दूसरा हिस्सा
बसंता जी और घर के अन्य लोग बारात के विदा होने की तैयारी और अन्य रस्मों में व्यस्त हो गए थे और चाय सर्व किए जाने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी। मेरी तरह कर्मराज भी ‘चाय की चपास’ के मरीज हैं और दिन में कम से कम 4-5 बार चाय अवश्य पीते हैं। चाय न मिलने से सिर में दर्द सा होने लगा था। लगता है बसंता जी के यहाँ लोग चाय के ज्यादा शौकीन नहीं हैं अन्यथा हम जैसों की व्यथा को समझते और हमें चाय अवश्य पिलाते। मैं अब आगे की यात्रा के बारे में सोचकर परेशान था। मैंने किसलय जी को सुझाव दिया कि क्यों न हम बसंता जी से कहकर किसी एक ऐसे व्यक्ति का जुगाड़ कर लें जो कार अच्छी तरह से चलाना जानता हो और स्वयं इस बारात में जाने वाला हो। किंतु किसलय जी ने साफ मना कर दिया कि वे अपनी कार अनजान व्यक्ति को नहीं सौंपेगे और यह भी कि वे अब अपनी कार को अच्छी तरह से चला लेंगे, अत: चिंता की कोई बात नहीं है।
हम सड़क पर आए और वहाँ खड़े ड्राइवरों से पूछा कि क्या इस रोड पर आस-पास कहीं कोई चाय की गुमटी है। पता चला कि यहाँ से 200 मीटर दूरी पर एक गुमटी है किंतु आज वह बंद है क्योंकि चायवाले के यहाँ कोई मांगलिक कार्यक्रम है। उनके मुताबिक चाय पीने के लिए पाली बाजार ही जाना होगा। हमने तय किया कि अपनी कार में बैठकर हम पहले पाली बाजार जाएँगे और वहाँ मैं जुकाम की दवा लूंगा और हम किसी दुकान पर चाय पिएंगे और सीधे विवाह स्थल जाने के लिए प्रस्थान कर देंगे। हमने बसंता जी को अपना प्लान बता दिया। उन्होंने बनारस से आए गेरूआ वस्त्र पहने, लंबी दाढ़ी और जटाधारी साधू बाबा को हमारी कार में यह कहकर बैठा दिया कि ये हमारे गुरुजी हैं और आप भी बारात में शामिल होंगे।
[bs-quote quote=”मैं सोच रहा था कि कर्मराज जी के नेतृत्व में कहीं मेरा अनुभव भी ‘भूसा ढोऊब…’ वाली कहावत जैसा तो नहीं होने जा रहा है। नहीं, ऐसा नहीं हो रहा था। सच कहूँ तो मैं एक 73 वर्षीय व्यक्ति की ऊर्जा, जोश और मस्त-मौले स्वभाव का कायल हो चुका था। जीवन में दु:ख-सुख, हानि-लाभ तो लगा ही रहता है। वह जिंदगी ही क्या जो हमेशा सीधी रेखा पर ही चले, उसमें कोई उतार-चढ़ाव न आए और हम सुखकर चीजों के ही आदी बनकर रह जाएँ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हम पाली बाजार आए और एक चाय की दुकान पर रुके। किसलय जी ने चाय का आर्डर दिया। दुकानवाले से हमने आस-पास स्थित दवाई की दुकान के बारे में पूछा तो उसने बताया कि थोड़ी दूर आगे जाने पर दाहिनी पटरी पर ‘गुप्ता मेडिकल स्टोर’ नाम से दवा की बड़ी दुकान है जहाँ हर प्रकार की दवा मिलती है। मैं पूछता-पाँछता वहाँ तक पहुँचा और 30 रुपए में तीन खुराक दवा ली जिसमें एक खुराक तुरंत लेनी थी और शेष दो अगले दिन। मैं चायवाले के पास लौटा और उससे पानी मांगकर दवा ली और फिर मिट्टी के कुल्हड़ में दूधवाली कड़क चाय पी तो तन-मन में थोड़ी स्फूर्ति आई।
