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क्या मुसलमानों को सपा से दूर करने में कामयाब हो रही है भाजपा

लखनऊ। निकाय चुनाव को सत्ता साम्राज्य की सीढ़ियाँ बनाने में लगी भाजपा क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की एकता को चकनाचूर करके सामाजिक न्याय की लड़ाई को पंचर करने का प्रयास कर रही है? निकाय चुनाव से कुछ महीने पहले अखिलेश यादव स्वामी प्रसाद मौर्य को पहले पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाते हैं […]

लखनऊ। निकाय चुनाव को सत्ता साम्राज्य की सीढ़ियाँ बनाने में लगी भाजपा क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की एकता को चकनाचूर करके सामाजिक न्याय की लड़ाई को पंचर करने का प्रयास कर रही है?

निकाय चुनाव से कुछ महीने पहले अखिलेश यादव स्वामी प्रसाद मौर्य को पहले पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाते हैं और उसके बाद उन्हें सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए आगे बढ़ाते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य इस दिशा में आगे बढ़ते हैं और समस्या की जड़ पर हमला करते हैं। स्वामी प्रसाद जानते हैं कि सामाजिक लड़ाई को तब तक नहीं जीता जा सकता जब तक कि हिन्दुत्व की मनुवादी आस्था को कुचला न जाए। इस प्रयास में वह सबसे पहले तुलसी दास की रामचरितमानस के उस चौपाई पर हमला करते हैं जो सामाजिक ताने-बाने को ऊंच-नीच के भाव से वर्गीकृत करती है। स्वामी प्रसाद का हमला एकदम सटीक बैठता है। दलित और पिछड़ों के हक पर कुंडली मारने वाले इस हमले से तिलमिला जाते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य पर वैचारिक तौर पर ही नहीं शारीरिक तौर पर भी हमले शुरू हो जाते हैं। अखिलेश यादव को भी इस कटघरे में खींचा जाता है और उनके खिलाफ हिन्दुत्व विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है। अखिलेश विपक्ष के इस हमले से घबराते नहीं बल्कि अपने एजेंडे पर आगे बढ़ते हैं और एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक दृष्टिकोण की सामाजिक संरचना की मुखर पक्षधरता करते हुए जातीय जनगणना की मांग करते हैं। जातीय जनगणना ही भविष्य की वह चाभी है जो समाज के हर वर्ग, हर जाति को उसके हिस्से का हक दिला सकती है।

[bs-quote quote=”अब निकाय चुनाव के अंदर इतना समय नहीं है कि अखिलेश इस डैमेज को कंट्रोल कर सकें। दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अतीक की हत्या को लेकर अपने कमजोर प्रशासन का बचाव करते हुए अतीक अहमद की हत्या वाली जगह से तीन किलोमीटर के दायरे में ही रैली करते हुए कहते हैं कि, ‘अतीक की हत्या प्रकृति द्वारा बनाया गया बैलेंस है’। उन्होंने कहा कि, ‘प्रयागराज की धरती पर कुछ लोगों ने पापाचार किया है। ये प्रकृति न किसी पर अत्याचार करती है न सहती है। सबका हिसाब बराबर कर देती है।'” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

निकाय चुनाव से ठीक पहले स्वामी प्रसाद मौर्या द्वारा आगे बढ़ाई जा रही सामाजिक न्याय की लड़ाई और सामाजिक बराबरी की बात करने से सामाजिक ध्रुवीकरण शुरू हो जाता है। दलित, अति पिछड़े और पिछड़े समाज के लोग अपने हक और सम्मान के लिए तेजी से अखिलेश यादव के एजेंडे के समर्थन में स्वामी प्रसाद मौर्य के अभियान का हिस्सा बनने लगते हैं। इस अभियान में समाज के दलित और पिछड़े वर्ग की वह युवा टोली भी शामिल होने लगती है जो अब तक हिन्दुत्व के आभासी सुख की कल्पना में मुस्लिम विरोधी बनी हुई थी। भाजपा जानती है कि बिना दलित और पिछड़ों को अपने पाले में रखे वह सत्ता के केंद्र में नहीं रह सकती है। किन्तु वह यह भी जानती है कि उन्हें अपने साथ दोयम दर्जे पर रखकर ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के मनुवादी मॉडल को पोषित कर सकती है। इसी समझ के साथ वह अखिलेश यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य के अभियान को विकेंद्रित करने के लिए एक अलग स्क्रिप्ट लिखना शुरू कर देती है जिसमें मुस्लिम समाज के उन चेहरों को मुख्य किरदार सौंप दिया जाता है जिन्हे सामाजिक तौर पर मुस्लिम अस्तित्व का चेहरा और नायक स्थापित किया जा सके और कानूनी तौर पर उन्हें अपराधी और माफिया के लिहाफ में कैद किया जा सके। इस स्क्रिप्ट के मुकम्मल होते ही अतीक, अशरफ, मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी जैसे चेहरे, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी बेहद ताकतवर थे, किन्तु अब पूरी तरह से नेपथ्य में जा चुके थे, को नए सिरे से सजा कर मैदान में उतार दिया जाता है। अतीक, जो सालों से सिंगल कालम न्यूज बन चुका था अचानक उसे राष्ट्रीय खबर का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया जाता है। गुजरात के साबरमती से प्रयागराज तक की उसकी यात्रा परेड को 24 घंटे के लाइव शो में बदल दिया जाता है।

