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मैं कभी किसी कहानी आंदोलन का हिस्सा नहीं रही

बातचीत का पहला हिस्सा आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताएं! पुराने घर की कुछ स्मृतियां? कलकत्ता में बीते बचपन की पुरानी स्मृतियों में एक चार तल्ले का मकान उभरता है। चौथे तल्ले पर मुख्य सड़क की ओर खुलते हुए बरामदे वाला एक कमरा–जहां की सींखचों को अपनी हथेलियों में थामे मैं बड़ाबाज़ार की […]

बातचीत का पहला हिस्सा

आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताएं! पुराने घर की कुछ स्मृतियां?

कलकत्ता में बीते बचपन की पुरानी स्मृतियों में एक चार तल्ले का मकान उभरता है। चौथे तल्ले पर मुख्य सड़क की ओर खुलते हुए बरामदे वाला एक कमरा–जहां की सींखचों को अपनी हथेलियों में थामे मैं बड़ाबाज़ार की उस बेहद व्यस्त सड़क पर चलती मोटरगाड़ियां और ट्रामे देखती। उस मकान में हर तल्ले पर बीसेक कमरे थे। हर तल्ले पर सीढ़ियों के बाईं तरफ कोने में एक सार्वजनिक शौचालय था। जिन परिवारों के पास एक से ज़्यादा कमरे में थे, वे ‘रईस’ की श्रेणी में आते। मुंबई में इस तरह कतार में बने हुए कमरों वाले मकानों को ‘चॉल’ कहा जाता है। कलकत्ता के उस मकान का बड़ा अजब नाम था –‘चूहामल की बाड़ी’। मकान के बीचो-बीच बड़ा सा खुला आंगन था जहां एक कोने में कूड़े का ढेर पड़ा रहता और दूसरी ओर बच्चों की पाठशाला होती। इसी पाठशाला में सभी बच्चों के साथ मैं दो एकम दो, दो दूनी चार के सुर-लय बद्ध पहाड़े पढ़ती ज़िसकी आवाज़ चौथे तल्ले तक गूंजती। शायद मैं चार साल की रही हूंगी, जब बच्चों के गाने के नाम पर मैंने पहाड़े ही सुने और वे पहाड़े इस कदर कर्णप्रिय लगते कि उस चॉल से निकल कर जब भवानीपुर में शंभूनाथ पंडित स्ट्रीट के रतन भवन में पिता ने अढ़ाई कमरे का फ्लैट लिया, तो मुझे पचास–साठ बच्चों के समवेत स्वर में पहाड़े बहुत याद आते।

 आपका जन्म लाहौर में हुआ? उस वक्त की कुछ यादें?

मां, जिन्हें हम बीजी कहते थे, लाहौर में थीं। आज़ादी से लगभग एक साल पहले मेरा जन्म विभाजन पूर्व पाकिस्तान लाहौर में कूचा कागजेयां के मोची दरवज्जे वाले मोहल्ले में हुआ। मैंने लाहौर नहीं देखा पर लाहौर के गली मुहल्लों की अनगिनत कहानियां अपनी दादी नानी की ज़बान से सुनी हैं। सवा महीने की थी तब मां लाहौर से कलकत्ता आई। लाहौर के सुने हुए किस्सों में एक यादगार किस्सा यह भी है कि हमारे दादाजी के बहुत से मुसलमान दोस्त थे। मुस्लिम बहुल इलाके अकबरी मंडी में दादाजी की किराने की दुकान थी, जहां-खाने पीने का सामान ही अधिक मिलता था। दादाजी को सब चौधरी बुलाते थे और वह दुकान चौधरी की दुकान नाम से मसहूर थी। उनका एक जिगरी दोस्त अलादीन इस दुकान में उनका पार्टनर था।

