सुनीता भारती की उम्र अभी 18 साल हुई है और वह समाजशास्त्र में एमए कर रही हैं। अपने आस-पास होनेवाली हर घटना के प्रति सुनीता का अपना स्वतंत्र नज़रिया है। अपनी बात कहने के लिए उनके अंदर जिस तरह का आत्मविश्वास दिखता है उससे लगता है एक दिन वह अच्छी और शानदार वक्ता बनेंगी।
अंजली यादव भी अभी सुनीता की तरह पढ़ाई पूरी कर रही हैं लेकिन उनकी सधी हुई भाषा, व्याकरणसम्मत उच्चारण और अच्छी याद्दाश्त उनकी अभिव्यक्ति-प्रतिभा का सबूत देती है। अंजली की स्पष्ट राजनीतिक समझ और सरोकार हैं। उन्होंने अपने हाथ में जो किताब ली हुई है उसके कवर पर हाथ से हंसुए-हथौड़े का चित्र बनाया गया है।
सुनीता और अंजली आजमगढ़ में चल रहे मंदुरी हवाई अड्डा के विस्तारीकरण के दायरे में आने वाले आठ गांवों में से एक जमुआ हरिराम की निवासी हैं। यह गाँव पिछले बाइस दिन से ग्रामीणों के प्रतिरोध का केंद्र बना हुआ है। हर रोज यहाँ जनजुटान और आम सभा होती है जिनमें हवाई अड्डे के विस्तार के कारण उजाड़े जानेवाले गाँवों के स्त्री-पुरुष जुटते हैं।
आज अक्टूबर महीने की पाँचवीं तारीख और दिन शनिवार है। दोपहर के दो बजने को हैं। जमुआ हरिराम के प्राइमरी स्कूल के सामने वाला मैदान धीरे-धीरे भर रहा है। जहां भी नज़र जा रही है वहाँ से गाँव के लोग आते दिख रहे हैं, बच्चे, बूढ़े नौजवान और महिलाएँ। महिलाओं ने अपने हाथ से बनाई हुई तख्तियाँ ले रखी है जिन्हें वे दूर से हाथ में झुलाती चली आ रही हैं लेकिन जैसे ही सभा स्थल के करीब पहुंचतीं उन्हें हाथों में ऊंचा उठाकर लहराने लगतीं।
कुछ तख्तियों पर जान देंगे ज़मीन नहीं देंगे लिखा है तो कुछ पर जान भी नहीं देंगे ज़मीन भी नहीं देंगे लिखा गया है। कुछेक पर पहले लड़े थे गोरों से अब लड़ेंगे चोरों से। किसी पर जय जवान जय किसान। गरज यह कि वैसे सभी नारों का उपयोग किया गया था जो जनता के मनोबल को ऊँचा उठाते हैं। मंच के सामने एक हरे रंग से रंगा छोटा सा कनस्तर रख दिया गया है जिसमें हर महिला अपनी सामर्थ्य के अनुसार रुपए-दो रुपए, पाँच या दस रुपए डाल रही है। साम्राज्यवादी लूट और अनियंत्रित पूंजी के समानान्तर यह स्वतःस्फूर्त जनसहयोग है जिसमें बेमिसाल समपर्ण और आज़ादी का जज़्बा है।
आयोजन के लिए इंतजाम में लगातार अपने कानों से फोन लगाए राजीव यादव हड़बड़ाए हुये हमारे पास आते हैं और सामने बस्ती में चलकर चाय पीने को कहते हैं। चूहे तो हमारे भी पेट में उधम मचाए हुये थे लेकिन सभा छोड़कर और कहीं जाना अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन जब राजीव भाई ने कहा कि अभी यहाँ आधे घंटे से पहले कार्यक्रम नहीं शुरू होगा तब हम लोग गाँव में गए।
ग्राम प्रधान सुमन यादव के पति मनोज हमारे साथ थे। बहुत से लोग उन्हीं को प्रधान कहते हैं लेकिन संवैधानिक रूप से वे प्रधान प्रतिनिधि हैं। जब हम उस घर पर पहुंचे तो वहाँ खड़े आम के पेड़ ने मन मोह लिया। मैं कुसुम और मुनीज़ा जी को लेकर घर के अंदर महिलाओं से मिलने चली गई।