इस बीच किसलय जी विवाह स्थल वाले गाँव-यानी कूढ़ा (सिउरा), गुलजारगंज तक जाने के लिए ‘शार्टकट’ रास्ते का रोड मैप मालूम कर चुके थे। उनके मुताबिक हम यहाँ से आधा कि.मी. पीछे जाएँगे और वहाँ से मोकलपुर जाने वाली सड़क पकड़ेंगे। मोकलपुर पहुँचकर हम बेलवाँ बाजार का रास्ता पकड़ेंगे और फिर वहाँ से बड़ेरी बाजार जाएँगे और वहाँ किसी से कूढ़ा गाँव का रास्ता पूछ लेंगे। अब सूर्यास्त हो चला था और अंधेरे ने दस्तक दे दी थी। हमारी कार मोकलपुर की ओर बढ़ चली। रास्ते में कर्मराज जी ने एकाधिक बार जिक्र किया कि वे इस इलाके में कई बार आए हैं, क्योंकि यहाँ उनकी की रिश्तेदारियां है। यह शार्टकट हमें कितने लांगकट की ओर धकेल देगा, इसका इलहाम हमें नहीं था।
[bs-quote quote=”मुझे प्रो. बसंता जी पर भी क्रोध आ रहा था कि श्रीमान जी, यदि आपने मेरे लिए जुकाम की दवा का जुगाड़ करवा दिया होता और हमारे लिए एक-एक प्याली चाय की व्यवस्था करवा दी होती तो हमें न तो अलग यात्रा करनी पड़ती और न ही यह मुसीबत झेलनी पड़ती। सच तो यह है कि यदि आप रात में इस इलाके में यात्रा कर रहे हों तो गाँव की बदहाल अंदरुनी सड़कों की बजाए आपको बाहरी मुख्य सड़कों से होकर यात्रा करनी चाहिए, भले ही आपको कुछ कि.मी. ज्यादा गाड़ी चलानी पड़ जाए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब हमारे क्षेत्र में लगभग सभी गाँव सड़कों से जोड़ दिए गए हैं। यह अलग बात है कि बनने के कुछ समय बाद ही ये सड़कें टूट-फूट जाती हैं और मरम्मत के अभाव में वाहन चालकों के लिए कष्ट का सबब बन जाती हैं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर तिराहा/चौराहा आ जाता तो गाड़ी रोककर हमें रास्ता पूछना पड़ता। पहले मोकलपुर, फिर बेलवां बाजार और आगे बड़ेरी बाजार तक हमें बीसों जगह रुककर रास्ता पूछना पड़ा क्योंकि रात घिर आई थी और रास्ता अनजाना था। बड़ेरी बाजार से कुछ कि.मी. पहले टायरों से खड़र-पड़र की कुछ आवाजें आने लगीं तो किसलय जी ने कहा, “गुलाब जी, लगता है हमारी कार का कोई टायर पंक्चर हो गया है। इसलिए यह आवाज आ रही है।“ यह सुनकर मैं और पीछे बैठे बाबाजी दोनों सकते में आ गए कि अब तो बड़ा संकट आ गया।
हम नीचे उतरे और अपने-अपने मोबाइल की टार्च से कार के चारों टायरों का सूक्ष्म निरीक्षण किया और यह देखकर हम सबने राहत की सांस ली कि सभी टायर सही-सलामत थे। अब लगभग साढ़े सात बज रहे थे और हम बड़ेरी बाजार पहुँच गए थे। वहाँ एक दुकानदार ने बताया कि आगे जो नहर की पुलिया आएगी उससे दाहिनी ओर की सड़क पर हम चले जाएँ तो आगे 4-5 कि.मी. दूरी पर हमें कूढ़ा गाँव मिल जाएगा। यह सड़क भी टूटी-फूटी थी और यहाँ भी दो-तीन तिराहा आने पर हमें रास्ता पूछने के लिए गाड़ी रोकनी पड़ी। बसंता जी ने बताया था कि नहर की सड़क से नीचे आने पर ‘फुटहवा इनारा’ गाँव पड़ेगा जहाँ से बाईं ओर का रास्ता हमें पकड़ना होगा । यह पूरा क्षेत्र ‘तलहा’ है अत: आबादी की बसावट काफी विरल है। थोड़ा आगे आने पर पुन: एक तिराहा दिखा तो हम रुक गए कि अब कौन सा रास्ता पकड़ें। फिर ध्यान आया कि बसंता जी ने बाईं वाली सड़क लेने के लिए कहा था। अतः हम बाईं ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ चले जो वस्तुत: पक्का न होकर कच्चा ही था।
