नवउदारवाद की खासियत कहिए या फिर इसका अवगुण कि इसने हर चीज को बिकाऊ बना दिया है। कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जो बिकाऊ नहीं है। यहां तक कि ज़मीर भी। लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है। इसका एक लंबा इतिहास है। हम चाहें तो अर्थशास्त्रीय इतिहास की कल्पना कर सकते हैं, जो हमें यह बतलाए कि आदमी आज जिस हालात में जी रहा है, उसके पीछे अर्थशास्त्रीय घटनाक्रम क्या रहे हैं। लेकिन चूंकि मैं तो तकनीकी विषय का छात्र रहा तो ना तो मुझे इतिहास की गहरी समझ है और ना ही अर्थशास्त्र की। हालांकि कुछेक किताबें मैंने अवश्य पढ़ी है, जिनसे मुझे सभ्यता और अर्थशास्त्र के बीच के संबंध को समझने में सहायता मिली है। मैं तो अर्थशास्त्र को भी समाजशास्त्रीय अध्ययन का ही हिस्सा मानता हूं।
आज अर्थशास्त्र और नवउदारवादी अवधारणाओं की बात दर्ज करने के पीछे खास कारण है। पटना में आज यह दूसरी सुबह है। मौसम वैसा ही जैसे बरसात के दिनों में होता है। कल रात बूंदाबांदी हुई। हालांकि तेज बारिश की उम्मीद थी। लेकिन इससे क्या होता है। बादल तो तभी बरसेंगे जब उनकी ख्वाहिश हाेगी। और बादल और मेरे बीच कोई संबंध भी तो नहीं।
अपने आलेख में चेतन भगत ने कोई नई बात नहीं कही है। उनके तर्क लगभग वैसे ही हैं जैसे कि भाजपा के नेताओं के तर्क अबतक सामने आए हैं। वे बता रहे हैं कि महज चार साल की उम्र के लिए अग्निवीर बनने पर नौजवान कैसे 24-25 वर्ष की उम्र में ही लखपति (करीब 11 लाख रुपए) बन जाएंगे। और इसी के आधार पर वे भारतीय नौजवानों को अग्निवीर बनने की सलाह दे रहे हैं।
खैर, अर्थशास्त्र और नवउदारवाद के बारे में बात करता हूं। आज सुबह जगा तो रीतू अखबार पढ़ती नजर आयीं। उनके हाथ में पटना से प्रकाशित दैनिक भास्कर था। मन खिन्न हो गया। मैंने पूछा तो जवाब मिला कि यह अखबार उसे अच्छा लगता है। वजह पूछा तो जवाब मिला कि इसमें खबरें बोझिल नहीं लगतीं। फिर मुझे कहा कि स्वयं देख लो। आदतन मैं संपादकीय पन्ना पहले पढ़ता हूं तो पहला ही आलेख पढ़कर मैंने उससे कहा कि इस अखबार की वैचारिकी की बुनियाद ही सत्ता की दलाली है। हालांकि यह दोष केवल दैनिक भास्कर की वैचारिकी में ही नहीं है। अन्य हिंदी अखबारों की हालत भी ऐसी ही है।
दरअसल, दैनिक भास्कर ने अपने संपादकीय पन्ने पर चेतन भगत के आलेख को पहला स्थान दिया है। इस आलेख का शीर्षक है– ‘बेरोजगार होने से बेहतर है अग्निवीर होना।’ अपने आलेख में चेतन भगत ने कोई नई बात नहीं कही है। उनके तर्क लगभग वैसे ही हैं जैसे कि भाजपा के नेताओं के तर्क अबतक सामने आए हैं। वे बता रहे हैं कि महज चार साल की उम्र के लिए अग्निवीर बनने पर नौजवान कैसे 24-25 वर्ष की उम्र में ही लखपति (करीब 11 लाख रुपए) बन जाएंगे। और इसी के आधार पर वे भारतीय नौजवानों को अग्निवीर बनने की सलाह दे रहे हैं।
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मैं तो इसे इस रूप में देख रहा हूं कि हर अग्निवीर की कीमत बस इतनी ही है। युद्ध के दौरान मारे जाने पर आश्रितों को करीब 44 लाख रुपए मिलेंगे और अपंग हो जाने पर करीब 15 लाख् रुपए। तो जैसा कि मैंने पहले कहा कि नवउदारवादी व्यवस्था ने हर चीज को बिकाऊ बना दिया है। यह बात केवल सरकार के स्तर पर नहीं है। सरकारें तो चाहती ही हैं कि उन्हें नियमित कर्मियों को कम से कम बहाल करना पड़े ताकि वेतन व पेंशनादि पर होनेवाले खर्च से मुक्ति मिल सके। और यह मुक्ति भी इसलिए कि सरकारों ने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है।
संविधान में आरक्षण के प्रावधान के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग शासन-प्रशासन में भागीदार होने लगे थे। आरक्षण नहीं होने के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग राजनीति के क्षेत्र में केवल संख्या बल के आधार पर निर्णायक भूमिका निभाने लगा था। इसका खौफ ऊंची जातियों के मन में था।
मसलन, प्राइमरी सेक्टर, जिसमें कृषि भी शामिल है, सबसे अधिक रोजगार देनेवाला क्षेत्र माना जाता रहा है, अब वह कंगाल हो चुका है। कृषि में रोजगार अब केवल उनके लिए ही संभव है, जिनके पास बड़ी जोत है। मंझोले और छोटे किसानों के लिए यह किसी भी दृष्टि से फायदे का क्षेत्र नहीं रहा है। खेतिहर मजदूरों ने तो पहले ही कृषि को छोड़ दिया है।