आँगन में अमरूद के पेड़ फलों से लदे थे। फूलमती जी ने बड़ी उदारता कई तोड़े और हमलोगों के झोले में डाल दिया। बाहर आकर हमने चाय के साथ समोसे खाये और जल्दी-जल्दी वापस कार्यक्रम स्थल पर आ गए। अब तक मैदान खचाखच भर चुका था। अंजली ने संचालन का जिम्मा लिया और महिला पंचायत की शुरुआत हुई।
एक समवेत नारा उठा – महिला शक्ति आई है , नई रोशनी लाई है। जब भी नारे लगते हैं तो इस कोने से उस कोने तक गूँज उठते हैं। हर मुट्ठी हवा में उठ जाती है।
महिला पंचायत में शामिल महिलाओं को सुनने के लिए देखिये यह वीडियो
गाँव की वे महिलाएं जो सुबह से शाम तक खेतों और घर में खटती रहती हैं अब जबकि उनके घरों के उजड़ने का खतरा है तो वे इस मैदान में प्रतिरोध के नारे लगा रही हैं। घर के पुरुष मजदूरी करने गए हैं ताकि शाम को चूल्हा जल सके। ये इतने गरीब लोग हैं एक बार उजड़ने पर फिर से बसने में बरसों बीत जाएँगे। किसी तरह से पाई-पाई जोड़ कर इन्होंने अपने घर बनाए हैं। बहुत से घरों की दीवारों पर पलस्तर तक नहीं हो पाया है।
जमुआ हरिराम गाँव में मैंने कई लोगों से यह जानना चाहा कि इस इलाके का सर्किल रेट क्या निर्धारित किया गया है तो उन्होंने बताया कि दो लाख प्रति बिस्वा सर्किल रेट है। ये जो महिलाएं यहाँ बैठी हुई हैं उनमें से कई के पास बमुश्किल दो बिस्वा ज़मीन होगी। इस हिसाब से उन्हें मुआवजे के रूप में कुछ भी नहीं मिलेगा लेकिन उन्हें उजाड़ कर यहाँ से खदेड़ दिया जाएगा।
अनेक महिलाओं ने अपना यह डर साझा किया कि यहाँ से उजड़कर हम कहाँ जाएंगे? अभी यहाँ उनका अपना समाज है जो हर दुख-सुख में एक दूसरे के साथ खड़ा होता है। दूसरी जगह बसना और फिर से अपना समाज बनाना एक लंबी प्रक्रिया है। उन्हें डर है कि उनका बनाया-बनाया घर तोड़ दिया जाएगा तो वे सड़क पर आ जाएंगी।
ये महिलाएं सहज-सरल और मेहनत-मशक्कत करके जीवन चलाने वाली दलित और पिछड़ी जातियों से आती हैं। हमारे साथ चल रहे कादीपुर हरिकेश गाँव के प्रवेश निषाद कहते हैं कि ‘ये महिलाएं आठ गाँव के विस्थापन के विरुद्ध लड़ रही हैं। अपने साथ दूसरों के घर को भी उजाड़ने से बचाने के लिए घर से निकल पड़ी हैं। लेकिन जिनके पास अधिक ज़मीनें हैं और पैसा है उनके घरों से महिलाएँ अभी बाहर नहीं निकली हैं। इस लड़ाई को सफल बनाने के लिए सबको एक साथ निकलना होगा यह समय की माँग है।’
इस महिला पंचायत में शामिल महिलाओं में ज़्यादातर ऐसी हैं जिन्हें 12 अक्तूबर की रात में योगी सरकार के कर्मचारियों और पुलिस ने अपमानजनक और जातिसूचक गालियाँ दी। उन्हें मारा-पीटा। अब सभी महिलाओं के मन में गुस्सा है। उन्होंने बर्बर पुलिस के खिलाफ एफआईआर दर्ज़ नहीं कराया। गाँव की एक महिला श्यामा कहती है –का रिपोट कराएं। यही डंडा मार रहे हैं। गालियाँ दे रहे हैं। यह लोग हमारी रिपोट कैसे लिखेंगे?