अभी हम इस रास्ते पर कुछ मीटर ही आगे बढ़े थे कि एक झटके के साथ कार किसी नाली में फँसकर यूँ रुकी कि कई प्रयासों के बावजूद भी आगे नहीं बढ़ सकी। हम कार से बाहर आए तो देखा कि आगे एक पुलिया बनाई गई थी और खेतों के पानी की आवाजाही के लिए सड़क के बीचों-बीच सीमेंट की एक बड़ी मोटी पाइप बिछाई गई थी। किंतु इस सड़क पर गिट्टी-डामर न डाले जाने के कारण पाइप पर डाली गई मिट्टी बरसात में बहकर विलीन हो गई थी। भारी ट्रकों/ ट्रैक्टरों के गुजरने से यह पाईप बीच में टूट चुकी थी और उसका ऊपरी हिस्सा गायब था। हमारी कार के अगले दोनों चक्के इस टूटी पाइप के अंदर बुरी तरह से फंस चुके थे और बिना जुगाड़ के कार को बाहर निकालना असंभव था।
हमने आस-पास नजर दौड़ाई तो पाया कि सामने लगभग 200 मीटर दूरी पर एक मकान था जहाँ कुछ लोग दिखाई दे रहे थे। हमने मदद के लिए आवाज लगाई किंतु वहाँ से कोई वयस्क पुरुष हमारे पास नहीं आया, किंतु 11-12 साल की दो बच्चियां अवश्य आगे आईं। उन्होंने आते ही हमें हिम्मत बँधाई। उनमें से एक बच्ची न जाने कहाँ से तीन-चार साबूत ईंटें ले आयी और सुझाव दिया कि यदि इन्हें बाईं ओर के अगले टायर के नीचे रख दिया जाए तो संभव है कार इस टूटी पाईप की खंदक से बाहर आ जाए। पुन: कोशिश की गई किंतु कार के चक्के केवल तीव्र गति से घूमकर रह गये, बाहर नहीं निकल सके। उस सुनसान सड़क पर दूर-दूर तक कोई आदमी नजर नहीं आ रहा था। सामने वाले घर से लोग हमारी दशा का अनुमान तो लगा रहे थे किंतु मदद के लिए आगे नहीं आ रहे थे। अब मुझे किसलय जी पर गुस्सा आने लगा था कि, “महाशय! क्या जरूरत थी डींग हांकने की कि मैं इस कार को अच्छे से चला लेता हूँ और इस इलाके से वाकिफ हूँ। यह तो वही बात हुई कि बिच्छी क मंतर न जानइ अउर कीरा (साँप) के बिली में हाथ डालईं।“ मुझे प्रो. बसंता जी पर भी क्रोध आ रहा था कि श्रीमान जी, यदि आपने मेरे लिए जुकाम की दवा का जुगाड़ करवा दिया होता और हमारे लिए एक-एक प्याली चाय की व्यवस्था करवा दी होती तो हमें न तो अलग यात्रा करनी पड़ती और न ही यह मुसीबत झेलनी पड़ती। सच तो यह है कि यदि आप रात में इस इलाके में यात्रा कर रहे हों तो गाँव की बदहाल अंदरुनी सड़कों की बजाए आपको बाहरी मुख्य सड़कों से होकर यात्रा करनी चाहिए, भले ही आपको कुछ कि.मी. ज्यादा गाड़ी चलानी पड़ जाए।
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हमने देखा कि सामने वाले घर से कोई व्यक्ति इन बच्चियों को डांटकर वापस आने के लिए कह रहा था। किंतु वे गईं नहीं। वे हमारे कष्ट से दु:खी थीं और चाहती थीं कि कुछ जुगाड़ बने और हमारी कार बाहर निकल आए। अरे यह क्या! लगता है भगवान ने हमारी (और उन बच्चियों की भी) पुकार सुन ली थी और सामने से हमें एक ट्रैक्टर आता दिखा। ट्रैक्टर की आहट पाकर बड़ी वाली बच्ची खुश हो गई और हमसे बोली, “दादा जी, अब मत घबराइए। ये ट्रैक्टरवाले भैया जरूर आपकी मदद कर देंगे।“ हमने ट्रैक्टर को साइड में रुकवाया और ड्राईवर और उसके साथी को नीचे बुलाकर कार का मुआयना कराकर उपाय पूछा। ट्रैक्टरवाले ने सुझाव दिया कि पहले हम सब मिलकर इस कार को उठाकर पाईप से बाहर निकालें और पीछे खड़ा करें। फिर कार के अगले बाएं टायर को लक्ष्य करके पाइप में 4-6 ईंटे रखें। दाहिनी ओर करीब डेढ़ फुट मीटर साबूत पाईप थी, अत: कार बैक कर फिर से आगे ऐसे चलायी जाए कि कार के दाहिने पहिए साबूत पाईप वाले हिस्से के ऊपर रहें और बाएं पहिए टूटी पाइप में नीचे रखी गईं ईंटों के ऊपर आएं। बाबाजी और उन बच्चियों समेत हम सबने कार को ऊपर उठाया और पीछे कर खड़ा कर दिया। फिर किसलय जी ने कार स्टार्ट की और सावधानी पूर्वक उसे टूटी पाइप से बाहर निकाल लिया।