बीसों साल से जो अतीक अहमद जेल आता-जाता रहा, कभी इस जेल ती कभी उस जेल घुमाया जाता रहा, वह अचानक पूरी मीडिया के लिए कैसे सबसे बड़ा चेहरा बन जाता है? इसी बीच उसके बेटे का एनकाउंटर होता है, महज तीन  किलोमीटर दूर पुलिस की कस्टडी में अतीक को रखा जाता है किन्तु बेटे के जनाजे को मिट्टी देने के लिए नहीं ले लाया जाता। लेकिन बाकी हर चीज के लिए कसारी-मसारी से काल्विन तक उसकी परेड तब तक कराई जाती है जब तक की उसकी हत्या नहीं हो जाती? यह सब करने के पीछे साफ मंशा दिखती है कि पहले तो मुस्लिम समाज के मन में सत्ता का भय पैदा किया जाय और भय व्याप्त होते ही यह स्थापित किया जा सके कि अखिलेश यादव अब उस निष्ठा के साथ मुसलमानों के साथ नहीं खड़े हैं, जिसकी मुसलमान समाज उनसे अपेक्षा करता है।

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इतना सब कुछ डिजाइन हो जाने के बाद निकाय चुनाव में इस खेल का वह हिस्सा शुरू होता है जो भाजपा के लिए सबसे ज्यादा जरूरी था। उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह आम धारणा है कि मुसलमान एकमुश्त तौर पर अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के साथ है। अब जब स्वामी प्रसाद के अभियान और अपने भविष्य के हित को देखते हुए पिछड़े और दलित समाज के लोग समाजवादी पार्टी के साथ संगठित होने लगे तब उस लड़ाई को कमजोर करने का सबसे बड़ा माध्यम था समाजवादी पार्टी से मुसलमानों को दूर करने का षड़यन्त्र करना। अतीक की हत्या के साथ ही भाजपा द्वारा तैयार स्क्रिप्ट का पहला पाठ सामने आ जाता है। अब मीडिया और सोशल मीडिया के मध्यम से यह नैरेटिव सेट किया जाने लगता है कि ‘यदि अखिलेश चाहते तो अतीक को बचाया जा सकता था’। इस नैरेटिव को दबे कदमों से दुबारा सेट किया जाता है कि ‘अखिलेश मुसलमानों के साथ नहीं खड़े हैं।’ लंबे समय से अखिलेश के साथ खड़ा मुसलमान इस खेल में उलझ जाता है। उसे लगने लगता है कि अब उसे कोई और राजनीतिक ठीहा खोजना चाहिए। मीडिया बार-बार मुसलमानों  के सामने इस सवाल को दोहराने लगती है कि अतीक अहमद मुसलमान था, उसकी हत्या के बाद भी क्या मुसलमान सपा के साथ रहेगा?

जब मुस्लिम समाज को सरकार से सवाल करना चाहिए कि क्या इस सरकार में मुसलमान पूरी तरह से असुरक्षित है? तब वह भी मीडिया के उलटे नैरेटिव का शिकार हो जाता है कि ‘अगर अखिलेश मुसलमानों के साथ खड़े होते तो अतीक नहीं मारा जाता’। यह कैसे संभव है कि किसी अपराधी को कानूनी कार्यवाही से अखिलेश या कोई भी नेता बचा सके? अतीक पर कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए थे, इसलिए नहीं कि वह मुसलमान था, बल्कि इसलिए कि वह अपराधी था। लेकिन सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है किसी भी अपराधी को कानून द्वारा सजा दी जाए। अतीक सरकार की कस्टडी में था। उसकी सुरक्षा की पूरी और नैतिक जिम्मेदारी सरकार की बनती है। यह अखिलेश, मायावती या कांग्रेस की कमजोरी नहीं है। यह पूरी तरह से सरकार की विफलता है। बावजूद इस विफलता को स्वीकार करने के सरकार इसे प्रकृति का न्याय बता रही है।

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अब निकाय चुनाव के अंदर इतना समय नहीं है कि अखिलेश इस डैमेज को कंट्रोल कर सकें। दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अतीक की हत्या को लेकर अपने कमजोर प्रशासन का बचाव करते हुए अतीक अहमद की हत्या वाली जगह से तीन किलोमीटर के दायरे में ही रैली करते हुए कहते हैं कि, ‘अतीक की हत्या प्रकृति द्वारा बनाया गया बैलेंस है’। उन्होंने कहा कि, ‘प्रयागराज की धरती पर कुछ लोगों ने पापाचार किया है। ये प्रकृति न किसी पर अत्याचार करती है न सहती है। सबका हिसाब बराबर कर देती है।’