एक बार शहर में हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़क गए। हिन्दू इलाके में खून खराबा हुआ तो दंगई अकबरी मंडी में घुस आए। दुकान बाहर उन्होंने शोर मचाना शुरू किया कि चौधरी को बाहर निकालो। सचमुच दादाजी को दुकान के अंदर छुपा दिया गया था। पूरी उन्मादी भीड़ के सामने अलादीन गिरे हुए शटर के आगे खड़ा हो गया कि मुझे मारो पहले, तब अन्दर जाना और जबरदस्ती की तो मैं अपने को चाकू मार लूंगा। रात को जब दंगई चले गए और इलाका शांत हुआ तो अलादीन अपने दोस्त चौधरी को लेकर रंगमहल के चौक तक सुरक्षित पहुंचा आया, जहां से हिंदू मोहल्ला शुरु होता था। बाद में दादाजी ने दूकान जाना बंद कर दिया और अलादीन से कहा- ‘अपने वास्ते मैं तेरी जान खतरे में नहीं डालना चाहता। तू दूकान संभाल, मैं मच्छी हट्टे में ही कुछ और करुंगा।’ अलादीन ने स्थितियों की नज़ाकत को समझा, पर बिना रुपए पैसे का पूरा बन्दोबस्त किए बिना वो नहीं माना। दोनो दोस्त अलग होते हुए गले लग कर खूब रोए। दादी पुरातनपंथी थीं और दादाजी के मुस्लिम दोस्तों से ईद-दिवाली की सारी रवायतें निभाने के बावजूद उनके खाने और चाय पीने के थाली-लोटे अलग, पैरों के पंजो पर उचक कर हाथ की पहुंच भीतर ऊपर की परछत्ती पर धो- पोंछ कर उलटाकर रख जाते थे। थाली-लोटे की छुआछूत मानते हुए भी हिंदू-मुस्लिम पड़ोसियों के बीच भाईचारे और सौहार्द में कोर कसर नहीं बचती थी। आज पचास साल बाद थाली-लोटे का परहेज़ तो नहीं रहा पर दिलो पर उमग कर जगह बनाने वाला भाईचारा और सौहार्द धो- पोंछकर हाथ की पहुंच के बारे परछत्तियों पर उलटा कर रख दिया गया है। नफरत और हिंसा का जुनून, आंखो में अंगारे की तरह संजोए हुए साम्प्रदायिक दंगो में लाठियां घुमाते ये आज के नौजवान क्या जानें भाईचारे और सौहार्द का अर्थ? ये तो हमारे राजनेताओं के हाथ की कठपुतलियां हैं, जिनके चलने फिरने हिलने की डोर उनकी उंगली में फंसी हैं, जो खुद सुरक्षित दरवाजों के भीतर रह कर सड़क पर चलते मासूम लोगों को मोहरा बनाकर आपस में लड़वाकर मुर्गों का तमाशा देखते हैं।

[bs-quote quote=”साहित्य में मां और पापा के साहित्यिक रुझान के अलावा लेखन के दो कारण थे-एक राजेंद्र यादव-जिनकी किताबें मेरे पापा ज़बरदस्ती मुझे पढ़ने को कहते और दूसरा-मेरी बीमारी, जिसे लेकर मैं महीने में छह सात दिन पलंग पर लेटी रहती। अक्सर हम कविता को पीड़ा और व्यथा से जोड़ते हैं। मुझे लगता है, किसी भी रचनात्मक विधा के लिए एक क़शिश या चोट का होना बहुत ज़रूरी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

बचपन में भी ज़रुर पढ़ने–लिखने का वातावरण घर–परिवार से मिला होगा ?

हमारा परिवार एक सामान्य मध्यवर्गीय दक़ियानूसी मान्यताओं वाली पृष्ठभूमि से था। उस समय जब, ऐसे परिवारों की, लड़कियों की शादी, बारह-चौदह या पन्द्रह-सोलह साल की उम्र में कर दी जाती थी, मेरी मां की शादी अठारहवें साल में हुई। मां लाहौर की वैदिक पुत्री पाठशाला में हिन्दी में प्रभाकर पास कर चुकी थीं और साहित्य रत्न–जो एम. ए. की कक्षा के बराबर था– कर रहीं थीं। पढ़ाई में मां काफी ज़हीन थीं और पढ़ाई के दौरान कविताएं लिखा करती थीं और किताबों के बीच छिपाकर रखती थीं। मां–पापा दोनों में हिन्दी साहित्य के प्रति गहरा लगाव था।

पापा कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से बी. कॉम कर रहे थे और भाषण प्रतियोगिता में हमेशा अव्वल आते थे। कलकत्ता में पापा के दोस्त थे राजेन्द्र यादव। तब राजेंद्र यादव की शादी नहीं हुई थी। रतन भवन वाले घर में उनका काफी आना–जाना था। हम सात भाई बहनों में से छोटा भाई पापा से डांट खाने के बावजूद, उन्हें लंगड़े चाचाजी कहता था क्योंकि वह बैसाखियों के सहारे बड़ी मुश्किल से तीन तल्ले की सीढ़ियां चढ़ते थे। हर रविवार को वह बीजी के हाथ के आलू सोया के परांठे खाने आते । बीजी को बड़े प्रेम से वह भाभी कहते और पापा को साले कहे बगैर बात नहीं करते।

बेहद कम उम्र में लिखना शुरु करने का कारण यही साहित्यिक माहौल था ?