हमने ट्रैक्टरवालों को धन्यवाद और उन अनाम किंतु परोपकारी और साहसी बच्चियों को हृदय से आशीष दिया और ग्राम कूढ़ा, जो अब केवल एक कि.मी. दूरी पर था, की ओर बढ़ चले। अब बारात के टेंट और शामियाने की रोशनी दिखाई दे रही थी और हम जैसे-तैसे मंजिल तक पहुँचने में कामयाब हो गए थे। इस यात्रा में रह-रहकर मेरी स्मृतियां सन् 1980 से 1984 के दौरान की बारातों में की गई सहभागिता की ओर चली जाती थीं। मैं उस समय मुंबई में रहकर पढ़ाई करता था और गर्मी की छुट्टियों में एक-डेढ़ महीने के लिए गाँव चला आता था। उस समय हमारे इलाके में कृषक परिवारों के वैवाहिक कार्यक्रम गर्मी के मौसम में ही संपन्न होते थे। दिन भर हम गेहूँ के बोझ ढोकर थ्रेसिंग मशीन के पास इकट्ठा करते, उनकी मड़ाई करते और भोर में उठकर बोरों और झल्लियों में गेहूँ और भूसा भरकर अपने घर लाते। एक तो गर्मी का मौसम और तेज धूप और उस पर थ्रेसिंग से निकलनेवाले कणों/ कुनो से चेहरे यूँ पुत जाते थे कि हुलिया पहचान में नहीं आता था। गेहूँ के बोझों में सैकड़ों कीड़े-मकोड़े अपना आशियाना बनाये होते थे और जब हम सिर पर गेहूँ के बोझ रखकर चलते तो ये कीड़े-मकोड़े हमारे शरीर पर रेंगने लगते और कान-नाक में घुसने की कोशिश करते। इस मौसम में हम घमौरियों से भी खूब त्रस्त रहते। तब ट्रैक्टर से थ्रेसिंग का उतना प्रचलन नहीं था। डीजल पंप सेटों में थ्रेसरों की व्यवस्था कर गेहूँ की मड़ाई होती थी। यह सुविधा गाँव में गिने-चुने संपन्न लोगों के पास ही होती थी।
हमारे अंचल में बड़े-बूढ़े अक्सर एक कहावत कहा करते, “भूसा ढोई ल.. बराते जिन जा (अर्थात आप भले ही भूसा ढो लीजिए किंतु बारात में मत जाइए)।“ और यह कहावत कई बार सच साबित होती थी। उस समय बारात में एक एम्बेसेडर (जिसमें दुल्हा, बलहा, नाउ ठाकुर और घर के एक-दो वरिष्ठ सदस्य और एक-दो बच्चे बैठाये जाते थे), एकाध जीप और एक ट्रैक्टर भर का जुगाड़ किया जाता था। जो बहुत समर्थ होते थे वे एक या दो बस का प्रबंध कर लेते थे। मुझे अब भी याद है कि बस में सीट पाने के लालच में लोग दोपहर एक बजे ही वर पक्ष के घर के आस-पास मंडराने लगते थे। जो बच जाते थे वे अपनी-अपनी साइकिलों से बारात करने जाते थे। खुद मैंने 20-25 कि.मी. दूरी साइकिल से तय कर बारातों में सहभागिता की थी। लड़कपन में बारात जाने का अवसर हाथ लगने पर हमें बड़ी खुशी होती क्योंकि वहाँ मिठाई, पूड़ी-सब्जी खाने का अवसर मिलता था और कई बार नाच-नौटंकी या बिरहा देखने/सुनने का सुअवसर भी। किंतु कई बारातों में अनेक कष्टकारी अनुभव भी होते थे। जैसे रास्ता भटकना, साइकिल का पंक्चर होना, जलपान/भोजन का विलंब से और कम गुणवत्ता का मिलना, रात को सोने के लिए गद्दों का न मिलना, बारात में किसी बात पर लड़ाई-झगड़ा होना, साइकिल, पर्स, जूते-चप्पल का चोरी चला जाना, बैमौसम की बारिश से भीग जाना और आंधी-तूफान के चलते टेंट का धराशायी हो जाना आदि-आदि। उस समय अवश्य अफसोस होता कि हम क्यों बारात करने आए। न आते तो ही बेहतर होता, अपने घर का रुखा-सूखा खाकर चैन से आराम तो करते। तब मानना ही पड़ता कि ‘भूसा ढोऊब.. बराते न जाब’ वाली कहावत वाकई कटु सत्य बयां करती है।
