सियासत में संवेदनशीलता अलहदा विषय है। कौन कितना अच्छा सियासतदान है, इसके आकलन के कई मानदंड हो सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि संवेदनशीलता एक अहम कसौटी है। हालांकि वर्तमान में सियासत वैसी नहीं रही है, जिसकी कल्पना कभी हमारे संविधान के निर्माताओं ने की होगी। उन्होंने जरूर सोचा होगा कि आनेवाले समय में अच्छे संविधान आदि के कारण लोकतंत्र मजबूत होगा और पीढ़ियां संवेदनशील होंगीं। इसकी वजह यह रही होगी कि वे सभी आशावादी रहे होंगे।
वर्ष 2009 से मैंने सदन की कार्यवाहियों की रिपोर्टिंग की है। जब पहली बार बिहार विधान परिषद के पत्रकार दीर्घा में गया तब सचमुच देखकर अच्छा लगा था कि सदन की सारी सीटें भरी हुई थीं। सदन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे। सदन में उस दिन विपक्ष द्वारा हल्ला हंगामा भी हुआ लेकिन संवेदनशीलता का अहसास होता रहा। मेरी नजर सवालों पर थी। वह पहला मौका था जब ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, तारांकित और अतारांकित प्रश्नों के बारे में जान रहा था। हालांकि तब बहुत कुछ समझ में नहीं आया था। मेरे लिए प्रश्नों के इन कैटेगरियों से अधिक प्रश्न में उठाए गए मुद्दे महत्वपूर्ण थे। कोई पार्षद अपने इलाके में स्कूल का मामला उठा रहे थे तो कोई पटना विश्वविद्यालय में शिक्षकों की बहाली का। कोई संविदा के आधार पर काम करने वाले शिक्षकों के हितों का सवाल उठा रहे थे और कई ऐसे थे जो बाढ़ और जल प्रबंधन को लेकर फिक्रमंद थे।
[bs-quote quote=”मोदी जी को प्रधानमंत्री नहीं प्रचारमंत्री ही बने रहना चाहिए। आपको पता है कि कल लोकसभा में क्या हुआ। कल सोमवार को तारांकित प्रश्नों के जवाब सरकार की ओर से दिए जा रहे थे। कुल 20 सवाल थे और 14 सवालकर्ता सदस्य अनुपस्थित थे। इनमें 9 भाजपा के थे। जानते हैं इसका कारण?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उस दिन सदन की एक सकारात्मक छवि जेहन में बन गयी। यही छवि मेरे अंदर आज भी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष में कौन है, इसका कोई मतलब नहीं है। मतलब है कि सदन में क्या हो रहा है। हालांकि बाद के दिनों में अनेकानेक अप्रिय घटनाएं हुईं, जिनसे बिहार विधान मंडल की गरिमा को नुकसान पहुंचा। लेकिन इन सबके बावजूद मेरा मानना है कि चाहे वह विधान सभा हो, विधान परिषद हो या फिर लोकसभा व राज्यसभा, सभी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
कल ही एक वरिष्ठ साथी से बात हो रही थी। वे संसद की रिपोर्टिंग करते हैं। इन दिनों संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है। उनके मुताबिक, इस बार का सत्र बहुत खास है। इसके बावजूद कि हंगामे हो रहे हैं। सरकार को विधेयकों को पारित करवाने के दौरान विपक्ष के सवालों का जवाब भी देना पड़ रहा है। लेकिन अब पहले वाली बात नहीं रही।
मैंने पूछा कि अब इसका क्या मतलब कि अब पहले वाली बात नहीं रही? उन्होंने कहा कि पहले बात एकदम अलग थी। उनके मुताबिक डॉ. मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्होंने सबसे अधिक दिनों तक सदन की कार्यवाहियों में भाग लिया। वे नियमित रूप से सदन में आते थे। सदन में होनेवाली बहस को सुनते और देखते थे। तब देखकर अच्छा भी लगता था कि सदन का नेता सदन में मौजूद है। फिलहाल जो कुछ सदन में हो रहा है, वह निराश करनेवाला है।
कैसी निराशा? उन्होंने मजाकिया कहा कि नरेंद्र मोदी को संसद से कोई मतलब ही नहीं है। वह सबसे अनियमित रूप से संसद आनेवाले प्रधानमंत्री हैं।
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मैंने कहा कि यह मुमकिन है कि वह कुछ और काम कर रहे होंगे। इसमें निराशा कैसी?
मेरे वरिष्ठ साथी ने कहा– दोस्त, मोदी जी को प्रधानमंत्री नहीं प्रचारमंत्री ही बने रहना चाहिए। आपको पता है कि कल लोकसभा में क्या हुआ। कल सोमवार को तारांकित प्रश्नों के जवाब सरकार की ओर से दिए जा रहे थे। कुल 20 सवाल थे और 14 सवालकर्ता सदस्य अनुपस्थित थे। इनमें 9 भाजपा के थे। जानते हैं इसका कारण?
मैंने हंसते हुए कहा– जानता तो हूं लेकिन आप ही बता दें।
मेरे वरिष्ठ साथी ने कहा– सदन के नेता का चरित्र महत्वपूर्ण होता है। यदि सदन का नेता लंपट हो तो उसके लोग भी वैसे ही होते हैं। फिलहाल संसद में लंपटता अधिक है।
खैर, मैं इसे दूसरे तरीके से भी सोचता हूं। एक जनप्रतिनिधि को पर्याप्त आजादी मिलनी चाहिए। वह कोई स्कूल का छात्र नहीं है कि वह स्कूल नियमित तौर पर जाय ही। परंतु, उसके अंदर इतनी संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए कि यदि उसने प्रश्न किया है तो अपना प्रश्न पूछने के लिए सदन में मौजूद रहे। बाकी लंपटता तो खैर आज की सियासत की खास विशेषता है।
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