नहीं, इसके कारण बिल्कुल दूसरे थे। बचपन में मैं काफी बीमार रहती थी। कई-कई दिन स्कूल से अनुपस्थित रहना पड़ता। दादा की बेहद लाड़ली पोती थी। दादा मुझे लेकर वैद्य–हकीमों के चक्कर काटते रहते। देखने में बिलकुल सींक-सलाई थी। हर दस दिन बाद खांसी, सर्दी, बुखार और सांस की तकलीफ हो जाती। तेरह साल की उम्र में वह तकलीफ तो अपने आप ठीक हो गई, पर एक अजीब – सी बीमारी शुरू हो गई। हर पन्द्रह बीस दिन में मेरे बाएं हाथ की कुहनी सूजकर पारदर्शी गुब्बारा हो जाती और दर्द से मैं बेचैन रहती। ऐसा लगता, जैसे बांह के उस हिस्से में पानी भर गया है। हाथ एक ही पोजीशन में रहता। न कपड़े बदले जाते, न करवट बदली जाती। यह स्थिति पांच–छह दिन रहती, फिर ठीक हो जाती। घर का इकलौता बर्मा टीक का वह नक्काशीदार एंटीक पलंग ठीक खिड़की के पास था, जहां से पीपल का पेड़ दिखाई देता था। मां के पास इतना समय नहीं था कि वह मेरे सिरहाने बैठी रहतीं । मेरे अलावा मुझसे छोटे छह भाई बहन थे। सो मां ने मेरे हाथ में एक खाली डायरी थमा दी और मैं लेटे लेटे कवितानुमा कुछ या डायरी लिखा करती। डायरी लिखने से ही मेरे लेखन की शुरुआत हुई।

साहित्य में मां और पापा के साहित्यिक रुझान के अलावा लेखन के दो कारण थे-एक राजेंद्र यादव-जिनकी किताबें मेरे पापा ज़बरदस्ती मुझे पढ़ने को कहते और दूसरा-मेरी बीमारी, जिसे लेकर मैं महीने में छह सात दिन पलंग पर लेटी रहती।

अक्सर हम कविता को पीड़ा और व्यथा से जोड़ते हैं। मुझे लगता है, किसी भी रचनात्मक विधा के लिए एक क़शिश या चोट का होना बहुत ज़रूरी है।

वे कविताएं कहीं छपीं? कहानी लेखन की ओर कैसे मुड़ गईं? आपने काफी छोटी उम्र में सारिका-धर्मयुग में छपना शुरु कर दिया था। इसकी वजह?

तेरह साल की उम्र में मैंने मैं नीर भरी दुख की बदली  छाप कविताएं लिखनी शुरु कीं जो बाद में नयी कविता के मुक्त छंद में बदल गईं। हर साल अपने स्कूल की वार्षिक पत्रिका में मेरी कविताएं लगातार छपती और प्रंशसित होती रहीं। अपनी कविताएं मुझे निहायत बचकानी लगती थीं पर स्कूल की पत्रिका में उन्हें खूब वाहवाही मिलती थी।