मुझे आज भी याद है कि वह सन् 1982 के मई महीने का कोई दिन था। मैं अपने ननिहाल, ग्राम चनईपुर (जिला भदोही) अपने मामा के यहाँ आया था और कुछ दिन के लिए यहीं रुक गया था। मामा के पड़ोस से एक बारात करीब 15 कि.मी. दूर बनारस जिले के कालिकाबारा क्षेत्र के किसी गाँव में जानेवाली थी। ममेरे भाइयों ने मुझे भी साथ चलने को कहा और जीप में बैठने का जुगाड़ भी कर दिया। अगले दिन बारात विदा कराकर जब हम लौट रहे थे तो कालिकाबारा क्षेत्र में किसी गाँव के पास हमारे बारातियों ने स्कूल जानेवाली छात्राओं पर फब्तियां कस दीं और कुछ अनाप-शनाप टिप्पणियां कर दीं। इससे लड़कियां अपमानित महसूस कर रोने लगीं। यह माजरा देख रहे एक व्यक्ति ने तुरंत गाँव में जाकर शिकायत कर दी। फिर क्या था, हमारा काफिला कुछ कि.मी. दूर ही आया होगा कि पीछे से कई लोग मोटरसाइकिलों पर सवार होकर आए और हमारी दोनों जीपों और ट्रैक्टर को रुकवा दिया और एक-एक बाराती को नीचे उतारकर थप्पड़ों/लातों का ‘प्रसाद’ उदारता से बाँटा। बच्चियों ने जिन ‘खास’ लोगों को चिन्हित किया उनकी तो खूब जमकर धुनाई की गई। केवल धोती-कुर्ता धारी बुजुर्ग भर बख्शे गए थे जिन्होंने हाथ-विनती जोड़कर माफी मांगी और बारातियों को मुक्ति दिलवाई। हालत यह हुई कि अगले कई दिन तक अधिकांश बाराती हल्दी और सरसों के गर्म तेल से अपने-अपने बदन की सेंकाई कराते रहे और कुछेक को तो दवाखानों की शरण लेनी पड़ी थी।
मैं सोच रहा था कि कर्मराज जी के नेतृत्व में कहीं मेरा अनुभव भी ‘भूसा ढोऊब…’ वाली कहावत जैसा तो नहीं होने जा रहा है। नहीं, ऐसा नहीं हो रहा था। सच कहूँ तो मैं एक 73 वर्षीय व्यक्ति की ऊर्जा, जोश और मस्त-मौले स्वभाव का कायल हो चुका था। जीवन में दु:ख-सुख, हानि-लाभ तो लगा ही रहता है। वह जिंदगी ही क्या जो हमेशा सीधी रेखा पर ही चले, उसमें कोई उतार-चढ़ाव न आए और हम सुखकर चीजों के ही आदी बनकर रह जाएँ।
हम बारात में शामिल हुए और वहाँ कन्या के पिता-चाचा और कुछ अन्य प्रबुद्ध सज्जनों से मिलकर बातें कर हमें अच्छा लगा। प्रो. बसंता जी ने भी अपने रिश्तेदारों/मित्रों से हमारा परिचय कराया और जलपान की व्यवस्था की। शिव गौरव की बारात का काफिला ‘द्वारपूजा’ के लिए प्रस्थान कर चुका था और उनके मित्र/परिवारीजन/रिश्तेदार नाचते-झूमते आगे बढ़ते जा रहे थे। आतिशबाजी के चलते रह-रहकर आसमान सतरंगी छटा से सराबोर हो उठता था। डीजे का तीव्र संगीत पूरे परिवेश को झनझना रहा था और सभी युवा बाराती मस्ती में झूम नाच रहे थे क्योंकि वे जानते थे कि ‘आज मेरे यार की शादी है।’ हम भी द्वारपूजा की रस्म में में सहभागी हुए और अल्पाहार ग्रहण कर अपनी कार के पास आए। यहाँ भी अभी एक झटका लगना बाकी था।