अब आने वाले समय में यह भी कहा जा सकता है कि सब विधान ऊपर वाले का है और सबको मान लेना पड़ेगा कि जहां जो कुछ भी अच्छा बुरा हो रहा है वह उसके लिए भला सरकार कैसे जिम्मेदार हो सकती है? क्योंकि धर्मशास्त्रों में तो बहुत पहले ही लिखा जा चुका है कि ऊपर वाले की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। पूरी सफाई के साथ योगी आदित्यनाथ अपनी सरकार की विफलता को छिपाकर अखिलेश यादव पर हमलावर हो जाते हैं और अखिलेश को तुष्टीकरण का पोषक बताते हुए कहते हैं कि, ‘हमने कभी तुष्टीकरण की बात नहीं की’। एक तरफ अखिलेश यादव को माफिया को बचाने और उन्हें संरक्षित करने का आरोप अखिलेश पर लगाते हैं तो दूसरी ओर सामाजिक विभाजन का प्रतीक भी अखिलेश को बनाने से नहीं चूकते।

दरअसल, इस निकाय चुनाव में योगी 2024 का बीज भी बो देना चाहते हैं। वह उस मुस्लिम ताकत और सामाजिक न्याय के पक्ष में एक हो रहे दलित और पिछड़े समाज की साझी ताकत और एकता के प्रयास से डरे हुए हैं। इसलिए किसी भी कीमत पर इस साझे को तोड़ना उनकी पहली प्राथमिकता है। इस चुनाव में अतीक की हत्या ने उनके मंसूबे को पूरा करने का माध्यम बना दिया है। प्रयागराज में इश्तिहार बांटे जा रहे हैं कि अतीक की हत्या के लिए अखिलेश भी जिम्मेदार हैं।

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यहाँ सबसे बड़ा पहलू यह है कि अखिलेश यादव, जिन्होंने डीपी यादव, अतीक अहमद और मुख्तार जैसे जिन लोगों से दूरी बनाई क्या वह दूरी धार्मिक स्तर पर थी? मुसलमान होना एक बात है और अतीक होना बिल्कुल अलग बात है। अपराधी के लिए अखिलेश ने कोई सहृदयता नहीं दिखाई और न ही कानून से इतर जाकर उनके खिलाफ कोई बयानबाजी की। उसकी वजह यह है कि वह हिन्दू, मुस्लिम के चश्मे से या जाति के चश्मे से राजनीति की पैरोकारी नहीं करना चाहते। किसी भी नेता को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के भीतर यह करने का हक नहीं होना चाहिए। संविधान में सबकी समान स्वतंत्रता की जो भावना है उसके अनुरूप काम करना चाहिए। किसी के साथ गलत हो तब वह किसी भी धर्म या जाति का हो उसके लिए आवाज उठाई जानी चाहिए और किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति यदि अपराध में संलिप्त पाया जाए तो उसके खिलाफ कानून को अपना काम करने देना चाहिए।

अखिलेश ने यही किया। उन्होंने अतीक अहमद या किसी भी हिन्दू-मुस्लिम के अपराध को धार्मिक या जातीय भावना का कवच पहनाकर संरक्षित करने का काम नहीं किया। अखिलेश की धर्मनिरपेक्ष ताकत ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जिससे मुसलमानों को अलग किये बिना भाजपा की सत्ता लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रह सकती है। इसको समझते हुए ईमान का हवाला देकर मुसलमानों को बेईमान बनाने का एक पूरा ट्रेंड विकसित किया जा रहा है। निकाय चुनाव में मुसलमान समाज इस ट्रेंड का शिकार होता दिख रहा है। वह पार्टी के बदलने और नया विकल्प तलाशने की कोशिश कर रहा है। असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता भाजपा की राह को आसान बनाने के लिए यह कहते दिख रहे हैं कि ‘जय श्री राम’ को वैन कर देना चाहिए और ‘अल्ला-हू-अकबर’ और ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे को बोलने की उन्हें संवैधानिक छूट मिलनी चाहिए। ओवैसी जैसे लोगों के इस तरह के विभाजनकारी बयान ही मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच घृणा की दीवार पैदा करते हैं। कट्टरता किसी की भी हो, यदि वह सांविधान के अनुरूप नहीं है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। संविधान को हाशिये पर रख कर हासिल की हुई ताकत आज नहीं तो कल अपराध के रूप में ही दर्ज की जाएगी। निकाय चुनाव में भाजपा मुसलमानों की संगठित आस्था को खंडित करने कीं पहली सीढ़ी पार करती दिख रही है।

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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