कहानी की शुरुआत एक हादसे की तरह हुई। 1964 का वह दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है जब चाचा नेहरू की मृत्यु हुई थी और सब रेडियो के इर्द-गिर्द सिमट आए थे। बड़े, बच्चे, बूढ़े सब बिलख रहे थे। मैं क़रीब एक सप्ताह से लगातार बिस्तर पर थी। न इस बीमारी का कोई नाम था, न इलाज। बस, डायरी में ही लेटे- लेटे प्रेम की एक काल्पनिक स्थिति ने जन्म लिया और एक भावुक सी कहानी लिख डाली। इस कहानी का शीर्षक था –एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत । इसे लिख चुकने के बाद मैं अपनी बीमारी की हताशा से एक हद तक उबर आयी। लेखन एक बढ़िया निकास का जरिया या आउटलेट हो सकता है, यह समझ में आ गया थ। संभवत: मेरे लेखन काल की यह सबसे कमज़ोर कहानी है। नवनीत के अक्टूबर 07 अंक में ‘मेरी पहली कहानी’ के स्तंभ में यह कहानी छपी है । सन् 1964 में सारिका के संपादक चंद्रगुप्त विद्यालंकार थे। कहानी की स्वीकृति उन्होंने भेज दी पर जब तक यह कहानी छपी, तब तक मेरी तीन कहानियां ज्ञानोदय , धर्मयुग और रुपाम्बरा आदि पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी थीं।

इसमें संदेह नहीं कि कोई भी कला व्यक्ति को कुंठा, निराशा, हताशा, अकेलेपन की खाई से हाथ पकड़कर बाहर निकालने में सहायक होती है। इस कहानी ने भी मेरे लिए संजीवनी का काम किया और काल्पनिक प्रेम जीवन की वास्तविकता में बदल गया लेकिन वह एक अलग दास्तान है।

बाद में 1966 में मैंने इसी कुहनी की बीमारी पर एक गैर भावुक कहानी निर्मम लिखी जो कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ अगस्त: 1966 में छपी थी। इस बीच धर्मयुग, सारिका, माध्यम, कल्पना, लहर, उत्कर्ष, युयुत्सा, शताब्दी, कहानी आदि कई पत्रिकाओं में कहानियां 1964- 1967 तक छप गई थी। 1967 में मेरा पहला कहानी–संग्रह बग़ैर तराशे हुए छप गया था, जब मैं एम.ए. की छात्र थी।

[bs-quote quote=”मुझे अपनी शुरुआती कहानियां बेहद बचकानी लगती हैं। मैंने उन कहानियों को कभी पहले संग्रह के अलावा कहीं संकलित नहीं होने दिया। मैं आज भी समझ नहीं पाती कि उन कहानियों में चर्चित होने जैसा क्या था! एक वजह शायद यह भी रही होगी कि उस वक्त हिंदी लेखन के परिदृश्य पर लेखिकाएं उंगलियों पर गिनी जाने लायक थीं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

1964 में ज्ञानोदय में छपी आपकी पहली कहानी ‘मरी हुई चीज़’ काफी चर्चित रही। यह कहानी कैसे लिखी गयी? …..और उसके बाद की कहानियां?

यह पहली लिखी हुई कहानी नहीं थी। जैसा कि उस उम्र में स्वाभाविक था, व्यक्तिगत जीवन में किसी कथानायक की उपस्थिति के बिना ही मैंने कुछ गढ़ी हुई प्रेमकथाएं और कविताएं लिखीं। उन्हीं में से एक कहानी थी-मरी हुई चीज़, जो मेरी पहली प्रकाशित कहानी थी और कलकत्ता से ही प्रकाशित पत्रिका ज्ञानोदय, के सितंबर 1965 अंक में प्रकाशित हुई थी। कोई विश्वास नहीं करेगा कि इस कहानी का कथानायक बिल्कुल काल्पनिक है। मेरे दादाजी स्थायी रुप से हरिद्वार शिफ्ट हो गए थे और हम तीन–चार भाई बहन हर साल छुट्टियों में हरिद्वार, ऋशिकेष, देहरादून, मसूरी जाया करते थे। यात्रा संस्मरण लिखने की कशिश को कहानी विधा में ढाल दिया। उन दिनों मुझे कहानी लेखन का क–ख–ग भी मालूम नहीं था, पर इस कहानी पर मिली अप्रत्याशित प्रतिक्रियाओं ने एकाएक मुझे ’लेखिका‘ के आसन पर बिठा दिया।