किसलय जी ने संकेत किया कि कार की ड्राइविंग सीट के दाहिनी ओर का शीशा आधा खुला हुआ है। यह देखकर थोड़ी देर के लिए हम सन्न रह गए कि किसी चोर ने करामात कर दी है। कार की पिछली सीट पर किसलय जी का बैग रखा था और मेरी भी एक थैली वहीं रखी थी। मेरा ध्यान सबसे पहले कार के स्टिरियो सिस्टम पर गया क्योंकि चोर अक्सर इसे निकाल ही ले जाते हैं। यह देखकर हमने राहत की सांस ली कि कार से कोई सामान गायब नहीं हुआ था। किसलय जी ने शायद भूलवश खिड़की का कांच खुला छोड़ दिया था।
वापसी के रूट और रास्ते के बारे में अबकी बार किसलय जी ने किसी अनुभवी घराती से मार्गदर्शन ले लिया था। उन्होंने बताया कि सामने वाली सड़क पकड़कर सीधे 2-3 कि.मी. आगे जाने पर हमें मछलीशहर-जौनपुर वाली बड़ी सड़क मिलेगी जिस पर हमें बाएं मुड़ जाना है। वहाँ से ठीक 7 कि.मी. दूरी पर मछलीशहर कस्बा आता है। कस्बे में प्रवेश करने से पहले एक चौराहा आएगा जहाँ से हमें बाईं ओर की सड़क पर जाना है। यह सड़क मछलीशहर-मड़ियाहूँ रोड है और अच्छी स्थिति में है। अब रात के साढ़े दस बज चुके थे। मड़ियाहूँ से भदोही तो जाना-पहचाना रास्ता है ही। हमारी वापसी की यात्रा एकदम निरापद रही। रात का समय था, अत: सड़क पर वाहनों की आमदरफ्त कम थी। सड़क चौड़ी और अच्छी स्थिति में थी तो कार 60-70 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से सुगमता से दौड़ रही थी। मैंने गौर किया कि अबकी बार किसलय जीकार के गियर, पॉवर ब्रेक, एक्सिलेटर आदि का संतुलन साधने में कामयाब हो गए थे।
दूर आसमान में चंद्रमा भी हमें निहार रहा था और हो सकता है किसलय जी की वाहन चालन क्षमता और शार्टकट यात्रा के हमारे अनुभवों को देख-जानकर मन ही मन मुस्करा रहा था। जब हम रात 12 बजे के करीब हुलासपुर रोड, भदोही स्थित कर्मराज किसलय के घर पहुँचे तो पाया कि उनके घर के सभी वयस्क सदस्य जगे हुए थे। उनके चेहरों पर तनाव की रेखाएं खिंच आई थीं यानी वे भी इस पूरे समय यही दुआ कर रहे थे कि हमारी यात्रा सकुशल संपन्न हो जाए क्योंकि कार नई थी और 73 वर्षीय नौजवान ड्राईवर भी नया था। इस ज़िंदादिल ड्राईवर के हौसले और उत्साह के बारे में एक घटना का जिक्र तो रह ही गया। उसी 24 फरवरी की सुबह के समय किसलय जी अपने घर से थोड़ी दूर स्थित अपनी नौकरानी के घर खाने-पीने की कुछ चीजें देने के लिए पैदल जा रहे थे। रास्ते में पता नहीं कैसे एक कुतिया (जिसके 4-5 छोटे पिल्ले थे), इन पर अचानक झपट पड़ी और इनके दाहिने पैर की पिंडली में काट लिया। किसलय जी को रैबिज वाला इंजेक्शन लगवाना पड़ा था। फिर भी किसलय जी ने शादी में जाने का अपना फैसला नहीं बदला और मेरे साथ खुशी-खुशी पाली गाँव गए।
लगता है यदि अगली बार मैं गाँव आया और कहीं से बारात का निमंत्रण मिला तो ‘भूसा ढोने’ का विकल्प चुनना ही मेरे लिए श्रेयस्कर रहेगा।
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के कूसा गाँव में जन्मे गुलाब जी फिलहाल आईडीबीआई बैंक, मुंबई में उपमहाप्रबन्धक (राजभाषा) हैं। उनकी दो किताबें क्षमा करें, मैं हिन्दी अखबार नहीं पढ़ता और आधे रास्ते का सफर प्रकाशित हो चुकी ।
गुलाब अपनी यात्राओं का खूबसूरत वर्णन करते हैं। आधे रास्ते का सफर उनकी लाजवाब कृति है। और यहाँ भी। बधाई सर।