यह बहुत बड़ा सवाल है। पिछले छः वर्षों में लोगों के अनुभव बदल गए हैं। उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर थानों पर सवर्ण नियुक्त हैं। वे ही वहाँ के भाग्य-विधाता बने हुये हैं। दलितों-पिछड़ों का वहाँ पहुँचना कुफ्र हो गया है। उनकी रिपोर्ट या तो दर्ज़ नहीं होती या फिर उनके अपराधियों पर कमजोर धाराएँ लगाई जाती हैं। अपराधी बेलगाम हैं। लोगों के मन जितना अपराधियों का डर है उससे अधिक पुलिस से डर है। यह और बात है कि संगठन और विचार की ताकत ने लोगों के मन में लोकतान्त्रिक अधिकारों का बोध पैदा किया है। इसका जवाब एक महिला के इस कथन में मिलता है जब उसने मंच पर आते हुये कहा कि ‘अपने हाथों से कमाकर खाती हूँ लेकिन जरूरत पड़ी तो इन्हीं हाथों से अत्याचारी सरकार को भी मरोड़ दूँगी।’ बेशक इस वाक्य में लोकतन्त्र का एक निहितार्थ है।
सबसे पहले सुनीता भारती ने अपनी बात रखी। उन्हें इतने लोगों के हुजूम में अपनी बात रखना था और अंदर घबराहट भी थी। आवाज में कंपन था और वाक्य टूट-फूट कर निकल रहे थे लेकिन वह दृढ़ता से खड़ी रहीं और अपनी बात कहती रहीं। बहुत जल्दी ही सुनीता के लिए तालियाँ बज उठीं। लोगों ने उसके एक-एक वाक्य सवाल थे जिनके जवाब आज हम सभी को ढूँढना है। सुनीता आज़ादी के पचहत्तर साल बाद, जब सत्ता का आनंद लूटनेवाले अमृत महोत्सव मना रहे हैं, यह सवाल पूछ रही हैं कि चमार होना कौन सा अपराध है?
गौरतलब है कि जब सुनीता ने अपने खेत में फीता लेकर नापजोख करते लेखपाल से पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं तो लेखपाल ने कहा कि तुम कौन जाति की हो। सुनीता ने कहा मैं चमार हूँ। इस पर लेखपाल ने उन्हें जातिसूचक गालियाँ दी और कहा कि अपनी औकात में रहो।
यहाँ उपस्थित महिलाएं शायद ही इससे पहले कभी किसी मंच पर चढ़ी हों लेकिन आज वे जिस तेवर और प्रवाह में अपनी बातें रख रही थीं वह किसी अभ्यास का नहीं जिंदगी के वास्तविक संघर्षों से बना है। उन्होंने स्वरचित गीतों के जरिये अपने आक्रोश को व्यक्त किया। उन्होंने दम भर लड़ने का संकल्प लिया। वे धरती को अपनी माँ कह रही थीं।
उन्हें सुनकर बनारस और लखनऊ से आए हम जैसे लोगों को न सिर्फ आश्चर्य हुआ बल्कि उत्साह भी भर गया कि इस देश को हर स्तर पर बांटने के खिलाफ चले आंदोलनों की एक कड़ी के रूप में ये स्त्रियाँ एक नई इबारत लिख रही हैं। इनका सवाल है कि इस देश में इलाज के लिए अस्पताल नहीं है। काम नहीं है। घर के नाम पर उन्हें ठगा गया। रेल पर चढ़ने की हमारी स्थिति नहीं है और मोदी हमको जहाज पर उड़ाने का सपना क्यों दिखा रहे हैं?
आजमगढ़ की धरती पूर्वांचल में समाजवाद की धरती मानी जाती है। यहाँ के लोग हमेशा राजनीतिक रूप से सचेत माने जाते रहे हैं। पुराने लोग अपनी नई पीढ़ियों को जुझारू बनते देख गर्व महसूस करते हैं। जैसा कि मंच संचालन करनेवाली युवा अंजलि के दादा जो कि इस जिले के जाने-माने राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, ने मुझसे कहा कि ‘यह मेरी पोती है और मेरी विरासत संभाल रही है। अब मुझे भरोसा हो गया है कि यह आजमगढ़ की राजनीतिक परंपरा को आगे बढ़ाएगी।’
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