में थी। कुछ मोडरेट जरूर हो गई है। भेदभाव के नए तौर-तरीके, अत्याचार के तौर-तरीकों में आया नयापन राजनेताओं को विकास नजर आता है। आज के भारत में भाजपा सरकार के चलते जितना हिंसक अत्याचार दलितों और अल्पसंख्यकों पर हो रहा है, शायद ही कभी पहले इस दर्जे की क्रूर क्रियाएं हुई हों। किंतु सत्ता पक्ष में बैठे इस वर्ग से आए सांसदों और मंत्रियों की जुबान को जैसे लकवा मार गया हो, किसी का भी मुंह नहीं खुला। बाबा साहेब अम्बेडकर ने ठीक ही कहा था कि पालतू कुत्ता मालिक की सोटी खाकर भी केवल पूंछ ही हिलाता है, भौंक सकने की ताकत वह खो चुका होता है।

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संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में डा. अम्बेडकर ने जिस सामाजिक लोकतंत्र की कल्पना की थी, उसे आज पूरी तरह से भुला दिया गया है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आज देश की राजनीति पर भाजपा की पैत्रिक संस्था आरआरएस जैसे जड़ यानी परम्परागत संस्कृतिवादी संस्थाओं का कब्जा है। तर्क इनकी समझ से परे है और मिथ्या आस्था इनके खून में है। संस्कृति और धर्म की आड़ में समाज विरोधी राजनीति करना इनकी आदत में सुमार है। यद्यपि समाज का बहुसंख्यक वर्ग इनकी विचारधारा को पसंद नहीं करता किंतु आज का टीआरपी पसंद मीडिया और प्रचार के दूसरे माध्यम इनकी राजनीति को शिखर पर ही रखते हैं और सरकार से अच्छा-खासा पैसा कमाते हैं। जिसके चलते धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक मसले प्राय: इनके पक्ष में ही खड़े हो जाते हैं। धर्म और जाति केन्द्रित राजनीति भारतीय समाज के लिए एक कलंक ही है। जाहिर है कि आज का मीडिया भी कारोबारी हो गया है।  

लेकिन लोकतंत्र में संख्याबल के जो मायने हैं, उसका जायजा इस बात से लिया जा सकता है कि यदि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक ओर 51 गधे और दूसरी ओर 49 घोड़े जीतकर लोकसभा में पहुँचते हैं तो सरकार 51 गधों की ही बनेगी। इस तर्क के मद्देनजर समाज का दलित/दमित वर्ग अपने आप को वर्चस्वशाली वर्गों, जिनपर सवर्णों का कब्जा है और जिनका न्याय, समानता, वर्गहीन समाज और समग्र विकास में साझेदारी जैसे कामों में कोई विश्वास नहीं होता, के साथ स्वार्थपूर्ण गठबन्धन कर खुद को उनके हवाले कर देता है और दलित और दमित समाज के तथाकथित नेता जीतने के बाद उस दलित/दमित समाज की अनदेखी कर देता है जिसके भले की दुहाई देकर वो सत्ताशीन होता है। ऐसे में विचार और सामाजिक परिवर्तन की राजनीति केवल एक सवाल बनकर रह जाती है।

यद्यपि लोकतंत्र में जनता को निर्णायक शक्ति माना जाता है, किंतु लोकतंत्र में जनता को अपना अधिकार दिखाने का हक पाँच साल में केवल एक बार ही मिलता है और राजनेताओं को जनता को लूटने का अधिकार पूरे पाँच साल के लिए मिल जाता है।  अब कोई तो बताए कि लोकतंत्र में राजनीति की अस्मिता जनसेवक की नहीं….एक कारोबारी की है। यहाँ यह कहना भी तर्कसंगत ही होगा कि एक बार सत्ता में आने के बाद राजनेता जिस प्रकार जनता के धन का दुरुपयोग करते हैं… किसी से छुपा नहीं हैं। लोकतंत्र की कारोबारी  राजनीति। आज के इस राजनीतिक आचरण को आप क्या कहेंगे? क्या इसे अघोषित आपातकाल के संज्ञा देना गलत होगा?

 

 

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