लेकिन कृषि क्षेत्र में आयी यह कंगाली भी स्वभाविक तौर पर नहीं आई है। यह कहना अधिक बेहतर है कि इस तरह के हालात पैदा किये गये हैं। और क्यों पैदा किये गये हैं, तो इसका जवाब है वर्चस्ववाद को बनाए रखना।
दरअसल भारत में हरित क्रांति के बाद कृषि के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव हुए थे तब इसका असर समाज में भी पड़ा था। खेतिहर मजदूरों, छोटे व मंझोले श्रेणी के किसानों को भी इसका लाभ मिला था। यह वह दौर था जब भारत का शासक वर्ग, जिसके पास बड़ी जोतें थीं, भारत के शसन और प्रशासन में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अत्याधिक प्रयासरत था। इसकी भी वजह थी। वजह यह कि संविधान में आरक्षण के प्रावधान के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग शासन-प्रशासन में भागीदार होने लगे थे। आरक्षण नहीं होने के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग राजनीति के क्षेत्र में केवल संख्या बल के आधार पर निर्णायक भूमिका निभाने लगा था। इसका खौफ ऊंची जातियों के मन में था।
तो इसका परिणाम यह हुआ कि बड़े पैमाने पर ऊंची जातियों के लोगों ने जमीनें बेचनी शुरू की और बदले में मिले पैसे से वह योग्यता खरीदने लगे। जो योग्यता नहीं खरीद सके, उन्होंने व्यापार में हाथ आजमाना शुरू कर दिया। लेकिन इसका एक असर यह भी हुआ कि जमीनें ओबीसी और दलितों के पास जाने लगीं। 1990 के दशक में मंडल कमीशन ने ऊंची जातियों के वर्चस्व पर करारा प्रहार करना शुरू कर दिया। यह बेहद खास परिणाम था। ऐसे में ऊंची जातियों के पास अपनी जमीनें बचाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। वे यह जानते हैं कि जबतक जमीनें उनके पास हैं, उनके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता। लिहाजा कृषि क्षेत्र की स्थिति बदहाल होती चली गई।
युद्ध अब पारंपरिक तरीके से नहीं लड़े जाते हैं। अत्याधुनिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि हमारे देश के सैनिक अच्छी तरह से प्रशिक्षित हों ताकि उन्हें खतरों से बचने के अलावा अत्याधुनिक हथियारों का उपयोग करना भी आ सके। अब छह महीने में साढ़े सत्रह साल के नौजवान को कैसे एक कुशल सैनिक बनाया जा सकता है? यह तो सीधे-सीधे उनकी जिंदगी के साथ खिलवाड़ है।
खैर, यह मेरा आकलन है। मैं तो यह दैनिक भास्कर के ही माध्यम से यह जान पा रहा हूं कि कल पटना में तीन साल की एक मासूम को केवल पांच सौ रुपए के लिए बेच दिया गया। बच्ची मुसलमान थी और और उसे बेचने और खरीदने वाली महिला हिंदू। वैसे यह हिंदू या मुसलमान का सवाल नहीं है। पटना पुलिस के अनुसार आरोपी महिला जो कि पटना के महावीर मंदिर के पास भीख मांगती है, को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है। हालांकि बेची गई बच्ची को बरामद नहीं किया जा सका है।
तो मैं यह सोच रहा हूं कि चेतन भगत जो कह रहे हैं और महावीर मंदिर के पास भीख मांगनेवाली महिला ने जो किया है (अगर वह सच है तो), दोनों में कोई फर्क नहीं। यहां तक कि भारत सरकार और इस महिला के बीच में कोई फर्क नहीं। मैं तो यही मानता हूं कि सरकार का मतलब वही है जो युवाओं को अपना बच्चा माने। उन्हें पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने का मौका प्रदान करे। ना कि उन्हें महज कुछ लाख रुपए का लोभ दिखाकर उनके प्राण दांव पर लगाए।
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मैं प्राण दांव पर लगाने की बात भी इसलिए कह रहा हूं कि युद्ध अब पारंपरिक तरीके से नहीं लड़े जाते हैं। अत्याधुनिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि हमारे देश के सैनिक अच्छी तरह से प्रशिक्षित हों ताकि उन्हें खतरों से बचने के अलावा अत्याधुनिक हथियारों का उपयोग करना भी आ सके। अब छह महीने में साढ़े सत्रह साल के नौजवान को कैसे एक कुशल सैनिक बनाया जा सकता है? यह तो सीधे-सीधे उनकी जिंदगी के साथ खिलवाड़ है।
बहरहाल, चेतन भगत एकमात्र उदाहरण नहीं हैं। लेकिन वे प्रतीक जरूर हैं इस देश के ऊंची जातियों की वर्चस्ववादी मानसिकता के, जो अपने लिए तो लग्जरी जिंदगी चाहते हैं और दलितों व पिछड़ा वर्ग समुदायों को ‘अग्निपथ’ पर चलने की सलाह दे रहे हैं।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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