मुझे अपनी शुरुआती कहानियां बेहद बचकानी लगती हैं। मैंने उन कहानियों को कभी पहले संग्रह के अलावा कहीं संकलित नहीं होने दिया। मैं आज भी समझ नहीं पाती कि उन कहानियों में चर्चित होने जैसा क्या था! एक वजह शायद यह भी रही होगी कि उस वक्त हिंदी लेखन के परिदृश्य पर लेखिकाएं उंगलियों पर गिनी जाने लायक थीं। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा के बाद उभरती पीढ़ी में सिर्फ ममता अग्रवाल और अनीता औलक का नाम था। मुझे इन उभरते नामों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का जरा भी अंदेशा नहीं था। उन दिनों तो मैं एक जुनून की तरह लिखती थी। मौत, निराशा और अवसाद से उबरने का मुझे एक आउटलेट मिल गया था। अपने पहले प्रेम के भीषण भावात्मक धक्के से उबरने के बाद मैंने कहानी लेखन को गंभीरता से लेना शुरु किया और 1968 के बाद मैंने बलवा, युद्धविराम, दमनचक्र आदि कहानियां लिखीं, वे एक किशोर अवस्था की भावुकता से बाहर आकर लिखी गयीं अपेक्षाकृत ठहराव और नज़रिए के व्यापक होने का प्रमाण थीं।

लेखन आपकी पहचान है या ज़रूरत ?

सोलह-अठारह साल की उम्र में किया गया लेखन एक अपरिपक्व मस्तिष्क की उपज था पर उस लेखन ने भी मुझे जो पहचान दी और लेखक होने का तमगा ससम्मान मेरी पोशाक पर टांग दिया, उसने धीरे- धीरे इसे गंभीरता से लेने को मजबूर किया। बीच में सन् 1980 से 1993 तक जब एक लम्बा अंतराल और लेखकीय अवरोध-मेन्टल ब्लॉक-मेरे लेखन में आया, तब मुझे महसूस हुआ कि लेखन मेरी कितनी बड़ी ज़रूरत बन चुका है। बारह-चौदह साल बाद जब दुबारा मैंने लिखना शुरु किया- लेखन मेरे लिए एक थेरेपी, एक चिकित्सा बन चुका था।

लेखक होने में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा ?

एक स्त्री रचनाकार के लिये लेखक होने में सबसे बड़ी रुकावट उसकी अपनी सेल्फ सेंसरशिप है। 1999 में दिल्ली के संस्कृति ग्राम में विभिन्न भाषाओं की महिला रचनाकार जब एक जगह एकजुट हुईं तो बहुत सी स्त्रीगत असुविधाएं और समानताएं सामने आईं। बहुत कुछ ऐसा है जो वह लिखना चाहती हैं और अनगिनत सामाजिक दबावों के चलते लिख नहीं पाती। जिस तरह अपने जीवन में वह समझौते करती चलती हैं, वैसे ही लेखन में भी कविता या कहानी की आड़ में वह दाएं–बाएं होकर ही अपना बयान देती हैं। हिन्दी से इतर भाषाओं की कई महिला रचनाकारों ने एक छद्म नाम से लिखना शुरु किया। जिन्होंने अपने नाम से लिखा, उसे परिवार वालों से छिपाकर रखा। कई बार पकड़े जाने पर उन्हें अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ा। यह उन रचनाकारों की स्थिति है जिन्होंने अधिकांशत: नारीवादी लेखन ही किया। मेरे लिए भी एक लंबे समय तक मेरा अपना प्रतिबंध मेरे लेखन पर हावी रहा, चुप्पी के लंबे बारह साल भी वही अनचीन्हा दबाव बना रहा और उसके बाद भी –जो अब साठ साल की उम्र में मुझे बेखौफ होकर रास्ता दे रहा है ।

आपके प्रारम्भिक कहानी संग्रह जब आए तब कहानी चर्चा के केन्द्र में थी । अब कैसे याद करती हैं वह दौर ?

पहला कहानी संग्रह 1967 में आया, दूसरा ‘युद्धविराम’ 1977 में। उस वक्त कहानी हिन्दी साहित्य की सबसे चर्चित विधा थी। हालांकि मेरा यह पहला कहानी संग्रह जो 21 साल की उम्र में छप गया था, मुझे लगता है कि वे कहानियां रूमानी भावुकता की कहानियों का इममेच्योर संकलन था –पर उस वक्त चूंकि लेखिकाएं उंगलियों पर गिनी जाने लायक थीं, और कहानियों में एक बेलाग, बेलौस किस्म की सहजता सपाट बयानी और अनगढ़पन था जैसाकि हर लेखक की प्रारंभिक रचनाओं में और शुरुआती पहली किताब में होता है, जब उसके अंदर अपनी ही रचनाओं के लिए एक समीक्षक नहीं बैठा होता और वह एक सहज प्रवाह में अनवरत लिखता चला जाता है  ।

सारिका, नई कहानी, कहानी शुद्ध कथा पत्रिकाएं थीं। चालीस साल पहले का वह दौर और आज का दौर एक दूसरे का विलोम हैं। आज के दौर का लेखक उस दौर की कल्पना भी नहीं कर सकता, जब साप्राहिक हिन्दुस्तान या धर्मयुग में छपी एक-एक कहानी पर अढ़ाई–तीन सौ पाठकों के पत्र आ जाते थे। आज  ‘हंस‘ या ’कथादेश‘ में छपी एक कहानी पर दस–बीस पत्र आ जाएं तो लेखक निहाल हो जाता है। जबकि आज के दौर में भी बिल्कुल नये लेखकों द्वारा बेहतरीन कहानियां लिखी जा रही हैं। इधर नये लेखक–लेखिकाओं द्वारा बड़ी सशक्त कहानियां पढ़कर  दंग रह जाना पड़ता है – इतनी नपी तुली जानदार भाषै और अछूते विषय। पर कहानी विधा के पाठक कम हो गए हैं, इसमें संदेह नहीं।

[bs-quote quote=”एक स्त्री रचनाकार के लिये लेखक होने में सबसे बड़ी रुकावट उसकी अपनी सेल्फ सेंसरशिप है। 1999 में दिल्ली के संस्कृति ग्राम में विभिन्न भाषाओं की महिला रचनाकार जब एक जगह एकजुट हुईं तो बहुत सी स्त्रीगत असुविधाएं और समानताएं सामने आईं। बहुत कुछ ऐसा है जो वह लिखना चाहती हैं और अनगिनत सामाजिक दबावों के चलते लिख नहीं पाती।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

समान्तर कहानी आन्दोलन से जुड़ाव कैसे हुआ ?

समान्तर कहानी आंदोलन से मेरा जुड़ाव इतना ही था कि मेरे पति जितेन्द्र भाटिया इसके पुरोधा कमलेश्वर का दाहिना हाथ थे और पति की लीक पर पत्नी का चलना स्वाभाविक मान लिया जाता है, इसलिए लोगों ने मुझे ज़बरदस्ती समांतर के खेमे में ढकेल दिया जबकि न मैं समांतर आंदोलन के साथ थी, न अकहानी के साथ, न सचेतन कहानी के साथ। समांतर कार्यक्रमों में भी मै सिर्फ़ राजगीर और मांडू के सम्मेलनों में बतौर जितेंद्र भाटिया की पत्नी ही शामिल हुई थी। इसके अलावा कालीकट, छिंदवाड़ा, कच्छ के गांधीधाम–कहीं भी मेरी उपस्थिति दर्ज नहीं हुई। मैंने अपने को कभी किसी कहानी के आंदोलन के साथ खड़ा नहीं पाया। कमलेश्वर ने जो ‘समांतर’ संकलन सम्पादित किया था, उसमें भी मेरी कहानी नहीं थी ।

समान्तर कहानी आन्दोलन पर आरोप लगाया जाता है कि विचारधारा से कतराकर वायवीय कहानियां लिखी गईं।आप कैसे मूल्यांकन करती हैं ?

इसके बारे में समांतर दौर के कथाकार अधिक प्रामाणिक जानकारी दे सकते हैं। इस समांतर आंदोलन की इतनी सार्थकता अवश्य थी कि इसमें इतर भाषाओं के सभी प्रगतिशील सोच के लेखक और मराठी के दलित लेखक भी शामिल थे जो उस वक्त मुख्यधारा में आने की कोशिश में थे और समांतर कहानी आंदोलन ने भारतीय भाषाओं के प्रगतिकामी लेखकों को एक साझा मंच दिया था। इसमें संदेह नहीं कि एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका के कारण सुविधा और अवसर उपलब्ध थे पर इनके अगुआ में आम आदमी का मसीहा बनने की महत्वाकांक्षा शामिल थी, इसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

क्रमशः 

पल्लव जाने-माने युवा आलोचक और बनास जन  पत्रिका के संपादक हैं। फिलहाल वे हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। 

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